ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 6): त्रैलोक्य मोहन रूप में आयेगें तो मृत्यु ही मांगोगे
(विशेष अवसर पर गोलोक वासी ऋषि सत्ता की अत्यंत दयामयी कृपा से प्राप्त आपबीती दुर्लभ अनुभव का अंश विवरण)-
मेरे अपने पार्थिव देह को छोड़ने अर्थात मृत्यु के बाद जब तक मैं अपनी गोलोक की परम तेजोमय शरीर को ग्रहण करने की प्रक्रियारत था (जिसमें मेरे लिए तो ना के बराबर समय लगा) लेकिन उतनी ही देर में, इस मृत्यु लोक अर्थात पृथ्वी पर पूरा एक दिन बीत चुका था !
इसी प्रक्रिया के दौरान जब मेरा परिवार दुःख से अति व्याकुल होकर मेरे पार्थिव देह को लेकर मेरे जन्म स्थान लौट रहा था, तब मैं सच्चिदानंद रूप में अर्थात सुख दुःख से परे, परम आनन्द की अवस्था में स्थित होकर अपने परम दिव्य व महा विशाल शरीर में अपने परिवार को अपने ही गोद में लेकर बैठा हुआ था !
मेरा परिवार जो कि दुःख की अधिकता से बार बार विक्षिप्त स्थिति को प्राप्त हो रहा था, उसे अंदाजा भी नहीं था कि वो इस समय किसी वाहन में नहीं, बल्कि मेरे ही अविनाशी गोद में बैठा हुआ है, और आगे भी जब तक वह पृथ्वी लोक में रहेगा, तब तक सदा मेरे ही ममतामयी शरण में ही रहेगा !
इस समय मुझे अपना वास्तविक ईश्वर का प्रतिरूप शरीर पुनः प्राप्त हो जाने के कारण मेरी शरण में आयी जीवात्मा, अटल प्रारब्धवश जीवन में कभी भी परेशान या बहुत ही ज्यादा परेशान हो सकती है लेकिन कभी भी अधोयोनि को प्राप्त नहीं कर सकती है !
मार्ग में ही मुझसे मिलने, अचानक श्री दक्ष प्रजापति (यह दक्ष प्रजापति वही हैं जिनकी पुत्री माता सती थी जिनके अंश से 51 महादुर्गा के शक्तिपीठों का निर्माण हुआ था) आये और उन्होंने मुझसे बड़े प्रेम व आदर से बस एक ही प्रश्न पूछा कि, कृपया बताईये कि, क्या आपने अपनी ही इच्छा से श्री कृष्ण से मृत्यु मांगी थी ? या श्री कृष्ण ने ही उस समय आपकी ऐसी बुद्धि हर ली थी कि आप उनसे यह मांग बैठे थे ?
श्री दक्ष प्रजापति जैसे महा ज्ञानी के मुंह से ऐसा प्रश्न सुनकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मुझे उस समय तक श्री कृष्ण के महा सामर्थ्य का ज्ञान हो रहा था जो स्वयं ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्मा जी के लिए भी लीलावश भ्रम पैदा कर सकते हैं, जिसकी वजह से द्वापरयुग में स्वयं ब्रह्मा जी को भी संदेह हो गया था कि यह वृन्दावन का छोटा मानवीय बच्चा जो अन्य अनपढ़ दूध बेचने वाले मानवीय बच्चों के हाथों से प्रेमपूर्वक उनका जूठा भोजन छीन कर खा रहा है वो क्या वाकई में वही परमब्रह्म श्री कृष्ण है जो पलक झपकते ही अपने बनाये हुए अनन्त ब्रह्मांडों में प्रलय कर देते हैं और पलक खोलते ही उन अनन्त ब्रह्मांडों को फिर से ऐसा जीवित कर देते हैं कि मानो कुछ भी हुआ ही ना हो !
वास्तव में होता यह है कि, दक्ष प्रजापति, ब्रह्मा जी जैसे परम ज्ञानी भी नित्य प्रति क्षण कृष्ण के एक से बढ़कर एक, एकदम नए नए अनोखे, महा विचित्र, महा विराट और महा ऐश्वर्यमय रूप व लीला का दर्शन करते रहते हैं, और वही कृष्ण जब अचानक से किसी साधारण मानव के ऊपर (जैसे कि मेरे उपर) इस कदर निहाल हो जाते हैं, तो ऐसे में इस रहस्य को समझने के लिए श्री दक्ष, श्री ब्रह्मा और यहाँ तक कि अन्य ब्रह्मांडों के ब्रह्मा भी आतुर हो जातें है !
यही परम सत्य है कि जो जितना ज्यादा ज्ञानी होता जाता है उसकी परम पुरुष श्री कृष्ण को समझने की प्यास उतनी ही ज्यादा बढती जाती है इसलिए श्री दक्ष, सप्तर्षि, और ब्रह्मा जी तक भी श्री कृष्ण की हर छोटी सी छोटी से लेकर विराट से महाविराट तक हर लीला को समझने के लिए किंकर भाव (अर्थात अपने को महा तुच्छ समझते हुए) से एक छोटे अबोध शिशु के समान सदा अति उत्सुक रहते हैं !
मैंने श्री दक्ष प्रजापति के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि, हे प्रजापति आप तो महान ज्ञाता हैं लेकिन तब भी आप पूछ रहें हैं तो मैं आपके इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना चाहूँगा कि जब कोई भक्त साधारण सांसारिक वस्तुओं (धन, सम्पत्ति, सम्मान आदि) की प्रप्ति के लिए ईश्वर की उपासना (चाहे कर्मयोग से या भक्तियोग से या राजयोग से या हठयोग से) करता है तो ईश्वर उससे प्रसन्न होने पर उसके सामने उसी रूप में प्रकट होते हैं जिस रूप में वह भक्त उनसे अपनी अभीष्ट सांसारिक वस्तु का वरदान मांग सके !
लेकिन जब कोई भक्त बिना किसी विशेष सांसारिक इच्छा के अर्थात निष्काम भाव से सिर्फ अपने कर्तव्यों व जिम्मेदारियों को ही अपनी असली पूजा मानकर, कठिन तपस्वी वाली ईमानदारी पूर्ण दिनचर्या जीते हुए ईश्वर को संतुष्ट करने के लिए बेहद लम्बे समय तक प्रयास करता है तो ईश्वर अंततः उसके सामने “त्रैलोक्य मोहन” रूप में आते हैं, जिसे देखते ही कोई भी बड़े से बड़ा गंभीर, निर्मोही या निरासक्त भक्त भी महा आतुर हो जाता है, कृष्ण के उसी त्रैलोक्य मोहन रूप में तुरंत समा जाने के लिए !
और तुरंत समा जाने का महा सुख प्राप्त करने का एक ही तरीका है कि तुंरत उनका शाश्वत सानिध्य का वरदान मांग लिया जाए, जो कि मैंने भी किया जब मंदिर में दर्शन करते समय अचानक श्री कृष्ण, मूर्ति से बाहर निकल कर साक्षात् मेरे सामने त्रैलोक्य मोहन रूप में खड़े होकर मुस्कुराने लगे !
श्री कृष्ण के प्रत्यक्ष रूप को देखकर तो मुझे लगा कि मानो मेरे ऊपर ख़ुशी का महा सागर गिर रहा हो जिसकी वजह से मेरे शरीर का रोम रोम प्रसन्नता की चरम सीमा तक काँप रहा था ! तो ऐसे में आप ही बताईये श्री दक्ष कि कैसे और क्यों मैं अपने आप को उनमें विलीन होने से रोक सकूं !
यह तो मुझ इन गोलोक वासी गणों (जो मुझे अभी गोलोक ले जाने के लिए आये हुए हैं) से पता चला है कि महा दयालु श्री कृष्ण ने मेरे और मेरे परिवार के शाश्वत मिलन के सम्बन्ध में भी कुछ विशेष प्रबंध कर रखा है !
श्री कृष्ण मुझ पर इस स्तर तक कृपालु होंगे इसका अंदाजा तो मुझे तब भी नहीं हुआ, जब मेरी पार्थिव देह की मृत्यु से एक वर्ष पूर्व और श्री कृष्ण के दर्शन के एक दिन बाद, एक अन्य मंदिर में एक लम्बे चौड़े ब्रह्मचारी बाबा जी (जो भगवान् की मूर्ति की तरफ देखने की बजाय, पीछे पलटकर सिर्फ मेरे और मेरे परिवार को ही देखकर लगातार मुस्कुरा रहे थे) को देखकर मेरे मन में आकाशवाणी सी गूँज रही थी कि, अरे तुम तो आज मुझे पहचान ही नहीं रहे थे, यह तो मै ही था ब्रह्मा, जो कि एक मानव रूप में तुम्हारे सामने अभी खड़ा था !
उस दिन की घटना का सार तो मुझे अब समझ में आ रहा है कि इस महा विशाल ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्मा जी, उन अनंत ब्रह्मांडो के निर्माता श्री कृष्ण को समझने के लिए श्री कृष्ण के दरबार में एक साधारण भक्त की ही तरह प्रतीक्षारत रहतें हैं, और निश्चित रूप से हर उस मानव को परम आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से देखतें हैं जिस पर श्री कृष्ण की महा कृपाकटाक्ष हो चुका होता है !
शायद इसी लिए श्री कृष्ण के भक्तगण, स्वयं ब्रह्मा जी तक की स्वीकारोक्ति कहतें हैं कि मुझे भी अगला जन्म मिले तो वो वृन्दावन के किसी शाखा पत्ते आदि के रूप में मिले ताकि जब कभी श्री कृष्ण के भक्त उधर से गुजरें तो उनके चरणों की धूल मेरे शरीर पर गिरे और मेरा जीवन परम सार्थक हो जाए !
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