ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 5): अदम्य प्रेम व प्रचंड कर्मयोग के आगे मृत्यु भी बेबस है
{नीचे सर्वप्रथम श्री परमहंस योगानंद की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक “एक योगी की आत्मकथा” (जो फिलोसौफिकल लायब्रेरी न्यूयार्क के 1946 मूल संस्करण का पुनर्मुद्रण है) के पेज नम्बर 431 और 513 का अंश उद्धृत है और उसके बाद “स्वयं बनें गोपाल” समूह से जुड़े हुए एक स्वयं सेवी के निजी अनुभव पर आधारित लेख वर्णित है !
वैसे तो 26 जनवरी का भारतवर्ष के वर्तमान इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है लेकिन यह दिन परम आदरणीय ऋषि सत्ता के लिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी दिन (अर्थात 26 जनवरी 1975 को प्रातः दस बजे) उन्होंने अपने पृथ्वी के कार्यकाल के दौरान, अपनी युवावस्था में एक ऐसे संस्थान की स्थापना की थी जिससे उन्होंने अगले लगभग 40 वर्षों तक ईमानदारीपूर्वक आजीविका कमाने के साथ साथ, लाखों दुखी, परेशान व पीड़ित लोगों को पूर्ण मनोयोग व अथक परिश्रम से सेवा दान भी दिया था !
अतः इसी विशेष अवसर पर “स्वयं बनें गोपाल” समूह को ऋषि सत्ता से सम्बंधित ज्यादा स्पष्ट लेख प्रकाशित करने की अनुमति प्राप्त हुई है, जिसके लिए हम उनके अति आभारी हैं}
श्री परमहंस योगानंद की पुस्तक के पेज नम्बर 431 पर उद्धृत अंश-
“ मैंने शीघ्र बनारस के लिए ट्रेन पकड़ी | अपने गुरु के घर पर मैंने अनेक शिष्यों को एकत्रित देखा | उस दिन घंटों तक गुरु जी ने गीता की व्याख्या की; उसके बाद उन्होंने हमें संबोधित कर कहा, मैं घर जा रहा हूँ |
अदम्य प्रवाह की तरह दुःखपूर्ण सिसकियाँ फूट पड़ी |
धैर्य रखो, मैं फिर आऊंगा | यह कहकर लाहिड़ी महाशय ने तीन बार अपने शरीर को चक्र में घुमाया और पद्मासन में उत्तर की ओर मुख किया और महिमापूर्वक अंतिम महा समाधि में चले गए !
लाहिड़ी महाशय के सुंदर शरीर का जो भक्तों को इतना प्रिय था, पवित्र गंगा के तट पर गृहस्थ की विधि से मणिकर्णिका घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया |
केशवानंद ने आगे कहा, अगले दिन मैं अभी बनारस में ही था, जब प्रातः काल दस बजे मेरा कमरा महान प्रकाश से भर गया | लो, मेरे सम्मुख लाहिड़ी महाशय का हाड़ मांस का शरीर खड़ा था | वह बिल्कुल पुराने शरीर जैसा लग रहा था, पर अधिक युवा और दीप्तिमान प्रतीत हो रहा था | मेरे दिव्य गुरु ने मुझसे बात की |
उन्होंने कहा, केशवानंद यह मैं हूँ | अपने संस्कार किये शरीर के विघटित अणुओं से मैंने नया रूप पुनर्जीवित किया है | संसार में गृहस्थ का मेरा कार्य पूर्ण हो चुका है; पर मैं पृथ्वी का पूर्ण त्याग नहीं करूंगा | अब से मैं कुछ समय बाबा जी के साथ हिमालय में बिताऊंगा और फिर बाबा जी के साथ सृष्टि में |
मुझे आशीर्वाद के शब्द कहकर, इन्द्रियातीत गुरु अन्तर्धान हो गए | विस्मय भरी प्रेरणा से मेरा मन भर गया |
एक अन्य शिष्य जिसे अपने पुनर्जीवित गुरु के दर्शन का सौभाग्य मिला, वे संतपुरुष पंचानन भट्टाचार्य थे, जो कलकत्ता आर्य मिशन इंस्टिटयूशन के संस्थापक थे !
पंचानन ने भी बताया कि “यहाँ कलकत्ता में, उनके अंतिम संस्कार के अगले दिन दस बजे लाहिड़ी महाशय मेरे सामने जीवंत महिमा के साथ प्रकट हुए थे |”
पेज नम्बर 513 का अंश (जिसमे श्री योगानन्द, काफी समय पूर्व देह त्याग चुके अपने गुरु श्री युक्तेश्वर जी से पुनः प्रत्यक्ष मुलाक़ात का सौभाग्य प्राप्त करतें हैं)-
“ अपराह्न में तीन बजे बम्बई (आधुनिक नाम मुंबई) होटल के अपने बिस्तर पर बैठे हुए एक आनंदमय प्रकाश से मेरा ध्यान टूटा | मेरे खुले और विस्मित नेत्रों के सामने सारा कमरा एक अनोखे संसार में परिणित हो गया, सूर्य का प्रकाश एक दिव्य तेज में बदल गया |
जब मैंने युक्तेश्वर जी के हाड़ मांस के शरीर को देखा तो मै हर्षावेश की लहरों से आप्लावित हो गया |
मेरे बेटे ! गुरु जी ने कोमलता से कहा, उनके चेहरे पर देवदूतों सी मन्त्रमुग्ध करने वाली मुस्कान थी |
अपने जीवन में पहली बार मैं उनके चरणों में प्रणाम करने के लिए नही झुका, बल्कि आतुरता से उन्हें अपनी बाहों में भरने के लिए आगे बढ़ा |
क्षणों के क्षण ! परम आनन्द की इस प्रचंड वर्षा के सम्मुख पिछले माहों की पीड़ा मुझे नगण्य प्रतीत हो रही थी |
मेरे गुरु, मेरे हृदय के प्रिय, आप मुझे छोड़कर क्यों चले गये ? अत्यधिक हर्ष से मै असंगत बोल रहा था | आपने मुझे कुम्भ के मेले में क्यों जाने दिया ? आप को छोड़कर जाने के लिए मैंने स्वयं को कितना दोष दिया था !
जहाँ मै बाबा जी से मिला था उस तीर्थ स्थल के दर्शन की तुम्हारी आशा में मैं बाधा नही बनना चाहता था, मै तुम्हे थोड़े समय के लिए ही छोड़ कर गया था; क्या मै पुनः तुम्हारे साथ नही हूँ ?
क्या ये आप ही हैं गुरु जी ? ईश्वर के वही सिंह ? पुरी की निर्दयी रेत के नीचे मैंने जिन्हें समाधि दी थी, क्या आप वैसा ही शरीर धारण किये हुए हैं ?
हाँ, मेरे बच्चे मैं वही हूँ ! यह हाड़ मांस का शरीर है | यद्दपि मै इसे आकाश तत्व के रूप में देखता हूँ, तुम्हारी दृष्टि के लिए यह भौतिक है | ब्रह्मांडीय अणुओं से मैंने पूर्णतः एक नए शरीर की रचना की है, जो पूर्ण रूप से ब्रह्मांडीय स्वप्न के उस भौतिक शरीर के समान है जिसे तुमने अपने स्वप्न जगत में पुरी के स्वप्न रेत के नीचे समाधि दी थी |
वस्तुतः मेरा पुनरुत्थान हुआ है, पृथ्वी पर नहीं बल्कि सूक्ष्म लोक में | मेरे उच्च आदर्शों को पूरा करने के लिए पृथ्वी के मानवों की अपेक्षाकृत इसके निवासी अधिक योग्य हैं |
तुम और तुम्हारे उन्नत प्रिय जन एक दिन वहीँ मेरे पास आयेंगे !
अमर गुरु, मुझे और बताएं !
गुरु जी तुरंत विनोद पूर्वक हसें ! मेरे प्रिय, क्या तुम अपनी पकड़ थोड़ी ढ़ीली नहीं करोगे, उन्होंने कहा |
थोड़ी सी, मैंने उन्हें कसकर अपने आलिंगन में जकड़ा हुआ था ! मै हल्की सी स्वाभाविक गंध को अनुभव कर रहा था जो उनके पहले वाले शरीर की विशेषता थी ! अब भी जब कभी मै उस सुहावने समय को स्मरण करता हूँ, मेरी बाहों और हथेलियों में उनके दिव्य शरीर के रोमांचकारी स्पर्श का अनुभव होता है !
मनुष्य के कर्मों को काटने में सहायता के लिए जिस प्रकार दिगम्बरों को धरती पर भेजा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर ने मुझे सूक्ष्म लोक में रक्षक का कार्य करने का निर्देश दिया है, श्री युक्तेश्वर जी ने स्पष्ट किया ! इसे हिरण्यलोक या प्रकाशमय सूक्ष्म लोक कहतें हैं ! वहां मैं उन्नत आत्माओं को अपने सूक्ष्म कर्मों से मुक्त होने तथा सूक्ष्म पुनर्जन्मो से मुक्ति पाने में सहायता कर रहा हूँ ! ”
“स्वयं बनें गोपाल” समूह से जुड़े हुए स्वयं सेवी का निजी अनुभव-
कल जब मैं श्री योगानंद की उपर्युक्त पुस्तक का उपर्युक्त मर्मस्पर्शी अंश पढ़ रहा था तो सहसा मेरा मन भी विछोह की वेदना से अत्यंत विचलित हो उठा !
हृदय को अंदर तक भेद कर रख देने वाली इस वेदना का स्थायी हल जानने के लिए मैंने तत्काल ऋषि सत्ता का ध्यान लगाना शुरू किया !
वेदना प्रबल थी, पर ना जाने कब मैं ध्यान की गहराईयों में उतरकर तन्द्रावस्था में चला गया, मुझे खुद भी पता नहीं चला !
तन्द्रावस्था होने के बावजूद भी मैं होश में तब आया जब परम आदरणीय ऋषि सत्ता की अत्यंत स्नेह युक्त वाणी सुनाई दी,- क्यों दुखी होते हो, मैं तो कल भी तुम लोगों के साथ था, आज भी हूँ और कल भी रहूँगा तो फिर दुःख किस बात का !
परम आदरणीय ऋषि सत्ता की वाणी में, ना जाने क्या जादू है कि मात्र उसे सुनते ही मन तुरंत शांत व प्रसन्न होने लगता है !
मैंने ऋषि सत्ता से अपनी आंतरिक पीड़ा व्यक्त कि बहुत दिन हो गए आपको प्रत्यक्ष देखे हुए और आपका प्रत्यक्ष ममतामयी स्पर्श पाए हुए ! आपको प्रत्यक्ष देख पाना या आपको प्रत्यक्ष स्पर्श कर पाना हम जैसे तुच्छ मानवों के लिए कितना भी असम्भव कार्य हो, लेकिन आप जैसे ईश्वर के प्रति रूप ऋषि सत्ताओं की कृपा से कुछ भी संभव हो सकता है ! आखिर उपर्युक्त पुस्तक अनुसार श्री लाहिड़ी महाशय व स्वामी श्री युक्तेश्वर जी भी तो अपने चाहने वालों के पास मृत्यु के बाद भी साक्षात् हाड़ मांस के शरीर में पुनः प्रकट हुए थे तो आप क्यों नहीं हम लोगों के सम्मुख आ सकते ? क्या हम लोगों के मन में आपके प्रति प्रेम में कोई कमी है या आपके सामर्थ्य में कोई कमी है ?
मेरे इस आतुरता भरे प्रश्न का परम आदरणीय ऋषि सत्ता ने बड़े विस्तार से व बड़े प्रेम से उत्तर दिया ! और वह उत्त्तर बहुमूल्य ज्ञान से ओत प्रोत था इसलिए उस उत्तर को मुझ क्षुद्र प्राणी ने अपनी साधारण भाषा में लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है जिससे उस उत्तर में समाहित प्रेरणास्पद सत्य ज्ञान आज की भटकी हुई पीढ़ी के भी मार्गदर्शन के काम आ सके !
दिव्य ऋषि सत्ता ने, मुझ तुच्छ को वात्सल्य भरे हुए भाव से समझाते हुए कहा कि, ना तो तुम लोगों के प्रेम में कोई कमी है और ना ही मेरे सामर्थ्य में !
परम आदरणीय ऋषि सत्ता ने आगे कहा,- तुम लोगों के प्रेम में कमी इसलिए नहीं है क्योंकि इस घोर कलियुग में, यह तुम लोगों का मेरे प्रति अदम्य निश्छल प्रेम ही है जो मृत्यु भी तुम लोगों को मुझसे दुबारा मिलने से नहीं रोक पायी और यह भी तुम लोगों का मेरे प्रति कभी ना कम होने वाला प्रेम ही है जो तुम लोगों को अब मुझसे दुबारा कभी भी अलग नहीं होने देगा मतलब अब तुम लोग अनंत काल के लिए, मेरे साथ साथ ही रहोगे !
और जहाँ तक बात मेरे सामर्थ्य की है तो मेरे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है लेकिन जब तक स्वयं ईश्वरीय प्रेरणा ना हो, मैं ईश्वरीय विधान में हस्तक्षेप नहीं करता !
ऋषि सत्ता के मुख से यह बात सुनकर मैंने तुरंत अधीर होकर कहा कि, तब आप क्यों नहीं प्रत्यक्ष प्रकट हो रहें हैं हम लोगों के सामने ? आप हम लोगों की इस अंतर्वेदना की गम्भीरता को क्यों नहीं समझ रहें हैं कि आज हम लोग आपके विछोह के दुःख के महासागर से बाहर निकलकर एक सामान्य जिंदगी जी पा रहें हैं तो सिर्फ और सिर्फ आपके उसी एक आश्वासन के भरोसे, जो आपने हमें दिया था कि बहुत जल्द ही आप उसी मानवीय रूप में हम लोगों के सामने प्रत्यक्ष प्रकट होंगे जिस रूप में आप पृथ्वी पर हम लोगों के साथ रहा करते थे !
चूंकि यह सच्चाई हम लोग जानतें हैं कि आप वापस अपने शाश्वत निवास अर्थात गोलोक पहुँच कर साक्षात् श्री कृष्ण स्वरुप शरीर प्राप्त कर चुके हैं और हम तुच्छ मृत्यु लोक के प्राणी अभी भी आपके इस वास्तविक शरीर के परम दिव्य तेज को सहन करने की क्षमता व सौभाग्य नहीं रखते, इसलिए तो हम लोगों ने बारम्बार करबद्ध निवेदन किया था कि कम से कम हम लोग आपके पृथ्वी के इस जन्म के मानवीय रूप में ही आपको पुनः देखकर व पुनः आपके शरीर के स्नेहपूर्ण स्पर्श का अहसास पाकर, कृतार्थ होने का सौभाग्य पा लें तो बड़ी कृपा होगी !
मेरी इस बात पर ऋषि सत्ता की प्रेममयी वाणी सुनाई दी कि, निश्चिन्त रहो, मै जल्द ही तुम लोगों के सम्मुख आऊंगा और वो भी अपने पृथ्वी के उसी मानवीय रूप में जिस रूप में तुम लोग मुझे अत्यंत प्रेम आदर सम्मान देते थे ! लेकिन बात सिर्फ ईश्वरीय विधान की नहीं है, बल्कि पात्रता की परिपक्वता की भी है !
मृत्यु लोक की साधारण बुद्धि से यह गूढ़ रहस्य समझ पाना मुश्किल है कि मेरी चेतना जो अब पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो चुकी है, इसका वास्तविक मतलब क्या होता है ! इसका अर्थ आसान भाषा में इस तरह से समझ सकते हो कि, “जो ईश्वरीय इच्छा है वही मेरी प्रेरणा है और जो मेरी इच्छा है वही ईश्वरीय प्रेरणा है” ! इस वजह से मुझसे ईश्वरीय विधान का कभी भी खंडन नहीं होता !
मै तुम लोगों के सामने प्रत्यक्ष प्रकट कब होऊंगा, यह मै तुम लोगों को अभी बता सकता हूँ, लेकिन नहीं बताउंगा, किन्तु तुम लोगों को यह जानकर संतुष्ट रहना चाहिए कि इसी जन्म में, बल्कि यूं कहें कि अगले कुछ सेकेंड्स से लेकर अगले कुछ वर्षों के बीच में, कभी भी अचानक से मै तुम लोगों के सामने प्रत्यक्ष प्रकट हो सकता हूँ और एक बार प्रकट होने के बाद, मै तब तक तुम लोगों की आँखों के सामने ही रह सकता हूँ जब तक कि तुम लोगों का इतने वर्षों से मुझसे विछोह का दर्द कम ना हो जाए ! मै ऐसा इसलिए कर सकता हूँ क्योंकि मेरे ऊपर कोई ऐसा नियम क़ानून लागू नही होता है कि मै प्रकृति के शाश्वत नियम को तोड़कर अगर गोलोक से पृथ्वी पर आ रहा हूँ तो मुझे जल्द से जल्द वापस जाना होगा या मुझे कोई स्पर्श नहीं कर सकता आदि आदि !
अतः सारांश रूप में यह जानो कि मुझसे साक्षात प्रत्यक्ष रूप में मिलने में होने वाली देरी से तुम लोगों को घबराने की नहीं, बल्कि अपने कर्म योग को और ज्यादा बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि प्रारब्ध अनुसार हर ब्रह्मांडीय घटना के होने का समय पूर्व में निर्धारित होता है पर हर घटना उचित समय आने पर सफलता पूर्वक तभी घटित हो पाती है जब उसे कर्मबल का भी समर्थन मिल सके ! इसलिए तुम लोगों को सदा अपने कर्म योग के अभ्यास को बढ़ाते रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी पात्रता निरंतर बढ़ती रहे ताकि उचित मुहूर्त आने पर, मुझे तुम लोगों के सामने प्रत्यक्ष प्रकट होने में, तुम लोगों की पात्रता में कमी ही, बाधा ना बन सके !
परम आदरणीय ऋषि सत्ता ने यह भी चेताया कि, यह तो मैं जानता हूँ कि मेरे एक बार तुम लोगों की आँखों से ओझल हो जाने के बाद, तुम लोग फिर से मेरा प्रत्यक्ष सानिध्य प्राप्त करने के लिए तड़पने लगोगे इसलिए मै चाहता हूँ कि मैं पहली बार प्रत्यक्ष तभी तुम लोगों के सामने आऊँ जब तुम लोग पुनः बार बार मेरा प्रत्यक्ष सानिध्य प्राप्त कर सकने योग्य बन चुके हो ! पुनः बार बार मेरा प्रत्यक्ष सानिध्य प्राप्त करने के योग्य बनने के लिए भी, तुम्हे अपनी पात्रता निश्चित रूप से बढ़ानी ही होगी !
तुम लोगों को शायद अंदाजा भी नहीं होगा कि मैं तुम लोगों को जो विभिन्न कार्य (जिसमें पारिवारिक, सामाजिक व यौगिक कर्म होतें हैं) करने के लिए आदेश देता रहता हूँ उसे ईमानदारी पूर्वक निभाने से अंदर ही अंदर तुम्हारी आध्यात्मिक पात्रता बढती जा रही है और यही पात्रता, भविष्य में तुम लोगों की मुझसे, सिर्फ ध्यानावस्था में होने वाली बातचीत व तन्द्रा अवस्था में होने वाली मुलाक़ात, के स्तर से भी काफी ऊपर उठाकर मेरे प्रत्यक्ष दर्शन व प्रत्यक्ष स्पर्श का महा सुख भी प्रदान करेगी !
इसलिए मेरे द्वारा निर्देशित कर्मों को पूर्ण करने में कभी भी लापरवाही मत बरतना ! यह कलियुग का ही अदृश्य असर है कि इस संसार में असंख्य गलत जानकारियों ने मानवों को पूरी तरह से भ्रमित कर रखा है, जिसका एक बड़ा उदाहरण है,- बहुत से लोगों का यह समझना कि ईश्वर का दर्शन सिर्फ और सिर्फ उन्ही मानवों को मिल सकता है जो रोज बहुत ज्यादा पूजा पाठ भजन कीर्तन सत्संग आदि करते हों या हिमालय के किसी गुफा में बैठकर एकांत में रोज बहुत ज्यादा योग साधना करते हों, जबकि यह गलत बात है, जिसका एक सबसे बड़ा उदाहरण खुद मै ही हूँ !
वास्तव में, मैंने अपनी ही स्व इच्छा से गोलोक का त्याग करके पृथ्वी व अन्य लोकों में कुछ जन्म लिए थे ताकि मैं “कर्म योग” की धूमिल होती हुई महिमा को पुनः अधिक से अधिक लोगों में प्रकाशित कर सकूं ! जन्म लेने के बाद, महामाया के सहयोग से मुझे अपना कुछ भी इतिहास याद तो नही रहता था लेकिन यह याद जरूर रहता था कि मुझे दिन रात खूब मेहनत करनी है वो भी ईमानदारी व सत्यता के पथ से बिल्कुल भी डिगे बिना !
मैंने इस जन्म में भी एक साधारण परिवार में जन्म लेकर, एक आम आदमी की ही तरह दुनिया के हर तरह के छोटे, बड़े व भयंकर कष्टों को भी झेलते हुए अपने सैकड़ों परिचित लोगों के अतिरिक्त, लाखों अपरिचित दुखी परेशान पीड़ित लोगों की तकलीफों को दूर करने के लिए पूर्ण मनोयोग से हर संभव उचित प्रयास किया !
साथ ही साथ मैंने ना जाने कितने ही साधू सन्यासियों के भोजन की व्यवस्था की, कितने गरीबों को नियम से खाने के लिए राशन मिठाईयां व पहनने के लिए कपड़े दिया, कितने ही गरीब लड़कियों की शादी के लिए धन दिया, कितने ही गरीबों के मुफ्त इलाज की व्यवस्था की !
मेरे इस जन्म में, मैं एक अनजान प्रेरणावश सदा से ईश्वर, आध्यात्म, योग, पूजा, भजन, सत्संग आदि में रूची तो बहुत रखता था पर मुझे आडम्बर व दिखावट भरे पाखंड से सख्त नफरत थी ! इस वजह से मुझे शुरू से अपने भगवान् पर भरोसा था कि वे मेरी इस मजबूरी को अच्छे से समझते होंगे कि ईमानदारी पूर्ण तरीके से अपने कर्मयोग को सफल बनाकर अधिक से अधिक लाचारों की सहायता के योग्य बनना मेरी प्रथम वरीयता थी पर इसकी वजह से आध्यात्मिक कर्म जैसे पूजा पाठ सत्संग भजन कीर्तन आदि के लिए मुझे रोज बहुत ही कम समय मिल पाता था !
मेरे द्वारा जिन भी लोगों का हित होता था, वे सभी लोग मुझसे थोड़ा या बहुत प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते थे, इसलिए वे अपने जीवन में भी मेरे ईमानदार व मेहनत से भरे कर्म योग के आदर्शो को उतारने की कोशिश करते थे और साथ ही साथ दूसरे लोगों को भी मेरा उदाहरण देकर प्रेरित करते थे ! लोगों द्वारा अक्सर प्रशंसात्मक वचन सुनने के बाद भी, मेरे मन में ना जाने क्यों यह लगातार असंतोष बना रहता था कि मै इससे भी ज्यादा मेहनत कर सकता हूँ !
मेरे इन सभी जन्मो के कर्म योग की पूर्ण आहुति तब हुई जब मेरे इस जीवन के अंत के एक वर्ष पूर्व, स्वयं परमेश्वर श्री कृष्ण, मेरे सामने महा दिव्य नील मणि के समान आभा लिए हुए प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हुए और उन्होंने मुझे बोध कराया कि, वास्तव में मै कौन हूँ और किस उद्देश्य की पूर्ती के लिए मै पृथ्वी जैसे लोकों पर जन्म ले रहा हूँ !
ईश्वर ने ही मुझे स्मरण कराया कि गोलोक को छोड़ने के बाद मैंने जहाँ जहाँ भी जन्म लिया, उन सभी स्थानों पर “कर्म योग” की महिमा का प्रसार करने के लिए मैंने प्रचंड मेहनत की, जिससे इस भ्रान्ति का खंडन हो सके कि ईश्वरत्व के असीम सुख की प्राप्ति सिर्फ कर्म योग से संभव नही है !
इसलिए जिन सज्जन स्त्री/पुरुषों का प्रतिदिन अधिकाँश समय, सिर्फ कर्म योग को पूर्ण ईमानदारी से निभाने में ही बीत जा रहा हो और उन्हें अन्य योग जैसे भक्ति योग (पूजा, भजन, सत्संग आदि), हठ योग (योग आसन प्राणायाम ध्यान आदि) के लिए ज्यादा समय ना मिल पा रहा हो, तो उन्हें अपने मन में जरा भी हीन भावना लाने की जरूरत नहीं है कि वे मानव जीवन पाने के असली उद्देश्य अर्थात ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहें हैं, क्योंकि कर्म योग किसी भी तरह से अन्य योगों (जैसे राज योग, हठ योग व भक्ति योग) से कम फलदायी नहीं होता है और अकेले अपने दम पर ईश्वर को परम प्रसन्न करने का महा सामर्थ्य निश्चित ही रखता है !
वास्तव में यह पूरा दृश्य अदृश्य जगत योगमय ही है और सिर्फ एक तरह के ही योग से दुनिया नहीं चल सकती क्योंकि दुनिया की समुचित गति के लिए विभिन्न योगों के समुचित समुच्चय की आवश्यकता होती है ! कर्म योग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि एक सच्चा कर्मयोगी ही अपने उचित कार्यक्षेत्र (चाहे वह कोई नौकरी हो या व्यापार, कृषि हो सेवा) से शुद्ध धनार्जन व शुद्ध अन्न उत्पादन कर संसार की गति अबाध रखता है !
अतः मेरे ही उदाहरण को आदर्श मानकर तुम लोग भी कर्म योग पर ही विशेष ध्यान दो ! आने वाला समय महा परिवर्तन का है और उस परिवर्तन को सफल बनाने के लिए सभी को सद्कर्म करने की जरूरत है ! कोई योग छोटा या बड़ा नहीं होता है पर यह जरूर है कि कौन मानव किस योग के लिए बना है मतलब किस मानव को कर्मयोग से या राजयोग से या भक्तियोग से या हठयोग से सफलता मिलेगी यह उसे अपने विवेक से खुद तय करना चाहिए या योग्य गुरु से सहायता लेनी चाहिए !
योग चाहे कोई भी हो, पर उसका लम्बे समय तक बिना निराश हुए ईमानदारी पूर्वक पालन किया जाए तो अंततः ईश्वर साक्षात्कार होकर ही रहता है; और यही सदा याद रखने लायक परम सत्य है !
और एक बार ईश्वर दर्शन का महा सौभाग्य मिल जाता है तो फिर जो दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है कि सर्वत्र ईश्वर व प्रकृति के लीला स्वरुप का ही दर्शन होता है और इसी को बोलतें हैं “ऋषित्व” !
शास्त्रों में जो कहा गया है कि “ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः” उसका मूल तात्विक अर्थ यही है कि मन्त्र बनें हैं “अक्षर” से और “अक्षर” उसे ही बोलतें हैं जिसका “क्षरण” अर्थात नाश ना हो सके, इसलिए कहा जाता अक्षर से ही ब्रह्मांड बना है, अक्षर ही आदि अंत रहित है, अक्षर ही अविनाशी है, क्योंकि अक्षर ही शब्द ब्रह्म है, इसलिए जो ब्रह्म को प्रत्यक्ष देखता है, वही है,- “ऋषि” !
(ऋषि सत्ता से सम्बंधित अन्य आर्टिकल्स तथा अन्य महत्वपूर्ण हिंदी आर्टिकल्स एवं उन आर्टिकल्स के इंग्लिश अनुवाद को पढ़ने के लिए, कृपया नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें)-
ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 1): पृथ्वी से गोलोक, गोलोक से पुनः पृथ्वी की परम आश्चर्यजनक महायात्रा
ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 2): चाक्षुषमति की देवी प्रदत्त ज्ञान
ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 3): सज्जन व्यक्ति तो माफ़ कर देंगे किन्तु ईश्वर कदापि नहीं
ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 6): त्रैलोक्य मोहन रूप में आयेगें तो मृत्यु ही मांगोगे
ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 7): जिसे उद्दंड लड़का समझा, वो अनंत ब्रह्माण्ड अधीश्वर निकला
सर्वोच्च सौभाग्य की कीमत है बड़ी भयंकर
ईश्वरीय खोज की अंतहीन गाथा : निराशा भरी उबन से लेकर ख़ुशी के महा विस्फोट तक
क्या चंद्रयान -2 के लैंडर ‘विक्रम’ से सम्पर्क टूटने के पीछे एलियंस का हाथ है
“स्वयं बनें गोपाल” समूह खुलासा कर रहा है भारत में हो सकने वाले एलिएंस के वर्तमान संभावित शहर की
यू एफ ओ, एलियंस के पैरों के निशान और क्रॉस निशान मिले हमारे खोजी दल को
वैज्ञानिकों के लिए अबूझ बनें हैं हमारे द्वारा प्रकाशित तथ्य
क्या एलियन से बातचीत कर पाना संभव है ?
क्या वैज्ञानिक पूरा सच बोल रहें हैं बरमूडा ट्राएंगल के बारे में
एलियन्स कैसे घूमते और अचानक गायब हो जाते हैं
जानिये कौन हैं एलियन और क्या हैं उनकी विशेषताएं
यहाँ कल्पना जैसा कुछ भी नहीं, सब सत्य है
जानिये, मानवों के भेष में जन्म लेने वाले एलियंस को कैसे पहचाना जा सकता है
क्यों गिरने से पहले कुछ उल्कापिण्डो को सैटेलाईट नहीं देख पाते
आखिर एलियंस से सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर कौन सा विशेष फायदा मिल जाएगा ?
सावधान, पृथ्वी के खम्भों का कांपना बढ़ता जा रहा है !
जिसे हम उल्कापिंड समझ रहें हैं, वह कुछ और भी तो हो सकता है
Our research group finds U.F.O. and Aliens’ footprints
The facts published by us are still the riddles for the scientists
Is it possible to interact with aliens?
Are Scientists telling the complete truth about Bermuda Triangle ?
What we consider as meteorites, can actually be something else as well
How aliens move and how they disappear all of sudden
Who are real aliens and what their specialties are
Why satellites can not see some meteorites before they fall down
Know how to identify the aliens who are born in human form
There is nothing imaginary here, everything is true
Eventually what do we get benefited with if the actual contact with Aliens gets established
Beware, shaking of pillars of earth is increasing !
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