ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 4): सभी भीषण पापों (जिनके फलस्वरूप पैदा हुई सभी लाइलाज शारीरिक बिमारियों व सामाजिक तकलीफों) का भी बेहद आसान प्रायश्चित व समाधान है यह विशिष्ट ध्यान साधना

अक्सर कई सज्जन व्यक्तियों के मन की अंतर्व्यथा होती है कि उनसे जीवन में जो कुछ भी जाने अनजाने पाप, गलतियाँ आदि हो चुकी हैं, उसका दंड ना जाने, भगवान् अभी या भविष्य में किस भयानक सजा व कष्टों के रूप में देंगे !

वास्तव में कोई व्यक्ति पाप भीरु (अर्थात पाप करने से डरने वाला) तभी हो पाता है, जब ईश्वरीय कृपा से उसकी अंतरात्मा जागना शुरू होती है, अन्यथा जब तक जिन मानवों की आत्मा सोयी हुई रहती है, तब तक उन्हें बड़े से बड़ा पाप करने में भी कोई डर नहीं लगता है और यहाँ तक कि ऐसे लोगों को पाप पुण्य जैसी चीजें केवल बकवास, गप्प, कल्पना आदि लगतें हैं | ऐसे अधिकाँश लोगों की आँखे तभी खुल पातीं है जब उनके द्वारा किये गए पाप कर्मों के दारुण दंड {चाहे वह दंड किसी बीमारी के रूप में मिले या किसी अन्य समस्या (जैसे धन की कमी, पारिवारिक झगड़ा, संतानों का दुराचारी हो जाना, आदि) के रूप में} उन्हें चारो ओर से ऐसा घेर लेतें हैं कि वे बहुत चाह कर भी उन विपत्तियों से छुटकारा नहीं पा पातें हैं !

पर इस समाज में ऐसे बहुत से सज्जन लोग भी हैं जो भूतकाल में अपने द्वारा हुई गलतियों का वक्त रहते सुधार (मतलब खुद से प्रायश्चित) करना चाहतें हैं क्योकि ऐसे सज्जन और बेहद दूरदर्शी लोगों को यह अच्छे से पता होता है कि उनसे जो कुछ भी छोटा – बड़ा पाप उनके जीवन में हो चुका हैं, उसका प्रायश्चित देर सवेर इसी जन्म में या अगले जन्म में करना ही पड़ेगा क्योंकि कर्म फल का ईश्वरीय कानून, अटल है !

अब ऐसे पाप भीरु लोगों के सामने मुख्य समस्या यह आती है कि आखिर वे ऐसा क्या कर्म करें कि जिससे उनके सारे पापों का प्रायश्चित निश्चित हो जाए ?

पापों के प्रायश्चित के कई बढियां तरीके तो सर्वत्र आसानी से उपलब्ध होने वाले परम आदरणीय हिन्दू धर्म के ग्रन्थों में दिए गएँ हैं, जैसे विभिन्न व्रत उपवास करके अपने शरीर को कष्ट देकर प्रायश्चित करना, अथवा अपनी कठिन मेहनत से कमाई गयी ईमानदारी की कमाई या शारीरिक श्रम से गरीब बीमार लोगों तथा अपने घर के बड़े (जैसे माता पिता सास ससुर आदि) लोगों की सेवा करना आदि !

इन सर्वमान्य तरीकों के बारे में सभी को पता होने के बावजूद, अक्सर भ्रम बना रहता है कि क्या विभिन्न व्रत उपवास व विभिन्न दान और विभिन्न सेवा आदि धार्मिक कार्यों को करने से बड़े से बड़े पापों तक का भी नाश निश्चित हो सकता है ?

चूंकि यह प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है इसलिए इस प्रश्न का मोस्ट ऑथेंटिक (अति विश्वसनीय) उत्तर जानने के लिए, हम परम आदरणीय ऋषि सत्ता की अत्यंत ममतामयी शरण में गए, जिसके फलस्वरूप हमें एक दुर्लभ प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त हुआ !

परम आदरणीय ऋषि सत्ता की अत्यंत दयामयी कृपा द्वारा प्राप्त यह ज्ञान, निश्चित रूप से उन सभी मानवों के शाश्वत सुख अर्थात पूर्णता प्राप्ति की चरम प्रक्रिया में अत्यंत सहायक साबित होगा, जिनके दिल के किसी कोने में अक्सर यह कचोटता रहता है कि इस चकाचौंध से भरी दुनिया में बहुत हाथ पैर मारने के बावजूद ना जाने क्यों उनके दिल की बेचैनी कम होने का नाम ही नहीं ले रही है !

परम आदरणीय ऋषि सत्ता अनुसार, जघन्य पापों का पूर्ण प्रायश्चित सिर्फ अपने शरीर को भूखा रखकर या अपनी संपत्ति को दान करके नहीं हो पाता है | जघन्य पापों के नाश के लिए उपलब्ध कई तरीकों में से एक हैं, विशेष महा यज्ञ !

यह यज्ञ विशेष इसलिए है क्योंकि इस यज्ञ को करने के लिए किसी भी भौतिक हवन सामग्री/वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती है और यह यज्ञ महान इसलिए है क्योंकि इसमें सीधे प्रत्यक्ष नारायण अर्थात भगवान् भास्कर ही आहुति ग्रहण करतें हैं !

इस हवन की प्रक्रिया को यदि आसान भाषा में समझाया जाए तो इस प्रक्रिया में किसी भी मानव को बस इतना ही करना होता है कि दिन या रात जब भी फुर्सत मिले, हाथ पैर धोकर, सुखासन (अर्थात पालथी) में बैठकर, रीढ़ की हड्डी सीधे रखकर, आँखे बंद करके, यह ध्यान करना होता है कि पेट की नाभि में स्थित सूर्य में जाकर, उसके सारे जन्म जन्मान्तर के पाप लगातार भस्म होते जा रहें हैं !

ऋषि सत्ता से प्राप्त ज्ञान के आधार पर लिखे गए “स्वयं बनें गोपाल” समूह के पूर्व के लेख (जिसका लिंक नीचे दिया गया हुआ है) में इस बात का वर्णन है कि हर मानव के शरीर में पूरे ब्रह्मांड का वास होता है और इसी ब्रह्मांड में स्वयं प्रत्यक्ष नारायण अर्थात भगवान भास्कर (अर्थात भगवान् सूर्य) का भी वास होता है | इन्ही भगवान् भास्कर में रोज नियम से आधे घंटे तक यह ध्यान करने से कि सारे पाप जा जाकर भस्म होते जा रहें हैं, वास्तव में सभी बड़े छोटे पापों का नाश बहुत तेजी से होने लगता है !

भगवान् भास्कर की अग्नि में ही, स्वयं के सारे पाप कर्मों की बार बार आहुति देने से, मन में अब तक के पापों की वजह से उपजी अपराध बोध की भावना, आत्मग्लानि की भावना, पश्चाताप की भावनायें क्रमशः कम होने लगती हैं !

इस ध्यान की साधना के नियमित अभ्यास से मन में स्थित आत्मग्लानि/पश्चाताप की भावनायें जैसे जैसे कम होती जाती है, वैसे वैसे मन में अपने आप एक दिव्य आनंद, अद्भुत शान्ति और उत्साह की भावना बढ़ती जाती है और यह आनंद अंततः अपने चरम अवस्था को भी प्राप्त होता है अर्थात साक्षात् ईश्वरत्व की प्राप्ति भी करवाता है !

परम आदरणीय ऋषि सत्ता द्वारा बताई गयी यह ध्यान की प्रकिया, वास्तव में हम सभी साधारण मानवों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है क्योकि जीवन में मिलने वाले हर छोटे बड़े कष्ट के पीछे छिपे असली कारण अर्थात जन्म जन्मान्तरों के पापों को जला देने का, यह सबसे आसान और सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है और स्वयं भगवान् शिव के रहस्य लीलाओं की कृति अर्थात शिव पुराण में भी लिखा है कि “वज्र लेप” के समान भयंकर पाप को सिर्फ ध्यान से ही मिटाया जा सकता है !

ध्यान की इसी प्रचंड महिमा की वजह से हठ योग में समाधि की परम अवस्था (जिसमें कुण्डलिनी अर्थात शक्ति का शिव में मिलन होकर अति दुर्लभ कैवल्य मोक्ष प्राप्त होता है), से ठीक नीचे का स्थान, ध्यान को ही प्राप्त है !

अतः हर मानव को अपने दिनचर्या में रोज कम से कम 15 मिनट से लेकर आधा घंटा तक ध्यान जरूर करना चाहिए और उपर लिखे हुए तरीके से ध्यान करने पर तो जीवन की हर तरह की समस्या की जड़ अर्थात पापों का नाश क्रमशः होते जाने पर तो जीवन में से दुःख नाम की चीज (चाहे वह दुःख शारीरिक हो या सामाजिक) ही समाप्त होने लगती है !

[ सावधानी – अगर कोई मानव यह सोचे कि इस प्रक्रिया का ज्ञान हो जाने के बाद उसे यह आजादी मिल जाती है कि वो कोई बड़े से बड़ा पाप करे और फिर उस पाप को ऊपर लिखे हुए ध्यान की विधि से जलाकर निश्चिन्त हो जाए तो यह उसका भ्रम है !

क्योंकि इस या किसी भी अन्य आध्यात्मिक प्रकिया का कोई भी चालाकी, धूर्तता या गलत नियत के आधार पर बहुत दिनों तक फायदा नहीं उठा सकता है | कोई भी मानव चाहे कितना भी बड़ा चालाक क्यों ना हो, पर प्रकृति अर्थात अनंत ब्रह्माण्ड प्रसूता महामाया दुर्गा को बेवकूफ बना सके, यह कदापि संभव नहीं है मतलब महामाया की कृपा से मन में जगा पाप के प्रति डर/घृणा का भाव या योग के प्रति जिज्ञासा का भाव ही, वो शक्ति व लगन देता है जिसके दम पर कोई मानव रोज ध्यान (जो प्रथम द्रष्टया किसी अल्प धैर्यवान मानव को बहुत उबाऊ, नीरस, बोरिंग लग सकता है) कर पाता है अन्यथा ध्यान जैसी अति पवित्र आध्यात्मिक साधना को करने के बावजूद भी कोई तामसिक आचरण (जैसे दूसरे का हक़ हिस्सा हडपना या मांस मछली अंडा खाना आदि) करना नहीं छोड़ता तो बहुत जल्द उसे ध्यान करना ही छोड़ना पड़ता है (या बस सिर्फ आडम्बर पूर्ण दिखावटी ध्यान करता है) क्योंकि तामसिक आचरण से उपजने वाली मन में दुर्भावनाएं, बुद्धि को इस कदर भ्रष्ट कर देतीं है कि मानव का ध्यान जैसी आध्यात्मिक साधनाओं के प्रति लगाव एकदम समाप्त होने लगता है !

इसलिए इस महा कायाकल्प कर देने में सक्षम ध्यान साधना में अंत तक सिर्फ वही मानव पहुच पातें हैं, जिनमे वाकई में खुद के सुधार की प्रबल भावना उमड़ती है !

उपर्युक्त समस्या के अलावा एक समस्या यह भी कभी कभी देखने को मिलती है कि कुछ गृहस्थ लोग अपने व्यवहारिक जीवन के जरूरी काम (जैसे नौकरी या व्यापार या पढ़ाई लिखाई आदि) को छोड़कर अधिकाँश समय अपने आध्यात्मिक साधनाओं (जैसे ध्यान, पूजा पाठ आदि) में लगातें है, जो कि गलत है क्योंकि अगर आप गृहस्थ आश्रम में हैं तो आपको ध्यान योग के साथ साथ कर्म योग का भी उचित अभ्यास करना जरूरी है | अपने एक जरूरी काम के लिए, दूसरे अन्य जरूरी कामों की बार बार अनदेखी करना (जिसकी वजह से अन्य लोगों को तकलीफ हो) भी एक तरह का तामसिक आचरण ही है, जो आध्यात्मिक साधनाओं की सफलता में निश्चित बाधक बनता है !

अतः निष्कर्ष यही है कि जिस भी मानव को वाकई में अपने जीवन में सभी तरह के कष्टों से निजात पाने की तीव्र इच्छा हो, वह लगन से ऊपर लिखे हुए ध्यान की पद्धति का नियमित अभ्यास करे तो निश्चित तौर पर कुछ ही दिनों में उसे सुखद आश्चर्यजनक अनुभव होने शुरू हो जायेंगे, जो एक ना एक दिन ईश्वर की अनंत कृपा से, अंतहीन ईश्वर को भी प्रकट होने पर मजबूर करेंगे ]

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 1): पृथ्वी से गोलोक, गोलोक से पुनः पृथ्वी की परम आश्चर्यजनक महायात्रा

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 2): चाक्षुषमति की देवी प्रदत्त ज्ञान

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग – 3): सज्जन व्यक्ति तो माफ़ कर देंगे किन्तु ईश्वर कदापि नहीं

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 5): अदम्य प्रेम व प्रचंड कर्मयोग के आगे मृत्यु भी बेबस है

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 6): त्रैलोक्य मोहन रूप में आयेगें तो मृत्यु ही मांगोगे

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 7): जिसे उद्दंड लड़का समझा, वो अनंत ब्रह्माण्ड अधीश्वर निकला

ऋषि सत्ता की आत्मकथा (भाग 6): त्रैलोक्य मोहन रूप में आयेगें तो मृत्यु ही मांगोगे

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