क्या किसी मन्त्र के जप से प्रारब्ध को भी बदला जा सकता है


“स्वयं बनें गोपाल” समूह से अक्सर कई आस्तिक पाठक भी अपने मन में उठने वाली इस सामान्य शंका के बारें में पूछतें रहतें हैं कि उन्हें योग की भक्ति शाखा यानी भगवान की पूजा – भजन आदि क्यों करना चाहिए, क्योकि जीवन में जब – जब, जो – जो होना होता है, तब – तब, वो – वो होकर ही रहता है, तो फिर पूजा – पाठ आदि करने से क्या लाभ ?

वैसे तो इस सामान्य शंका के बहुत से सामान्य उत्तर उपलब्ध है लेकिन उन सामान्य उत्तर से हमारे सभी पाठक संतुष्ट हों यह जरूरी नहीं है, इसलिए हमने इसका मोस्ट ऑथेंटिक उत्तर जानने के लिए परम आदरणीय ऋषि सत्ता की मदद लेने का भी प्रयास किया और हर बार की तरह जन कल्याणार्थ, हमें आसानी से उत्तर मिल भी गया जो कि निम्नवत है-

परम आदरणीय ऋषि सत्ता अनुसार, हाँ ये तो सत्य है कि सभी मानवों के जीवन में घटने वाली कुछ “होनी” यानी प्रारब्ध को बदला नहीं जा सकता है इसलिए उन्हें अकाट्य प्रारब्ध कहा जाता है जैसे- जन्म, विवाह, मरण आदि ! लेकिन अकाट्य प्रारब्ध के अलावा जितने भी अन्य तरह के प्रारब्ध हैं जैसे- गरीबी, बिमारी, कोई अन्य सामाजिक कष्ट आदि, उन्हें निश्चित तौर पर बदला जा सकता है और वो भी कुछ बेहद आसान भक्ति योग के उपायों के द्वारा !

उन तरीको को जानने से पहले ये जानना जरूरी है कि “प्रारब्ध का बदलना क्या होता है” ! वास्तव में “बुद्धि का बदलना ही प्रारब्ध का बदलना होता है” क्योकि बुद्धि जितनी ज्यादा विकसित होगी, उतना ही पहले से बुद्धि आगाह व आभास करा देगी अपने वर्तमान कर्मों के आधार पर भविष्य में मिलने वाले खतरों के बारे में ! जिसकी वजह से व्यक्ति समय रहते अपने कर्मो को सुधार कर, आगामी कई खतरों यानी बुरे प्रारब्धों से बच सकता है, इसी को कहतें हैं प्रारब्ध का बदलना या टलना !

इसी संदर्भ में श्री ऋषि सत्ता ने सृष्टि के आरम्भ की ऐसी कथा सुनाई जिसका वर्णन आज के उपलब्ध किसी ग्रंथ में शायद ना हो ! उन्होंने बताया कि जब ब्रह्मा जी शुरू – शुरू में इस सृष्टि को बना रहे थे तो उनकी कैलकुलेशन इस जगह पर आकर रुक गयी कि जब कोई जीव मरने के बाद “तिमिर” अवस्था से बाहर निकलेगा तब उसके नए जन्म का “निमित्त” (यानी आधार) और “प्रारब्ध” (यानी भोग) क्या होगा !

“तिमिर” (यानी अन्धकार) अवस्था बोलते हैं मृत्यु के बाद और किसी नये जन्म को लेने के ठीक पहले का वो समय जिसमें जीव चार बन्धनों (काम, क्रोध, लोभ, मोह) में फसा रहता है, जैसे- किसी जीव की कोई तीव्र इच्छा अधूरी रह जाती है तो मरने के बाद भी वो जीव, सद्गति पाने की जगह उसी इच्छा को पूरी करने के बारे में ही सोचता रहता है, इसी को कहतें हैं काम बन्धन ! जब जीव किसी से बदला लेने की तीव्र इच्छा लिए हुए मर जाता है तो वो क्रोध बंधन में फंस सकता है ! जब जीव अपने द्वारा संग्रह की हुई चीजों (जैसे- रुपया, पैसा या कोई अन्य वस्तु) की तीव्र आसक्ति मन में लिए हुए मर जाता है तो वो लोभ बंधन में फंस सकता है और जब कोई जीव अपने किसी परिचित स्त्री/पुरुष के प्रति प्रबल मोह लिए हुए मर जाता है तो वो मोह बन्धन में फंस सकता है (वास्तव में मरते समय हमारे मन में सिर्फ वही इच्छा रहती है जो हमारे जीवन की सबसे बड़ी इच्छा होती है, इसलिए हम पूरे जीवन भर जिस चीज को पाने के लिए सबसे ज्यादा इच्छा करतें हैं वही इच्छा हमारा अगला जन्म भी निर्धारित कर सकती है) !

तो जब सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्मा जी को समझ में नहीं आ रहा था कि कोई जीव मरने के बाद “तिमिर” (अन्धकार) अवस्था से बाहर निकलेगा तब उसके नए जन्म का “निमित्त” (आधार) और “प्रारब्ध” (भोग) क्या होगा, तब उनकी सहायता की बुद्धि की देवी माँ सरस्वती जी ने ! माँ सरस्वती जी ने उन्हें बताया कि नए जन्म का मुख्य निमित्त भी, वही सबसे बड़ी इच्छा होगी (जो पूर्व जन्म में अधूरी रह गयी थी) और उसके अन्य सभी प्रारब्ध भी उसी रूप में परिवर्तित होकर उसके सामने आएंगे जिससे उस जन्म में जीव का उस सबसे बड़ी इच्छा की पूर्ती के अंतिम परिणाम से परिचय हो सके, जैसे- कोई पैसे कमाने की तीव्र इच्छा मन में लिए हुए मर जाता है तो प्रकृति उसे अगले जन्म में अपार धन देती है यह अहसास कराने के लिए अपार पैसा कमाने के बाद भी जीवन में कुछ नहीं बदलता है जिससे पैसे के प्रति भी उस व्यक्ति के मन में “तृप्ति” का भाव पैदा हो जाता है !

यहाँ यह पहलू भी स्पष्ट करना जरूरी है कि ऊपर लिखे हुए तथ्य का ये मतलब नहीं है कि इस दुनिया में जितने भी धनी लोग हैं वे सभी पिछले जन्म में धन कमाने की तीव्र इच्छा मन में लिए हुए मर गए थे ! कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ महात्माओं का वर्तमान जन्म ही अंतिम जन्म होता है (मतलब इस जन्म के बाद उनको फिर नए जन्म – मरण के नाटक में नहीं फसना होता है) इसलिए उनके वर्तमान व पूर्व जन्मो के बहुत से अच्छे कर्मो के बदौलत उन्हें धरती पर अपार लौकिक सुख, ऐश्वर्य, वैभव आदि को भी भोगना होता है, जैसे- श्री कृष्ण के दोस्त सुदामा जी, जिन्होंने पूर्व जन्मों के अलावा उस जन्म में भी, समाज से मिलने वाली मामूली फीस (यानी इतनी कम भिक्षा जिससे परिवार का दो वक्त का भी पेट ना भर सके) के बावजूद भी समाज के बहुत से स्टूडेंट्स को लम्बे समय तक बेशकीमती नॉलेज दिया था (इसलिए कहा जाता है कि भगवान की डायरी में हम सभी जीवो का हर छोटे से छोटा अच्छा – बुरा कर्म भी नोट होता रहता है जो आज नहीं तो कल या अगले जन्मों में सूद समेत वापस मिलकर ही रहता है अतः किसी का दिल दुखाने से पहले हजार बार सोचना चाहिए और अपने परिवार के अलावा किसी दूसरे की भी की उचित सहायता करने का मौका मिले तो कभी भी चूकना नहीं चाहिए, क्योकि जीवन मुट्ठी में बंद रेत की तरह तेजी से कम होता जा रहा है इसलिए अपने सभी बुरे कर्मों का यथासम्भव खुद से प्रायश्चित तुरंत कर लेना चाहिए और अधिक से अधिक नए अच्छे कर्मों को भी रोज करते रहना चाहिए क्योकि इसके लिए बाद में अलग से कोई समय नहीं मिलने वाला है) !

माँ सरस्वती ने बह्मा जी को बताया कि ऐसा जन्म जिसका निमित्त पूर्व जन्म की किसी बड़ी इच्छा पूर्ती के लिए हुआ होता है उसमें प्रकृति अक्सर दूसरें बुरे कर्मों से जनित प्रारब्धों को भी बदलकर इस रूप में जीव के सामने पेश करती है ताकि उस जीव का उस बड़ी इच्छा से “तृप्त” होना सुनिश्चित हो सके, मतलब जैसे- ऊपर वर्णित संक्षिप्त उदाहरण को ही थोड़ा विस्तार से समझतें हैं, अर्थात मान लीजिये कोई आदमी पिछले जन्म में बहुत गरीब था और धनी लोगो को देखकर उसके मन में बहुत इच्छा होती थी कि काश वो भी अमीर होता तो हमेशा सुखी जीवन व्यापन करता और वो व्यक्ति अपनी यही तीव्र इच्छा लिए हुए मर जाता है तो बहुत सम्भव है कि अगले जन्म में प्रकृति उसे अमीर बनाये ताकि वो यह समझ सके कि धन – दौलत की अपार मात्रा मिलने के बावजूद जीवन में कुछ भी नहीं बदलता, मतलब जीवन अमीर होने के बावजूद भी उतना ही दुखमय है जितना गरीबी में था, बस दुखों का रूप बदल गया है (जैसे- पिछले जन्म में जब बहुत गरीब था तब स्वादिष्ट खाना पाने के लिए दुखी रहना पड़ता था क्योकि स्वादिष्ट खाना खरीदने के लिए पैसे नहीं थे और इस जन्म में जब अमीर हैं तब भी स्वादिष्ट खाना चाहकर भी नहीं खा सकते क्योकि पैसे कमाने के तनाव ने डायबिटिज, ब्लड प्रेशर जैसी ना जाने कितनी बीमारियां पैदा कर दी हैं) !

अब यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि माँ सरस्वती के अनुसार, उस अमीर व्यक्ति के वर्तमान जन्म में, पूर्व जन्म के कई दूसरे प्रारब्ध भी अपना रूप बदलकर इस तरह उसके सामने आएंगे ताकि उसकी मुख्य इच्छा का तृप्त होना सुनिश्चित हो सके, जैसे- मान लीजिये उस व्यक्ति ने पिछले जन्म में किसी जानवर का मांस खाया हो तो प्रकृति के “जैसे को तैसा” सर्वमान्य क़ानून के अनुसार, उसे भी किसी जन्म में कोई जानवर बनना पड़ेगा ताकि उसे मारकर वही जानवर अपना बदला पूरा कर सके ! लेकिन उस अमीर व्यक्ति का वर्तमान जन्म तो धन की इच्छा की पूर्ती के लिए हुआ है तो प्रकृति उसके जीवहत्या वाले पाप के प्रयाश्चित को, धन के प्रायश्चित के रूप में बदल सकती है, मतलब अब इस जन्म में हो सकता है कि उस अमीर आदमी की मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा वो जानवर (जो कि इस जन्म में एक मानव बनकर पैदा हुआ है) चालाकी या दबंगई से हड़प ले और वो अमीर आदमी बहुत चाहकर अपने धन को वापस ना पा सके (जिसकी वजह से अपने धन के अफ़सोस में वो अमीर आदमी बहुत दिनों तक उसी जानवर की तरह मन ही मन तड़पता रहे) !

अतः परम आदरणीय ऋषि सत्ता अनुसार, आम तौर पर सभी सांसारिक वस्तुओं/सुखों से चरम स्तर तक “तृप्ति” होने पर ही “विरक्ति” होती है जिससे अंततः “मुक्ति” मिलती है ! लेकिन चरम स्तर तक तृप्ति होने की प्रक्रिया बहुत ही लम्बी होती है जिसमें कई जन्मों तक भटकना पड़ सकता है तो ऐसे में क्या कोई तरीका है जो चरम स्तर तक की तृप्ति के अनुभव को कम समय में ही हमें अनुभव करवाकर मुक्ति का मार्ग खोल सके !

हाँ ऐसा तरीका है और वो तरीका बहुत आसान भी है ! ध्यान से समझिये कि वो तरीका किसी वर्चुअल रियलिटी के गेम से अनंत गुना ज्यादा जीवंत और शक्तिशाली है क्योकि ये किसी भी अच्छे/बुरे सांसारिक कर्म का अंतिम परिणाम (यानी फाइनल रिजल्ट) को हमें बहुत ही कम समय में एकदम जीवंत रूप से अहसास करवा देता है ताकि हम अपने द्वारा जाने – अनजाने होने वाले बुरे कर्मों को करना जल्द से जल्द छोड़ सके, और शाश्वत सुख देने वाले अच्छे कर्मों को और ज्यादा मात्रा में बढ़ा सके !

उस तरीके के बारे में हमने पहले भी कुछ आर्टिकल्स प्रकाशित किये है लेकिन परम आदरणीय ऋषि सत्ता की महती कृपा से इस बार उस तरीके के नए आश्चर्यजनक फायदों (जिनका ऊपर वर्णन है) के बारें में पता चल सका है ! ये तरीका है “जय माँ सरस्वती” का रोज जप करना ! वास्तव में “जय माँ सरस्वती” का जप करने से पहले ही दिन से बुद्धि (चेतना) का विकास शुरू हो जाता है और जैसा की हमने ऊपर बताया है कि “बुद्धि का बदलना ही प्रारब्ध का बदलना है” इसलिए “जय माँ सरस्वती” जपने से धीरे – धीरे बुद्धि (चेतना) इतनी विकसित होने लगती है कि व्यक्ति को अपने सभी कर्मो के बदौलत भविष्य में मिलने वाले अच्छे – बुरे परिणामों के बारे में क्लियर इंट्यूशन (स्पष्ट पूर्वाभास) होने लगता है जिसकी वजह से वो बहुत चाहकर भी कोई गलत काम नहीं कर पाता है अतः वो भविष्य के कई खतरों व समस्याओं से अपने आप बच जाता है !

जैसे- सिगरेट या शराब पीना कैंसर को जन्म देता है लेकिन इसको जानने के बावजूद भी कई लोग इसके गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पा रहें हैं लेकिन ऐसे नशेड़ी लोग (या उनका कोई सगा व्यक्ति जो उनके नशे की लत छुड़वाना चाहता हो) अगर प्रतिदिन कम से कम 108 बार भी “जय माँ सरस्वती” का जप करें तो जल्द ही उन नशेड़ी लोगों के जीवन में ऐसी घटनाएं बार – बार होंगी जिनकी वजह से उनके मन में सिगरेट – शराब आदि नशे के लिए सर्वप्रथम “डर या खिन्नता” का भाव, फिर “तृप्ति” का भाव, और फिर अंततः “विरक्ति” का भाव पैदा होगा (जिसकी वजह से उनसे हर तरह का नशा निश्चित छूट जाएगा) !

या जैसे- कोई बहुत गुस्सैल टाइप का आदमी हो जिसने अपने क्रोध के आवेश में आकर, अपने जीवन में ना जाने ही कितने ही लोगों को बहुत बेईज्जत करके उन्हें मृत्युतुल्य कष्ट दिया हो तो ऐसा गुस्सैल आदमी (या उसका कोई सगा व्यक्ति जो उसके स्वभाव में सुधार चाहता हो) रोज “जय माँ सरस्वती” का कम से कम 108 बार जप करे, तो धीरे – धीरे उस गुस्सैल आदमी के मन में इतना भीषण आत्मग्लानि का भाव पैदा होने लगता है कि उसे अपने हर कड़वे शब्द याद आकर भारी पश्चाताप होने लगता है, यहाँ तक की उसकी आत्मा उसे बार – बार धिक्कारने लगती है और उसकी बेचैनी तब तक शांत नहीं हो पाती है, जब तक कि वो अपने से हुए वाचिक पापों के लिए यथासंभव पीड़ित लोगों से यथोचित तरीके से माफ़ी नहीं मांग लेता है ! और फिर धीरे – धीरे उस गुस्सैल आदमी को “क्रोध” के प्रति विरक्ति का भाव पैदा होने लगता है जिसकी वजह से उसे अब बड़ी से बड़ी बात पर भी गुस्सा नहीं आता है (इसे कह सकतें हैं कि क्रोध करने की आदत के प्रति “तृप्त” हो जाना) !

“जय माँ सरस्वती” के इस प्रचंड प्रभाव को सुनकर कुछ लोगों के मन में यही भी शंका पैदा हो सकती है कि आखिर जरूरत क्या है देवी के ऐसे नाम का जप करने की जिसकी वजह अपनी किसी गलती के लिए दूसरों से माफ़ी माँगने के लिए मजबूर होना पड़े, अरे रात गयी बात गयी, मतलब कभी किसी को कुछ बुरा बोल दिया और जिसको बोला वो तो भूल गया फिर हमको क्या जरूरत पड़ी है गड़े मुर्दे फिर से उखाड़कर माफ़ी मांगने की ! देखा जाए तो ऐसे लोगो की यह दलील प्रत्यक्ष रूप से सही लगती है, लेकिन वास्तव में परोक्ष रूप से है एकदम गलत, जानिये कैसे-

सबसे पहले ये सोचिये कि प्रारब्ध है क्या ? वास्तव में प्रारब्ध वही गड़े हुए मुर्दे हैं जिनके बारे में मानव सोचता है कि वो मुर्दे फिर कभी जिन्दा नहीं होंगे, लेकिन प्रकृति यही तो करती है कि हर मानव के द्वारा दफनाये गए हर कर्म रुपी मुर्दे को फिर से जिन्दा करके, जीवन के किसी मोड़ पर अच्छा/बुरा प्रारब्ध बनाकर खड़ा कर देती है !

और यहां एक बात हमेशा याद रखने की जरूरत है कि खुद की किसी गलती का, खुद से किया गया प्रायश्चित हमेशा काफी आसान होता है, प्रकृति से मिलने वाले प्रारब्ध रुपी दंड की तुलना में ! मतलब आज हम अपनी किसी गलती का प्रायश्चित अपने झूठे ईगो के चलते सिर्फ माफ़ी मांग कर भी नहीं कर पा रहें हों तो हो सकता है भविष्य में सर्वथा निष्पक्ष प्रकृति हमें ऐसा कठोर दंड दे दे कि हमारा सारा झूठा ईगो और दबंगई मटियामेट हो जाए और फिर हम किसी की बेईज्जती करने के लायक ही ना बचें क्योकि प्रकृति हमें खुद ऐसी दयनीय स्थिति में पंहुचा दे कि अब हमको सबसे बेईज्जत होंना पड़े ताकि हमारा प्रायश्चित पूरा हो सके (“जैसे को तैसा” नेचुरल जस्टिस) !

कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि सभी मानव चाहतें हैं कि वे हमेशा सुख भोगे मतलब जब तक जिन्दा रहें तब तक इस दुनिया में सुख भोगें और मरने के बाद जहाँ भी जाएँ वहां भी सुख भोगें ! अब इतना कॉमन सेन्स सभी को है कि “बुरे काम का बुरा नतीजा” लेकिन इसके बावजूद भी बड़ा कठिन होता है बुरे कामों के आकर्षण में फंसने से बच पाना क्योकि कलियुग सबसे पहले बुद्धि को ही भ्र्ष्ट करता है इसलिए ज्यादातर जीव कई जन्मो तक सिर्फ उत्थान – पतन के बार – बार रिपीट होने वाले नाटक में ही फंसे रहतें हैं !

अतः परम आदरणीय ऋषि सत्ता अनुसार, अगर किसी मानव को अपने वर्तमान जन्म को ही आखिरी जन्म बनाना हो (मतलब दुबारा जन्म – मरण के नए नाटक में ना फसना हो) और जब तक इस जन्म में जीना हो तब तक हर तरह के बुरे प्रारब्धों (यानी मुसीबतों, समस्याओं आदि) से मुक्त रहकर, हमेशा भयमुक्त व सुखी जीवन जीना हो और मरने के बाद सद्गति प्राप्त करनी हो तो निश्चित तौर पर एक सबसे आसान उपाय है “जय माँ सरस्वती” का रोज कम से कम 108 बार जप करना (जिसमें लगता है मात्र 10 मिनट, पर ये 10 मिनट पहले ही दिन से ही पूरे जीवन की दिशा व दशा को सुमार्ग पर लाने की अपार सामर्थ्य रखता है) !

परम आदरणीय ऋषि सत्ता अनुसार जो लोग संस्कृत के कठिन मन्त्रों को भी पूरे विधि – विधान व शुद्धता से जपने में सक्षम हों उन्हें “सरस्वती गायत्री” के जप से भी यही लाभ प्राप्त होता है, लेकिन जो ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं उनके लिए “जय माँ सरस्वती” का जप ही सर्वश्रेष्ठ है क्योकि माँ के नाम जप के लिए शरीर की शुद्धता की कोई बाध्यता नहीं है मतलब “जय माँ सरस्वती” का जप कहीं भी, कभी भी किया जा सकता है (अर्थात बिना किसी माला का इस्तेमाल किये हुए और कही भी आराम से बैठकर जप किया जा सकता है) जबकि संस्कृत के मंत्रों में शरीर व स्थान की शुद्धता का विशेष ख्याल रखना पड़ता है इसलिए कलियुग में नाम जप की महिमा के बारें में श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा” !

जब तक हम “सही कारण” को नहीं हटायेंगे तब तक उससे मिलने वाली “तकलीफ” से परमानेंट मुक्ति कैसे पा सकेंगे

सभी बिमारियों, सभी मनोकामनाओं व सभी समस्याओं का निश्चित उपाय है ये

क्या कुछ घंटे की “पूर्व जन्म चिकित्सा” से सभी कठिन रोगों व सामाजिक समस्याओं से हमेशा के लिए मुक्ति पायी जा सकती है

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