बुरे विचारों को खत्म करना नहीं, बल्कि दिशा बदलने का नाम है योग अभ्यास

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वैसे तो पतंजलि योग शास्त्र व अन्य प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में “योग” की बहुत सी परिभाषाएं दी गई हैं लेकिन उन सभी परिभाषाओं के सारांश रूप को आसान भाषा में कहा जाए तो “योग” वह होता है जो हमारा योग (अर्थात जुड़ाव या एकीकरण) कराता है हमारे अपने ही भूले हुए उस शाश्वत प्रसन्न – अजर – अमर रूप से, जिसे हम माया से आबद्ध होने की वजह से कभी देख ही नहीं पातें हैं और अनन्त बार अलग – अलग योनियों में जन्म – मरण करते हुए भटकतें रहतें हैं !

इसी परम दुर्लभ जुड़ाव की प्रक्रिया को अलग – अलग योग के अभ्यासी अलग – अलग नामों से जानतें हैं, जैसे कोई इसे आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया कहता है तो कोई इसे ईश्वर दर्शन प्राप्ति की प्रक्रिया तो कोई इसे चरम सुख मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया कहता है !

वास्तव में इसी प्रक्रिया के पूर्ण होने पर ही जीव को समझ में आने लगता है कि मेरे मानव शरीर के अंदर बैठी मेरी आत्मा, उस अनंत परमात्मा का ही अंश स्वरुप है इसलिए “शिवोहम” अर्थात मै ही शिव हूँ, “अहम् ब्रह्मास्मि” अर्थात मैं ही परम ब्रह्म (अर्थात ईश्वर) हूँ !

पर योग के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की महानतम प्रक्रिया के सफल बनने में सबसे बड़े बाधक बनतें हैं हमारे काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, अहंकार (ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, शोक) आदि जैसे दुर्गुण जो बार – बार हमारे मन को गलत काम करने के लिए प्रेरित करतें रहतें हैं !

वास्तव में देखा जाए तो इन मानसिक दुर्गुणों को पूरी तरह से मानव शरीर से बाहर निकाल पाना अत्यंत कठिन होता है क्योंकि हमारे मानव शरीर के निर्माण में सत्व व रज के साथ – साथ तम तत्व की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसलिए इस तम तत्व की वजह से उत्पन्न तामसिक विचारों अर्थात बुरे विचारों को अपने मन से समाप्त करने में मानव को अपनी उर्जा व समय व्यर्थ बर्बाद करने कि बजाय इन दुर्गुणों की दिशा को ही बदल देने का प्रयास करना चाहिए जिससे काफी कम समय में ही अपने अंदर ईश्वरत्व के प्रकाश की अनुभूति होने लगती है !

यहाँ दिशा बदलने से मतलब है कि इन गलत इच्छाओं को सांसारिक चीजों की तरफ से हटाकर शाश्वत सुख प्रदायक ईश्वर की तरफ मोड़ देना ! जैसे- “आसक्ति” (अर्थात लगाव) जब तक सांसारिक चीजों (जैसे- आवश्कता से अधिक रुपया, गाड़ी, बंगला आदि) या रिश्तों में रहती है तब तक निष्फल रहती है पर जब यही आसक्ति ईश्वर में हो जाती है तो “भक्ति” कहलाती जो कि महान सुखदायक फल देने वाली हो जाती है !

ठीक इसी तरह “घृणा” जब तक किसी रोगी या गरीब से होती है तब तक पापदायक है पर जब घृणा अपने ही दुर्गुणों से हो जाए तो कल्याणकारक हो जाती है ! “क्रोध” जब दूसरों की गलतियों पर आये तो आत्मघातक (नुकसानदायक) है पर जब क्रोध अपनी गलतियों पर आये तो आत्मशोधक है ! “लालच” जब तक सांसारिक चीजों (जैसे- आवश्कता से अधिक रुपये, गाड़ी, बंगला आदि) के प्रति है तब तक बंधन कारक है पर जब यही लालच जब ईश्वर के दर्शन प्राप्ति का हो जाए तो बंधन नाशक हो जाता है !

“अहंकार” जब तक नश्वर चीजों (जैसे- रुपये, गाड़ी, बंगला, प्रसिद्धि आदि) का होता है तब तक भयकारी (इन्हें खोने का डर जो सदा मन में बना रहता है) होता है पर जब अहंकार इस बात का हो जाता है कि मैं जब उसी अविनाशी ईश्वर का साक्षात् अंश रूप हूँ तो मुझे किसी भी बात से अनावश्यक डरने की क्या जरूरत है, तो भयहारी हो जाता है !

“ईर्ष्या” जब तक दूसरों की सांसारिक तरक्की को देखकर होती है तब तक खुद के ही शरीर को जलाती रहती है पर यही ईर्ष्या जब दूसरों की आध्यात्मिक उन्नति देखकर होती है तो खुद के लिए प्रेरणादायक हो जाती है ! “शोक” जब तक सांसारिक वस्तुओं (जैसे- रुपये, गाड़ी, बंगला आदि) व रिश्तों आदि के लिए होता है तब तक खुद के लिए नाशकारी होता है पर जैसे ही शोक ईश्वर के दर्शन में मिलने में होने वाली देरी के लिए होने लगता है तो महान मंगलकारी साबित होता है !

अतः बुद्धिमानी इसी में है कि अपने इन मानसिक विकारों को समाप्त करने में अपनी उर्जा व समय बर्बाद करने कि बजाय, योग के विभिन्न अभ्यासों द्वारा इनकी दिशा को ही बदल देना चाहिए !

यह फिर से ध्यान से इस सत्य को समझने की जरूरत है कि इस संसार में जिस किसी ने भी जन्म लिया है, उन सभी के मन में बुरे विचार पैदा होना अति स्वाभाविक है (क्योंकि इस मानव शरीर के निर्माण में तम तत्व का भी इस्तेमाल हुआ है) पर बुद्धिमानी व दूरदर्शिता इसी में है कि तम तत्व द्वारा उत्पन्न तामसिक विचारों (अर्थात बुरी भावनाओं) का योग द्वारा ऐसी दिशा बदल दी जाए कि वे दुर्गति कि बजाय, आत्मोन्नति के कारक बन सकें !

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प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात (Socrates) ने भी कहा था कि, सभी इंसानों की ही तरह मेरे मन को भी बिल्कुल मालूम है कि कैसे किसी की हत्या की जा सकती है, मुझे ये भी पता है कि कैसे चोरी, धोखा, लापरवाही, झूठ बोलना, मारपीट, झगड़ा करना आदि सारे पाप किये जा सकते हैं ! लेकिन मेरे और किसी क्रिमिनल में अंतर बस इतना है कि अपराधी अपने मन से हार जाता है लेकिन मै नहीं हार पाता ! मेरा मन किसी गलत काम को करने के लिए मुझसे कहते – कहते थक जाता है लेकिन मेरी बुद्धि मेरे शरीर को वो गलत काम करने ही नहीं देती !

अतः यह फैसला हमें ही करना है कि या तो हम मानसिक विकारों के बहाव में बह कर अपने इस जन्म के साथ – साथ परलोक का भी नाश कर लें या योग की शरण में जाकर ना केवल अपने शरीर की सभी बीमारियों का नाश करें बल्कि चरम सुख अर्थात ईश्वर दर्शन (अर्थात आत्म तत्व दर्शन) की प्राप्ति की तरफ भी अग्रसर हो सकें !

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