अकाल मृत्यु क्या होती है ?

इसका जवाब है कि,

अकाल मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं होती है !

क्योंकि जब तक काल नहीं आता तब तक कोई मरता ही नहीं अर्थात कोई भी जीव कभी भी अकाल मौत नहीं मर सकता है !

लेकिन कुछ ऐसी दुर्लभ हस्तियाँ हर युग, हर काल में होती हैं जिन्हें मारना सिर्फ काल के बस की बात नहीं होती है !

जैसे रावण ने अपनी प्रचंड मेहनत से इतनी ज्यादा शक्ति अर्जित कर ली थी कि उसे मारना काल के बस की बात नहीं रही इसलिए स्वयं महाकाल को श्री राम बनकर आना पड़ा उसे मारने के लिए !

रावण प्रचंड मेहनती तो था लेकिन महान नहीं था क्योंकि उसके कर्म दुष्टता पूर्ण थे इसलिए रावण को ईश्वर (अर्थात भगवान् राम) के प्रेम की जगह क्रोध का सामना करना पड़ा !

लेकिन जब सज्जन व परोपकारी स्वभाव के महान योगी (चाहे वह कर्म योगी हों या हठ योगी या राज योगी या भक्ति योगी हों) अपने प्रचंड पुरुषार्थ से अनंत ब्रह्मांडो के निर्माता ईश्वर का दर्शन पाने का महा सौभाग्य प्राप्त कर लेतें है तो उनके जीवन की बागडोर भी स्वयं महा काल अपने हाथों में ले लेतें हैं मतलब उन ईश्वर दर्शन प्राप्त योगी पर भी काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है !

हालाँकि ईश्वर का दर्शन भी कई प्रकार का होता है, जैसे किसी योगी का उनके द्वारा लगातार किये जाने वाले सद्कर्मों द्वारा उच्च स्थिति में पहुचने पर, उन्हें स्वप्न में ईश्वर का दर्शन प्राप्त होता है तो यह एक बड़ी उपलब्धि होती है, फिर जब वो योगी अपनी और ज्यादा मेहनत से उच्चतर स्थिति में पहुच जातें है तो ईश्वर की महती कृपा से वो कभी अचानक ऐसी प्रचंड भावोन्माद स्थिति में कुछ क्षण के लिए पहुँच जातें हैं कि उनकी सामने स्थित पत्थर की मूर्ती से भगवान् एकदम दिव्य सजीव (अर्थात मानवों की ही तरह जीवंत मांसल रूप में) रूप में प्रकट हो जातें हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इस दिव्य स्थिति में वह योगी भगवान् के उन सजीव रूप से बात भी कर सकें |

भगवान् के इस तरह सजीव (मांसल) रूप का दर्शन कर चुके योगियों का तो यह तय हो जाता है कि वे मरने के बाद ईश्वर के धाम पहुचेंगे लेकिन उनकी पीढ़ियों के अन्य सदस्यों को यह सुविधा प्राप्त नहीं होती जब तक कि उनके खुद के कर्म इस लायक ना हों |

किन्तु जब कोई योगी अपनी अथक प्रचंड मेहनत से उच्चतर स्थिति को भी पार करके, उच्चतम स्थिति में पहुँच जाते हैं तो उन्हें ईश्वर के ऐसे दुर्लभ रूप का दर्शन होता है जिसमें उन योगी की, अनंत ब्रह्मांडो के निर्माता ईश्वर से आमने सामने उसी तरह बातचीत होती है जैसे कोई इन्सान दूसरे इंसान से आमने सामने बैठ कर बातचीत करता है |

इस बातचीत के कुछ अंश ईश्वर के दर्शन देकर लौट जाने के बाद भी उन योगी को हमेशा याद रहता है और केवल बातचीत ही नहीं होती बल्कि ईश्वर उन महान योगी से वरदान मांगने के लिए बार बार जोर भी देते हैं और वह योगी जो भी वरदान अंततः मांगते हैं उस वरदान को ईश्वर अवश्य पूरा करते हैं | इस तरह ईश्वर का परम दुर्लभ दर्शन व वरदान प्राप्त करने वाले योगी खुद तो देह त्यागने के बाद ईश्वर का ही स्वरुप पाकर, ईश्वर के धाम में, ईश्वर के साथी बन जाते हैं और साथ ही उनकी 21 पीढियों का भी उद्धार होता हैं जिसके लिए उनकी 21 पीढ़ियों से सम्बंधित पारिवारिक सदस्यों को उसी जन्म में या एकाधिक और जन्म लेकर बहुत से कष्टसाध्य परोपकार के कार्य करने होते हैं (जो वे दैवीय प्रेरणा से उचित समय आने पर करके ही छोड़ते हैं) !

ईश्वर के दर्शन के बाद जीव को परम दुर्लभ मुक्ति मिलती है पर वास्तव में मुक्ति है क्या ?

मुक्ति का अर्थ होता है, सभी में अपनी ही अभिव्यक्ति और जब सभी में अपनी ही अभिव्यक्ति का अहसास होने लगता है तो वहां सभी तरह की उम्मीदें, आसक्ति और मोह की भावना ख़त्म हो जाती है – इसी को मुक्ति कहते हैं | सुनने में यह सरल लगता है लेकिन समझने में थोड़ा कठिन है और आत्मसात करने में तो यह बहुत ही कठिन है !

बहुत से लोगों को यह गलत फहमी होती है कि कोई जीव मरने के बाद अगर ईश्वर के धाम में पहुँच जाता है तो वो वहां पहुच कर सिर्फ अपने सुख, आराम में ही मग्न होकर रह जाता है और पृथ्वी स्थित अपने पारिवारिक सदस्यों को वो एकदम भूल जाता है !

जबकि ऐसा होता है नहीं क्योंकि जब स्वयं ईश्वर हम सभी लोगों की चिंता से मुक्त नहीं हो पाते और दिन रात ईश्वर सिर्फ हम सभी जीवात्माओं के उद्धार के बारे में ही सोचते रहते हैं तो फिर कैसे साक्षात् ईश्वर के ही स्वरुप उनके साथी अपना महान परमार्थी स्वभाव छोड़ सकते हैं ?

अर्थात ईश्वरीय प्रेरणा से, वे परम दिव्य साथी गण इस ब्रह्मांड में ईश्वर के ही समान सभी में व्यक्त होकर सभी के कल्याणार्थ लगातार प्रयास करते रहते हैं पर आसक्ति से रहित होकर मतलब जैसे ममता एक दिव्य गुण है प्रेम की ही तरह (जिस वजह से यह माँ को महान बनाता है) लेकिन जब ममता में आसक्ति की मिलावट हो जाती है तो यह मोह का रूप धारण कर लेती है जिससे यह मुक्ति के विपरीत बंधन का कारण बनने लगती है !

ऐसे ईश्वर के स्वरुप, ईश्वर के साथी गण की जिम्मेदारी तब बहुत बढ़ जाती है जब प्रकृति उन्हें ही आधार बना कर कुछ ऐसी दुर्लभ घटनाओं का सूत्र पात्र करने जा रही होती है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि ना “भूतो ना भविष्यति” अर्थात ये घटनाएं इतनी ज्यादा गुप्त होती हैं कि इनकी थोड़ी बहुत ही जानकारी सिर्फ उन मानवों को पता लग पाती है जिनका भविष्य में इन घटनाओं को अंजाम देने में बेहद महत्वपूर्ण किन्तु कष्ट साध्य भूमिका होने वाली होती है !

तो यह है मुक्ति के बाद की अहम जिम्मेदारियों का असली परिचय !

हमेशा याद रखने वाली बात है कि मुक्ति कभी भी आयु की मोहताज नहीं होती है, ऐसे कई उदाहरण हमारे धर्म ग्रन्थों में वर्णित है जिसमें कम उम्र में ही मानवों ने देह त्याग कर मुक्ति पायी है !

मरने के बाद पिशाच योनी में जन्म उन्ही का होता है जिनके पाप कर्म इतने ज्यादा होते हैं कि वे दुबारा मानव योनि या इससे ऊँची योनि में जन्म लेने के योग्य नहीं होते हैं ! ऐसे पापी लोग भले ही पूरी आयु (100 वर्ष) जी कर मरें, तब भी बनेंगे भूत प्रेत ही !

और कोई पुण्यात्मा भले ही बहुत कम आयु में मर जाए, लेकिन होगा उसका उद्धार ही !

निष्कर्ष यही है कि अकाल मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं होती है !

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