सभी रोगों का नाश करने में सक्षम है प्राण उर्जा चिकित्सा

prana chikitsa raj yoga hatha ashtanga bhakti karma pranayama mudra bandha moola mula udiyan jalandhar ayurveda ayurvedic medicine herbal jadibuti jadibooti treatment cureआज हठयोग (अष्टांग योग) के कुछ अभ्यासों (जैसे- आसन, प्राणायाम, मुद्रा, ध्यान आदि) के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी तो लगभग सभी को है लेकिन राजयोग की एक परम शक्तिशाली व अद्भुत असरदायक चिकित्सा पद्धती जिसे प्राण उर्जा चिकित्सा कहतें है, के बारे में आज भी अधिकाँश लोग पूरी तरह से अनजान हैं !

अतः इस भुला दी गयी बेशकीमती व दुर्लभ चिकित्सा पद्धति के बारे में “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान, आप सभी आदरणीयों का संक्षिप्त परिचय कराना चाहता है ताकि बिना किसी भी तरह की दवा की मदद के, सिर्फ अपने शरीर में छिपी हुई अथाह प्राण उर्जा (जिसका अधिकाँश हिस्सा, आजीवन बिना किसी विशेष प्रयोग के हमारे शरीर में पड़ा रहता है) द्वारा आप अपने शरीर की सभी कठिन से कठिन और पुरानी से पुरानी बीमारी का नाश कर सकने में सफल हो सकें !

इस अति प्राचीन भारतीय राजयोग अभ्यास को हर चिकित्सा पद्धति का मूल (अर्थात जड़), आधार, सारांश, आदि (अर्थात शुरआत) या अंत कहा जा सकता है और इसका रोज अभ्यास करना भी बेहद आसान होता है इसलिए इसका अभ्यास अति वृद्ध, रोगी, स्त्रियाँ व बालक भी आसानी से कर सकतें हैं ! आईये जानतें हैं कैसे-

हमारे दुर्लभ प्राचीन ग्रन्थों का कहना है कि दुनिया की कोई भी औषधि, शरीर के किसी भी अंग की किसी भी बिमारी में तब तक पूरी तरह से लाभ नहीं पहुचा सकती है जब तक कि वह औषधि उस अंग से सम्बन्धित प्राण ऊर्जा के समुचित प्रवाह को ठीक ना कर दे !

अतः इसी वजह से कहा जाता है प्राण उर्जा का नियमन ही, सभी बीमारियों को ठीक करने की परम आश्चर्यजनक चाभी है (पर देखा जाए तो इससे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि बीतते वक्त के साथ प्राचीन भारत की इस परम लाभकारी यौगिक चिकित्सा अभ्यास को भुला कैसे दिया गया) !

वास्तव में प्राण उर्जा चिकित्सा एक महान साइंटिफिक चिकित्सा विधि है जिससे कठिन से कठिन बिमारियों में आश्चर्यजनक रूप से लाभ मिलते देखा गया है !

मानव शरीर में पांच मुख्य प्राण (जिन्हें प्राण, अपान, व्यान, उदान व समान कहतें हैं) और पांच उप-प्राण (जिन्हें नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला व धनन्जय कहतें हैं) होतें हैं (प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है) !

इन प्राणों के कार्य हैं इस प्रकार है—

(1) अपान— अपनयति प्रकर्षेंण मलं निस्सारयति अपकर्षाति च शक्तिम् इति अपानः !

अर्थात्— जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है ! मल-मूत्र, स्वेद, कफ, रज, वीर्य आदि का विसर्जन, भ्रूण का प्रसव आदि बाहर फेंकने वाली क्रियाएं इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती हैं !

(2) समान— रसं समं नयति सम्यक् प्रकारेण नयति इति समानः !

अर्थात्— जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता और वितरित करता है वह समान है ! पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है !

पतञ्जलि योग सूत्र के पाद 3 सूत्र 40 में कहा गया है— ‘‘समान जयात् प्रज्वलम्’’ अर्थात् समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है !

(3) प्राण— प्रकर्षेंण अनियति प्रर्केंण वा बलं ददाति आकर्षति च शक्तिं स प्राणः !

अर्थात्— जो श्वास, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है ! शब्दोच्चार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है !

(4) उदान— उन्नयति यः उद्आनयति वा तदानः !

अर्थात्- जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे, बह उदान है ! ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएं इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं !

(5) व्यान— व्याप्नोति शरीर यः स ध्यानः !

अर्थात्— जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है, वह व्यान है ! रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियां इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं !

पांच उप प्राणों इन्हीं पांच प्रमुखों के साथ साहयक की तरह जुड़े रहतें हैं ! प्राण के साथ नाग जुड़ा रहता है तो अपान के साथ कूर्म ! समान के साथ कृकल तो उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है !

नाग का कार्य है वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु नियमन ! कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप से सम्बन्ध है तो कृकल का भूख-प्यास ! देवदत्त का है जंभाई, अंगड़ाई आदि ! धनञ्जय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यों का उत्तरदायी बताया गया है, लेकिन वास्तव में ये सभी प्राण के कार्य बस इतने ही तक सीमित नहीं है क्योंकि मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रखने (अर्थात पूरे मानव शरीर में चलने वाले अनगिनत दृश्य व अदृश्य गतिविधियों के संचालन) में उनकी अहम भूमिका होती है !

वास्तव में इन्ही प्राणों में उत्पन्न डिस्टर्बेंस से सम्बन्धित अंगों में बीमारियाँ पैदा होती हैं और अगर इन्ही प्राणों को फिर से ठीक कर लिया जाए तो सम्बंधित अंगों की बीमारियों में आश्चर्यजनक गति से काफी लाभ मिलता है !

इन प्राणों को ठीक करने के लिए हठ योग, राज योग, भक्ति योग व कर्म योग से सम्बन्धित विभिन्न यौगिक अभ्यासों का सहारा लिया जाता है !

कौन से रोगी व्यक्ति को कौन से योग से सम्बन्धित, किस यौगिक अभ्यास से जल्दी लाभ मिलेगा, यह अनुभवी योग विशेषज्ञ, रोगी व्यक्ति की प्रकृति, स्थिति व स्वभाव देखकर ही निर्धारित कर पातें हैं !

वास्तव में प्राण उर्जा चिकित्सा का सिद्धांत, इसी निष्कर्ष पर आधारित है कि, जब दुनिया के किसी भी मानव के शरीर के किसी भी अंग का कोई रोग तब तक पूरी तरह से ठीक नहीं हो सकता, जब तक कि उस मानव के उस अंग से सम्बन्धित प्राण उर्जा में आया व्यवधान पूरी तरह से ठीक ना हो जाए तो फिर क्यों कोई किसी औषधि से मिलने वाले अपेक्षाकृत दीर्घकालीन लाभों की प्रतीक्षा करे, बजाय इसके कि विभिन्न यौगिक अभ्यासों द्वारा तुरंत उस अंग से सम्बन्धित प्राण को ठीक करके उचित लाभ को शीघ्र प्राप्त करने के !

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