अधूरी कल्पना

{निम्नलिखित कवितायें मूर्धन्य लेखिका श्रीमती उषा त्रिपाठी जी द्वारा रचित हैं जिनकी कई पुस्तकें (जैसे- नागफनी, अँधा मोह, सिंदूरी बादल, सांध्य दीप, पिंजरे का पंक्षी, कल्पना आदि) प्रकाशित हो चुकीं हैं ! श्रीमती उषा त्रिपाठी जी एम्. ए., साहित्य रत्न विशारद व संगीत शास्त्र की ज्ञाता भी हैं और इनके द्वारा लिखी हुई कहानियों व कविताओं को कई प्रसिद्ध अखबारों व मैगजीन्स द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है तथा रेडियो आदि की कवि गोष्ठियों में भी सराहा जा चुका है ! श्रीमति त्रिपाठी जी की लेखन क्षमता शुरू से ही अद्भुत रही है जिसकी वजह से मात्र 15 साल की उम्र में ही उनके द्वारा, सन 1962 में हुई भारत – चीन के युध्द में भारतीय वीर सैनिकों के समर्थन में लिखी हुई कविता को, प्रमुख अखबारों द्वारा प्रकाशित व पुरस्कृत किया गया था}

अधूरी कल्पना

सोचती हूं

अपनी कृतियों में

नया रंग भर दूं

नए स्वर भर दूं

और

एक नयापन दे दूं

जिनमें

कभी न दूर होने वाले वाली

मूर्च्छना हों

मैं डूब जाऊं (खो नहीं)

पर यह क्या ?

कल्पना तो अधूरी ही है

इन्हें दूं कैसे ?

नए स्वर, नए रंग

और नयापन

तभी देखा

आंसुओं में डूब कर

अधूरी कल्पनाएं भी

छिटक – छिटक कर

दूर, अति दूर

जा चुकी थी

और जैसे

काले बादलों में

घिर कर

चांद निष्प्रभ हो छिप जाता है

कालिमा बिखर जाती है

उसी तरह

अनकहे दर्द सी

यह रिमझिमी फुहार

बूंदों का अटूट बंदनवार

तुम्हारी स्मृतियों के निकुंज में

यह लकीर सी तड़ित की

चकाचौंध

भूली बिसरी बातों की

अनचाही गूंज

सच, सब कितना सुहाना है

पर, तुम नहीं हो आज

निकट यह खोया – खोया पल लग रहा

है यह उदास – उदास मौसम

वह बांसुरी का स्वर

(जो तुम्हारी उपस्थिति में गूंजता है)

आज उसका एहसास भी

नहीं है

कितना दर्द, कितनी बातें सब ही

तो अनकही हैं

तुम कब आओगे

इस रिमझिम फुहार के नीचे बोलो

कब आओगे यह अनकहा दर्द

समेटते बाहों में बोलो

इस सुनहरी दमक के नीचे

पुरवैया के झोंकों के नीचे !

अमलताश

अमलताश के नीचे बैठी मैं

ढूंढ रही हूं अपने आज को

बीते कल को, आज को,

आने वाले कल को

क्या लिया, क्या पाया

कर्मों का लेखा जोखा

कैद है अंतस में

क्या अच्छा क्या बुरा

अगर हमें महसूस होता,

तो हम करते ही क्यों

कुछ अकथनीय

हम ही सच हैं

शायद यही लोगों की

बुराइयों का कारण हैं

हैं ना ?

अगर हंस कर पाते सही गलत का हिसाब,

तो हमारा समाज, परिवार

बुराइयों के अंधकार से दूर होता !

शक के बीज

शक के बीज

पनपते हैं कितनी

तेजी से

पौधा फिर पेड़

फिर फूल ही फूल

फिर बीज ही बीज

अशांत मन

बीज को नहीं

दबाती मिट्टी में

बहा देती है

उदधि में

अस्तित्व को ही

समाप्त कर देती है

सिलाईयों पर फंदे

में बुनते हुए

स्वेटर खूबसूरत

बनाए मैंने

रिश्ते भी मैंने

प्यारे – प्यारे बुने

पर चूक हुई कहां

पता नहीं एक फंदा

गिरा सुलझाने के

चक्कर में सारे

उलझते गए

रिश्तो की तरह

चाहकर भी नहीं

सुलझा पाई

छोड़ दिया

बस बस !

ओ प्रकृति

ओ प्रकृति

बिखरा है कितना वैभव

तेरे अंचल में

चंचल उर्मियों से सरिता की

झांकता बिधु, सितारे

अनृत पुष्प, हरित पत्तियों से

मंडराते भ्रमर, पक्षी, तरु

सभी चहकतें हैं, झूमते हैं

थपकियाँ दे दे कर

लोरियां सुना सुना कर

नन्ही लतिकाओं को

यह मंद – मलय – समीर चला जा रहा है

धीरे – धीरे

मंत्र – विमुग्ध, मोद मग्न हैं सभी

पर, काश

तुम देख पातीं

भूख भरी तड़पन – नन्हे सुकुमार बच्चों की

दरिद्रता में पलते

(इतना ही नहीं)

ममतामयी मां की क्रंदन भरी आह

भविष्य की कंकालों में घुसी

मोद भरी चाह

क्या तुम्हें समय है ?

देख सकती हो इन्हें

(केवल देखना ही नहीं)

अपने वैभव का एक कण

उल्लास का एक अंश

प्रदान कर सकती इन्हें, तो

शायद, इनका

यह नारकीय जीवन

ऐसा न होता !

लेखिका –
श्रीमती उषा त्रिपाठी

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