दैवीय कायाकल्प की प्रक्रिया निश्चित शुरू हो जाती है सिर्फ आधा घंटा इस तरह 1 से 3 महीने ध्यान करने से
अब आधुनिक वेरी इम्मेच्योर साइंस के वैज्ञानिक व चिकित्सक भी अनंत वर्ष पुराने परम आदरणीय हिन्दू धर्म की सभी बातों की तरह, इस बात को भी स्वीकारने लगे हैं कि किसी भी मानव के शरीर की सभी बिमारियों की कंट्रोलर कीज़ (नियंत्रक चाभियाँ) उसी मानव के मन में ही अदृश्य रूप में कहीं छुपी हुई होतीं हैं ! अब ये कंट्रोलर कीज़ मन में कहाँ छुपी रहतीं हैं यह खोज पाना, आज के वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित किये गए बेहद अल्प सामर्थ्य वाले सेन्सर्स से सर्वथा असम्भव है, क्योंकि हिन्दू धर्म में बताया गया है कि मन की गहराई अनंत है !
मन की गहराई अनंत इसलिए है क्योंकि मन साक्षात् ईश्वरीय शक्ति का प्रतिबिम्ब है, जिसकी वजह से इसकी पूरी तरह से थाह पा पाना संभव नहीं है !
अब यहाँ कुछ पाठक यह सोच रहे होंगे कि आखिर मन की गहराईयों से बीमारियों के ठीक होने से क्या लेना देना है ?
तो ऐसे पाठकों को यह बात अच्छे से समझने की जरूरत है कि मन की गहराईयों से बीमारियों का लेना देना बिल्कुल है, आईये समझते हैं कैसे-
इसे समझने के लिए पहले इस साधारण उदाहरण को समझने की जरूरत है कि आप किसी छोटे बच्चे से पूछें कि फैन (पंखा) कैसे घूमता है ? तो वो लड़का जवाब देगा कि अंकल कोई स्विच ऑन करता है तो फैन चलता है ! अब आप किसी कम पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछें कि बताओ फैन (पंखा) कैसे घूमता है ? तो वो कम पढ़ा लिखा व्यक्ति, उस बच्चे से थोड़ा एडवांस्ड (परिष्कृत) उत्तर देगा कि जब पंखे को बिजली मिलती है तब वो घूमता है ! अब किसी साइंस के ग्रेजुएट से यही प्रश्न पूछिए तो वो और एडवांस्ड उत्तर देगा और पंखे के घूम पाने के पीछे का पूरा इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कांसेप्ट समझा देगा !
अब यही प्रश्न आज के किसी प्रसिद्ध वैज्ञानिक से पूछिए तो वो और अंदर तक घुसकर, अर्थात एटम्स के पार्टिकल्स के मोशन को और डिटेल में समझा कर पंखे के घूमने की प्रक्रिया समझाने में सफल हो पायेगा ! पर उस वैज्ञानिक को अच्छे से पता है कि उसके द्वारा आज तक की गयी खोज, अभी भी बहुत ही ज्यादा अपूर्ण अवस्था में है, क्योंकि जैसे जैसे वो प्रकृति को जानने की प्रक्रिया में आगे बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे उसे अपनी जानकारी की तुच्छता का अहसास और ज्यादा होता जा रहा है !
ठीक ऊपर दिए गए उदाहरण की तरह, मन की भीषण शक्तियों के बारे में भी अधिकाँश मानवों को बहुत ही मामूली जानकारी होती है !
मन की कल्पना से भी परे शक्तियों को खोजना हो तो उसका सबसे प्रभावी तरीका है, रोज ध्यान करना !
सामान्यतया ध्यान दो तरीके से होता है; पहला तरीका है सगुण ध्यान करने का और दूसरा तरीका है निर्गुण ध्यान करने का !
सगुण ध्यान करना उसे बोलतें हैं, जिसमें भगवान् की किसी मनपसन्द चित्र या मूर्ती का मन में बार बार ध्यान किया जाता है, जबकि निर्गुण ध्यान उसे बोलतें हैं जिसमें किसी भी चीज का ध्यान नहीं किया जाता है अर्थात मन को बार बार हर तरह के विचारों से एकदम रहित (विचार शून्य) करने की कोशिश की जाती है जिससे कुछ ही दिनों बाद दैवीय अनुभव दृष्टिगोचर होने शुरू होतें हैं !
सगुण ध्यान व निर्गुण ध्यान दोनों का फल और सफलता मिलने का समय आदि सारे पहलू एकदम समान होतें है मतलब यह भ्रम कभी नहीं करना चाहिए कि सगुण ध्यान ज्यादा फायदेमंद है और निर्गुण ध्यान कम फायदेमंद है या निर्गुण ध्यान ज्यादा फायदेमंद है और सगुण ध्यान कम फायदेमंद है क्योंकि दोनों ध्यान की विधियाँ समान फल दायक हैं पर यह अलग – अलग व्यक्तियों की अलग – अलग विचार धाराओं व स्वभावों पर निर्भर करता है कि वे कौन सा ध्यान (अर्थात सगुण ध्यान या निर्गुण ध्यान) रोज निभा पाने में संभव हो पायेंगे !
अर्थात सगुण ध्यान ऐसे लोगों के लिए ठीक माना जाता है, जिनका पूजा, पाठ, भजन, कीर्तन, भक्ति आदि में खूब मन लगता हो जबकि निर्गुण ध्यान ऐसे लोगों के लिए ठीक माना जाता है जो निराकार ब्रह्म के उपासक हों !
यह सौ प्रतिशत तय बात है कि दोनों ही तरह के ध्यान की विधियां (अर्थात सगुण व निर्गुण), अंततः साकार ईश्वर का दर्शन कराती हैं तत्पश्चात निराकार ईश्वर में विलीन भी करवा देती हैं पर ईश्वर के दर्शन से बहुत पहले से ही एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक, दिव्य व दुर्लभ अनुभव होने लगतें हैं और यह अनुभव किसी भी ऐसे आम इंसान को निश्चित हो सकतें हैं, जो पूर्णतः शाकाहारी हो और जिसने लगभग एक से तीन महीने तक रोज आधा घंटे तक ध्यान का अभ्यास किया हो !
ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने निम्नलिखित तरीके से ध्यान लगाना शुरू किया और उन्हें मात्र एक से तीन महीने में ही ध्यान की अवस्था में कुछ ऐसे दिव्य, आश्चर्यजनक व रोमांचक दृश्य दिखने शुरू हुए, जिसका आज के साइंस में कोई जवाब नहीं है, साथ ही साथ उन्हें शरीर में भी ऐसी गजब की स्फूर्ति, उत्साह, ताजगी, ख़ुशी व निरोगीपन महसूस होना शुरू हुआ, जैसा उन्होंने जीवन में आज से पहले कभी महसूस नहीं किया था !
सगुण ध्यान करने की विधि के बारे में “स्वयं बनें गोपाल” समूह इससे पहले भी कई लेख प्रकाशित कर चुका है जिसमें से तीन लेख मुख्य है-
“एक ऐसा योग जिसमे बिना कुछ किये सारे रोगों का निश्चित नाश होता है”, “पारस पत्थर का रहस्य” और “क्या सिर्फ प्राणायाम को करने से साक्षात ईश्वर का दर्शन भी प्राप्त किया जा सकता है ?” (इन लेखों के लिंक्स व अन्य बहुउपयोगी लेखों के लिंक्स इस आर्टिकल के नीचे दिए गएँ हैं) !
निर्गुण ध्यान, उस ध्यान की विधि को बोलतें है जिसमें किसी भी चीज का ध्यान नहीं किया जाता है अर्थात मन में उभरने वाले हर तरह के विचारों, चिंताओं, ख्यालों को बार बार मन से झटकने की कोशिश कर मन को एकदम शांत व विचार शून्य बनाने की कोशिश करनी पड़ती है ! यह प्रक्रिया थोड़ी कठिन और उबाऊ जरूर है जिसकी वजह से बहुत से साधक कुछ ही दिनों बाद इसका अभ्यास करना छोड़ देते हैं पर ऐसे अल्प धैर्यवान साधकों को इसका अभ्यास छोड़ देने से पहले, एक बार इसके सफल हो जाने के बाद मिलने वाले, कल्पना से भी परे अंतहीन लाभों के बारे में जरूर सोचना चाहिए, ताकि उनकी निराशा फिर से उत्साह में बदल जाए !
परम आदरणीय गुरु सत्ता के द्वारा बताई गयी जानकारी अनुसार इस कलियुग में भगवान् की मानवों के प्रति यह विशेष कृपा है कि ऐसे लगभग सभी सात्विक आध्यात्मिक प्रयास ईमानदारी से नियमित करने पर अधिकतम तीन महीने में ही कुछ ना कुछ ऐसे दैवीय लाभ जरूर दिखतें हैं, जिसके बारे में आज के बड़े से बड़े साइंटिस्ट्स के पास भी कोई जवाब नहीं होता है !
ध्यान की इन्ही प्रक्रियाओं का लम्बे समय तक अभ्यास करने से धीरे धीरे तृतीय नेत्र भी जागृत होने लगता है जिससे भूत, भविष्य, वर्तमान की घटनाएँ एकदम स्पष्ट दिखाई देने लगतीं हैं !
तो इस तरह बार बार मन से हर तरह के अच्छे बुरे विचारों को निकाल कर, मन को बार बार एकदम खाली व विचार शून्य बनाते रहने से, अचानक एक दिन मन में दिव्य अनुभवों का पदार्पण निश्चित होता है ! यह दिव्य अनुभव केवल देखने सुनने में ही दिव्य नहीं होतें हैं बल्कि इनके फल भी दिव्य होतें हैं जिसमें से एक है शरीर की हर तरह की बीमारी का धीरे धीरे स्वतः नाश होते जाना, चाहे वे बीमारियाँ कितनी भी बड़ी व खतरनाक क्यों ना हो, इसके अतिरिक्त शरीर के बुढ़ापे के सभी लक्षणों का भी धीरे धीरे नाश होकर चिर युवा अवस्था की प्राप्ति होना (Rejuvenation Meditation Yoga) पर इन सब प्रक्रियाओं में कितना समय लगेगा, यह कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे कौन कितने मनोयोग से इस अभ्यास को कितनी देर तक कर रहा है, किसकी शरीर वर्तमान में कितनी जर्जर अवस्था में है, और किसकी मानसिक पृष्ठभूमि कितनी ज्यादा साफ़ है (जैसे छोटे बालक जो दुनिया के छल प्रपंच से अबोध होते हैं, साधना में जल्दी तरक्की करतें हैं) आदि आदि !
ध्यान एक अंतहीन खजानों का भण्डार है जिसमें से 100 परसेंट बिमारी रहित एक युवा शरीर पाना, मात्र एक मामूली फायदा है क्योंकि ध्यान की ही अति उच्च अवस्था समाधि होती है, जो एक ना एक दिन कुण्डलिनी जगवा कर ही छोड़ती है जिसके बाद मानव, की चेतना स्वयं अपनी शक्ति अर्थात कुण्डलिनी से एकाकार होकर, अनंत ब्रह्मांडो के निर्माता परमेश्वर के ही समान अनंत रूप धारण कर, महामाया की द्रष्टा बन जाती है !
इसलिए प्रतिदिन ध्यान जरूर करिये और इसका सबसे आसानी से निभ जाने वाला तरीका है कि या तो सुबह नहाने के बाद एक साफ़ सुथरे व एकांत कमरे में जमीन पर चद्दर या कम्बल बिछाकर या किसी बिस्तर पर बैठकर आँखे बंदकर ध्यान करें या रात को ठीक सोने से पहले (एकदम एकांत कमरे में) बिस्तर (रोज जिस बेड पर सोते हों उस पर भी कर सकतें हैं) पर सीधे बैठकर, आधा घंटा स्थिर भाव से आँखे बंदकर, केवल अपने मन को विचार शून्य करने की कोशिश करें !
ध्यान के समय अपनी गोद में बाएं हाथ की हथेली पर दाहिनी हथेली रखे ! रीढ़ की हड्डी सीधी रहनी चाहिए ! बहुत वृद्ध व्यक्ति या कोई बीमार अगर रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बहुत देर तक बैठने में सक्षम ना हो, तो वो बिस्तर पर सीधे (अर्थात पीठ के बल) लेटकर भी ध्यान कर सकता है, मतलब लेट कर ध्यान लगाते समय करवट नहीं लेटना चाहिए और ना ही सीधे लेटे हुए समय तकिया लगाना चाहिए !
बहुत ज्यादा मुलायम गद्दा भी नहीं इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि इससे सोते हुए रीढ़ की हड्डी सीधी नहीं रह पाती है (लेटकर ध्यान लगाने में सबसे बड़ी समस्या आती है बार बार नीद आने की, जिसकी वजह से ध्यान का तारतम्य टूट जाता है, इसलिए कोशिश करिए सीधे बैठ कर ही ध्यान करने की और अगर बैठ कर ध्यान लगाने में भी नीद आये तो एक – दो घूँट पानी पी लें जिससे चैतन्यता आ जाती है) !
ध्यान, योगासन, प्राणायाम, पूजा, पाठ जैसी किसी भी आध्यात्मिक साधना के दौरान रीढ़ की हड्डी व गर्दन को सीधा रखने के लिए इसलिए कहा जाता है क्योंकि जब भी कोई आध्यात्मिक साधना गहनता की ओर बढ़ती जाती है तो प्राण अपने आप सुषुम्ना नाम की अदृश्य नाड़ी में प्रवाहित होने लगता है और अगर रीढ़ की हड्डी व गर्दन सीधी नहीं है तो रीढ़ की हड्डी के बीचो बीच अदृश्य रूप में स्थित सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का प्रवाह सही तरीके से नहीं हो पाता है, जिसकी वजह से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है !
सुषुम्ना नाड़ी में ही सातो दिव्य चक्र स्थित होतें हैं और कुण्डलिनी जागने से पूर्व, प्राण वायु ही इन्हें एक्टिवेट करने का प्रयास करती है और इन्ही सातों चक्रों के धीरे धीरे जागरण से सभी दैवीय उपलब्धियां मिलतीं है इसलिए किसी भी तरह की आध्यात्मिक साधना को करने के दौरान गर्दन व पीठ (अर्थात पूरी रीढ़ की हड्डी) को सीधा रखना बहुत जरूरी है ! ध्यान रहे कि अक्सर लोग गर्दन सीधा करने के चक्कर में, या तो गर्दन थोड़ा ऊपर आसमान की ओर उठा देतें हैं या थोड़ा जमीन की ओर नीचे झुका देतें हैं, जो कि गलत है, गर्दन ठीक सामने की ही ओर होनी चाहिए ! ध्यान करते समय चेहरे को सिकोड़ना या भौं को दबाना आदि नहीं करना चाहिए ! ध्यान के समय चेहरा भी एकदम शांत व तनाव रहित होना चाहिए !
ध्यान के समय कोई भी विचार मन में आये तो तुरंत उसे झटक दें ! सिर्फ और सिर्फ मन को शांत और सभी विचारों से रहित करने का प्रयास करें !
जैसे जल जब शांत और साफ़ रहता है तो सरोवर के तल में स्थित रत्न आसानी से दिखाई देते हैं ठीक उसी तरह मन जब एकदम शांत और सभी हलचलों से रहित हो जाएगा तो अपने आप मन की गहराई में स्थित दिव्य ईश्वरीय प्रकाश धीरे धीरे दिखाई पड़ने लगेगा जो भविष्य में ईश्वर साक्षात्कार का महा सौभाग्य भी प्रदान करता है !
इस तरह कम से कम एक महीने से लेकर अधिकतम तीन महिने तक अभ्यास करने से ही आपको निश्चित ऐसी अद्भुत शान्ति, उत्साह व ख़ुशी महसूस होना शुरू हो जायेगी जैसी आपने अब तक कभी भी नहीं महसूस की होगी और जो आपको करोड़ो रूपए खर्च करने के बावजूद भी किसी हॉस्पिटल या अन्य मनोरंजक स्थान से भी बिल्कुल नहीं प्राप्त होगी !
अगर आपके पास समय हो तो आप रोज सुबह और रात दोनों समय आधा – आधा घंटा ध्यान कर सकतें हैं, इससे और जल्दी सफलता मिलेगी !
एक ऐसा योग जिसमे बिना कुछ किये सारे रोगों का निश्चित नाश होता है
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