हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 3 – चोखे चौपदे (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)जो किसी के भी नहीं बाँधो बँधो।

प्रेमबंधान से गये वे ही कसे।

तीन लोकों में नहीं जो बस सके।

प्यारवाली आँख में वे ही बसे।

पत्तिायों तक को भला वै+से न तब।

कर बहुत ही प्यार चाहत चूमती।

साँवली सूरत तुमारी साँवले।

जब हमारी आँख में है घूमती।

हरि भला आँख में रमें कैसे।

जब कि उस में बसा रहा सोना।

क्या खुली आँख औ लगी लौ क्या।

लग गया जब कि आँख का टोना।

मंदिरों मसजिदों कि गिरजों में।

खोजने हम कहाँ कहाँ जावें।

आप पै+ले हुए जहाँ में हैं।

हम कहाँ तक निगाह पै+लावें।

जान तेरा सके न चौड़ापन।

क्या करेंगे बिचार हो चौड़े।

है जहाँ पर न दौड़ मन की भी।

वाँ बिचारी निगाह क्या दौड़े।

भौं सिकोड़ी बके झके; बहके।

बन बिगड़ लड़ पड़े अड़े अकड़े।

लोक के नाथ सामने तेरे।

कान हम ने कभी नहीं पकड़े।

हो कहाँ पर नहीं झलक जाते।

पर हमें तो दरस हुआ सपना।

कब हुआ सामना नहीं, पर हम।

कर सके सामने न मुँह अपना।

जो ऍंधोरा है भरा जी में उसे।

हम ऍंधोरे में पड़े सोते नहीं।

उस जगत की जोत की भी जोत के।

जोतवाले नख अगर होते नहीं।

लोक को निज नई कला दिखला।

पा निराली दमक दमकता है।

दूज का चन्द्रमा नहीं है यह।

पद चमकदार नख चमकता है।

कर अजब आसमान की रंगत।

ए सितारे न रंग लाते हैं।

अनगिनत हाथ-पाँव वाले के।

नख जगा जोत जगमगाते हैं।

हैं चमकदार गोलियाँ तारे।

औ खिली चाँदनी बिछौना है।

उस बहुत ही बड़े खेलाड़ी के।

हाथ का चन्द्रमा खेलौना है।

भेद वह जो कि भेद खो देवे।

जान पाया न तान कर सूते।

नाथ वह जो सनाथ करता है।

हाथ आया न हाथ के बूते।

सब दिनों पेट पाल पाल पले।

मोहता मोह का रहा मेवा।

हैं पके बाल पाप के पीछे।

आप के पाँव की न की सेवा।

जो निराले बड़े रसीले हैं।

पा सकें फूल फूल फल वे हम।

चाह है यह ललक ललक देखें।

लाल के लाल लाल तलवे हम।

हों भले, हों सब तरह के सुख हमें।

एक भी साँसत न दुख में पड़ सहें।

चाह हैं, लाली बनी मुँह की रहे।

लाल तलवों से लगी आँखें रहें।

माँ की ममता

भूल कर देह गेह की सब सुधा।

माँ रही नेह में सदा माती।

जान को वार कर जिलाती है।

पालती है पिला पिला छाती।

देख कर लाल को किलक हँसते।

लख ललक बार बार ललचाई।

कौन माँ भर गई न प्यारों से।

कौन छाती भला न भर आई।

माँ कलेजे में बही जैसी कि वह।

प्यार की धारा कहाँ वैसी बही।

कौन हित-माती हमें ऐसी मिली।

दूधा से किस की भरी छाती रही।

नौ महीने पेट में, सह साँसतें।

रख जतन से कौन तन-थाती सकी।

मोह में माती हुई माँ के सिवा।

कौन मुँह में दे कभी छाती सकी।

प्यार माँ के समान है किस का।

है कढ़ी धार किस हृदय-तल से।

छातियों मिस हमें दिये किस ने।

दूधा के दो भरे हुए कलसे।

दूधा छाती में भरा, भर बह चला।

आँख बालक और माँ की जब फिरी।

गंगधारा शंभु के शिर से बही।

दूधा की धारा किसी गिरि से गिरी।

एक माँ में कमाल ऐसा है।

वुं+भ को कर दिया कमल जिसने।

रस भरे फल हमें कहाँ न मिले।

फल दिये दूधा से भरे किसने।

किस तरह माँ के कमालों को कहें।

छू उसे हित-पेड़ रहता है हरा।

है पनपता प्यार तन की छाँह में।

दूधा से है छेद छाती का भरा।

देख कर अपने लड़ैते लाल को।

कब नहीं मुखड़ा रहा माँ का खिला।

प्यार से छाती उछलती ही रही।

दूधा छाती में छलकता ही मिला।

कौन बेले पर नहीं बनता हितू।

भाव अलबेले कहाँ ऐसे मिले।

एक माँ के दिल सिवा है कौन दिल।

जाय जो छिला पूत का तलवा छिले।

कवि

कवि अनूठे कलाम के बल से।

हैं बड़ा ही कमाल कर देते।

बेधाने के लिए कलेजों को।

हैं कलेजा निकाल धार देते।

है निराली निपट अछूती जो।

हैं वही सूझ काम में लाते।

कम नहीं है कमाल कवियों में।

है कलेजा निकाल दिखलाते।

क्यों न दिल खींच ले उपज आला।

जो कि उपजी कमाल भी वु+छ ले।

जिन पदों में छलक रहा है रस।

क्यों कलेजा न सुन उसे उछले।

भाव में डूब पा अनूठे पद।

जिस समय है कबिन्द जी लड़ता।

हैं उमंगें छलाँग सी भरती।

है कलेजा उछल उछल पड़ता।

तब उसे कौन है भला ऐसा।

दिल कमल सा खिला मिला जिस का।

फूल मुँह से झड़े किसी कवि के।

है कलेजा न फूलता किसका।

भेद उसने कौन से खोले नहीं।

कौन सी बातें नहीं उसने कहीं।

दिल नहीं उस ने टटोले कौन से।

घुस गया कवि किस कलेजे में नहीं।

है जहाँ कोई पहुँच पाता नहीं।

वह वहाँ आसन जमा है बैठता।

सूझ-मठ में पैठ बस रस-पैंठ में।

किस कलेजे में नहीं कवि पैठता।

जा रही किस का नहीं मन मोहती।

हाथ में किस वह अजब माला लसी।

छोड़ कवि बस कर दिखाने की कला।

है भला किसके कलेजे में बसी।

रस-रसिक पागल सलोने भाव का।

कौन कवि सा है लुनाई का सगा।

लोक-हित-गजरा लगन-फूलों बना।

है रखा किसने कलेजे से लगा।

बाँधा सुन्दर भाव का सिर पर मुवु+ट।

वह भलाई के लिए है अवतरा।

कौन कवि सा हित-कमल का है भँवर।

प्यार से किसका कलेजा है भरा।

है रहा किस में बसंत सदा बना।

नित चली किस में मलय सी पौन है।

धार किस में सब रसों की है बही।

कवि-कलेजे सा कलेजा कौन है।

एक कवि छोड़ कौन है ऐसा।

प्रेम में मस्त मन रहा जिस का।

भाव में डूब बन उमड़ते लौं।

है कलेजा उमड़ सका किस का।

फूल जिससे सदा रहा झड़ता।

मुँह वही आगे है उगल लेता।

क्या अजब, कवि जला भुना कोई।

है कलेजा जला जला देता।

हाथ ऊँचा सदा रहा किस का।

हित सकल सुख सहज सहेजे में।

कवि करामात कर दिखाता है।

ढाल जल जल रहे कलेजे में।

हैं किसी के न पास रस इतने।

है रसायन बना बचन किस का।

कवि सिवा कौन लग लगा उस के।

है कलेजा सुलग रहा जिस का।

तो भला क्या कमाल है कवि में।

जो सका कर कमल न नेजे को।

गोद में प्यार है पला जिस की।

गोद देवे न उस कलेजे को।

चाँद को छील चाँदनी को, मल।

रंग दे लाल, लाल रेजे में।

कवि कहा कर बदल कमल दल को।

छेद कर दे न छबि कलेजे में।

पैठ करके प्यार जैसे पैंठ में।

दाम खोटी चाट का पाता रहा।

जो कभी चोटी चमोटी के लगे।

कवि-कलेजा चोट खा जाता रहा।

प्यार के पुतले

बात मीठी लुभावनी सुन सुन।

जो नहीं हो मिठाइयाँ देते।

तो खिले फूल से दुलारे का।

चाह से गाल चूम तो लेते।

हाथ उन पर भला उठायें क्यों।

जो कि हैं ठीक फूल ही जैसे।

पा सके तन गला गला जिन को।

गाल उनका भला मलें वै+से।

है लुभा लेती ललक पहलू लिये।

हैं कमाल भरी अमोल पहेलियाँ।

लालसावाले निराले लाल के।

हाथ की ए लाल लाल हथेलियाँ।

तैरते हैं उमंग लहरों में।

चाव से लाड़ साथ लड़ लड़ के।

लाभ हैं ले रहे लड़कपन का।

हाथ औ पाँव फेंकते लड़के।

प्यार कर प्यार के खिलौने को।

कौन दिल में पुलक नहीं छाई।

देख भावों भरी भली सूरत।

कौन छाती भला न भर आई।

चूम लें और ले बलायें लें।

लाभ है लाड़ के ऍंगेजे में।

मनचले नौनिहाल हैं जितने।

हँस उन्हें डाल लें कलेजे में।

ले सके जो, उसे न क्यों लेवे।

लाड़िला वह तमाम घर का है।

ठीक पर का अगर रहा पर का।

दूसरा कौन पीठ पर का है।

क्यों ललकती रहें न माँ-आँखें।

दल उसे लाल फूल का कह कह।

लाल है, है गुलाल की पुटली।

लाल की लाल लाल एड़ी यह।

प्यार से हैं प्यार की बातें भरी।

माँ कलेजे के कमल जैसा खिले।

पाँव पाँव ठुमुक ठुमुक घर में चले।

लाल को हैं पाँव चन्दन के मिले।

केसर की क्यारी

अनूठी बातें

जो बहुत बनते हैं उनके पास से।

चाह होती है कि कब वै+से टलें।

जो मिले जी खोल कर, उनके यहाँ।

चाहता है जी कि सिर के बल चलें।

भूल जावे कभी न अपनापन।

जान दे पर न मान को दे, खो।

लोग जिस आँख से तुम्हें देखें।

तुम उसी आँख से उन्हें देखो।

और की खोट देखती बेला।

टकटकी लोग बाँधा देते हैं।

पर कसर देखते समय अपनी।

बेतरह आँख मूँद लेते हैं।

फिर कभी खुलने न पाईं माँद वे।

इस तरह मन के मसोसों से हुईं।

मूँदते ही मूँदते मुख और का।

मदभरी आँखें बहुत सी मुँद गईं।

छोड़ संजीदगी सजे वू+ँचे।

बन गये जब लोहार की वू+ँची।

तो बचा रह सका न ऊँचापन।

आँख भी रह सकी नहीं ऊँची।

कौन बातें बना सका अपनी।

बात बेढंग बढ़ा बढ़ा कर के।

आँख पर चढ़ गया न कौन भला।

आँख अपनी चढ़ा चढ़ा कर के।

बात सुन कर सिखावनों-डूबी।

जो कि है ठीक राह बतलाती।

जब नहीं सूझ बूझ रंग चढ़ा।

तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती।

तुम भली चाल सीख लो चलना।

औ भलाई करो भले जो हो।

धूल में मत बटा करो रस्सी।

आँख में धूल डालते क्यों हो।

ठीक वैसा न मान ले उस को।

जो कि जैसे लिबास में दीखे।

जी अगर है टटोल लेना तो।

देखना आँख खोल कर सीखे।

चाह जो यह हैं कि हाथों से पले।

पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।

तो जिसे हैं आँख में रखते सदा।

चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।

जो न चित का नित बना चाकर रहा।

बान चितवन के नहीं जिस पर चले।

है जिसे पैसा नचा पाता नहीं।

आ सका ऐसा न आँखों के तले।

किस तरह से सँभल सकेंगे वे।

अपने को जो नहीं सँभालेंगे।

क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे।

आँख का तेल जो निकालेंगे।

सधा सकेगा काम तब वै+से भला।

हम करेंगे साधाने में जब कसर।

काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ।

जब करेंगे काम आँखें बंद कर।

जब कि चालाकी न चालाकी रही।

आँख उस पर तब न क्यों दी जायगी।

लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब।

जब कि उँगली आँख में की जायगी।

है खटकती किसे नहीं दुनिया।

लग सके कब खुटाइयों के पते।

तब परखते अगर परख वाली।

आँख के सामने उसे रखते।

क्यों कहें कंगालपन को भी कभी।

हैं खुली आँखें हमारी जाँचती।

सामने जो वे न नाचें आँख के।

भूख से है आँख जिन की नाचती।

खिल उठें देख चापलूसों को।

देख बेलौस को वु+ढ़ें काँखें।

क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।

जब हमारी बिगड़ गईं आँखें।

है जिसे सूझ ही नहीं उस की।

क्या करेंगे उघार कर आँखें।

है परसता जहाँ ऍंधोरा वाँ।

क्या करेंगे पसार कर आँखें।

ऊब जाओ न उलझनों में पड़।

जंगलों को ख्रगाल कर देखो।

डाल दो हाथ पाँव मत अपना।

आँख में आँख डाल कर देखो।

ताक में रात रात भर न रहें।

सूइयाँ डालने से मुँह मोड़ें।

और की आँख फोड़ देने को।

आँख अपनी कभी न हम फोड़ें।

तब टले तो हम कहीं से क्या टले।

डाँट बतला कर अगर टाला गया।

तो लगेगी हाथ मलने आबरू।

हाथ गरदन पर अगर डाला गया।

है सदा काम ढंग से निकला।

काम बेढंगपन न देगा कर।

चाह रख कर किसी भलाई को।

क्यों भला हों सवार गरदन पर।

बेहयाई, बहँक बनावट ने।

कस किसे नहिं दिया शिकंजे में।

हित-ललक से भरी लगावट ने।

कर लिया है किसी न पंजे में।

फल बहुत ही दूर, छाया वु+छ नहीं।

क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों।

आदमी हों और हों हित से भरे।

क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों।

काम आये, लोक के हित में लगे।

ठीक पानी की तरह दुख में बहे।

धान रहा पर-हाथ में तो क्या रहा।

रह सके तो हाथ में अपने रहे।

बीनना सीना, परोना, कातना।

गूँधाना, लिखना न आता है कहे।

काम की यह बात है, हर काम में।

बैठता है हाथ बैठाते रहे।

जाय जिस से वु+ल कसर जी की निकल।

बोलने वाले बचन वे बोल दें।

खोलनेवाले अगर खोले खुले।

तो किवाड़े छातियों के खोल दें।

दूसरा कोई अधाम वैसा नहीं।

पाप जिससे हैं करातीं पूरियाँ।

वे पतित हैं पेट पापी के लिए।

छातियों में भोंक दें जो छूरियाँ।

रह सका काम का सुखी सुन्दर।

कौन सा अंग दुख ऍंगेजे पर।

भूल है जल गरम अगर छिड़कें।

फूल जैसे नरम कलेजे पर।

इस जगत का जीव वह है ही नहीं।

लुट गये धान जी लटा जिस का नहीं।

हाथ की पूँजी गँवा, पड़ टूट में।

है कलेजा टूटता किस का नहीं।

बेतरह बेधा बेधा क्यों देवे।

भेद है जीभ और नेजे में।

बात से छेद छेद कर के क्यों।

छेद कर दे किसी कलेजे में।

पढ़ गये हाथ आ गया पारस।

कढ़ गये गुन गया ऍंगेजा है।

चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़।

बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है।

मिल न पाया मान मनमानी हुई।

मोतियों के चूर का चूना हुआ।

दिलचलों के सामने बन दिलचले।

दून की ले दिल अगर दूना हुआ।

रंग उस का बहुत निराला है।

हम न उस रंग को बदल देवें।

फूल से वह कहीं मुलायम है।

चाहिए दिल न मल मसल देवें।

हम उसे ठीक ठीक ही रक्खें।

औ उसे ठीक राह बतलावें।

चाहिए दिल उड़ा उड़ा न फिरे।

दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें।

प्रभु महँक से हैं उसी के रीझते।

पी उसी का रस रसिक भौंरे जिए।

चार फल केवल उसी से मिल सके।

तोड़ते दिल-फूल को हैं किसलिए।

है निराली प्रभु-कला जिस में बसी।

वह निराला आइना है फूटता।

टूटती है प्यार की अनमोल कल।

तोड़ने से दिल अगर है टूटता।

जीभ को कस में रखें, काया कसें।

क्यों लहू कर के किसी का सुख लहें।

मारना जी का बहुत ही है बुरा।

जी न मारें मारते जी को रहें।

काम करते हैं मकर कर किसलिए।

इस मकर से प्यार प्यारा है कहीं।

क्यों हमारा जी गिना जी जायगा।

हम अगर जी को समझते जी नहीं।

बात बनती नहीं बचन से ही।

काम सधा कब सका सदा धान से।

मानते क्यों न मानने वाले।

वे मनाये गये नहीं मन से।

क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते।

क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं।

पर भला वै+से रिझायें हम उसे।

रीझ जिस का रीझ पाता मन नहीं।

बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी।

जान उसको खा, गई खोई नहीं।

हाथ जो आ जाय सोने की छुरी।

पेट तो है मारता कोई नहीं।

हैं वु+दिन में किसे मिले मेवे।

जो मिले, आँख मूँद कर खा लें।

भूख में साग पात क्यों देखे।

जो सके डाल पेट में डालें।

चाहिए सारे बखेड़े दूर कर।

बात आपस की बिठाने को उठे।

आँख उठती दीन दुखियों पर रहे।

पाँव गिरतों के उठाने को उठे।

भक्ति अंधी भली नहीं होती।

भाव होते भले नहीं लूँजे।

है अगर पाँव पूजना ही तो।

पूजने जोग पाँव ही पूजे।

सुनहली सीख

सैकड़ों ही कपूत-काया से।

है भली एक सपूत की छाया।

हो पड़ी चूर खोपड़ी ने ही।

अनगिनत बाल पाल क्या पाया।

जो भला है और चलता है सँभल।

है भला उस को किसी से कौन डर।

दैव की टेढ़ी अगर भौंहें न हों।

क्या करेंगे लोग टेढ़ी भौंह कर।

नेकियाँ मानते नहीं ऐबी।

क्यों उन्हीं के लिए न बिख चख लें।

वे न तब भी पलक उठायेंगे।

हम पलक पर अगर ललक रख लें।

बढ़ सकें तो सदा रहें बढ़ते।

पर बुरी राह में कभी न बढ़ें।

चढ़ सकें तो चढ़ें किसी चित पर।

हम किसी की निगाह पर न चढ़ें।

हैं बहू बेटियाँ जहाँ रहती।

है दिखाती कलंक लीक वहीं।

क्यों न हो झोंक ही जवानी की।

है कभी ताक झाँक ठीक नहीं।

क्यों टका सा जवाब उस को दें।

जिस किसी से सदा टके ऐंठें।

जो रहें ताकते हमारा मुँह।

हम उन्हीं की न ताक में बैठें।

बात ताने की, किसी के ऐब की।

कह न दें मुँह पर, बचें या चुप रहें।

बात सच है, जल मरेगा वह मगर।

लोग काना को अगर काना कहें।

काम मत आप कीजिये ऐसे।

जो कभी आप को बुरे फल दें।

हाथ में लग न जाय मल उस का।

नाक को बार बार मत मल दें।

जो सकें बोल बोलियाँ प्यारी।

तो उसे बोल डालना अच्छा।

कान में तेल डाल लेने से।

कान का खोल डालना अच्छा।

छोड़ दो छेड़ छाड़ की आदत।

मत जगा दो अदावतें सोई।

है बहुत खोदना बुरा होता।

देख ले कान खोद कर कोई।

तब तमाचा न किस तरह लगता।

आग जब बेलगामपन बोता।

हो रहे जब कि लाल पीले थे।

तब भला क्यों न लाल मुँह होता।

हैं अगर चाहते वु+फल चखना।

तो बुरी चाहतें जगा देखें।

मुँह लगाना अगर भला है तो।

क्यों लहू को न मुँह लगा देखें।

काम में ला खुला निघरघटपन।

नाम मरदानगी मिटाना है।

बेबसों को लपेट चित पट कर।

पालना पेट मुँह पिटाना है।

सुन जिसे कोई नहीं पा कल सके।

बात ऐसी क्यों निकल मुँह से पड़े।

रंगतें हित की न जब उन में रहीं।

फूल मुँह से तब झड़े तो क्या झड़े।

खुल सकेगा तो नहीं ताला कभी।

जो भली रुचि की मिली ताली नहीं।

पान की लाली न लाली रखेगी।

रह सकी मुँह की अगर लाली नहीं।

बेतरह वे न बेतुके बनते।

औ न संजीदगी तुम्हीं खोते।

यों सुलगती न लाग-आग कभी।

मुँह-लगे जो न मुँह लगे होते।

निज भरोसे सधा न क्या साधो।

और का बल-भरोस है सपना।

देखना छोड़ दूसरों का मुँह।

देखते क्यों रहें न मुँह अपना।

काम ले बार बार धीरज से।

कब न जी की कचट गई खोई।

क्यों दुखों की लपेट में आवे।

क्यों पड़े मुँह लपेट कर कोई।

रूप औ रंग के लिए ही क्यों।

जी किसी की ललच ललच डोले।

रख भलाई सँभाल भोलापन।

भूल पाये न मुँह भले भोले।

चाह जो हो कि दुख नचा न सके।

पास से सुख नहीं हिले डोले।

पाँव तो देख भाल कर डाले।

मुँह सँभाले, सँभाल कर बोले।

तब रहे किस लिए भले बनते।

जब भली बात ही नहीं सीखी।

भूल कर चाहिए नहीं कहना।

बात कड़वी, कड़ी, बुरी, तीखी।

बात कह कर कसर-भरी ऐंठी।

हो गई बार बार बरबादी।

बेसधा काम साधा देती है।

बात सीधी, सधी हुई, सादी।

रस न उन का अगर रहे उन में।

तो बनें बोलियाँ सभी सीठी।

है लुभाती भला नहीं किस को।

बात प्यारी, लुभावनी, मीठी।

है बड़ा ही कमाल कर देती।

है सुरुचि-भाल के लिए रोली।

नींव सारी भलाइयों की है।

बात सच्ची, जँची, भली, भोली।

गोद में उस की बड़े ही लाड़ से।

है बहुत सी रंग बिरंगी रुचि पली।

डाल देती है निराले, ढंग में।

बात भड़कीली, ढँगीली, रसढली।

धान रतन धुन उन्हें नहीं रहती।

हैं नहीं मोहते उन्हें मेवे।

मानियों का यही मनाना है।

मान कर बात, मान रख लेवे।

हो न भारी सके कभी हलके।

हैं न छिपती खुली हुई बातें।

तोलने के लिए भला किस को।

तुल गये कह तली हुई बातें।

है बड़ी बेहूदगी जो काम की।

बात सुनने के लिए बहरे बने।

तो किसी गाँव की न गहराई रही।

जो न गहरी बात कह गहरे बने।

छेद जिसमें अनेक हैं उसमें।

सोच लो पौन का ठिकाना क्या।

कढ़ गई कढ़ गई चली न चली।

साँस का है भला ठिकाना क्या।

याद प्रभु को करें जियें जब तक।

लोक-हित की न बुझ सकें प्यासें।

हम गँवा दें इन्हें नहीं यों ही।

हैं बड़ी ही अमोल ए साँसें।

जी सका सब दिनों हवा पी जो।

उस बिचारे के पास ही क्या है।

किस तरह से सुचित हो कोई।

साँस की आस आस ही क्या है।

जो भले भाव भूल में डालें।

तो उन्हें प्यार साथ पोसा क्या।

जो भला कर सको तुरत कर लो।

साँस का है भला भरोसा क्या।

है वही फूला सुखी जो कर सका।

वह न फूला दुख दिया जिस ने सहा।

फूल जैसा फूल जो पाता नहीं।

दम किसी का फूलता तो क्या रहा।

मान की चाह है हमें तो हम।

और का मान कर न कम देवें।

काम साधों कमीनपन न करें।

दाम लेवें मगर न दम देवें।

धाँधाली में हवा हवस की पड़।

क्यों मचाता अनेक ऊधाम है।

जो रहा राम में न रमता तो।

दाम दम का छदाम से कम है।

जो मरम जानते दया का हम।

तो उजड़ता न एक भी खोंता।

क्यों न होता दुलार दुनिया में।

प्यार का पाठ कंठ जो होता।

मोतियों से पिरो न क्यों देवें।

कब समझदार हो सके संठे।

लंठ के लंठ ही रहेंगे वे।

लंठ लें कंठ में पहन कंठे।

जब किसी का पाँव हैं हम चूमते।

हाथ बाँधो सामने जब हैं खड़े।

लाख या दो लाख या दस लाख के।

क्या रहे तब कंठ में कंठे पड़े।

क्या हुआ प्यारे-पालने में।

जो नहीं है कमाल भेजे में।

वे रखे जाँय कालिजों में भी।

जो गये हैं रखे कलेजे में।

मन मरे दूर हो अमन जिससे।

सुख पिसे, चूर चूर हो, नेकी।

है बनाती कड़ा नहीं किस को।

वह कड़ाई कड़े कलेजे की।

तब भला किस तरह भलाई हो।

भर गई भूल जब कि भेजे में।

तब सके गाँठ हम कहाँ मतलब।

पड़ गई गाँठ जब कलेजे में।

बन पराया मिले परायापन।

कब तपाया हमें नहीं तप ने।

और के हाथ में न दिल दे दें।

दिल सदा हाथ में रखें अपने।

बात उलझी बहँक बहँक न कहें।

बात सुलझी सँभल सँभल बोलें।

पड़ न पावे गिरह किसी दिल में।

लें गिरह बाँधा दिल गिरह खोलें।

बेबसी है बरस रही जिस पर।

तीर उस पर न तान कर निकले।

यह कसर है बहुत बड़ी दिल की।

सर हुए पर, न दिल कसर निकले।

बीज बो कर बुरे बुरे फल के।

कब भले फल फले फलाने से।

दुख मिले क्योें न और को दुख दे।

दिल जले क्यों न दिल जलाने से।

छोड़ दे छल, कपट, छिछोरापन।

देख कर छबि न जाय बन छैला।

और के माल पर न हो मायल।

दिल किसी मैल से न हो मैला।

वह भरा है भयावनेपन से।

है हलाहल भरा हुआ प्याला।

साँप काला पला उसी में है।

काल से है कराल दिल काला।

मान औरों की न मनमानी करे।

क्यों रहे अभिमान कर हठ ठानता।

है इसी में मान, रहता मान का।

ले मना, जो मन नहीं है मानता।

और का बार बार दिल दहला।

भूल कर मन न जाय बहलाया।

तो उमंगें न आन की वु+चलें।

मन अगर है उमंग पर आया।

बीज मीठे जाँय क्यों बोये नहीं।

है अगर यह चाह मीठे फल चखें।

पत रखें, जो पत रखाना हो हमें।

चूक है मन रख न जो हम मन रखें।

सूझ कर सूझता नहीं जिन को।

वे उन्हें दूर की सुझाते हैं।

काम है सूझ बूझ का करते।

पेट की आग जो बुझाते हैं।

है बड़ा वह जो पराया हित करे।

हित हितू का कौन करता है नहीं।

है भला वह, पेट जो पर का भरे।

कौन अपना पेट भरता है नहीं।

अछूते फूल

फूल में कीट, चाँद में धाब्बे।

आग में धूम, दीप में काजल।

मैल जल में, मलीनता मन में।

देख किस का गया नहीं दिल मल।

है बुरा, घास-फूस-वाला घर।

मल भरा तन, गरल भरा प्याला।

रिस भरी आँख, सर भरा सौदा।

मन भरा मैल, दिल कसर वाला।

है कहाँ गोद तो भरी पूरी।

जो सकी गोद में न लाल सुला।

क्या मिला पूत जो सपूत नहीं।

क्या खुली कोख जो न भाग खुला।

क्या रहा ताल तब भरा जल से।

जब कि उस में रहा कमल न खिला।

क्या फली डाल जो सुफल न फली।

क्या खुली कोख जो न लाल मिला।

पुल सकेगा न बँधा सितारों पर।

वु+ल धारा धूल ढुल नहीं सकती।

धुल सकेंगे न चाँद के धाब्बे।

बाँझ की कोख खुल नहीं सकती।

जब नहीं उस ने बुझाई भूख तो।

मोतियों से क्या भरी थाली रही।

जो न उस के फल किसी को मिलसके।

तो फलों से क्या लदी डाली रही।

जोत वै+से मलीन होवेगी।

क्या हुआ भूमि पर अगर पै+ली।

धूल से भर कभी न धूप सकी।

हो सकी चाँदनी नहीं मैली।

आम में आ सका न कड़वापन।

है मिठाई न नीम में आती।

छोड़ ऊँचा सका न ऊँचापन।

नीच की नीचता नहीं जाती।

रस के छींटे

भाग में मिलना लिखा था ही नहीं।

तुम न आये साँसतें इतनी हुईं।

जी हमारा था बहुत दिन से टँगा।

आज आँखें भी हमारी टँग गईं।

सूखती चाह-बेलि हरिआई।

दूधा की मक्खियाँ बनीं माखें।

रस बहा चाँदनी निकल आई।

खिल गये कौल, हँस पड़ीं आँखें।

सादगी चित से उतर पाई नहीं।

है नहीं भूली भलाई आप की।

काढ़ने से है नहीं कढ़ती कभी।

आँख में सूरत समाई आप की।

लोग वै+से न बेबसों सा बन।

रो उठें, खिल पड़ें, खिझें, माखें।

हो न किस पर गया खुला जादू।

देख जादू भरी हुई आँखें।

बेबसी बेतरह सताती है।

वह हुआ जो न चाहिए होना।

थाम कर रह गये कलेजा हम।

कर गया काम आँख का टोना।

मानता मन नहीं मनाने से।

तलमलाते हैं आँख के तारे।

जागते रात बीत जाती है।

माख के या कि आँख के मारे।

वह बहुत ही लुभावनी सूरत।

हम भला भूल किस तरह जाते।

है तुम्हें देख आँख भर आती।

आँख भर देख भी नहीं पाते।

आँसुओं साथ तरबतर हो हो।

हैं जलन के अगर पड़ी पाले।

सूरतों पर बिसूरती आँखें।

सेंक लें आँख सेंकने वाले।

तब कहें वै+से किसी की चाहतें।

रंगतों में प्यार की हैं ढालती।

जब कि मुखड़ों की लुनाई आप की।

आँख में है लोन राई डालती।

लूट ले प्यार की लपेटों से।

दे निबौरी दिखा दिखा दाखें।

पट, पटा कर, न पट सकी जिससे।

क्यों गई पटपटा न वे आँखें।

है पहेली अजीब पेचीली।

हैं खिली बेलि हैं पकी दाखें।

अधाकढ़ी बात अधागिरी पलकें।

अधाखुले होठ अधाखुली आँखें।

प्यार उनसे भला न क्यों बढ़ता।

हो सके पास से न जो न्यारे।

वे उतारे न चित्ता से उतरे।

हिल सके जिनसे आँख के तारे।

देखते ही पसीज जावेंगे।

रीझ जाते कभी न वे ऊबे।

टल सकेंगे न प्यार से तिल भर।

आँख के तिल सनेह में डूबे।

जी टले पास से धाड़कता है।

जोहते मुख कभी नहीं थकते।

आँख से दूर तब करें वै+से।

जब पलक ओट सह नहीं सकते।

देह सुवु+मारपन बखाने पर।

और सुवु+मारपन बतोले हैं।

छू गये नेक फूल के गजरे।

पड़ गये हाथ में फफोले हैं।

धुल रहा हाथ जब निराला था।

तब भला और बात क्या होती।

हाथ के जल गिरे ढले हीरे।

हाथ झाड़े बिखर पड़े मोती।

बात लगती लुभावनी कह सुन।

बन दुखी, हो निहाल, दुख सुख से।

दिल हिले, आँख से गिरे मोती।

दिल खिले, फूल झड़ पड़े मुख से।

चाह कर के हैं बढ़ाते चाह वे।

खिल रहे हैं औ खिला हैं वे रहे।

मिल रहे हैं औ रहे हैं वे मिला।

दे रहे दिल और दिल हैं ले रहे।

क्यों पियेगा ललक चकोर नहीं।

जायगी चंद की कला जो मिल ।

फूल खिला क्यों लुभा न दिल लेगा।

चोर दिल का न क्यों चुरा ले दिल।

लोचनों की ललक हुई दूनी।

वह बिना मोल का बना चेरा।

देख कर लोच लोच वाले का।

रह गया दिल ललच ललच मेरा।

बाप माँ के अडोल कानों को।

बूँद मिलती न तो अमी घोली।

बोल अनमोल रस लपेटे जो।

बोलतीं बेटियाँ न मुँहबोली।

नोक-झाेंक

जा रही हैं सूखती सुख क्यारियाँ।

जो रहीं न्यारे रसों से सिंच गईं।

खिंच गये तुम भी इसी का रंज है।

खिंच गईं भौंहें बला से खिंच गईं।

साँच को आँच है नहीं लगती।

हम करेंगे कभी नहीं सौंहें।

चिढ़ गये तो चिढ़े रहें डर क्या।

चढ़ गईं तो चढ़ी रहें भौंहें।

जाय जिससे वु+चल कभी कोई।

चाल ऐसी भले न चलते हैं।

आप तो बात ही बदलते थे।

आँख अब किसलिए बदलते हैं।

जब जगह रह गई नहीं जी में।

तब भला क्यों न जी फिरा पाते।

जब बचा रह गया न अपनापन।

आँख वै+से न तब बचा जाते।

जो बहुत से भेद जी के थे छिपे।

आँख से ही लग गये उन के पते।

क्या हुआ जी की अगर चोरी खुली।

जब रहे आँखें चुरा कर देखते।

क्या अजब जो ललक पड़ें; उमगें।

खिल उठें, स्वांग सैकड़ों रच लें।

मुँह खिला देख प्यार-पुतलों का।

आँख की पुतलियाँ अगर मचलें।

पक गया जी, नाक में दम हो गया।

तुम न सुधारे, सिर पड़ी हम ने सही।

हँस रहे हो या नहीं हो हँस रहे।

पर तुमारी आँख तो है हँस रही।

छोड़िये ऐंठ मानिये बातें।

किसलिए आप इतने ऐंठे हैं।

आइये आँख पर बिठायेंगे।

आज आँखें बिछाये बैठे हैं।

हम तुम्हें देख देख जीयेंगे।

और के मुँह को देख तुम जी लो।

हम न बदलेंगे रंग अपना, तुम।

आँख अपनी बदल भले ही लो।

हम सदा जी दिया किये तुम को।

तुम हमें जी कभी नहीं देते।

आँख हम तो नहीं बदलते हैं।

आप हैं आँख क्यों बदल लेते।

वु+छ पसीजी और जी के मैल को।

एक दो बूँदें गिरा, वु+छ धो गईं।

देख लो लाचार तुम भी हो गये।

आज तो दो चार आँखें हो गईं।

लूट लो, पीस दो, मसल डालो।

पर सितम मौत का बसेरा है।

देख ऍंधोरा, यह कहेंगे हम।

आँख पर छा गया ऍंधोरा है।

जब कि धान भर गया बहुत उस में।

तब मुरौअत कहाँ ठहर पाती।

जब उलट कर न आप देख सके।

आँख वै+से न तब उलट जाती।

छूट वै+से हाथ से उसके सकें।

जो किसी को हाथ में नट कर करे।

किस तरह उस से बचावें आँख हम।

जो हमारी आँख ही में घर करे।

देखना ही कमाल रखता है।

प्यार का रंग कब जमा वैसे।

आँख जिस पर ठहर नहीं पाती।

आँख में वह ठहर सके वै+से।

आज भी है याद वैसी ही बनी।

है वही रंगत औ चाहत है वही।

तुम तरस खा कर कभी मिलते नहीं।

आँख अब तक तो तरसती ही रही।

देखने ही के लिए सूरत बनी।

देखने ही में न वह पीछे पड़े।

आँख में चुभ कर न आँखों में चुभे।

आँख में गड़ कर न आँखों में गड़े।

जो किसी को लगा बुरा धाब्बा।

तो ढिठाई उसे नहीं धोती।

सामने आँख तब करें वै+से।

सामने आँख जब नहीं होती।

हो सराबोर तुम रसों में, तो।

मैं रसों का अजीब सोता हूँ।

किस लिए आँख यों बचाते हो।

मैं नहीं आँखफोड़ तोता हूँ।

देखिये क्या कर दिखाता भाग है।

वे भरे हैं और हम भी हैं खरे।

आज वे बेदरदियों पर हैं अड़े।

हम खड़े हैं आँख में आँसू भरे।

तब भला बात का असर क्या हो।

जब असर के न रह गये नाते।

है कसर बैठ जब गई जी में।

किस तरह आँख तब उठा पाते।

तब भला सीधा में कसर क्यों हो।

जब रहे ठीक आँख का तारा।

तब सके चूक किस तरह से वह।

जब गया तीर ताक कर मारा।

आज तक वु+छ भी सँभल पाये नहीं।

बात से तो नित सँभलते ही रहे।

ढंग बदलें जो बदलते बन सके।

आप तेवर तो बदलते ही रहे।

काम टेढे से बने टेढे चला।

मान सीधो हो सके सीधो कहे।

क्यों न हम भी आज तेवर लें चढ़ा।

हैं बुरे तेवर दिखाई दे रहे।

हम बढ़ी बातें करें तो क्यों करें।

आप ही तो कर बढ़ी बातें बढ़े।

हम चढ़ायेंगे कभी तेवर नहीं।

क्यों न होवें आप के तेवर चढे।

बेतरह अरमान मेरे मिस उठे।

साँसतें सारी उमंगों ने सहीं।

हम रहें तो किस तरह अच्छे रहें।

आज तेवर आप के अच्छे नहीं।

किस लिए उन पर कड़े पड़ते रहे।

हाथ बाँधो जो रहे सब दिन खड़े।

डर हमें तिरछी निगाहों का नहीं।

देखिये अब बल न तेवर पर पड़े।

चाहिए था न चोट यों करना।

पत्थरों के बने न सीने थे।

क्यों भला आप भर गये साहब।

कान ही तो भरे किसी ने थे।

क्यों कहेंगे न, सुन सके; सुन लें।

हम मनायेंगे, आप ऐंठे हैं।

हम सकें मूँद मुँह भला वै+से।

आप तो कान मूँद बैठे हैं।

आप तूमार बाँधा देते हैं।

और हम ने न खोल मुँह पाया।

हो न जावें तमाम हम वै+से।

आपका गाल तमतमा आया।

आप ही जब कि तन गये मुझ से।

तब भला किस तरह भवें न तनें।

जब हुईं लाल लाल आँखें तब।

गाल वै+से न लाल लाल बनें।

भेद कितने बिन खुले ही रह गये।

आज तक भी आप ने खोले नहीं।

आप का मुँह ताकते ही रह गये।

आप तो मुँह भर कभी बोले नहीं।

किस तरह से दूसरे मीठे बने।

और हम वै+से बने तीते रहे।

आप मुँह से बोल तक सकते नहीं।

आप का मुँह देख हम जीते रहे।

हैं हमीं ऐसे कि जिस को हर घड़ी।

निज सगों का ही बना खटका रहा।

लख लटूरे बाल को जी लट गया।

लट लटकती देख मुँह लटका रहा।

आँख से क्या निकल पड़े आँसू।

मैल जी का सहल नहीं धुलना।

आप मुँह देख जीभ ले ही लें।

है बहुत ही मुहाल मुँह खुलना।

बढ़ गये पर बुरे बखेड़ों के।

बैर का पाँव गाड़ना देखा।

हो गये पर बिगाड़ बिगड़े का।

मुँह बिगड़ना बिगाड़ना देखा।

वह उतर कर चढ़ा रहा चित पर।

रंग लाया पसीज पड़ कर भी।

बन गई बात बिन बनाये ही।

रंग मुँह का बना बिगड़ कर भी।

कारनामा वह बहुत आला रहा।

आप की करतूत है भोंड़ी बड़ी।

मुँह दिया था दैव ने ही तो बना।

आप को क्या मुँह बनाने की पड़ी।

क्यों न सब दिन मुँह चुराते वे रहें।

चोर को देती चिन्हा हैं चोरियाँ।

हैं बड़ी कमजोरियाँ उन में भरी।

देख लीं मुँहजोर की मुँहजोरियाँ।

बात वह भी लगी बहुत खलने।

आप को जो न थी कभी खलती।

अब लगे आप मुँह चलाने क्यों।

जीभ तो कम नहीं रही चलती।

इस तरह का बना कलेजा है।

जो कि सारी मुसीबतें सह ले।

बेधाड़क आग मुँह उगल लेवे।

जीभ बातें गरम गरम कह ले।

आप साहस बँधाइये मुझ को।

क्या करेंगी भली बुरी घातें।

देखिये दब न जाय जी मेरा।

सुन दबी जीभ की दबी बातें।

जब कि नीरस बात मुँह पर आ गई।

किस तरह रस-धार तब जी में बहे।

छरछराहट जब कलेजे में हुई।

मुसवु+राहट होठ पर वै+से रहे।

प्यार का वु+म्हला गया मुखड़ा खिला।

पड़ गये अरमान पर रस के घड़े।

मैल कितना ही निकल पल में गया।

खोल कर दिल खिलखिलाकर हँस पड़े।

आँख वै+से न तब बहा करती।

आँख ही आँख जब गड़ाती है।

किस तरह तब हँसी न छिन जाती।

जब हँसी ही हँसी उड़ाती है।

दिल छिलेंगे कभी न क्या उन के।

क्या पड़ेंगे न जीभ पर छाले।

बेतरह छिल गये कलेजे को।

छील लें बात छीलने वाले।

सामना जब बदसलूकी का हुआ।

तब बिचारी बूझ जाती दब न क्यों।

बान ही जब है उलझने की पड़ी।

बात कह उलझी उलझते तब न क्यों।

दिल भला किस तरह न जाता हिल।

जब कपट से न ठीक ठीक पटी।

जीभ वै+से न लटपटा जाती।

बात कहते हुए लगी लिपटी।

बान जिन की पड़ी बहकने की।

मानते वे नहीं बिना बहके।

बेतुकापन नहीं दिखाते कब।

बेतुके बात बेतुकी कह के।

जब सुलझना उन्हें नहीं आता।

तब गिरह खोल किस तरह सुलझें।

चाल का जाल जब बिछाते हैं।

तब न क्यों बात बात में उलझें।

लूटते हैं फँसा लपेटों में।

बेतरह हैं कभी कभी ठगते।

कब नहीं बूझ से गये तोले।

हैं बतोले बहुत बुरे लगते।

जो किसी चित से नहीं पाती उतर।

दे बना बेचैन वह मूरत नहीं।

अनबनों में पड़ न आँखों में गड़े।

देखिये बिगड़े बनी सूरत नहीं।

सब तरह के लाभ की बातें सुना।

रुचि बहुत ही आज बहलाई गई।

किस तरह देखे बिना सूरत जियें।

वह हमें सूरत न बतलाई गई।

भौंह सीधी, हँसी बहुत सादी।

औ सरलपन भरी हुई बोली।

हम भला भूल किस तरह देवें।

भूलती हैं न सूरतें भोली।

लालसा है रस बरसती ही रहे।

पर तुमारी आँख रिस से लाल है।

यह चमेली है खिलाना आग में।

यह हथेली पर जमाना बाल है।

प्यारे का प्याला नहीं हम भर सके।

भर सको तो अब उसे भर लो तुम्हीं।

हम तुम्हें तो ले न मूठी में सके।

मूठियों में अब हमें कर लो तुम्हीं।

गुदगुदायें औ रिझायें रीझ कर।

बात मीठी बोल कर मन मोल लें।

दूसरा तो खोल सकता ही नहीं।

खोलना हो आप मूठी खोल लें।

काम कब तक भला बनावट दे।

रीझ कब तक भला रहे रूठी।

बोलते बोलते गये खुल हम।

खोलते खोलते खुली मूठी।

हम बलायें आप की हैं ले रहे।

और हम पर आप लाते हैं बला।

चाल चलने से कभी चूके नहीं।

चाह है तो लो तमाचे भी चला।

यह सताने में सहमता ही नहीं।

सब सुखों के हैं हमें लाले पड़े।

सुन गँसीली बात हाथों के मले।

छिल गया दिल, हाथ में छाले पड़े।

मत बचन-बान मार बीर बनें।

क्या नहीं प्यार प्यार-थाती में।

छेद लें छेदने चले हैं तो।

देखिये हो न छेद छाती में।

आप के जैसा जिसे हीरा मिले।

क्यों मरे वह चाट हीरे की कनी।

आप तन करके हमें तन बिन न दें।

जो तनी है तो रहे छाती तनी।

जब कभी बात तर कही न गई।

हो सके किस तरह कलेजा तर।

देखना हो अगर दहल दिल की।

देखिये हाथ रखकर कलेजे पर।

किस तरह प्यार कर सकें उन को।

जो चुभे बार बार नेजे से।

दुख कलेजा गया जिन्हें देखे।

क्यों लगायें उन्हें कलेजे से।

बेतरह रोब गाँठते ही थे।

अब गया मौत को सहेजा क्यों।

आँख तो आप काढ़ते ही थे।

अब लगे काढ़ने कलेजा क्यों।

किस तरह रीझता रिझाये वह।

जब किये प्यार खीज खीजा ही।

किस तरह तब पसीजता कोई।

जब कलेजा नहीं पसीजा ही।

है बड़े बेपीर से पाला पड़ा।

भाग में सुख है न दुखियों के लिखा।

जो कलेजा देख दुख पिघला नहीं।

तो कलेजा काढ़ वै+से दें दिखा।

प्यार ही से भरा हुआ वह है।

देख लें देख वे सकें जैसे।

जब निकलती नहीं कसर जी की।

हम कलेजा निकाल दें वै+से।

ताड़ने वाले नहीं कब ताड़ते।

तोड़ना है दिल अगर तो तोड़ लो।

मुँह चिढ़ा लो मोड़ लो मुँह बक बहँक।

फोड़ लो दिल के फफोले फोड़ लो।

वे चुहल के चाव के पुतले बने।

चोचलों का रंग है पहचानते।

चाल चखना, चौंकना, जाना मचल।

दिल चलाना दिलचले हैं जानते।

वह भला है, है भलाई से भरा।

या घिनौने भाव हैं उस में घुसे।

खोल कर हम दिल दिखायें किस तरह।

देख लें दिल देखने वाले उसे।

देखने दें मूँद आँखों को न दें।

हिल गये क्यों, जो गई है जीभ हिल।

आप छन भर सोचने देवें हमें।

सब गया छिन, अब न लेवें छीन दिल।

वु+छ नहीं रंग ढंग मिल पाता।

हिल गया वह, कभी गया वह खिल।

क्या भला खीज कर किया दिल ने।

क्या करेगा पसीज करके दिल।

क्यों हँसी मेरी उड़ाती है हँसी।

बात रंगत में चुहल की क्यों ढली।

किस लिए दिल काटने चुटकी लगा।

आप ने चुटकी अगर दिल में न ली।

प्यार तो हम किया करेंगे ही।

बारहा क्यों न जाय दिल फेरा।

दिलचले हम बने रहेंगे ही।

क्यों न हो दिल दलेल में मेरा।

प्यार जब चाहते नहीं करना।

क्यों न सुन नाम प्यार का काँखें।

रंग बदला, बदल गये तेवर।

दिल बदलते बदल गईं आँखें।

कर सके तो कर दिखाये प्यार ही।

वह सितम के खोज ले हीले नहीं।

ले भले ही ले दुखाये दिल नहीं।

छीन ले दिलदार दिल छीले नहीं।

है कलह तोर मोर का पुतला।

है कपट का उसे मिला ठीका।

है भरी पोर पोर कोर कसर।

वह बड़ा ही कठोर है जी का।

हम नहीं आँखें लड़ाना चाहते।

हैं लड़ाकी आप की आँखें लड़ें।

आप जी में जल रहे हैं तो जलें।

क्यों फफोले और के जी में पड़ें।

अब न आँसू आँख में मेरी रहा।

आप ने आँखें उठा ताका नहीं।

क्यों पके जी का मरम वह, पा सके।

हो गया जिसका कि जी पाका नहीं।

थीं पसंद बनाव की बातें हमें।

अलबनों का तुम गला रेते रहे।

कब रहे लेते हमारा जी न तुम।

हम तुम्हें कब जी नहीं देते रहे।

बात पर आन बान वालों की।

आप क्यों कान दे नहीं सकते।

तो गँवा मान और क्या माँगें।

जी अगर दान दे नहीं सकते।

बे ठने उस से रहेगी किस तरह।

जो कि उठते बैठते है ऐंठता।

बात क्यों उस से बिठाये बैठती।

फेर करके पीठ जो है बैठता।

आप के हाथ ही बिके हम हैं।

रुचि रही कब न आप की चेरी।

है अगर चाह भाँप लेने की।

आप तो पीठ नाप लें मेरी।

अड़ गये अपनी जगह पर गड़ गये।

देख लो तुम टाल टलते ही नहीं।

हम न मचले हैं चलें तो क्यों चलें।

ए हमारे पाँव चलते ही नहीं।

अनमोल हीरे

दृष्टान्त

है जिन्हें सूझ, जोड़ से ही, वे।

भिड़ सके लाग डाँट साथ बड़ी।

भूल कर भी लड़ी न भौंहों से।

जब लड़ी आँख साथ आश्ँख लड़ी।

देख कर रंग जाति का बदला।

जाति का रंग है बदल जाता।

देख आँखें हुईं लहू जैसी।

आँख में है लहू उतर आता।

देख दुख से अधीर संगी को।

है जनमसंगिनी लटी पड़ती।

दाढ़ है दाँत के दुखे दुखती।

सिर दुखे आँख है फटी पड़ती।

तब भलाई भूल जाती क्यों नहीं।

जब सचाई ही नहीं भाती रही।

जोत तब वै+से चली जाती नहीं।

जब किसी की आँख ही जाती रही।

कौन आला नाम रख आला बना।

है जहाँ गुन, है निरालापन वहीं।

साँझ फूली या कली फूली फबी।

आँख की फूली फबी फूली नहीं।

एक से जो दिखा पड़े, उनका।

एक ही ढंग है न दिखलाता।

है कमल फूलना भला लगता।

आँख का फूलना नहीं भाता।

काम क्या अंजाम देगा दूसरा।

जब नहीं सकते हमीं अंजाम दे।

दे सकेगा काम सूरज भी तभी।

जब कि अपनी आँख का तिल कामदे।

पड़ बुरों में संगतें पाकर बुरी।

सूझ वाला कब बुराई में फँसा।

देख लो काली पुतलियों में बसे।

आँख के तिल में न कालापन बसा।

तब भला मैली वु+चैली औरतें।

क्यों न पायेंगी निराले पूत जन।

आँख की काली कलूटी पुतलियाँ।

जब जनें तिल सा बड़ा न्यारा रतन।

फूट पड़ता है उँजाला भी वहाँ।

घोर ऍंधिायाली जहाँ छाई रही।

जगमगा काली पुतलियों में हमें।

जोत वाले तिल जताते हैं यही।

सूझ वाले एक दो ही मिल सके।

और सब अंधो मिले हम को यहाँ।

देखने को देह में तिल हैं न कम।

आँख के तिल से मगर तिल हैं कहाँ।

वह कभी खींच तान में न पड़ा।

है जिसे आन बान की न पड़ी।

मोतियों से बनी लड़ी से कब।

आँसुओं की लड़ी लड़ी झगड़ी।

बीरपन से तन गयों के सामने।

कब जुलाहे जन सके ताना तने।

सूर कहला ले, मगर क्यों सूरमा।

सूरमापन के बिना अंधा बने।

भेख सच्चा दिखा पड़ा न हमें।

देख पाये जहाँ तहाँ भेखी।

फूल कब पा सके किसी से हम।

नाक फूली हुई बहुत देखी।

वे सभी क्यारियाँ निराली हैं।

बेलियाँ हैं जहाँ अजीब खिली।

कब सकीें बोल बोलियाँ न्यारी।

बोलती नाक कम हमें न मिली।

जिस जगह पर लगें भले लगने।

चाहिए हम वहीं उमग अटकें।

हैं कहीं पर अगर लटक जाना।

तो लटें गाल पर न क्यों लटकें।

लोग वै+से उलझ सकेंगे तब।

जब हमारी निगाह हो सुलझी।

बान होते हुए है उझलने की।

लट कभी गाल से नहीं उलझी।

है लुनाई फिसल रही जिस पर।

है उसे काम क्या कि वु+छ पहने।

गोल सुथरे सुडौल गालों के।

बन गये रूप रंग ही गहने।

वु+छ बड़ों से हो न, पर कितनी जगह।

काम करता है बड़ों का मेल ही।

पत बचाती है उसी की चिकनई।

गाल का तिल क्यों न हों बेतेल ही।

सब जगह बात रह नहीं सकती।

बात का बाँधा दें भले ही पुल।

हम रहें क्यों न गुलगुले खाते।

रह सका गाल कब सदा गुलगुल।

जो कि सुख के बने रहे कीड़े।

वे पडे देख दुख उठाते भी।

जो उठें तो उठें सँभल करके।

हैं उठे गाल बैठे जाते भी।

खोजने से भले नहीं मिलते

पर बुरों के सुने कहाँ न गिले।

मिल गये बार बार बू वाले।

मुँह महँकते हमें कहीं न मिले।

लत बुरी छूटती नहीं छोड़े।

क्यों न दुख के पड़े रहें पाले।

पान का चाबना कहाँ छूटा।

मुँह छिले और पड़ गये छाले।

जो उन्हें गुन का सहारा मिल सके।

बात तो कब गढ़ नहीं लेते गुनी।

देख तो पाई नहीं पर बारहा।

बात ‘बूढ़े मुँह मुँहासे’ की सुनी।

दुख मिले चाहे किसी को सुख मिले।

है सभी पाता सदा अपना किया।

आप ही तो वह ऍंधोरे में पड़ा।

जो किसी मुँह ने बुझा दीया दिया।

जो भरोसे न भाग के सोये।

देव उन से फिरा नहीं फिर कर।

जो रखें जान गिर उठें वे ही।

कब भला दाँत उठ सका गिर कर।

हैं दुखी दीन को सताते सब।

हो न पाई कभी निगहबानी।

लग सका और दाँत में न कभी।

हिल गये दाँत में लगा पानी।

नटखटों से बचे रहें कब तक।

जब उन्हें छोड़ नटखटी न हटी।

क्या हुआ बार बार बच बच कर।

कब भला दाँत से न जीभ कटी।

क्यों किसी बेगुनाह को दुख दें।

छूट क्यों जाँय कर गुनाह सगे।

और के हाथ में लगे तब क्यों।

जब बुरी जीभ में न दाँत लगे।

जो बड़प्पन है न तो वै+से बड़ा।

बन सके कोई बड़ाई पा बड़ी।

देख लो कवि के बनाने से कहाँ।

दाँत की पाँती बनी मोती-लड़ी।

सैकड़ों नेकियाँ किये पर भी।

नीच है ढा बिपत्तिा कल लेता।

जीभ है दाँत की टहल करती।

दाँत है जीभ को वु+चल देता।

कर सकेंगे हित बने उतना न हित।

कर सकेगा हित सदा जितना सगा।

दे सकेंगे सुख न असली दाँत सा।

देख लो तुम दाँत चाँदी के लगा।

है बुरी लत का लगाना ही बुरा।

बन हठीली क्यों न वह हठ ठानती।

हम अमी भर भर कटोरी नित पियें।

पर चटोरी जीभ कब है मानती।

नित बुराई बुरे रहें करते।

पर भली कब भला रही न भली।

दाँत चाहे चुभें, गड़ें, वु+चलें।

पर गले दाँत जीभ कब न गली।

सग दुखों से सगा दुखी होगा।

जल ढलेगा जगह मिले ढालू।

प्यास से जब कि सूखता है मुँह।

जायगा सूख तब न क्यों तालू।

हित करेंगे जिन्हें कि हित भाया।

लोग चाहे बने रहें रूखे।

जीभ क्यों चाट चाट तर न करे।

लब तनिक भी अगर कभी सूखे।

जो भले हैं भला करेंगे ही।

वु+छ किसी से कभी बने न बने।

तर किया कब न जीभ ने लब को।

क्या किया जीभ के लिए लब ने।

बस नहीं जिस बात में ही चल सका।

हो गई उस बात में ही बेबसी।

क्यों न भूखा भूख के पाले पड़े।

क्यों न सूखा मुँह हँसे सूखी हँसी।

कर सकेंगी संगतें वै+से असर।

सब तरह की रंगतें जब हों सधी।

लाल कब लब की ललाई से हुई।

कब हँसी उस की मिठाई से बँधी।

बाढ़ परवाह ही नहीं करती।

क्यों न उस पर बिपत्तिा हो ढहती।

हम मुड़ा लाख बार दें लेकिन।

मूँछ निकले बिना नहीं रहती।

है सभी खीज खीज जाते तब।

रंज जब जान बूझ हैं देते।

बीसियों बार मनचले लड़के।

मूँछ तो नोच नोच हैं लेते।

हो सके काम जो समय पर ही।

हो सका वह न ठान ठाने से।

पाँव लेवें जमा भले ही हम।

मूँछ जमती नहीं जमाने से।

पट सके, या पट न औरों से सव+े।

पर कहीं ”नटखट” भला है बन गया।

पड़ सके या पड़ सके पूरी नहीं।

मूँछ भूरी का न भूरापन गया।

कब भलाई से भलाई ही हुई।

सादगी से बात सारी कब सधी।

साधा रह जाती सिधाई की नहीं।

देख सीधी दाढ़ियों को भी बँधी।

बाहरी रूप रंग भावों ने।

भीतरी बात है बहुत काढ़ी।

खुल भला क्यों न जाय सीधापन।

देख सीधी खुली हुई दाढ़ी।

गुन तभी पा सके निरालापन।

जब गुनी जन बुरे नहीं होते।

सुर तभी हैं कमाल दिखलाते।

जब गले बेसुरे नहीं होते।

है किसी में अगर नहीं जौहर।

बीर तो वह बना न कर हीले।

सूरमापन कभी नहीं पाता।

काट सूरन गला भले ही ले।

जो बना जैसा बना वैसा रहा।

बन सका कोई बनाने से नहीं।

चितवनें तिरछी सदा तिरछी मिलीं।

गरदनें ऐंठी सदा ऐंठी रहीं।

सब पढ़े पा सके न पूरा ज्ञान।

हैं बहुत से पढ़े लिखे भी लंठ।

सुर सबों में दिखा सका न कमाल।

कम न देखे गये सुरीले कंठ।

सब दयावान ही नहीं होते।

औ सभी हो सके कभी न भले।

सैकड़ों ही कठोर हाथों से।

फूल से कंठ पर वु+ठार चले।

बात मुँह से तब निकल वै+से सके।

जब सती का हाथ लोहू में सने।

फूट पाये कंठ तब वै+से भला।

कंठ-माला कंठमाला जब बने।

क्यों हुनर दिखला न मन को मोह लें।

दूसरों के रूप गुन पर क्यों जलें।

कोयले से रंग पर ही मस्त रह।

हैं निराला राग गातीं कोयलें।

पा सहारा जाति के ही पाँव का।

जाति का है पाँव जम कर बैठता।

जाति ही है जाति की जड़ खोदती।

हाथ ही है हाथ को तो ऐंठता।

ढंग से बचते बचाते ही रहें।

बे-बचाये कीन बच पाया कहीं।

जो बचावों को नहीं है जानता।

ब्योंचने से हाथ वह बचता नहीं।

कौन बैरी हितू किसी का है।

है समय काम सब करा लेता।

तरबतर तेल से किया जिसने।

है वही हाथ सर कतर देता।

कर सकी न बुरा बुरी संगति उसे।

दैव दे देता जिसे है बरतरी।

बाँह बदबूदार होती ही नहीं।

क्यों न होवे काँख बदबू से भरी।

नेक तो नेकियाँ करेंगे ही।

क्यों बिपद पर बिपद न हो आती।

क्या नहीं पाक दूधा देती है।

पीप से भर गई पकी छाती?।

है बुरी रुचि ही बना देती बुरा।

क्यों सहें लुचपन भली रुचि-थातियाँ।

लाड़ दिखला दूधा पीने के समय।

क्या नहीं लड़के पकड़ते छातियाँ।

भेद वु+छ छोटे बड़े में है नहीं।

बान पर-हित की अगर होवे पड़ी।

थातियाँ हित की बनी सब दिन रहीं।

हों भले ही छातियाँ छोटी बड़ी।

दैव की करतूत ही करतूत है।

कब मिटाये अंक माथे के मिटे।

आज तक तो एक भी छाती नहीं।

हो सकी चौड़ी हथौड़ी के पिटे।

दुख न सब को सका समान सता।

मिस गये फूल लौं सभी न मिसे।

वह दिया जाय पीस कितना ही।

पाँव बनता नहीं पिसान पिसे।

पीसते लोग हैं निबल को ही।

गो सबल बार बार खलते हैं।

जब गये फूल ही गये मसले।

संग को पाँव कब मसलते हैं।

नीच से नीच क्यों न हो कोई।

है न ऊँचे टहल-समय टलते।

पाँव जब दुख रहे हमारे हों।

हाथ तब क्या उन्हें नहीं मलते।

ऐंठ में डूब जो बहुत बहँका।

क्यों न उस पर भला बिपद पड़ती।

जब गई फूल औ चली इतरा।

किस लिए तब न पंखड़ी झड़ती।

अन्योक्ति

बाल

बीर ऐसे दिखा पड़े न कहीं।

सब बड़े आनबान साथ कटे।

जब रहे तो डँटे रहे बढ़ कर।

बाल भर भी कभी न बाल हटे।

नुच गये, खिंच उठे, गिरे, टूटे।

और झख मार अन्त में सुलझे।

कंघियों ने उन्हें बहुत झाड़ा।

क्या भला बाल को मिला उलझे।

मैल अपना सके नहीं कर दूर।

और रूखे बने रहे सब काल।

मुड़ गये जब कि वे सिधाई छोड़।

तो हुआ ठीक मुड़ गये जो बाल।

हैं दुखाते बहुत, गले पड़ कर।

सब उन्हें हैं सियाहदिल पाते।

है कमी भी नहीं कड़ाई में।

किस लिए बाल फिर न झड़ जाते।

वे कभी तो पड़े रहे सूखे।

औ कभी तेल से रहे तर भी।

की किसी बात की नहीं परवा।

बाल ने बाल के बराबर भी।

या बरसता रहा सुखों का मेह।

या अचानक पड़ा सुखों का काल।

धार से या बहुत सुधार सुधार।

बन गये या गये बनाये बाल।

निज जगह पर जमे रहे तो क्या।

क्या हुआ बार बार धुल निखरे।

चल गये पर हवा बहुत थोड़ी।

जब कि ए बाल बेतरह बिखरे।

धूल में मिल गया बड़प्पन सब।

था भला, थे जहाँ, वहीं झड़ते।

क्या यही चाहिए सिरों पर चढ़।

बाल हो पाँव पर गिरे पड़ते।

किस तरह हम तुम्हें कहें सीधो।

जब कि आँख में समा गड़ते।

हो न सुथरे न चीकने सुधारे।

जब कि हो बाल! तुम उखड़ पड़ते।

चोटी

जो समय के साथ चल पाते नहीं।

टल सकी टाले न उन की दुख-घड़ी।

छीजती छँटती उखड़ती क्यों नहीं।

जब कि चोटी तू रही पीछे पड़ी।

निज बड़ों के सँग बुरा बरताव कर।

है नहीं किस की हुई साँसत बड़ी।

क्यों नहीं फटकार सहती बेहतर।

जब कि चोटी मूँड़ के पीछे पड़ी।

सिर और पगड़ी

सिर! उछालीं पगड़ियाँ तुम ने बहुत।

कान कितनों का कतर यों ही दिया।

लोग भारी कह भले ही लें तुम्हें।

पर तुमारा देख भारीपन लिया।

सूझ के हाथ पाँव जो न चले।

जो बनी ही रही समझ लँगड़ी।

तो तुमारी न पत रहेगी सिर।

पाँव पर डालते फिरे पगड़ी।

जब तुम्हीं ने सब तरह से खो दिया।

तो बता दो काम क्या देती सई।

सोच है पगड़ी उतरने का नहीं।

सिर! तुमारी तो उतर पत भी गई।

देखता हूँ आजकल की लत बुरी।

सिर तुमारी खोपड़ी पर भी डटी।

लाज पगड़ी की गँवा, मरजाद तज।

जो तुमारी टोपियों से ही पटी।

दो जने कोई बदल करके जिन्हें।

कर सके भायप रँगों में रँग बसर।

है तुमारे सारपन की ही सनद।

सिर तुमारी उन पगड़ियों का असर।

सिर और सेहरा

सोच लो, जी में समझ लो, सब दिनों।

यों लटकती है नहीं मोती-लड़ी।

जब कि तुम पर सिरसजा सेहरा बँधा।

मुँह छिपाने की तुम्हें तब क्या पड़ी।

ला न दें सुख में कहीं दुख की घड़ी।

ढा न दें कोई सितम आँखें गड़ी।

मौर बँधाते ही इसी से सिर तुम्हें।

देखता हूँ मुँह छिपाने की पड़ी।

अनसुहाती रंगतें मुँह की छिपा।

सिर! रहें रखती तुम्हारी बरतरी।

इस लिए ही हैं लटक उस पर पड़ी।

मौर की लड़ियाँ खिले फूलों भरी।

पाजियों के जब बने साथी रहे।

जब बुरों के काम भी तुम से सधो।

क्या हुआ सिरमौर तो सब के बने।

क्या हुआ सिर! मौर सोने का बँधो।

सिर और पाँव

जो बड़े हैं भार जिन पर है बहुत।

वे नहीं हैं मान के भूखे निरे।

है न तन के बीच अंगों की कमी।

पर गिरे जब पाँव पर तब सिर गिरे।

लोग पर के सामने नवते मिले।

पर न ये कब निज सगों से, जी फिरे।

दूसरों के पाँव पर गिरते रहे।

पर भला निज पाँव पर कब सिर गिरे।

तोड़ सोने को न लोहा बढ़ सका।

मोल सोने का गया टूटे न गिर।

पाँव ने सिर को अगर दीें ठोकरें।

तो हुआ ऊँचा न वह, नीचा न सिर।

सिर

क्या हुआ पा गये जगह ऊँची।

जो समझ औ बिचार कर न चले।

सिर! अगर तुम पड़े वु+चालों में।

तो हुआ ठीक जो गये वु+चले।

जो कि ताबे बने रहे सब दिन।

वे सँभल लग गये दिखाने बल।

हाथ क्या, उँगलियाँ दबाती हैं।

सिर! मिला यह तुम्हें दबे का फल।

सोच कर उस की दसा जी हिल गया।

जो कि मुँह के बल गिर ऊँचे गये।

जब बुरे वू+चे तुम्हें रुचते रहे।

सिर ! तभी तुम बेतरह वू+ँचे गये।

पा जिन्हें धारती उधारती ही रही।

लोग जिनके अवतरे उबरे तरे।

सिर! गिरे तुम जो न उन के पाँव पर।

तो बने नर-देह के क्या सिरधारे।

है जिसे प्रभु की कला सब थल मिली।

पत्तिायों में, पेड़ में, फल फूल में।

ली नहीं जो धूल उनके पाँव की।

सिर! पड़े तो तुम बड़ी ही भूल में।

बात वह भूले न रुचनी चाहिए।

जो कि तुम को बेतरह नीचा करे।

सिर ! तुम्हीं सिरमौर के सिरमौर हो।

औ तुम्हीं हो सिरधारों के सिरधारे।

दे जनम निज गोद में पाला जिन्हें।

क्या पले थे वे कटाने के लिए।

खेद है सुख चाह बेदी पर खुले।

सिर! बहुत से बाल तूने बलि दिये।

बाल में सारे पु+लेलों के भले।

सब सराहे फूल चोटी में लसे।

सिर! सुबासित हो सकोगे किस तरह।

जब बुरी रुचि-वास से तुम हो बसे।

कब नहीं उस की चली, वु+ल ब्योंत ही।

सब दिनों जिस की बनी बाँदी रही।

माँग पूरी की गई है कब नहीं।

सिर! तुमारी कब नहीं चाँदी रही।

सिर! छिपाये छिप न असलियत सकी।

बज सके न सदा बनावट के डगे।

सब दिनों काले बने कब रह सके।

बाल उजले बार कितने ही रँगे।

छोड़ रंगीनी सुधार सादे बनो।

यह सुझा कर बीज हित का बो चले।

चोचले करते रहोगे कब तलक।

सिर! तुमारे बाल उजले हो चले।

माथा

छूट पाये दाँव-पेचों से नहीं।

औ पकड़ भी है नहीं जाती सही।

हम तुम्हें माथा पटकते ही रहे।

पर हमारी पीठ ही लगती रही।

चाहिए था पसीजना जिन पर।

लोग उन पर पसीज क्यों पाते।

जब कि माथा पसीज कर के तुम।

हो पसीने पसीने हो जाते।

तिलक

हो भले देते बुरे का साथ हो।

भूल कर भी तुम तिलक खुलते नहीं।

किस लिए लोभी न तुम से काम लें।

तुम लहर से लोभ को धुलते नहीं।

हो भलाई के लिए ही जब बने।

तब तिलक तुम क्यों बुराई पर तुले।

भेद छलियों के खुले तुम से न जब।

भाल पर तब तुम खुले तो क्या खुले।

क्यों नहीं तुम बिगड़ गये उन से।

जो तुम्हें नित बिगाड़ पाते हैं।

किस लिए हाथ से बने उन के।

जो तिलक नित तुम्हें बनाते हैं।

की गई साँसत धारम के नाम पर।

जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे।

किस लिए माथे किसी के पड़ गये।

जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे।

हो धारम का रंग बहुत तुम पर चढ़ा।

हो भले ही तुम भलाई में सने।

पर तिलक जब है दुरंगी ही बुरी।

तब भला क्या सोच बहुरंगी बने।

नेक के सिर पर पड़ीं कठिनाइयाँ।

नेकियों की ही लहर में हैं बही।

तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे।

पर तुमारी पूछ होती ही रही।

लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हें।

रंग जितने ही बुरे हों चढ़ गये।

पर तिलक इस बात को सोचो तुम्हीं।

इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये।

किस लिए यों बँधी लकीरों पर।

हो बिना ही हिले डुले अड़ते।

है सिधाई नहीं तिलक तुम में।

जब कि हो काट छाँट में पड़ते।

हो तिलक तुम रूप रंग रखते बहुत।

हैं तुमारा भेद पा सकते न हम।

रँग किसी बहुरूपिये के रंग में।

हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम।

आँख

सूर को क्या अगर उगे सूरज।

क्या उसे जाय चाँदनी जो खिल।

हम ऍंधोरा तिलोक में पाते।

आँख होते अगर न तेरे तिल।

क्या हुआ चौकड़ी अगर भूले।

लख उछल वू+द और छल करना।

है छकाता छलाँग वालों को।

आँख तेरा छलाँग का भरना।

काम करती रही करोड़ों में।

जब फबी आनबान साथ फबी।

और की कोर ही रही दबती।

आँख तेरी कभी न कोर दबी।

काजलों या कालिखों की छूत में।

कम अछूतापन नहीं तेरा सना।

धूल लेकर के अछूते पाँव की।

ऐ अछूती आँख तू सुरमा बना।

वह लुभाता है भला किस को नहीं।

थी भलाई भी उसी में भर सकी।

भूल भोलापन गई अपना अगर।

भूल भोली आँख ने तो कम न की।

क्या करेगी दिखा नुकीलापन।

क्या हुआ जो रही रसों बोरी।

सब भली करनियों करीनों से।

आँख की कोर जो रही कोरी।

क्या कहें और व+े सभी दुखड़े।

खेल होते हैं और के लेखे।

फूट जो है उसे बहुत भाती।

आँख तो आप फूट कर देखे।

देख सीधो, सामने हो, फिर न जा।

मान जा, बेढंग चालें तू न चल।

सोच ले सब दिन किसी की कब चली।

एक तिल पर आँख मत इतना मचल।

हम कहें वै+से कि उन में सूझ है।

जब न पर-दुख-आँसुओं में वे बहे।

क्या उँजाले से भरे हो कर किया।

आँख के तिल जब ऍंधोरे में रहे।

हो गईं सब बरौनियाँ उजली।

जोत का तार बेतरह टूटा।

देख ऊबी न तू छटा बाँकी।

आँख तेरा न बाँकपन छूटा।

रस निचुड़ता रहा सदा जिससे।

आज उससे सका न आँसू छन।

आँख अब मत बने रसीली तू।

देख तेरा लिया रसीलापन।

जब कि निज मुख बना लिया काला।

तब किसी मुँह की क्यों सहे लाली।

क्या अजब है अगर मरे जल जल।

कलमुँही आँख काजलों वाली।

मत रहे मस्त रंग में अपने।

मत किसी की बुरी बना दे गत।

जो पिला तू सके न रस-प्याला।

बावली आँख तो उगल बिख मत।

नहिं बड़ाई जो बड़ों की रख सकी।

कब रही उसकी उतरती आरती।

आँख जब तू चाँद से भिड़ती रही।

क्यों न तुझ को चाँदनी तब मारती।

एक दिन था कि हौसलों में डूब।

गूँधाती प्यार-मोतियों का हार।

अब लगातार रो रही है आँख।

टूटता है न आँसुओं का तार।

बेबसी में पड़ बहुत दुख सह चुकी।

कर चुकी सुख को जला कर राख तू।

अब उतार रही सही पत को न दे।

आँसुओं में डूब उतरा आँख तू।

मत मटक झूठमूठ रूठ न तू।

मत नमक घाव पर छिड़क हो नम।

अब गया ऊब ऊधामों से जी।

ऊधामी आँख मत मचा ऊधाम।

जो चुका है वार सरबस प्यार पर।

तू उसे तेवर बदलकर कर न सर।

दे दिया जिस ने कि चित अपना तुझे।

आँख चितवन से उसे तू चित न कर।

प्यार करने में कसर की जाय क्यों।

है न अच्छा जो रहे जी में कसर।

कर सके जो लाड़ तो कर लाड़ तू।

ऐ लड़ाकी आँख लड़ लड़ कर न मर।

कौन पानी है गँवाना चाहता।

मछलियाँ पानी बिना जीतीं नहीं।

प्यास पानी के बचाने की बढ़े।

आँसू आँसू क्यों भला पीती नहीं।

तू उसे भूल कर गुनी मते गुन।

जिस किसी को गुमान हो गुन का।

जो कि हैं ताकते नहीं सीधो।

आँख! मुँह ताक मत कभी उन का।

आँ सू

तुम पड़ो टूट लूटलेतों पर।

क्यों सगों पर निढाल होते हो।

दो गला, आग के बगूलों को।

आँसुओं गाल क्यों भिंगोते हो।

आँसुओ! और को दिखा नीचा।

लोग पूजे कभी न जाते थे।

क्यों गँवाते न तुम भरम उन का।

जो तुम्हें आँख से गिराते थे।

हो बहुत सुथरे बिमल जलबूँद से।

मत बदल कर रंग काजल में सनो।

पा निराले मोतियों की सी दमक।

आँसुओ! काले-कलूटे मत बनो।

था भला आँसुओ! वही सहते।

जो भली राह में पड़े सहना।

चाहिए था कि आँख से बहते।

है बुरी बात नाक से बहना।
नाक

हो उसे मल से भरा रखते न कम।

यह तुमारी है बड़ी ही नटखटी।

तो न बेड़ा पार होगा और से।

नाक पूरे से न जो पूरी पटी।

जो भरे को ही रहे भरते सदा।

वे बहुत भरमे छके बेढंग ढहे।

नाक तुम को क्यों किसी ने मल दिया।

जब कि मालामाल मल से तुम रहे।

तू सुधार परवाह वु+छ मल की न कर।

पाप के तुझ को नहीं कूरे मिले।

लोग उबरे एक पूरे के मिले।

हैं तुझे तो नाक! दो पूरे मिले।

वह कतर दी गई सितम करके।

पर न सहमी न तो हिली डोली।

नाक तो बोलती बहुत ही थी।

बेबसी देख वु+छ नहीं बोली।

दुख बड़े जिसके लिए सहने पड़ें।

दें किसी को भी न वे गहने दई।

तब अगर बेसर मिली तो क्या मिली।

नाक जब तू बेतरह बेधी गई।

और के हित हैं कतर देते तुझे।

और वह फल को वु+तुर करके खिली।

ठोर सूगे की तुझे वै+से कहें।

नाक जब न कठोर उतनी तु मिली।

जो न उसके ढकोसले होते।

तो कभी तू न छिद गई होती।

मान ले बात, कर न मनमानी।

मत पहन नाक मान हित मोती।

सूँघने का कमाल होते भी।

काम अपने न कर सके पूरे।

बस वु+संग में सुबास से न बसे।

नाक के मल भरे हुए पूरे।

ताल में क्यों भरा न हो कीचड़।

पर वहीं है कमल-कली खिलती।

नाक कब तू रही न मलवाली।

है तुम्हीं से मगर महँक मिलती।

कान

रासपन के चिद्द से जो सज सका।

क्यों नहीं तन बिन गया वह नोचतन।

कान! तेरी भूल को हम क्या कहें।

बोलबाला कब रहा बाला पहन।

धूल में सारी सजावट वह मिले।

दूसरा जिससे सदा दुख ही सहे।

और पर बिजली गिराने के लिए।

कान तुम बिजली पहनते क्या रहे।

बात सच है कि खोट से न बचा।

पर किसी से उसे कसर कब थी।

तब भला क्यों न वह मुवु+त पाता।

कान की लौ सदा लगी जब थी।

जब मसलता दूसरों का जी रहा।

आँख में तुझसे न जब आई तरी।

दे सकेंगी बरतरी तुझको न तब।

कान तेरी बालियाँ मोती भरी।

भीतरी मैल जब निकल न सका।

तब तुम्हें क्यों भला जहान गुने।

बान छूटी न जब बनावट की।

तब हुआ कान क्या पुरान सुने।

किस लिए तब न तू लटक जाती।

जब भली लग गई तुझे लोरकी।

छोड़ तरकीब से बने गहने।

गिर गया कान तू पहन तरकी।

तंग उतना ही करेगी वह हमें।

चाह जितनी ही बनायेंगे बड़ी।

कान क्यों हैं फूल खोंसे जा रहे।

क्या नहीं कनफूल से पूरी पड़ी।

जब किसी भाँत बन सकी न रतन।

तेल की बूँद तब पड़ी चू क्या।

जब न उपजा सपूत मोती सा।

कान तब सीप सा बना तू क्या।

राग से, तान से, अलापों से।

बह न सकता अजीब रस-सोता।

रीझता कौन सुन रसीले सुर।

कान तुझ सा रसिक न जो होता।

तो मिला वह अजीब रस न तुझे।

पी जिसे जीव को हुई सेरी।

लौ-लगों का कलाम सुनने में।

कान जो लौ लगी नहीं तेरी।

गाल

वह लुनाई धूल में तेरी मिले।

दूसरों पर जो बिपद ढाती रहे।

गाल तेरी वह गोराई जाय जल।

जो बलायें और पर लाती रहे।

तो गई धूल में लुनाई मिल।

औ हुआ सब सुडौलपन सपना।

पीक से बार बार भर भर कर।

गाल जब तू उगालदान बना।

लाल होंगे सुख मिले खीजे मले।

वे पड़े पीले डरे औ दुख सहे।

रंग बदलने की उन्हें है लत लगी।

गाल होते लाल पीले ही रहे।

हैं उन्हें वु+छ समझ रसिक लेते।

पर सके सब न उलझनों को सह।

है बड़ा गोलमाल हो जाता।

गाल मत गोलमोल बातें कह।

है निराला न आँख के तिल सा।

और उसमें सका सनेह न मिल।

पा उसे गाल खिल गया तू क्या।

दिल दुखा देख देख तेरा तिल।

आब में क्यों न आइने से हों।

क्यों न हों कांच से बहुत सुथरे।

पर अगर है गरूर तो क्या है।

गाल निखरे खरे भरे उभरे।

पीसने के लिए किसी दिल को।

तू अगर बन गया कभी पत्थर।

तो समझ लाख बार लानत है।

गाल तेरी मुलायमीयत पर।

मुँह

हो गयी बन्द बोलती अब तो।

तू बहुत क्या बहँक बहँक बोला।

तू भली बात के लिए न खुला।

मुँह तुझे आज मौत ने खोला।

हैं बहुत से अडोल ऐसे भी।

जो कि बिजली गिरे नहीं डोले।

‘जी’ गये भी नहीें खुला जो मुँह।

मौत वै+से भला उसे खोले।

बोल सकते हो अगर तो बोल लो।

तुम बड़ी प्यारी रसीली बोलियाँ।

दिल किसी का चूर करते मत रहो।

मुँह चला कर गालियों की गोलियाँ।

जो कभी वु+छ न सीख सकते हो।

दो भली सीख सब उन्हें सिखला।

मात कर के न बात को मुँह तुम।

दो करामात बात की दिखला।

जो किसी को कभी नहीं भाती।

है उसी की तुझे लगन न्यारी।

क्यों लगी आग तो न मुँह तुझ में।

बात लगती अगर लगी प्यारी।

प्यास से सूख क्यों न जावे वह।

पर सकेगा न रस टपक पाने।

मुँह बिचारा भला करे क्या ले।

दाँत ऐसे अनार के दाने।

मुँह पसीने से पसीजा जब किया।

तब अगर आँसू बहा तो क्या बहा।

सूखता ही मुँह रहा जब प्यास से।

आँख से तब रस बरसता क्या रहा।

जीभ तो बेतरह रहे चलती।

चटकना गाल को पड़े खाना।

मुँह अजब चाल यह तुमारी है।

वू+र बच जाय औ पिसे दाना।

मत सितम आँख मूँद कर ढाओ।

तुम बदी से करोड़ बार डरो।

जो गये वार वार मुँह उन पर।

भौंह तलवार की न वार करो।

तीर सी आँखें, भवें तलवार सी।

और रख कर पास फाँसी सी हँसी।

डाल फंदे सी लटों के फंद में।

मुँह बढ़ा दो मत किसी की बेबसी।

मुँह बड़े ही भयावने तुम हो।

बन सके हो भले न तो भोले।

चैन जो था बचा बचाया वह।

बच न पाया चले बचन गोले।

जो बुरे आठों पहर घेरे रहे।

तो भली आँखें न क्यों पीछे हटें।

मुँह बुरा है जो भले तुम को लगे।

बाल बेसुलझे हुए, उलझी लटें।

पड़ गई है बान जटन की जिन्हें।

वे भला वै+से न भोले को जटें।

मुँह किसी ने सौंप क्यों तुम को दिया।

साँप जैसे बाल साँपिनि सी लटें।

मुँह तुम्हें जो रुचा चटोरापन।

जीव वै+से न तब भला कटते।

तुम रहे जब हराम का खाते।

तब रहे राम राम क्या रटते।

मुँह कहाँ तब रहा ढँगीलापन।

जब कि बेढंग तुम रहे खुलते।

जब गया आब गालियाँ बक बक।

तब रहे क्या गुलाब से धुलते।

बात कड़वी निकल पड़ेगी ही।

क्यों न उस में सदा अमी घोलूँ।

राल टपके बिना नहीं रहती।

क्यों न मुँह को गुलाब से धो लूँ।

मुँह! चढ़ा नाक भौंह साथी से।

पूच से नेह गाँठ तूठा तू।

जो बनी झूठ की रही रुचि तो।

जूठ से झूठमूठ रूठा तू।

और पर क्या विपत्तिा ढाओगे।

मुँह तुमारी बिपत्तिा तो हट ले।

वह डँसे या डँसे न औरों को।

डँस तुम्हीं को न नागिनी लट ले।

दाँत जैसे कड़े, नरम लब से।

हैं सदा साथ साथ रह पाते।

मुँह तुम्हारे निबाहने ही से।

हैं भले औ बुरे निबह जाते।

बात जिस की बड़ी अनूठी सुन।

दिल भला कौन से रहे न खिले।

है बड़ी चूक जो उसी मुँह को।

चुगलियाँ गालियाँ चबाव मिले।

मत उठा आसमान सिर पर ले।

मत भवें तान तान कर सर तू।

ढा सितम रह सके न दस मुँह से।

मुँह उतारू न हो सितम पर तू।

क्या बड़ाई कावु+लों की हम करें।

जब रहीं आँखें सदा उन में फँसी।

क्यों न उस मुँह को सराहें पा जिसे।

जीभ है बत्ताीस दाँतों में बसी।

छेद डाला न जब छिछोरों को।

जब बुरे जी न बेधा बेधा दिये।

भौंह औ आँख के बहाने तब।

मुँह रहे क्या कमान बान लिये।

दाँत

हो बली, रख डीलडौल पहाड़ सा।

बस बड़े घर में, समझ होते बड़ी।

हाथियों को दाँत काढ़े देख कर।

दाबनी दाँतों तले उँगली पड़ी।

जब कि करतूत के लगे घस्से।

तब भला किस तरह न वे घिसते।

पीसते और को सदा जब थे।

दाँत वै+से भला न तब पिसते।

है निराली चमक दमक तुम में।

सब रसों बीच हो तुम्हीं सनते।

दाँत यह वु+न्दपन तुम्हारा है।

जो रहे वु+न्द की कली बनते।

रस किसी को भला चखाते क्या।

हो बहाते लहू बिना जाने।

दाँत अनार तुम्हें न क्यों मिलता।

हो अनूठे अनार के दाने।

क्या लिया बार बार मोती बन।

लोभ करते मगर नहीं थकते।

लाल हो लाख बार लोहू से।

दाँत तुम लाल बन नहीं सकते।

आज जिससे हो वही जो बद बने।

दूसरों से हो सके तो आस क्या।

दाँत जब तुम जीभ औ लब में चुभे।

पास वालों का किया तब पास क्या।

लाल या काले बनोगे क्यों न तब।

जब कि मिस्सी लाल या काली मली।

दाँत क्या रंगीन बनते तुम रहे।

सादगी रंगीनियों से है भली।

वह बनी क्यों रहे न सोने की।

तुम उसे फेंक दो न ढील करो।

लीक है वह लगा रही तुम को।

दाँत वु+छ कील की सबील करो।

हैं नहीं चुभने, वु+चलने, वू+ँचने।

छेदने औ बेधाने ही के गिले।

दाँत सारे औगुनों से हो भरे।

तुम बिगड़ते औ उखड़ते भी मिले।

जीभ

कट गई, दब गई, गई वु+चली।

कौन साँसत हुई नहीं तेरी।

जीभ तू सोच क्या मिला तुझ को।

दाँत के आस पास दे फेरी।

जब बुरे ढंग में गई ढल तू।

फल बुरा तब न किस तरह पाती।

बोलती ऐंठ ऐंठ कर जब थी।

जीभ तब ऐंठ क्यों न दी जाती।

जब लगी काट छाँट में वह थी।

तब न क्यों काट छाँट की जाती।

जब कतरब्योंत रुच गई उस को।

जीभ तब क्यों कतर न दी जाती।

बिख रहे जो कि घोलती रस में।

क्यों उसे रस चखा चखा पालें।

बात जिससे सदा रही कटती।

क्यों न उस जीभ को कटा डालें।

बात कड़वी, कड़ी, वु+ढंगी कह।

जब रही बीज बैर का बोती।

तब लगी क्यों रही भले मुँह में।

था भला जीभ गिर गई होती।

सच, भली रुचि, सनेह, नरमी का।

नाम ही जब कि वह नहीं लेती।

तब सिवा बद-लगाम बनने के।

चाम की जीभ काम क्या देती।

क्या गरम दूधा और दाँत करें।

सब दिनों किस तरह बची रहती।

जीभ वै+से जले कटे न भला।

जब कि थी वह जली कटी कहती।

क्यों न तब तू निकाल ली जाती।

जब बनी आबरू रही खोती।

क्यों नहीं आग तब लगी तुझ में।

जीभ जब आग तू रही बोती।

क्या रही जानती मरम रस का।

जब कि रस ठीक ठीक रख न सकी।

तब किया क्या तमाम रस चख कर।

रामरस जीभ जब कि चख न सकी।

जीभ औरों की मिठाई के लिए।

राल भूले भी न बहनी चाहिए।

जब कि कड़वापन तुझे भाता नहीं।

तब न कड़वी बात कहनी चाहिए।

जब कि प्यारी बात का बरसा न रस।

तू बता तब क्या हुआ तेरे हिले।

तरबतर जब जीभ तू करती नहीं।

तो तरावट धूल में तेरी मिले।

पान को कोस लें मगर वह तो।

है बुरी बान के पड़ी पाले।

जब कही बात थी जलनवाली।

क्यों पड़े जीभ में न तब छाले।

बात तू ही बेठिकाने की करे।

किस तरह हम तब ठिकाने से रहें।

जीभ तूने बात जब बेजड़ कही।

बात की जड़ तब तुझे वै+से कहें।

दाँत से बार बार छिद बिधा कर।

जीभ है फल बुरे बुरे चखती।

है मगर वह उसे दमक देती।

चाटती, पोंछती, बिमल रखती।

क्या भला तीखे रसों को तब चखा।

जब न उस की काहिली को खो सकी।

जाति को तीखी बनाने के लिए।

जीभ जब तीखी नहीं तू हो सकी।

क्या रहा सामने घड़ा रस का।

जब नहीं एक बूँद पाती तू।

पत गँवा लोप कर रसीलापन।

है अबस जीभ लपलपाती तू।

थी जहाँ सूख तू वहीं जाती।

पड़ बिपद में भली न उकताई।

प्यास के बढ़ गये बिकल हो कर।

किसलिए जीभ तू निकल आई।

किसलिए तब तू न सौ टुकड़े हुई।

तब बिपद वै+से नहीं तुझ पर ढही।

काट देने को कलेजा और का।

जीभ जब तलवार बनती तू रही।

जीभ तू थी लाल होती पान से।

पर न जाना तू किसी का काल थी।

धूल में तेरा ललाना तब मिले।

तू लहू से जब किसी के लाल थी।

रुच भले ही जाय खारापन तुझे।

पर खरी बातें भला किसने सहीं।

जीभ तुझ को चाहिए था सोचना।

एक खारापन खरापन है नहीं।

सब रसों में जब कि मीठा रस जँचा।

और तू सब दिन अधिाक उस में सनी।

जीभ तो है चूक तेरी कम नहीं।

जो न मीठा बोल कर मीठी बनी।

होठ

पान ने लाल और मिस्सी ने।

होठ तुम को बना दिया काला।

क्या रहा, जब ढले उसी रँग में।

रंग में जिस तुमें गया ढाला।

जब कि उन में न रह गई लस्सी।

वे भला किस तरह सटेंगे तब।

नेह का नाम भी न जब लेंगे।

होठ वै+से नहीं फटेंगे तब।

वह भली होवे मगर पपड़ी पड़े।

दूधा बड़ का ही हुआ ‘हित’ कर जसी।

होठ पपड़ाया हुआ ले क्या करे।

चाँदनी जैसी अमी डूबी हँसी।

चाहिए था चाँदनी जैसी छिटक।

वह बना देती किसी की आँख तर।

कर उसे बेकार बिजली कौंधा लौं।

क्या दिखाई मुसवु+राहट होठ पर।

जब रहे अनमोल लाली से लसे।

पीक में वे पान की तब क्यों सने।

जब ललाये वे ललाई के लिए।

तब भला लब लाल मूँगे क्या बने।

लालची बन और लालच कर बहुत।

मान की डाली किसी को कब मिली।

तब रहे क्यों लाल बनते पान से।

लब तुम्हें लाली निराली जब मिली।

दो बना और को न बेचारा।

तुम बुरी बात से बचो हिचको।

खो किसी की बची बचाई पत।

होठ तुम बार बार मत बिचको।

जब मिठाई की बदौलत ही तुम्हें।

बोल कड़वे भी रहे लगते भले।

मुसवु+राहट के बहाने होठ तुम।

तब अमी-धारा बहाने क्या चले।

हँसी

जब कि बसना ही तुझे भाता नहीं।

तब किसी की आँख में तू क्यों बसी।

क्या मिला बेबस बना कर और को।

क्यों हँसी भाई तुझे है बेबसीे।

जो कि अपने आप ही फँसते रहे।

क्यों उन्हीं के फाँसने में वह फँसी।

जो बला लाई दबों पर ही सदा।

तो लबों पर किस लिए आयी हँसी।
दम

क्यों लिया यह न सोच पहले ही।

आप तुम बारहा बने यम हो।

हैं खटकते तुम्हें किये अपने।

क्या अटकते इसी लिए दम हो।

छींक

पड़ किसी की राह में रोड़े गये।

औ गये काँटे बिखर कितने कहीं।

जो फला फूला हुआ वु+म्हला गया।

यह भला था छींक आती ही नहीं।

क्यों निकल आई लजाई क्यों नहीं।

क्यों सगे पर यों बिपद ढाती रही।

तब भला था, थी जहाँ, रहती वहीं।

छींक जब तू नाक कटवाती रही।

राह खोटी कर किसी की चाह को।

मत अनाड़ी हाथ की दे गेंद कर।

छरछराहट को बढ़ाती आन तू।

छींक! छाती में किसी मत छेद कर।

मूँछ

तो न वह करतूत है करतूत ही।

जो ऍंधोरे में न उँजियाली रखे।

तो निराली बात उस में न क्या रही।

जो न काली मूँछ मुँह लाली रखे।

दाढ़ी

बेबसी तो है इसी का नाम ही।

पड़ पराये हाथ में हैं छँट रही।

प्र+ेंच कट क्या सैकड़ों कट में पड़ी।

आज कितनी दाढ़ियाँ हैं कट रही।

जब रहा पास वु+छ न बल-बूता।

जब न थी रोक थाम कर पाती।

जब उखड़ती रही उखाड़े से।

क्यों न दाढ़ी उखाड़ ली जाती।

बाढ़ जो डाल गाढ़ में देवे।

तो भला किसलिए बढ़ी दाढ़ी

जो चढ़ी आँख पर किसी की तो।

क्यों चढ़ाई गई चढ़ी दाढ़ी।

गला

तब खिले फूल से सजा क्या था।

तब भला क्या रहा सुगंधा भरा।

तब दिलों को रहा लुभाता क्या।

जब किसी के गले पड़ा गजरा।

वह तुमारा बड़ा रसीलापन।

सच कहो हो गया कहाँ पर गुम।

जो कभी काम के न फल लाये।

तो गला फूलते रहे क्या तुम।

बोल जब बन्द ही रहे बिल्वु+ल।

तब लगे जोड़बन्द क्यों बोले।

जब कि वह खुल सका न पहले ही।

तब भला क्यों गला खुले खोले।

तब भला किस तरह न फट जाता।

जब कि रस से न रह गया नाता।

आज जब वह बहुत रहा चलता।

तब भला क्यों गला न पड़ जाता।

बारहा बन्द हो बिगड़ जावे।

बैठ जावे, घुटे, फँसे, सूखे।

पर गले की अजब मिठाई के।

कब न मीठे पसंद थे भूखे।

तब कहाँ रह सका सुरीलापन।

जब कि सुर के लिए रहा भूखा।

सोत रस का रहा बहाता क्या।

जब कि रस को गँवा गला सूखा।

तो पिलाये तो पिलाये क्या भला।

जो उसे जल का पिलाना ही खला।

तो खिलाये तो खिलाये क्या उसे।

जो खिलाये दाख दुखता है गला।

हो सके किस तरह उपज अच्छी।

जब कि उपजा सकी नहीं क्यारी।

तब उभारी न जा सकी बोली।

जब कभी हो गया गला भारी।

जब कि वह पुर पीक से होता रहा।

जब रहे उस में बुरे सुर भी अड़े।

मोतियों की क्या पड़ी माला रही।

तब गले में क्या रहे गजरे पड़े।

कंठ

जब भले सुर मिले नहीं उस में।

जब कि रस में रहा न वह पगता।

तब पहन कर भले भले गहने।

कंठ वै+से भला भला लगता।

जो निराला रंग बू रखते रहे।

फूल ऐसे बाग में कितने खिले।

जो कि रस बरसा बहुत आला सके।

वे रसीले कंठ हैं कितने मिले।

है भला ढंग ही भला होता।

क्यों बुरे ढंग यों सिखाते हो।

क्या बुरी लीक है पसंद तुम्हें।

कंठ तुम पीक क्यों दिखाते हो।

पूजते लोग, रंग नीला जो।

पान की पीक लौं दिखा पाते।

कंठ क्या बन गये कबूतर तुम।

था भला नीलकंठ बन जाते।

क्यों रहे गुमराह करते कौर को।

क्या नहीं गुमराह करना है मना।

जब सुराहीपन नहीं तुझ में रहा।

कंठ तब क्या क्या तू सुराही सा बना।

तब भला क्या उमड़ घुमड़ कर के।

मेघ तू है बरस बरस जाता।

एक प्यासे हुए पपीहे का।

कंठ ही सींच जब नहीं पाता।

गाना , गला , कंठ

हो सके हम सुखी नहीं अब भी।

आप का मेघराज आना सुन।

आँख से आज ढल पड़ा आँसू।

मल गया दिल मलार गाना सुन।

बेसुरी तब बनी न क्यों बंसी।

बीन का तार तब न क्यों टूटा।

तब रहीं क्या सरंगियाँ बजती।

आज सस्ते अगर गला छूटा।

बोल का मोल जान कर के भी।

कंठ के साथ क्यों नहीं तुलती।

जब नहीं ठीक ठीक बोल सकी।

ढोल की पोल क्यों न तब खुलती।

कंठ की खींच तान में पड़ कर।

हो गया बन्द बोल का भी दम।

तंग होता रहा बहुत तबला।

दंग होता रहा मृदंग न कम।
हथेली

क्या कहें हम और हम ने आज ही।

आँख से मेहँदी लगाई देख ली।

जब ललाई और लाली के लिए।

तब हथेली की ललाई देख ली।

कर रही हैं लालसायें प्यार की।

क्या लुनाई के लिए अठखेलियाँ।

या किसी दिल के लहू से लाल बन।

हो गई हैं लाल लाल हथेलियाँ

उँगली

काम जैसे पसंद हैं जिस को।

फल मिलेंगे उसे न क्यों वैसे।

हैं अगर काट वू+ट में रहती।

तो कटेंगी न उँगलियाँ वै+से।

हाथ का तो प्यार सब के साथ है।

काम उस को है सबों से हर घड़ी।

है छोटाई या बड़ाई की न सुधा।

हों भले ही उँगलियाँ छोटी बड़ी।

जी करे तो लाल होने के लिए।

लोभ में पड़ पड़ लहू में वे सनें।

क्यों कहें फलियाँ उन्हें छबि-बेलि की।

उँगलियाँ कलियाँ न चंपे की बनें।

दुख हुआ तो हुआ, यही सुख है।

हाथ से जो विपत्तिा के छूटीं।

तब भला टूट में पड़ीं क्या वे।

टूट कर जो न उँगलियाँ टूटीं।

फेर में क्यों लाल रंगों के पड़े।

क्यों ऍंगूठी पैन्ह ले हीरे जड़ी।

है बड़ाई के लिए यह कम नहीं।

उँगलियों में है बड़ी उँगली बड़ी।

कब न करतूत कर सकी छोटी।

वह दिखाते कला कभी न थकी।

हो बड़ी और क्यों न हो मोटी।

कौन उँगली उठा पहाड़ सकी।

क्यों न हो लाल बारहा उँगली।

लाल होगी कभी नहीं गोंटी।

मिल सके किस तरह बड़ाई तब।

जब छुटाई मिले हुई छोटी।

बन सकी वह नहीं बड़ी उँगली।

भाग कानी कभी नहीं चमका।

मूठियाँ क्यों न बार दें हीरे।

क्यों न देवें ऍंगूठियाँ दमका।

पैन्ह ले तो पैन्ह ले छिगुनी उन्हें।

क्या करे उँगली बड़ी छल्लै पहन।

तन बड़ाई के लिए छोटे सजें।

है बड़ा होना बड़ों का बड़प्पन।

नाम पाता कौन है बेकाम रह।

क्यों बड़ी उँगली न बिगड़े इस तरह।

पास जब बेनाम वाली के रही।

तब बनेगी नामवाली किस तरह।

क्यों न हो छिगुनी बहुत छोटी मगर।

मान कितने काम कर वह ले सकी।

ऐ बड़ी उँगली बता तू ही हमें।

काम क्या तेरी बड़ाई दे सकी।

जब बने देती रहें सुख और को।

दूसरों के वास्ते दुख भी सहें।

जब कभी छिड़के, न छिड़के गर्म जल।

उँगलियाँ चन्दन छिड़कती ही रहें।

चौंकते मरजादवाले हैं नहीं।

देख उजबक कंठ में कंठा पड़ा।

क्यों न छल्ले पैन्ह ले कानी कई।

कौन उँगली कान करती है खड़ा।

जो किसी को खली, भली न लगी।

चाहिए चाल वह न जाय चली।

जो गई तो गई किसी मुँह में।

किसलिए आँख में गई उँगली।

सोच उँगली तू ढले तो क्यों ढले।

जो बुरी रुचि में ढला वह जाय ढल।

हैं दमकते तो दमकने दे उन्हें।

मोतियों से दाँत में मिस्सी न मल।

डाल कर सुरमा भलाई की गई।

कब नहीं यह आँख दुखवाली रही।

सोच उँगली तू न कर लाली गँवा।

क्या हुआ वु+छ काल जो काली रही।

कान

क्यों पनपने हो उन्हे देते नहीं।

जो सदा पाँवों तले हैं लोटते।

खोट पौधों में चने के कौन है।

जो उन्हें नख! हो वु+पुटते खोंटते।

जब रहे मैल से भरे ही वे।

तब न वै+से भला कड़े होवें।

है बड़प्पन न नाम को उन में।

नख भले ही बहुत बड़े होवें।

उँगलियाँ हैं अगर बड़ी मोटी।

तो दबायें गले न दे धोखे।

नोचते मुँह फिरें न औरों का।

नख अगर हैं मिले बड़े चोखे।

गड़ रहे और चुभ रहे हैं तो।

बेतरह चौंक ऊबते हो क्या।

है उन्हीं के लिए नहरनी भी।

नह अगर हैं बड़े बड़े तो क्या।
मूठी

वह भरी तो क्या जवाहिर से भरी।

जो नहीं हित-साधानाओं में सधी।

जब बँधी वह बाँधाने ही के लिए।

तब अगर मूठी बँधी तो क्या बँधी।

लाल मुँह कर तोड़ दे कर दाँत को।

साधाने में बैर के ही जब सधी।

जब खुले पंजा, बँधो मूका, बनी।

तब खुली क्या और क्या मूठी बँधी।

हाथ

बीज बोते रहे बुराई के।

जो बदी के बने रहे बम्बे।

जो उन्हें देख दुख न लम्बे हों।

तो हुए हाथ क्या बहुत लम्बे।

घिर गये पर जब निकल पाये नहीं।

तब रहे क्या दूसरों को घेरते।

आप ही जब फेर में वे हैं पड़े।

हाथ तब तलवार क्या हैं फेरते।

खोल दिल पर-धान लुटाता है सभी।

कौन निज धान दान दे यश ले सका।

वह भले ही फूल बरसाता रहे।

फूल कर के हाथ फूल न दे सका।

मान उनको न चाहिए देना।

जो मिल मान फूल हैं जाते।

जब न पाते रहे भले फल तो।

क्या रहे हाथ फूल बरसाते।

खेलने में बिगड़ बने सीधो।

फिर लगे बार बार लड़ने भी।

वे रहे कम नहीं बने बिगड़े।

हाथ अब तो लगे उखड़ने भी।

देस-हित-राह पर चले चमका।

जम इसी से न पाँव पाया है।

जातिहित पर जमे जमे तो क्यों।

हाथ में तो दही जमाया है।

तन पहन कर जिसे बिमल बनता।

चाहिए था कि वह बसन बुनते।

जब बिछे फूल चुन नहीं पाये।

हाथ तब फूल क्या रहे चुनते।

काम जब देते न गजरों का रहे।

जब कि काँटों की तरह गड़ते रहे।

जब भले बने थे भला करते नहीं।

तब गले में हाथ क्या पड़ते रहे।

है खिला कौर पोंछता आँसू।

ले बलायें उबार लेता है।

दूसरे अंग हो दुखी भर लें।

साथ तो एक हाथ देता है।

लाख उस के साथ उस को प्यार हो।

मन रुचि किस काल होनी नेन की।

कौन चारा हाथ बेचारा करे।

जो न पहुँचा तक पहुँच पहुँची-सकी।

क्या मिला बरबाद करके और को।

क्यों लगा दुखबेलि सुख खोते रहे।

हाथ तो हो तुम बुरे से भी बुरे।

जो बुराई बीज ही बोते रहे।

हाथ! सच्ची बीरता तो है यही।

सब किसी के साथ हित हो प्यार हो।

बीर बनते हो बनो बीर तुम।

क्यों चलाते तीर औ तलवार हो।

हाथ देखो बने न बद उँगली।

वह बदी से रहे सदैव बरी।

वु+छ कसर कोर है नहीं किस में।

हो बुराई न पोर पोर भरी।

हाथ कोई काम तू ऐसा न कर।

आबरू पर जाय जिससे ओस पड़।

तब करेंगे क्यों न ठट्ठा लोग जब।

जाय गट्टे के लिए गट्टा पकड़।

हों कलाई में जड़ाऊ चूड़ियाँ।

हाथ तो भी तुम न होगे जौहरी।

उँगलियों में हों अमोल ऍंगूठियाँ।

मूठियाँ मणि मोतियों से हों भरी।

दान के ही जो रहे लाले पड़े।

जो उखेड़े ही किये मुरदे गड़े।

हाथ तब तुम क्या बड़े सुन्दर बने।

क्या रहे पहने कड़े मणियों-जड़े।

जो लुभाता कौड़ियालापन रहा।

हाथ तुम को पै+लाना ही जब पड़ा।

क्या किया कंगन रुपहला तब पहन।

तब सुनहाला किस लिये पहना कड़ा।

ढोंग रचते क्या भलाई का रहे।

जब बुराई का बिछाते जाल थे।

किस लिए माला रहे तब फेरते।

जब मलों से हाथ मालामाल थे।

वह सका दुख न जान छिंकने का।

जो गया है कहीं नहीं छेंका।

क्यों कलेजा न काढ़ वह लेवे।

हाथ है आप बे-कलेजे का।

पीसते क्यों किसी पिसे को हो।

और की सोर क्यों रहे खनते।

है न अच्छा कठोरपन होता।

हाथ तुम हो कठोर क्यों बनते।

चाहिए था बुरी तरह होना।

बेतरह ढाहते सितम जब हो।

लाल मुँह जब हुए तमाचों से।

हाथ तुम लाल लाल क्या कब तबहो।

हाथ को काम तो चलाना था।

क्यों न फिर ढंग-बीज वे बोते।

क्या करें रह भरम न सकता था।

हैं इसी से नरम गरम होते।

हाथ लो मनमानती मेहँदी लगा।

या बनो मल रंग कोई गाल सा।

पर तमाचे मार मत हो लाल तुम।

लाल होने की अगर है लालसा।

जाय छीनी मान की थाली तुरत।

औ उसे अपमान की डाली मिले।

रख सकी जो जाति मुख-लाली नहीं।

धूल में तो हाथ की लाली मिले।

छाती

नाम को जिन में भलाई है नहीं।

बन सकेंगे वे भले वै+से बके।

कह सकेंगे हम नरम वै+से उसे।

जो नरम छाती न नरमी रख सके।

जो रही चूर रँगरलियों में।

जो सदा थी उमंग में माती।

आज भरपूर चोट खा खा कर।

हो गई चूर चूर वह छाती।

पेट

वु+छ बड़ाई अगर नहीं रखते।

हो सके वु+छ न तो बड़े हो कर।

दुख कड़ाई किसे नहीं देती।

देख लो पेट तुम कड़े हो कर।

तू न करता अगर सितम होता।

तो बड़े चैन से बसर होती।

तो न हम बैठते पकड़ कर सर।

पेट तुझ में न जो कसर होती।

हो गरम जब हमें सताता है।

हो नरम जब रहा भरम खोता।

पेट! दे तो बता मरम इस का।

क्यों रहा तू नरम गरम होता।

तलवा

जब न काँटे के लिए काँटा बने।

पाँव के नीचे पड़े जब सब सहें।

जब छिदे छिल छिल गये सँभले नहीं।

क्यों न तब छाले भरे तलवे रहें।

काम के कलाम

बात की करामात

क्या अजब मुँह सी गया उनका अगर।

टकटकी बाँधो हुए जो थे खड़े।

जब बरौनी से तुझे सूई मिली।

आँख तुझ में जब रहे डोरे पड़े।

थिर नहीं होतीं थिरकती हैं बहुत।

हैं थिरव+ने में गतों को जाँचती।

काठ का पुतला ललकतों को बना।

आँख तेरी पुतलियाँ हैं नाचती।

खोलते ही खोलने वाले रहे।

भेद उस के पर न खोले से खुले।

तोल करके मान मन कितना गया।

पर न तोले आँख तेरे तिल तुले।

है न गहरी हुई बहुत लाली।

है न उस में मजीठ बूँद चुई।

खीझ से बूझ का लहू करके।

आँख तू है लहूलुहान हुई।

हम बतायें तो बतायें किस तरह।

तू न जाने कौन मद में है सना।

कान कितने झूमते हैं आज भी।

देख तेरे झूमकों का झूमना।

तब निकलता न किस लिए सूरज।

जब ललाई लिये फटी पौ थी।

कान पाता न क्यों तरौना तब।

जब ललकती छिदी हुई लौ थी।

होठ औ दाँत मिस समय पा कर।

मुँह लगे फल भले बुरे पाने।

है अगर फल कहीं इनारू का।

तो कहीं हैं अनार के दाने।

बोल बोल अमोल, फूल झड़े।

चाँदनी को किये हँसी से सर।

लग गये चार चाँद जिस मुँह को।

हम उसे चाँद सा कहें क्यों कर।

एक तिल फूल एक दुपहरिया।

दो कमल और दो गुलाब बड़े।

भूल है फूल मिल गये इतने।

फूल मुँह से किसी अगर न झड़े।

बोलने आदि के बड़े आले।

सब निराले कमाल तुम जैसे।

मिल किसी काल में उसे न सके।

मुँह तुम्हें हम कमल कहें वै+से।

सब दिनों साथ एक सूगे के।

दो ममोले हिले मिले देखे।

मुँह तुमारे कमाल के बल से।

चाँद में दो कमल खिले देखे।

नाचती मछलियाँ, हरिन भोले।

हो ममोले कभी बना लेते।

मुँह कभी निज अजीब आँखों को।

कर कमल, हो कमाल कर देते।

है कहीं बाल औ कहीं आँसू।

और मुँह में कहीं हँसी का थल।

है कहीं मेघ औ कहीं बिजली।

औ कहीं पर बरस रहा है जल।

क्यों न मुँह को चाँद जैसा ही कहें।

पर भरम तो आज भी छूटा नहीं।

चाँद टूटा ही किया सब दिन, मगर।

टूट कर भी मुँह कभी टूटा नहीं।

हैं बनाते निरोग काया को।

काम के रंग ढंग बीच ढले।

हैं बहुत ही लुभावने होते।

दाँत सुथरे धुले भले उजले।

तुम कभी अनमोल मोती बन गये।

औ कभी हीरे बने दिखला दमक।

दाँत हैं चालाकियाँ तुम में न कम।

चौंकता हूँ देख चौके की चमक।

मिल न रंगीनियाँ सकीं उस को।

पास उस के हँसी नहीं होती।

देख करके बहार दाँतों की।

हार वै+से न मानता मोती।

साँझ के लाल लाल बादल में।

है दिखाती कमाल चन्दकला।

या बही लाल पर अमीधारा।

या हँसी होठ पर पड़ी दिखला।

लोग चाहे कौंधा बिजली की कहें।

या अमीधारा कहें रस में सनी।

पर कहेंगे हम बड़े ही चाव से।

है हँसी मुखचन्द की ही चाँदनी।

है सहेली खिले हुए दिल की।

फूल पर है सनेह-धार लसी।

है लहर रसभरे उमंगों की।

चाँदनी है हुलास चन्द हँसी।

जब हँसी तुझ से हुई आँखें खुली।

देख तुझ को साँसतें वे जब सहें।

सूझ वाले तब न तुझ को किस तरह।

चाँदनी औ कौंधा बिजली की कहें।

नास कर देती अगर सुधा बुधा रही।

किस तरह तो है अमी उस में बसी।

जब दरस की प्यास बुझती ही नहीं।

तब भला रस-सोत वै+से है हँसी।

आग बल उठने कलेजे में लगे।

आँख से चिनगारियाँ कढ़ती रहें।

देख उस को जी अगर जलता रहे।

तो हँसी को चाँदनी वै+से कहें।

हैं थली होनहार लीकों को।

लाभ की या सहेलियाँ हैं ए।

कौल की लाल लाल पंखड़ियाँ।

या किसी की हथेलियाँ हैं ए।

अनूठे विचार

जब न उस में मिला रसीलापन।

जीभ उस की बनी सगी तब क्या।

फूल मुँह से अगर न झड़ पाया।

बात की झड़ भला लगी तब क्या।

खोट घुट्टी में किसी की जो पड़ी।

वह बँटाने से कभी बँटती नहीं।

नाक कटवा ली गई कह कर जिसे।

काटने से बात यह कटती नहीं।

चाहते हो बनी रहे लाली।

पर पड़ा चाल ढाल का ठाला।

छूट पाता नहीं बिलल्लापन।

किस तरह बोल रह सके बाला।

जब हमीं निज भरम गँवा देंगे।

लोग तब क्यों भरम न खोलेंगे।

बोल जब हम सके सँभाल नहीं।

बोलियाँ लोग क्यों न बोलेंगे।

कब कहाँ पर किसे न भीतर से।

ढोल की ही तरह मिले पोले।

जब रहे बोलते रहे बढ़ बढ़।

कर सके वु+छ कभी न बड़बोले।

और के दुख दर्द की भी सुधा रखें।

कस नहीं लेवें सितम पर ही कमर।

नित उसे हम नोचते ही क्यों रहें।

नोचने से नुच गई दाढ़ी अगर।

जब कलेजा और का हैं फाड़ते।

और कहते बात हैं ताड़ी हुई।

आँख तब क्यों फाड़ कर हैं देखते।

दूसरों की दाढ़ियाँ फाड़ी हुई।

क्या अजब जो मचल बुढापे में।

लड़ कई की कसर गई काढ़ी।

जो न पाये विचार ही पक तो।

क्या करेगी पकी हुई दाढ़ी।

क्यों किसी की बात हम जड़ते रहें।

जो जड़ें तो नग अनूठे ही जड़ें।

क्यों पड़ें हम और लोगों के गले।

जो पड़ें बन फूल की माला पड़ें।

तब सुधारते तो सुधारते किस तरह।

जब कि सकते सीख हम ले ही नहीं।

किस तरह तब वह भला जी में धाँसे।

बात उतरी जब गले से ही नहीं।

क्या हुआ पंजे कड़े जो मिल गये।

आदमीयत किस लिए हो छोड़ते।

तोड़ना हो सिर बुरों का तोड़ दो।

क्यों किसी की उँगलियाँ हो तोड़ते।

पाँव भी रक्खे अहितपथ में न तो।

हित अगर कर दें न उठते बैठते।

वु+छ किसी से ऐंठ क्यों फूले फिरें।

ऐंठ पंजों को रहें क्यों ऐंठते।

तो हुआ नाम क्या सधा मतलब।

जो चला काम सिर किये गंजा।

जो रही आनबान कान मले।

जो मिला मान मोड़ कर पंजा।

चुभ सका कम या बहुत ही चुभ सका।

कम दिया या दुख दिया उस ने बड़ा।

जान पर तो मेमने के आ बनी।

क्या मोलायम और क्या पंजा कड़ा।

दीन दुखियों पर पसीजें क्यों न हम।

देख उन की आँख से आँसू छना।

क्यों किसी की वे गरम मूठी करें।

है न उन के पास मूठी भर चना।

सब जगह वे ही सदा माने गये।

मान का जो मान रख करके जिये।

हम लथेड़ें तो लथेड़ें क्यों उसे।

खा थपेड़े लें न पेडे क़े लिए।

खोल दिल दान दें, खिला खायें।

धान हुआ कब धारम किये से कम।

धान अगर है बटोरना हम को।

तो बटोरें न हाथ अपना हम।

हैं बुरा काम कर बुरा करते।

यह बुरा काम ही बताता है।

दिल दुखा दिल दुखा नहीं किस का।

पाप कर हाथ काँप जाता है।

प्यार के सारे निराले ढंग जब।

छल कपट के रंग में ढाले गये।

हित-नियम आले न जब पाले पले।

तब गले में हाथ क्या डाले गये।

धार्म ही है साथ जाता जीव के।

तन चिता तक ही पहुँच पाया मरे।

रह गई धारती यहीं की ही यहीं।

कौन छाती पर गया धान को धारे।

क्यों न पाये थल भली रुचि आँख में।

क्यों बुरी रुचि हाथ से जाये पिसी।

जाय जम जो प्यार जड़ जी में न तो।

जाय गड़ छाती न छाती में किसी।

है सताना भला नहीं होता।

क्यों किसी को गया सताया है।

पक गये तो गये बला से पक।

क्यों कलेजा गया पकाया है।

दाम हो, या छदाम पास न हो।

पर बने मन न सूम-मन जैसा।

जान जाये न दमड़ियाँ देते।

जी न निकले निकलते पैसा।

चाह वालों की न दें चाहत बढ़ा।

लाभ का मद दें न लोभी को पिला।

लालसाओं का न दें लासा लगा।

जी न ललचायें बुरे लालच दिला।

ठीक कोई कर कभी सकता नहीं।

भाग, बिगड़े भाग, का फूटा हुआ।

टूट पड़ कर किस लिए हैं तोड़ते।

जुड़ सका जोड़े न जी टूटा हुआ।

जाँय रंग प्यार-रंगतों में हम।

सब जगह रंग जो जमाना है।

लाभ करके लुभावनी बातें।

जी लुभा लें अगर लुभाना है।

वह किये लाड़ लाड़ करता है।

है उखड़ता उखाड़ने से जी।

मत बिगाड़ें बिगाड़ने वाले।

कब न बिगड़ा बिगाड़ने से जी।

बद बनातीं कब नहीं बद आदतें।

छूट पाती है बुरी लत छन नहीं।

मन सहक वै+से नहीं जाता सहक।

क्यों बहँकता मन बहँक का मन नहीं।

हम धानी जी के रहें सब दिन बने।

हाथ में चाहे हमारे हो न धान।

तन भले ही हाथ में हो और के।

पर पराये हाथ में होवे न मन।

बात हित की क्यों बतायें हम उसे।

बूझ होते बन गया जो बैल हो।

रख बुरे मैला न वै+से मन मिले।

मेल क्यों हो जब कि मन में मैल हो।

कर बुरा अपना भला चाहें न हम।

हित हमारे हों न अनहित में सने।

जाय तन तन-परवरी पर तुल नहीं।

मतलबों का मन न मतवाला बने।

पते की बातें

रुच गई तो रँगरलियाँ किस तरह।

दिल न जो रंगीनियों में था रँगा।

छिप सव+ेगी तो लहू की चाट क्यों।

हाथ में लोहू अगर होवे लगा।

किस तरह तब निकल सके कीना।

जब कसर ही निकल न पाती है।

किस लिए बाल-दूब तो न जमी।

जो न पत्थर समान छाती है।

चैन लेने कभी नहीं देंगी।

खटमलों से भरी हुई गिलमें।

क्यों नहीं काढ़ता कसर फिरता।

जब कसर भर गई किसी दिल में।

क्यों न हम जोड़बन्द वाले हों।

कब सके जोड़ आइना फूटा।

पड़ गई गाँठ जब जुड़ा तब क्या।

टूट करके जुड़ा न दिल टूटा।

पेच भर पेच में कसेंगे ही।

जाँय दिल दूसरे भले ही हिल।

जब कि पेचीदगी भरे हैं तो।

क्या करें पेच पाच वाले दिल।

चल रहा है चाल बेढंगी अगर।

ऊब माथा किस लिए हैं ठोंकते।

वह अचानक रुक सकेगा किस तरह।

दिल रुकेगा रोकते ही रोकते।

है बड़ा बद कपूत कायर वह।

जो बदी बीज रख कपट बोवे।

चोर क्या चोर का चचा है वह।

चोर दिल में अगर किसी होवे।

जब दिया बेधा ही नहीं उस ने।

तब कहाँ ठीक ठीक बान लगा।

तान वह तान ही नहीं जिस को।

लोग सुनने लगें न कान लगा।

छोड़ दे जो बुरा बुराई ही।

तो उसे कौन फिर बुरा माने।

तब मिलेंगी न कौड़ियाँ कानी।

जब रहे कान से लगे काने।

भेद की बातें

है उसी एक की झलक सब में।

हम किसे कान कर खड़ा देखें।

तो गड़ेगा न आँख में कोई।

हम अगर दीठ को गड़ा देखें।

एक ही सुर सब सुरों में है रमा।

सोचिये कहिये कहाँ वह दो रहा।

हर घड़ी हर अवसरों पर हर जगह।

हरिगुनों का गान ही है हो रहा।

पेड़ का हर एक पत्ताा हर घड़ी।

है नहीं न्यारा हरापन पा रहा।

गुन सको गुन लो सुनो जो सुन सको।

है किसी गुनमान का गुन गा रहा।

हरिगुनों को ए सुबह हैं गा रही।

सुन हुईं वे मस्त कर अठखेलियाँ।

चहचहाती हैं न चिड़ियाँ चाव से।

लहलहाती हैं न उलही बेलियाँ।

छा गया हर एक पत्तो पर समा।

पेड़ सब ने सिर दिया अपना नवा।

खिल उठे सब फूल, चिड़ियाँ गा उठीं।

बह गई कहती हुई हर हर हवा।

है नदी दिन रात कल कल बह रही।

बाँधा धुन झरने सभी हैं झर रहे।

हर कलेजे में अजब लहरें उठा।

हरिगुनों का गान ए हैं कर रहे।

चाहिए था कि गुन भरे के गुन।

भाव में ठीक ठीक भर जाते।

पा सके जो न एक गुन भी तो।

क्या रहे बार बार गुन गाते।

क्या हुआ मुँह से सदा हरि हरि कहे।

दूसरों का दुख न जब हरते रहे।

जब दया वाले बने न दया दिखा।

तब दया का गान क्या करते रहे।

उठ दुई का सका कहाँ परदा।

भेद जब तक न भेद का जाना।

एक ही आँख से सदा सब को।

कब नहीं देखता रहा काना।

तह बतह जो कीच है जमती गई।

कीच से कोई उसे वै+से छिले।

तब भला किस भाँत अंधापन टले।

जब किसी अंधो को अंधा ही मिले।

भूल से बच कर भुलावों में फँसी।

काम धांधा छोड़ सतधांधी रही।

सूझ सकता है मगर सूझा नहीं।

बावली दुनिया न कब अंधी रही।

साँस पाते जब बुराई से नहीं।

लाभ क्या तब साँस की साँसत किये।

जब दबाये से नहीं मन ही दबा।

नाक को तब हैं दबाते किस लिए।

उन लयों लहरों सुरों के साथ भर।

रस अछूते प्रेम का जिन से बहे।

कंठ की घंटी बजी जिन की न वे।

कंठ में क्या बाँधाते ठावु+र रहे।

रंग में जो प्रेम के डूबे नहीं।

जो न पर-हित की तरंगों में बहे।

किस लिए हरिनाम तो सह साँसतें।

कंठ भर जल में खड़े जपते रहे।

मानता जो मन मनाने से रहे।

लौ लगी हरि से रहे जो हर घड़ी।

तो रहे चाहे कोई कंठा पड़ा।

कंठ में चाहे रहे कंठी पड़ी।

जान जब तक सका नहीं तब तक।

था बना जीव बैल तेली का।

जब सका जान तब जगत सारा।

हो गया आँवला हथेली का।

डूबने हम आप जब दुख में लगे।

सूझ पाया तब गया क्यों दुख दिया।

जान गहराई गुनाहों की सके।

काम जब गहरी निगाहों से लिया।

आनबान

लोग काना कहें, कहें, सब क्या।

लग किसी की न जायगी गारी।

चाहिए और की न दो आँखें।

है हमें एक आँख ही प्यारी।

चाहते हैं कभी न दो आँखें।

दुख जिन्हें धुंधा साथ घेरे हो।

ठीक, सुथरी, निरोग, उजली हो।

एक ही आँख क्यों न मेरे हो।

आप ही समझें हमें क्या है पड़ी।

जो कि अपने आप पड़ जायें गले।

है जहाँ पर बात चलती ही नहीं।

कौन मुँह ले कर वहाँ कोई चले।

क्या करेंगे तब अछूती जीभ रख।

जब कि ओछी सैकड़ों बातें सहीं।

लोग छीछालेदरों में क्यों पड़ें।

छेद मुँह में क्या किसी के है नहीं।

मर मिटेंगे सचाइयों पर हम।

दूसरे नाम के लिए मर लें।

हम डरेंगे कभी न हँसने से।

लोग हँसते रहें हँसी कर लें।

क्यों अपरतीत के घने बादल।

चाँद परतीत को घुमड़ घेरें।

देखिये बात है अगर रखना।

भूल करके तो न बात को फेरें।

रंग में मस्त हम रहें अपने।

मुँह निहारें बुरे भले का क्यों।

किस लिए हम सदा बहार बनें।

हार होवें किसी गले का क्यों।

धूल आँखों में न झोंकें और की।

धूल में रस्सी न भूले भी बटे।

काटना चाहें न औरों का गला।

कट न जाये बात से गरदन कटे।

जो कमाई कर मिले धान है वही।

आँख पर-मुख देखनेवाली सिले।

माँगने को क्यों पसारें हाथ हम।

क्यों हमें हीरा न मूठी भर मिले।

जान कढ़ जाय, है अगर कढ़ती।

दाँत कढ़ने कभी नहीं पाये।

माँगने के लिए न मुँह पै+ले।

मर मिटे पर न हाथ पै+लाये।

साँसतें हम सहें न क्यों सब दिन।

मुँह किस का नहीं निहारेंगे।

पाँव अपना पसार दुख लेवें।

हाथ हम तो नहीं पसारेंगे।

बाँह के बल को समझ को बुझ को।

दूसरों ने तो बँटाया है नहीं।

धान किसी का देख काटें होठ क्यों।

हाथ तो हम ने कटाया है नहीं।

कौड़ियों पर किस लिए हम दाँत दें।

है हमारा भाग तो फूटा नहीं।

क्या हुआ जो वु+छ हमें टोटा हुआ।

है हमारा हाथ तो टूटा नहीं।

देख कर मुँह और का जीना पड़े।

और सब हो पर कभी ऐसा न हो।

वह बनेगा तीन कौड़ी का न क्यों।

जिस किसी के हाथ में पैसा न हो।

हो न पावे मलीन मुँह मेरा।

रह सके या न रह सके लाली।

तन रहे तक न जाँय तन बिन हम।

धान न हो पर न हाथ हो खाली।

जो नहीं मूठी भरी तो क्या हुआ।

जो मरे धान के लिए वह बैल है।

किस लिए हम मन भला मैला करें।

धान हमारे हाथ का ही मैल है।

है किसी काम का न लाख टका।

रख सके जो न धयान चित पट का।

क्यों न बन जाँयगे टके के हम।

दिल टका पर अगर रहा अटका।

चाहिए मान पर उसे मरना।

क्यों उसे मोहने लगे पैसे।

जाय लट वह अगर गया है लट।

जी हमारा उलट गया वै+से।

क्यों न होवे बेलि अलबेली बड़ी।

क्यों न सुन्दर फूल से होवे सजी।

हम सराहें तो सराहें क्यों उसे।

क्यों उसे चाहें अगर चाहे न जी।

प्यार के पहलू

है उन्हें चाव ही न झगड़ों का।

पाँव जो प्यार-पंथ में डालें।

वे रखेंगे न काम रगड़ों से।

नाक ही क्यों न हम रगड़वा लें।

सब सहेंगे हम, सहें वु+छ भी न वे।

जाँयगे हम सूख उन के मुँह सुखे।

जाय दुख तो जी हमारा जाय दुख।

देखिये उन की न नँह उँगली देखे।

दूसरों को किस लिए हैं दे रहे।

वे दिलासा खोल दिल दे लें हमें।

लोकहित की लालसाओं से लुभा।

ले सके तो हाथ में ले लें हमें।

आप के हैं, है सहारा आप का।

क्यों बुरे फल आप के चलते चखें।

दे न देवें दूसरों के हाथ में।

रख सकें तो हाथ में अपने रखें।

किस लिए पीछे उसी के हैं पड़े।

आप के ही हाथ में है जो पड़ा।

क्या बँधाना हाथ उस का चाहिए।

सामने जो हाथ बाँधो है खड़ा।

साथ कठिनाइयाँ सकल झलकीं।

खुल गये भेद तब मिले दिल के।

हित बही पर चले सही करने।

जब हिले हाथ दो हिले दिल के।

टूटता है पहाड़ पग छोड़े।

बल नहीं घट सका घटाने से।

क्या करें बेतरह गया है नट।

हाथ हटता नहीं हटाने से।

तब हुई साधा दोस्ती की क्या।

जब न जी ठीक ठीक सधा पाया।

तब बँधी प्रीति गाँठ बाँधो क्या।

जब गले से गला न बँधा पाया।

आप के हैं, रहें कहीं पर हम।

क्या हुआ रह सके न पास खड़े।

याद दिल में बनी रहे मेरी।

दूर दिल से करें न दूर पड़े।

निवेदन

हम सदा फूलें प+लें देखें सुदिन।

पर उतारा जाय कोई सर नहीं।

हो कलेजा तर रहे तर आँख भी।

पर लहू से हाथ होवे तर नहीं।

रंगरलियाँ हमें मनाना है।

रंग जम जाय क्यों न जलवों से।

है ललक लाल लाल रंगत की।

आँख मल जाय क्यों न तलवों से।

निराले नगीने

मन

है मनाना या मना करना कठिन।

मन सबों को छोड़ पाता छन नहीं।

तब भला वै+से न मनमानी करे।

है किसी के मान का जब मन नहीं।

काम के सब भले पथों को तज।

फँस गया बार बार भूलों में।

छोड़ फूले फले भले पौधो।

मन भटकता फिरा बबूलों में।

ठान उस ने न कब बुरी ठानी।

कब ठिठक हम गये न ठन गन से।

बैठ पटरी सकी न कपटी से।

कब पटी नटखटी-भरे मन से।

जब गया घर जान सारी बात का।

तब भला वै+से न घरजानी करें।

हैं उसे सामान मनमाने मिले।

मन भला वै+से न मनमानी करे।

संग पासँग है कड़ापन में।

ठोस इस्पात है नहीं ऐसा।

है न वैसा कठोरपन उसमें।

काठ है कब कठोर मन जैसा।

छिन गया आराम दुख दूना हुआ।

कर रहा है रोग सौगुना सितम।

तन गया तन बिन मिला धान धूल में।

पर हुआ मन का कमीनापन न कम।

दे नहीं पेर पीस औरों को।

जल रहें, बन न जाँय ओले हम।

बात जितनी कहें मोलायम हो।

हो न मन की मुलायमीयत कम।

खोलने पर नयन न खुल पाया।

सूझ पाया हमें न पावन थल।

लोकहित जल मिला न मिल कर भी।

धुल न पाया मलीन मन का मल।

है नहीं परवाह सुख दुख की उसे।

जो कि सचमुच जाय बे-परवाह बन।

तब बलंदी और पस्ती क्या रही।

जब करे मस्ती किसी का मस्त मन।

तो उसे प्रेमरंग में रँग दो।

वह सदा रंग है अगर लाता।

लोकहित के लिए न क्यों मचले।

मन अगर है मचल मचल जाता।

प्यास पैसों की उन्हें है जब लगी।

क्यों न तो पानी भरेंगे पनभरे।

जग-विभव जब आँख में है भर रहा।

किस तरह तो मन भरे का मनभरे।

दौड़ने में ठोकरें जिसको लगीं।

वह भला वै+से न मुँह के बल गिरे।

फेर की है बात इस में कौन सी।

जो किये मन फेर कोई मन फिरे।

बैल में बैलपन मिलेगा ही।

क्यों करेगा न छैलपन छैला।

क्यों न तन में हमें मिलेगा मल।

क्यों न होगा मलीन मन मैला।

फूल किसको गूलरों से मिल सके।

फल सरों से है न कोई पा सका।

मोतियों से मिल सका पानी किसे।

कौन मन के मोदकों को खा सका।

है सराबोर सब रसों में वह।

सन सभी भाव में वही सनकी।

खेल नित रंग रंग के दिखला।

रंग लाती तरंग है मन की।

क्यों सकेगा न सुख-बसन जन बुन।

कात हित-सूत तन अगर न थके।

तन सके क्यों न तो अमन ताना।

मन अगर बन अमन-पसंद सके।

बात हित की कब बताती है नहीं।

कब न समझाती बुझाती वह रही।

मान कर बैठे मनाने से खिझे।

मति करे क्या, जो न मन, माने कही।

पत्तिायों तक को बहुत सुन्दर बना।

हैं उसी ने ही सजाये बाग बन।

फल उसी से हैं फबीले हो रहे।

फूल फबता है मिले मन की फबन।

हैं उसी में भाव के फूले कमल।

जो सदा सिर पर सुजन सुर के चढ़े।

हैं उपज लहरें उसी में सोहतीं।

सोत रस के मन सरोवर से कढ़े।

हैं उसी के खेल जग के खेल सब।

लोक-कौतुक गोद में उस की पला।

हैं उसी की कल सकल तन की कलें।

सब कलायें एक मन की हैं कला।

मोल वालों में बड़ा अनमोल है।

सामने उस के सकल धान धूल है।

माल है वह सब तरह के माल का।

सब जगत के मूल का मन मूल है।

क्या कहीं भूत का बसेरा है?

भूल है भय अगर कँपाये तन।

तो चढेगा न भूत सिर पर क्यों।

भूत बन जाय जो किसी का मन।

तो बनायेगा बड़ा ही औ गुनी।

औ गुनों से वह अगर होगा भरा।

कौन इतनी है बुराई कर सका।

है बुरे मन सा न बैरी दूसरा।

जायगा वै+से न वह दानव कहा।

जो कि दानवभाव लेकर अवतरा।

देवता वै+से न देवेगा बना।

देवभावों से अगर है मन भरा।

तो यहाँ ही हम नरक में हैं पड़े।

पाप का जी में जमा है जो परा।

स्वर्ग का सुख तो बेलसते हैं यहीं।

है भला मन जो भले भावों भरा।

चाह बैवु+ंठ की नहीं रखते।

हैं नहीं स्वर्ग की रुचीं राहें।

है यही चाह चाह हरि की हो।

हों चुभी चित्ता में भली चाहें।

छोड़ खलपन अगर नहीं पाता।

पर-विभव क्यों न तो उसे खलता।

डाह जब है जला रही उस को।

मन बिना आग क्यों न तो जलता।

क्यों न बनते सुहावना सोना।

लाग कर लौहपन अगर खोते।

पर नहीं कर सके रसायन हम।

पास पारस समान मन होते।

किस तरह जी में जगह देते उसे।

जी बहुत जिस से सदा ऊबा रहा।

मान वालों से मिले तो मान क्यों।

मन अगर अभिमान में डूबा रहा।

बार घर बार को न तो समझें।

जो न जी में बिकार हो थमता।

तो न बैठें रमा रमा धूनी।

मन रहे जो न राम में रमता।

तो तजा घर बना बनाया क्यों।

घर बनाया गया अगर बन में।

आप को संत मान क्यों बैठे।

मान अपमान है अगर मन में।

तब लगाया भभूत क्या तन पर।

जो सके मोह-भूत को न भगा।

तो किया क्या बसन रँगा कर के।

मन अगर राम-रंग में न रँगा।

घर बसे और क्या बसे बन में।

बासना जो बनी रहे बस में।

बेकसे और क्या कसे काया।

मन किसी का अगर रहे कस में।

ढोंग हैं लोक साधानायें सब।

जी हमारा अगर न हो सुलझा।

उलझनें छोड़ और क्या हैं वे।

मन कहीं और हो अगर उलझा।

एक को पूछता नहीं कोई।

एक आधार प्रेमधान का है।

एक मन है न एक मन का भी।

एक मन एक लाख मन का है।

फेन से भी है बहुत हलका वही।

मेरु से भारी वही है बन सका।

मान किस में है कि मन को तौल ले।

जब सका तब तौल मन को मन सका।

मन न हो तो जहान है ही क्या।

मन रहे है जहान का नाता।

मन सधो क्या सधा नहीं साधो।

मन बँधो है जहान बँधा जाता।

डूब कर के रंगतों में प्यार की।

साथ ही दो फूल अलबेले खिले।

मेल कर अनमोल दो तन बन गये।

मोल मन का बढ़ गया दो मन मिले।

मन उबारे से उबरते हैं सभी।

कौन तारे से नहीं मन के तरा।

मन सुधारे ही सुधारता है जगत।

मन उधारे ही उधारती है धारा।

बार घर के बार जो हैं हो रहे।

तो न सूबे के लिए ऊबे रहें।

क्यों पड़े तो मनसबों के मोह में।

पास मन के जो न मनसूबे रहें।

जान है जानकार लोगों की।

और सिरमौर माहिरों का है।

जौहरों का सदा रहा जौहर।

जौहरी मन जवाहिरों का है।

एक मन है भरा हुआ मल से।

एक मन है बहुत धुला उजला।

एक मन को कमाल है सिड़ में।

एक मन है कमाल का पुतला।

लोथ पर लोथ तो नहीं गिरती

लोभ होता उसे न जो धान का।

लाखहा लोग तो न मर मिटते।

मन अगर जानता मरम मन का।

एक मन है नरमियों से भी नरम।

एक मन की फूल जैसी है फबन।

एक मन की रंगतें हैं मातमी।

संग को है मात करता एक मन।

मान ईमान तो करे वै+से।

जो समझ बूझ बेईमान बने।

तो सके जान दुख दुखी वै+से।

मन अगर जान सब अजान बने।

भेद है तो भेद क्यों होता नहीं।

भेद रख कर भेद पहचाने गये।

जन न सनमाने गये सब एक से।

औ न सब मन एक से माने गये।

बात लगती बोलियाँ औ बिदअतें।

कब कहाँ किस ने सुखी बन कर सहीं।

क्यों सताये एक मन को एक मन।

एक मन क्या दूसरे मन सा नहीं।

निज दुखों सा गिने पराये दुख।

पीर को ठीक ठीक पहचाने।

तो न मन मानियाँ कभी होंगी।

जो मनों को समान मन माने।

तो सितम पर सितम न हो पाते।

तो न होती बदी बड़े बद से।

तो न दिल चूर चूर हो जाते।

चूर होता न मन अगर मद से।

सुख मिले सुख किसे नहीं होता।

हैं सभी दुख मिले दुखी होते।

मन सके मान या न मान सके।

हैं सकल मन समान ही होते।

नाम सनमान सुन नहीं पाता

देख मेहमान को सदा ऊबा।

मान का मान कर नहीं सकता।

मन गुमानी गुमान में डूबा।

है उसी एक की कला सब में।

किस लिए नीच बार बार नुचा।

काम लेवे न जो कमालों से।

तो कहाँ मन कमाल को पहुँचा।

है जगत जगमगा रहा जिससे।

जो मिला वह रतन न नर-तन में।

कर बसर जो सके न सरबस पा।

तो भरी है बड़ी कसर मन में।

जो न रँग जाय प्यार रंगत में।

तो उमग क्यों उमंग में आवे।

किस लिए धान समान तो उमड़े।

मन दया-बारि जो न बरसावे।

अनगिनत जग बिसात मोहरों का।

कौन मन के समान माहिर है।

वह समझ बूझ सोत का सर है।

ज्ञान की जोत का जवाहिर है।

चैन चौपाल चोज चौबारा।

चाव चौरा चबाव आँगन है।

चाल का चौतरा चतुरता कल।

चाह थल चेतना महल मन है।

है पुलकता लहू सगों का पी।

बाप को पीस मूस माँ का धान।

कब उठा काँप पाप करने से।

पाप को पाप मान पापी मन।

है कतरब्योंत पेच पाच पगा।

छल उसे छोड़ता नहीं छन है।

मौत का मुँह मुसीबतों का तन।

साँप का फन कपट भरा मन है।

क्यों कढ़े आँख से न चिनगारी।

क्यों न उठने लगे लवर तन में।

क्यों बचन तब बनें न अंगारे।

कोप की आग जब जली मन में।

यम नहीं हैं भयावने वैसे।

है न रौरव नरक बुरा वैसा।

है अधामता सभी भरी उस में।

है अधाम कौन मन अधाम जैसा।

टूट पड़ती रहे मुसीबत सब।

खेलना साँप से पड़े काले।

काल डाले सकल बलाओं में।

पर पड़े मन न कोप के पाले।

वु+छ करेंगे रंग बिरंगे तन नहीं।

जायगी बहुरंगियों में बात बन।

रंग में उस के सभी रँग जायगा।

प्रेम रंगत में अगर रँग जाय मन।

छानते तो बड़े बड़े जंगल।

और गो पद समुद्र बन जाता।

डालते पीस पर्वतों को हम।

मन डिगाये अगर न डिग पाता।

डालते किस लोक में डेरा नहीं।

डर गये कोई नहीं वु+छ बोलता।

धाक से तो डोल जाता सब जगत।

जो न डावाँडोल हो मन डोलता।

आँख में तो नये नये रस का।

बह न सकता सुहावना सोता।

चहचहे तो न कान सुन पाता।

जो दिखाता न रंग मन होता।

रंग जाता बिगड़ लताओं का।

पेड़ प्यारा हरा बसन खोता।

फूल रंगीनियाँ न रह पातीं।

रंग लाता अगर न मन होता।

जीभ रस-स्वाद तो नहीं पाती।

तो पिरोती न लेखनी मोती।

मोहती नाक को महँक वै+से।

जो न मन की वु+मक मिली होती।

रख सकें आन बान जो अपना।

हैं हमें मिल सके नहीं वैसे।

सामने झुक गये हठीले सब।

मन हठी ठान ले न हठ वै+से।

चाँद सूरज चमक दमक खो कर।

जाँयगे बन बनाय बेचारे।

जोत मन की न जो रहे जगती।

तो सकेंगे न जगमगा तारे।

तो रुचिरता कहाँ रही उस में।

रुचि हितों में रहे न जो पगती।

तो भले का कहाँ भला मन है।

जो भलाई भली नहीं लगती।

हो सकेगा वु+छ नहीं काया कसे।

जो पराया बन नहीं पाया सगा।

योग जप तप रंगतों में क्या रँगे।

जो न परहित रंग में मन हो रँगा।

मूल उस को कमाल का समझे।

छोड़ जंजाल जाप का जपना।

सोच अपना बिकास अपना हित।

मन जगत को न मान ले सपना।

है अगर घट में नहीं गंगा बही।

कौन तो गंगा नहा कर के तरा।

तो न होवेंगे बिमल जल से धुले।

है अगर मन में हमारे मल भरा।

है बड़े सुन्दर सुरों की संगिनी।

बज रही है भाव में भर हर घड़ी।

रस बरस कर हैं सुरत को मोहती।

बाँसुरी मन की सुरीली है बड़ी।

बादलों में हैं अनूठी रंगतें।

इन्द्रधानु में हैं निराली धारियाँ।

है नगीना कौन सा तारा नहीं।

हैं कहाँ मन की न मीनाकारियाँ।

चाह बिजली चमक अनूठी है।

श्याम रंग में रँगा हुआ तन है।

है बरसता सुहावना रस वह।

मन बड़ा ही लुभावना घन है।

है वही सुन्दर सराहे मन जिसे।

हैं जगत में सब तरह की सूरतें।

मन अगर ले मान मन दे मान तो।

देवता हैं मन्दिरों की मूरतें।

है अगर मानता नहीं मन तो।

कौन नाना व कौन मामा है।

मन कहे और मान मन ले तो।

बाप है बाप और माँ, माँ, है।

है जहाँ चाहता वहीं जाता।

कौन है दौड़ धूप में ऐसा।

बेग वाला बहुत बड़ा है वह।

है पवन बेग में न मन जैसा।

है कपट काटछाँट का पुतला।

छूट औ छेड़छाड़ का घर है।

छैलपन है छलक रहा उस में।

मन छिछोरा छली छछूँदर है।

बात करता कभी हवा से है।

वह कभी मंद मंद चलता है।

खूब भरता कभी छलाँगें है।

मन कभी वू+दता उछलता है।

मूँद आँखें क्या ऍंधोरे में पड़े।

जो लगाये है समाधिा न लग रही।

खोल आँखें मन सजग कर देख लो।

है जगतपति जोत जग में जग रही।

अनमने क्यों बने हुए मन हो।

नेक सन्देह है न सत्ताा में।

कह रहे हैं हरे भरे पौधो।

हरि रमा है हरेक पत्ताा में।

मतलबी पालिसी-पसन्द बड़ा।

बेकहा बेदहल जले तन है।

है उसे मद मुसाहिबी प्यारी।

साहिबी से भरा मनुज-मन है।

पाक पर-दुख-दुखी परम कोमल।

हित धुरा, प्यार-जोत-तारा है।

है दया-भाव का दुलारा वह।

संत मन संतपन सहारा है।

है सुधा में सना हलाहल है।

फूल का हार साँप काला है।

है निरा प्यार है निरा अनबन।

नारि का मन बड़ा निराला है।

है खिला फूल, लाल अंगारा।

बाग सुन्दर बड़ा भयानक बन।

काठ उकठा हरा भरा पौधा।

है गरम है बड़ा नरम नर-मन।

है बड़ा ही सुहावना सुन्दर।

है उसी का कमाल भोलापन।

लोक के लाड़-प्यार-वालों का।

है बड़ा लाड़-प्यार-वाला मन।

क्यों न उस पर वार दें लाखों टके।

है जगत में दूसरा ऐसा न धान।

है निराला लाल आला माल है।

गोदियों के लाल का अनमोल मन।

हैं उसी से भलाइयाँ उपजी।

लोक का लाभ है उसी का धान।

कब न जन-हित रहा सजन उस का।

है सुजनता भरा सुजन का मन।

है बदी बीज बैर का पुतला।

पाप का बाप साँप का है तन।

है छुरा धार है धुरा-छल का।

है बहुत ही बुरा वु+जन का मन।

देख करके और को फूला फला।

रह सका उसका नहीं मुखड़ा हरा।

कीच तो उसने उछाला ही किया।

नीच का मन नीचपन से है भरा।

वह अनूठा बसंत जैसा है।

है बड़ा ही सुहावना उपवन।

चाँद जैसा चमक दमक में है।

है खिले फूल सा सुखी का मन।

भोर का चाँद साँझ का सूरज।

है लगातार दग्धा होता बन।

है कमलदल तुषार का मारा।

बहु दुखों से भरा दुखी का मन।

पा समय मोम सा पिघलता है।

फूल है प्यार रंग में ढाला।

है मुलायम समान माखन के।

है दयावान मन दयावाला।

है सुफल भार से झुका पौधा।

है बिमल वारि से बिलसता घन।

दीनहित के लिए दयानिधिा का।

है बड़ा दान दानियों का मन।

दिल उसे दे दें मगर उस से कभी।

एक मूठी मिल नहीं सकता चना।

जान देगा पर न देगा दान वह।

सूमपन में सूम का मन है सना।

वह कभी काल से नहीं डरता।

त्राास यमराज का उसे वै+सा।

है बना सूर, सूर मन से ही।

कौन है सूर सूर-मन जैसा।

कर सकेगा और का वै+सा भला।

जो भलाई में लगाया तन न हो।

हो सकेगा तो न पूरा हित कभी।

जो भरा हित से पुरोहित मन न हो।

है अबल के लिए बड़ा बल वह।

धाक गढ़ आनबान देरा है।

धीरता धाम धावरहर धुन का।

बीर-मन बीरता बसेरा है।

है गगन तल में हवा उस की बँधी।

धाक उसकी है धारातल में धाँसी।

कौन साहस कर सका इतना कभी।

साहसी मन ही बड़ा है साहसी।

आँख में सुरमा लगाया है गया।

है घड़ी की होठ पर न्यारी फबन।

भूलती हैं चितवनें भोली नहीं।

तन हुआ बूढ़ा हुआ बूढ़ा न मन।

तो भले भाव के लिए वह क्यों।

बारहा जाय जी लगा जाँचा।

हो मगन देख लोक-हित-घन तन।

मन अगर मोर सा नहीं नाचा।

है बड़ी भूल भाव में डूबा।

पी कहाँ नाद जो नहीं भाया।

जाति-उपकार-स्वाति के जल का।

मन पपीहा अगर न बन पाया।

है बड़ा भाग जो बड़े हों हम।

सब भले रंग में रँगा हो तन।

दुख दिखाये न दुखभरी सूरत।

सुख कमल मुख भँवर बना हो मन।

तब भलाई भली लगे वै+से।

भूलता जब कि तोर मोर नहीं।

लोकहित चाव चन्द्रमा का जब।

मन चतुर बन सका चकोर नहीं।

जो गया भूल देख भोलापन।

चौगुना चाव क्यों न तो करता।

मुखकमल भावरस भरा पाकर।

मन-भँवर क्यों न भावँरें भरता।

हो गया है हवा, हवस में फँस।

बह गया बदहवास बन बौड़ा।

हो सका दूर दुख नहीं उसका।

मन बहुत दूर दूर तक दौड़ा।

आम वैसा कहाँ रसीला है।

चाँद कब रस बरस सका ऐसा।

कर रसायन मिली जवानी कब।

रस कहाँ है जवान-मन जैसा।

मानता हो न जब कही मेरी।

और करता सदा किनारा हो।

अनमने तब न हम रहें वै+से।

मन हमारा न जब हमारा हो।

कौन सा पद मिला नहीं उससे।

कौन सा सुख गया नहीं भोगा।

फिर करे मोल-जोल क्यों कोई।

मोल क्या मन अमोल का होगा।

प्यार का प्यार जब न हो उस को।

जब न हित का उसे सहारा हो।

तब हमें मान मिल सके वै+से।

मन न जब मानता हमारा हो।

कब निछावर हुआ न वह उस पर।

धान बराबर कभी न तन के है।

है रतन कौन इस रतन जैसा।

कौन सा मणि, समान मन के है।

तब न वै+से और भी कस जायगा।

जब कि सन की गाँठ में पानी पड़ा।

तब कठिन से भी कठिन होगा न क्यों।

मन कठिन कठिनाइयों में जब पड़ा।

भर गई हैं खुटाइयाँ जिस में।

भाव उस में भले भरोगे क्या।

हैं बुरे कब बुराइयाँ तजते।

मन बुरा मान कर करोगे क्या।

हैं कराती काम वे बातें नहीं।

जो जमाये से नहीं जी में जमें।

मान करके जो न मन की ही चलें।

मिल सके ऐसे न मन वाले हमें।

कम न अपमान हो चुका जिन का।

हित उन्हें मान क्यों नहीं लेते।

बात यह मान की तुमारे है।

मन उन्हें मान क्यों नहीं देते।

जो बनाये जाँय बिगड़े काम सब।

बात बिगड़ी जायगी वै+से न बन।

माल मनमाना उसे मिल जाय तो।

क्यों न मालामाल हो पामाल मन।

चाहतें तंग हैं बहुत होती।

है बुढ़ापा तरंग ही तन में।

रंग ही है न ढंग ही है वह।

अब न है वह उमंग ही मन में।

वु+छ कलेजे

मोम-माखन सा मुलायम है वही।

प्यार में पाया उसी को सरगरम।

है उसी में सब तरह की नरमियाँ।

फूल से भी माँ-कलेजा है नरम।

प्यार की आँच पा पिघलने में।

माँ-कलेजा न मोम से कम है।

वह निराली मुलायमीयत पा।

फेन से, फूल से, मोलायम है।

एक माँ को छोड़ ममता मोह में।

है किसी का मन न उस के माप का।

सब हितों से उर उसी का है भरा।

प्यार से पुर है कलेजा बाप का।

भेद है बाप-माँ-कलेजे में।

तर बतर एक दूसरा तर है।

एक में वु+छ कसर असर भी है।

दूसरा बेकसर सरासर है।

काम का बाप का कलेजा है।

माँ कलेजा मयाधारोहर है।

एक है प्यार का बड़ा झरना।

दूसरा प्यार का सरोवर है।

प्यारवाला है कलेजा बाप का।

माँ कलेजा प्यार से भरपूर है।

जो रसीला आम मानें एक को।

दूसरा तो रसभरा अंगूर है।

माँ कलेजा दूधा से है तरबतर।

है कलेजा बाप का हित से हरा।

है निछावर एक होता प्यार पर।

दूसरा है प्यार से पूरा भरा।

एक से माँ बाप के हैं उर नहीं।

एक सी उन में न हैं हित की तहें।

है अगर वह फूल तो यह फेन है।

मोम उस को औ इसे माखन कहें।

जनमने का एक ही रज-बीज से।

कौन से सिर पर गया सेहरा धारा।

एक भाई का कलेजा छोड़ कर।

है कलेजा कौन सा भायप भरा।

प्यार की जिसमें न प्यारी गंधा है।

वह कमल जैसा खिला तो क्या खिला।

चाहना उस से भलाई भूल है।

जिस कलेजे में न भाईपन मिला।

प्यार का दिल क्यों न तो हिल जायगा।

भाइयों से जो न भाई हों हिले।

तो मिलाने से मिलें क्यों दूसरे।

जो न टुकड़े हों कलेजे के मिले।

वह कलेजा नहीं सगे का है।

चूकता जो रहा भलाई में।

भूल से भूल है बड़ी कोई।

हों भले भाव जो न भाई में।

है किसी काम का न वह भायप।

है गया भूल जो कमाई में।

क्यों भरा भेद तो कलेजे में।

हों अगर भेद-भाव भाई में।

चुहचुहाते हुए सहज हित का।

है लबालब भरा हुआ प्याला।

है कलेजा किसी बहिन का क्या।

है खिली प्यार-बेलि का थाला।

माँ कलेजे से निकल हित-रंग में।

जो निराले ढंग से ढलती रही।

वह बड़ी नायाब धारा नेह की।

है बहिन के ही कलेजे में बही।

लग गये जिस के लगी ही लौ रहे।

वह लगन सच्ची, वही दिखला सका।

एक जिस से दो कलेजे हो सके।

प्यार वह, प्यारी-कलेजा पा सका।

डूब करके चाहतों के रंग में।

प्रीति-धारा में परायापन बहा।

हित उसी में घर हमें करते मिला।

प्यार-घर घरनी कलेजा ही रहा।

हित-महँक जिस की बहुत है मोहती।

जो रहा जनचित-भँवर का चाव थल।

पा सका जिस से बड़ी छबि प्यार-सर।

है कलेजा बेटियों का वह कमल।

जो रहा है जगमगा हित-जोत से।

चोप-कंगूरा सका जिस से बिलस।

प्यार का जिस पर मिला पानिप चढ़ा।

है कलेजा बेटियों का वह कलस।

लाभ-पुट से लुभावनापन ले।

रंग है लाल प्यार लोहू का।

लालसा से लसे हितों का थल।

है कलेजा किसी पतोहू का।

है उसी में पूतपन की रंगतें।

हित रसों का है वही सुन्दर घड़ा।

प्यार उस का ही दुलारा है बहुत।

है कलेजा पूत का प्यारा बड़ा।

बाप-माँ-मान का हुआ अनभल।

हित हुआ चूर, सुख गया दलमल।

पा सका प्यार पल न कल जिस से।

है कलेजा कपूत का वह कल।

ऐब लोहा हुआ हुनर सोना।

छू जिसे रिस हुआ अछूता रस।

पाक है लोक-प्यार से पुर है।

है कलेजा सपूत का पारस।

कलेजा कमाल

है लबालब भरा भलाई खल।

सोहती है सहज सनेह लहर।

है खिला लोक-हित-कमल जिस में।

है कलेजा सुहावना वह सर।

हैं सुरुचि के जहाँ बहे सोते।

है दिखाती जहाँ दया-धारा।

पा सके प्यार सा जहाँ पारस।

है कलेजा-पहाड़ वह प्यारा।

सब रसों की कहाँ बही धारा।

है कहाँ बेलि रीझ की ऐसी।

हैं कहाँ भाव से भले पौधो।

कौन सी वु+ंज है कलेजे सी।

हैं जहाँ चोप से अनूठे पेड़।

गा रहा है जहाँ उमग खग राग।

है जहाँ लहलही ललक सी बेलि।

है कलेजा लुभावना वह बाग।

मनचलापन मकान आला है।

चोचला चौक चाववाला है।

हैं चुहल से चहल पहल पूरी।

नर-कलेजा नगर निराला है।

हैं भले भाव देवते जैसे।

हैं कहीं देवते नहीं वैसे।

हैं कहीं भक्ति सी नहीं देवी।

हैं न मन्दिर कहीं कलेजे से।

चोरियाँ हैं चुनी हुई चाहें।

चाव सा है बड़ा चतुर चेरा।

मन महाराज मति महारानी।

है कलेजा महल सरा मेरा।

है समझ को जहाँ समझ मिलती।

है जहाँ ज्ञानमान मन जैसा।

पढ़ जहाँ पढ़ गये अपढ़ कितने।

है न कालिज कहीं कलेजे सा।

हैं भरे दुख भयावने जिस में।

है जहाँ आप पाप जैसा यम।

है जलन आग जिस जगह जलती।

है नरक से न नर-कलेजा कम।

ठोसपन से ठसक गठन से हठ।

ऐंठ भी है उठान से बढ़ चढ़।

हैं गढ़ी बात की चढ़ी तोपें।

नर-कलेजा गुमान का है गढ़।

बुध्दि को कामधोनु करतब को-

जो कहें कल्पतरु न बेजा है।

है मगन मन उमंग नन्दनबन।

स्वर्ग जैसा मनुज कलेजा है।

कसौटी

पास खुरचाल पेचपाच कसर।

वु+ढ़ कपट काटछाँट कीना है।

क्यों करेगा नहीं कमीनापन।

कम कलेजा नहीं कमीना है।

वु+छ न है माल सामने उस के।

वह बिना माल मालवाला है।

है उसी में कमाल सब मिलता।

नर-कलेजा कमालवाला है।

हो भरा वू+ट वू+ट बोदापन।

हो जमी बैर औ बदी की तह।

हो बुराई बहुत बसी जिस में।

है बुरे से बुरा कलेजा वह।

है कपट से भरा हुआ कपटी।

है भरी काटछाँट भेजे में।

बात में है मिठास मिसरी सी।

गाँस की फाँस है कलेजे में।

है लसी लोक-हित-लहर जिस में।

भक्ति सोते जहाँ रहे हैं वह।

हैं भले भाव के जहाँ झरने।

है भले से भला कलेजा वह।

हो भरा सब कठोरपन जिस में।

संग कहना उसे न बेजा है।

है ठसक, गाँठ, काठपन जिस में।

वह बड़ा ही कठिन कलेजा है।

कर खुटाई बढ़ा बढ़ा खटपट।

प्यार को बेतरह पटकता है।

है खटक खोट नटखटी जिस में।

वह कलेजा बहुत खटकता है।

काहिली, कलकान, कायरपन, कलह।

क्यों न बेबस कर बढ़ा दें बेबसी।

क्यों बचाई जा सकेगी पत बची।

जब कचाई है कलेजे में कसी।

मोह लेते मिला वही मन को।

जो गया है न मोह मद से भर।

काम के काम कर सका वु+छ वह।

जो कलेजा सका मकर कम कर।

दूर अनबन वही सकेगा कर।

जो बना रंज का न प्याला है।

क्यों पड़ेगा न मेल का लाला।

जब कलेजा मलालवाला है।

लोभ है तो भली ललक भी है।

मान के साथ मन मगन भी है।

है कसर ही नहीं कलेजे में।

है अगर लाग तो लगन भी है।

मोम है, है समान माखन के।

जोंक है, और नोक नेजा है।

फूल से भी कहीं मुलायम है।

काठ से भी कठिन कलेजा है।

दुख बड़े से बड़े उसी में हैं।

है बड़ा दुख जिन्हें ऍंगेजे में।

एक से एक हैं कड़े पचड़े।

हैं बखेड़े बड़े कलेजे में।

है वही चलता उसी की चल सकी।

जो बना चौचंद, चोखा, चरपरा।

चालवाले को कलेजा चाहिए।

चापलूसी, चाल, चालाकी भरा।

क्यों रहे चैन उस कलेजे में।

क्यों लटे वह न देख गत वाँ की।

भूत-भय का जहाँ बसेरा है।

है जहाँ पर चुड़ैल चिन्ता की।

है भरा चेटकों चपेटों से।

यह कलेजा उचाटवाला है।

चुस्त है चिड़चिड़ा चटोरा है।

चटपटी चाव चाटवाला है।

क्या नहीं है भला कलेजे में।

ढील है ढीठपन ढला रस है।

है ढचर, हैं ढकोसले उस में।

ढोंग है ढंग ढूँढ ढाढ़स है।

है वही जिस ठौर बैतरनी नदी।

गंग की धारा वहाँ वै+से बहे।

क्या बुरा है जो कलेजे में बुरे।

बैर बदकारी बुराई बू रहे।

है भरा बेहिसाब भोलापन।

है भटक, भेद-भाव दावा है।

और क्या है लचर कलेजे में।

भूल है भय भरम भुलावा है।

जो कलेजे कहे गये छोटे।

क्यों न उनमें रहे छोटाई छल।

बीर के ही बड़े कलेजे में।

है बिनय बीरता बड़ाई बल।

सुख सदा पास रह सका जिस के।

है उसी एक को मिला सरबस।

है कलेजा वही बसे जिस में।

सूरता सादगी सुरुचि साहस।

हाथ और दान

दान जब तक फूल फल करता रहा।

पेड़ तब तक फूल फल पाता रहा।

दान-रुचि जी में नहीं जिस के रही।

धान उसी के हाथ से जाता रहा।

हित नमूना जो दिखाना है हमें।

जो चहें यह, सुख न सूना घर करें।

तो बना दिल सब दिनों दूना रहे।

दान दोनों हाथ दसगूना करें।

किस तरह तो छूटते धाब्बे बुरे।

जो मिली होती भली सोती नहीं।

तो न पाता हाथ का धुल पाप-मल।

दान-जल-धारा अगर धोती नहीं।

पड़ गये पाप की तरंगों में।

नेक करतूत नाव को खोते।

जो न पतवार दान के पाते।

लापता हाथ हो गये होते।

हाथ और कमल

है न वह रंग औ न वह बू।

और वैसा नहीं बिमलपन है।

वे भले ही रहें कमल बनते।

पर कहाँ हाथ में कमलपन है।

कब सका लिख, सका बसन कब सी।

कब सका वह कभी कमा पैसा।

हाथ तुझ में कमाल है वैसा।

क्या कमल में कमाल है वैसा?

दाम की वै+सी कमी तेरे लिए।

हाथ तू तो है कमल जाता कहा।

मानते हैं माननेवाले यही।

कब कमल आसन न कमला का रहा।

हैं हमें भेद कम नहीं मिलते।

गो उन्हें हैं समान कह लेते।

फूल करके कमल महँक देंगे।

फूल कर हाथ हैं वु+फल देते।

हैं खिले मुँह सभी उन्हीं जैसे।

हैं उन्हीं के समान नयन नवल।

हाथ ऐसे सुहावने न लगे।

कम लगे हैं लुभावने न कमल।

जब सदा जोड़ते रहे नाता।

तब उसे तोड़ते रहे वै+से।

क्या कमल के लिए ललाये तब।

हाथ जब आप हैं कमल जैसे।

हाथ और फूल

देखते उस की फबन जो आँख पा।

तो कभी हित से नहीं मुँह मोड़ते।

धूल में तुम हाथ क्यों मिलते नहीं।

भूल है जो फूल को हो तोड़ते।

जो खले दुख किसी तरह का दे।

कब किसे ढंग वह सुहाता है।

क्यों न ले तोड़ फूल फूले वह।

हाथ को फूलना सताता है।

क्यों लगें पूछने-किसी बद ने।

नेक को बेतरह लताड़ा क्या।

हाथ है फूल पर सितम ढाता।

फूल ने हाथ का बिगाड़ा क्या।

कब रहा नोचता न कोमल दल।

कब न कर फलबिहीन कल पाया।

हाथ-खल इन अबोल फूलों पर।

मल मसल कब नहीं बला लाया।

फूल सा सुन्दर फबीला औ फलद।

क्यों बँधो छिद बिधा गये पामाल हो।

आग-माला के बनाने में लगे।

हाथ-माली क्यों न माला माल हो।

वह तुझे भी निहाल करता है।

और तू क्या व तेरी नीयत क्या।

फूल में ही मुलायमीयत है।

हाथ तेरी मुलायमीयत क्या।

फूल रस रूप गंधा पर रीझे।

किस तरह से सितम सकेगा थम।

क्यों समझ तू सका न कोमलपन।

हाथ क्या यह कमीनपन है कम।

आँख है रूप रंग पर रीझी।

कब महँक पा हुई न नाक मगन।

हाथ तुझ में कभी नहीं है कम।

मोह ले जो फूल कोमलपन।

हाथ तुम बचते कि वे मैले न हों।

तोड़ते तो पीर हो जाती हों।

जो लगी होती न लत की छूत तो।

तुम अछूते फूल छूते ही नहीं।

लाल लाल हथेलियाँ हैं पास ही।

जो कमल-दल से नहीं हैं कम भली।

हाथ तुम पै+लो न फूलों के लिए।

उँगलियाँ क्या हैं न चम्पे की कली।

हाथ मन लोढ़ो मलो नोचो उन्हें।

है बुरा जो फूल ही रंगत खली।

इस जगत का ही निराला रंग है।

है तुमारी ही नहीं रंगत भली।

डालियों से अलग न होने दो।

डोलने के लिए उन्हें छोड़ो।

हैं भले लग रहे हरे दल में।

हाथ फल तोड़ कर न जी तोड़ो।

है समय सुख दुख बना सब के लिए।

औगुनों पर हैं भले अड़ते नहीं।

पाप होगा हाथ मत तोड़ो उन्हें।

क्या पके फल आप चू पड़ते नहीं।

सोच लो है कौन हितकारी, भला।

कौन है पापी, बुरा, बेपीर, खल।

तुम रहे ढेले फलों पर फेंकते।

पर बनाते फल रहे तुम को सफल।

तोड़ कर फल को कतरता क्यों रहा।

खा नहीं सकता उसे जब आप तू।

मत पराये के लिए बेपीर बन।

हाथ पापी लौं करे क्यों पाप तू।

हाथ उन पर किस लिए तुम उठ गये।

और उन को पीटने तुम क्यों चले।

फूल सब हैं फूलते हित के लिए।

हैं भले ही के लिए सब फल फले।

हाथ और तलवार

खेलने पर के भरोसे क्या लगे।

किस लिए हो भेद अपना खोलते।

तोल तुम ने क्यों न अपने को लिया।

हाथ तुम तलवार क्या हो तोलते।

हाथ में तो तमकनत कम है नहीं।

पर गईं बेकारियाँ बेकार कर।

ताब तो है वार करने की नहीं।

वार जाते हैें मगर तलवार पर।

जो रसातल जाति को हैं भेजते।

क्यों न उन की आँख की पट्टी खुले।

जो कि सहलाते सदा तलवा रहे।

हाथ क्यों तलवार ले उन पर तुले।

जब समय पर जाय बन बेजान तन।

ताब हाथों में न जब हो वार की।

तल बिचल हो जाँय जब तिल आँखके।

क्या करेगी धार तब तलवार की।

वह कहाँ पर क्या सकेगी कर नहीं।

साहसी या सूरमा के साथ से।

है हिला देती कलेजे बेहिले।

चल गये तलवार हलके हाथ से।

सब बड़े से बड़े लड़ाकों को।

हैं दिये बेधा बेधा बरछी ले।

फेर तलवार फेर में डाला।

कर सके क्या न हाथ पु+रतीले।

कोर कसर

जी की कचट

ब्योंत करते ही बरस बीते बहुत।

कर थके लाखों जतन जप जोग तप।

सब दिनों काया बनी जिससे रहे।

हाथ आया वह नहीं काया कलप।

किस तरह हम मरम कहें अपना।

कब न काँटे करम रहा बोता।

तब रहे क्यों भरम धारम क्यों हो।

हाथ ही जब गरम नहीं होता।

आज तक हम बने कहाँ वैसे।

बन गये लोग बन गये जैसे।

जब न सरगरमियाँ मिलीं हम को।

कर सकें हाथ तब गरम वै+से।

रह गया जो धान नहीं तो मत रहे।

है हमारी नेकियों को हर रही।

क्या कहें हम तंगदिल तो थे नहीं।

तंग तंगी हाथ की है कर रही।

पा सका एक भी नहीं मोती।

पड़ गया सिंधु आग के छल में।

तो जले भाग को न क्यों कोसें।

जाय जल हाथ जो गये जल में।

मान मन सब मनचलापन मरतबें।

मन मरे वै+से भला खोता नहीं।

क्यों न वह फँसता दुखों के दाम में।

दाम जिस के हाथ में होता नहीं।

बढ़ गई बेबसी बुढ़ापा की।

चल बसा चैन, सुख हुआ सपना।

दूसरे हाथ में रहें वै+से।

हाथ में हाथ है नहीं अपना।

आँख पुर नेह से रही जिस की।

अब नहीं नेह है उसी तिल में।

खोलता गाँठ जो रहा दिल की।

पड़ गई गाँठ अब उसी दिल में।

फूल हम होवें मगर वु+छ भूल से।

दूसरों की आँख में काँटे जँचे।

क्यों बचाये बच सकेगी आबरू।

जी बचायें जो बचाने से बचे।

ठीक था ठीक ठीक जल जाता।

जो सका देख और का न भला।

रंज है देख दूसरों का हित।

जी हमारा जला मगर न जला।

कर सकें हम बराबरी वै+से।

हैं हमें रंगतें मिलीं फीकी।

हम कसर हैं निकालते जी से।

वे कसर हैं निकालते जी की।

उलझनों में रहे न वह उलझा।

वु+छ न वु+छ दुख सदा लगा न रहे।

नित न टाँगे रहे उसे चिन्ता।

जी बिना ही टँगे टँगा न रहे।

बात अपने भाग की हम क्या कहें।

हम कहाँ तक जी करें अपना कड़ा।

फट गया जी फाट में हम को मिला।

बँट गया जी बाँट में मेरे पड़ा।

देखिये चेहरा उतर मेरा गया।

हैं कलेजे में उतरते दुख नये।

फेर में हम हैं उतरने के पड़े।

आँख से उतरे उतर जी से गये।

हैं बखेड़े सैकड़ों पीछे पड़े।

है बुरा काँटा जिगर में गड़ गया।

फँस गये हैं उलझनों के जाल में।

है बड़े जंजाल में जी पड़ गया।

सूझ वाले उसे रहे रँगते।

रंग उतरा न सूझ का चोखा।

पड़ बृथा धूम धाम धोखे में।

पेट को कब दिया नहीं धोखा।

रोग की आँच जब लगी लगने।

तब भला वह नहीं खले वै+से।

जल रहा पेट जब किसी का है।

आग उस में न तब बले वै+से।

हैं लगाती न ठेस किस दिल को।

टेकियों की ठसक भरी टेंकें।

है कपट काट छाँट कब अच्छी।

पेट को काट कर कहाँ फेंकें।

थपेड़े

पेटुओं को कभी टटोलो मत।

कब गई बाँझ गाय दुह देखी।

जो कि मुँह देख जी रहे हैं, वे।

बात वै+से कहें न मुँहदेखी।

आज सीटी पटाक बन्द हुई।

वे सटकते रहे बहुत वैसे।

बात ही जब कि रह नहीं पाई।

बात मुँह से निकल सके वै+से।

कब भला लोहा उन्होंने है लिया।

मारतों के सामने वे अड़ चुके।

दाब लेंगे दूब दाँतों के तले।

काम हैं मुँहदूबरों से पड़ चुके।

किस तरह छूटते न तब छक्के।

जब कि तू छूट में रहा माता।

जब कि मुँहतोड़ पा जवाब गये।

तब भला क्यों न टूट मुँह जाता।

दूसरों से बैठती जिस की नहीं।

किस लिए वह प्यार जतलाता नहीं।

मुँह खुला जिसका न औरों के लिए।

दाँत उस का बैठ क्यों जाता नहीं।

हम समझते थे कि हैं वु+छ आप भी।

किस लिए बेकार गट्टे हो गये।

देख कर मुझ को खटाई में पड़ा।

आप के क्यों दाँत खट्टे हो गये।

कौड़ियों को हो पकड़ते दाँत से।

चाहिए ऐसा न जाना बन तुम्हें।

छोड़ देगा कौड़ियों का ही बना।

यह तुमारा कौड़ियालापन तुम्हें।

दैव का दान जो न देख सके।

आँख तो क्यों न मूँद लेते हो।

और के दूधा पूत दौलत पर।

दाँत क्यों बार बार देते हो।

हैं किसे चार हाथ पाँव यहाँ।

क्यों कमाई न कर दिखाते हो।

दूसरों की अटूट संपत पर।

दाँत क्यों बेतरह लगाते हो।

रोटियों के अगर पड़े लाले।

हैं अगर आस पास दुख घिरते।

क्यों नहीं तो निकाल जी देते।

दाँत क्या हो निकालते फिरते।

छीन धान मान मूस कर जिस ने।

देह का माँस नोच कर खाया।

चूस लो उस चुड़ैल का लोहू।

होठ को चूस चूस क्या पाया।

सुधा भला किस तरह हमें होवे।

है लड़कपन अभी नहीं छूटा।

वु+छ कहें तो भला कहें वै+से।

कंठ भी आज तक नहीं फूटा।

पोंछने के लिए बहे आँसू।

जो बहुत दुख भरे गये पाये।

पूँछ हैं तो उठी उठी मूँछें।

जो उठाये न हाथ उठ पाये।

जो कभी मुँह मोड़ पाता ही नहीं।

क्यों उसी से आप हैं मुँह मोड़ते।

सब दिनों जो जोड़ता है हाथ ही।

आप उस का हाथ क्यों हैं तोड़ते।

बेकलेजे के बने तब क्यों न हम।

बाल बिखरे देख कर जो जी टँगे।

या किसी की लट लटकती देख कर।

लोटने जो साँप छाती पर लगे।

बाँह बल ही व बाल है जिन को।

जो भले ढंग में नहीं ढलते।

जो बने काल काल के भी हैं।

क्यों न छाती निकाल वे चलते।

जो रही पूत-प्रेम में माती।

क्यों वही काम की बने थाती।

क्या खुलीं जो रहीं खुली आँखें।

देख कर अधाखुली खुली छाती।

जाति का दिल ही अगर काला हुआ।

रंग काला किस तरह तो छूटता।

फूट जाये आँख जो है फूटती।

टूट जाये दिल अगर है टूटता।

रोटियाँ छीन छीन औरों की।

क्यों बड़े चाव है चखता।

मिल सका पेट क्या तुझी को है।

दूसरा पेट क्या नहीं रखता।

जाति के कलंक

निघरघट

कर सकेगा नहीं निघरघटपन।

जिस किसी में न लाज औ डर हो।

जब बड़ों की बराबरी की तो।

आँख वै+से भला बराबर हो।

नामियों ने नाम पाकर क्या किया।

किस लिए बदनामियों से हम डरें।

मुँह भले ही लाल हो जावे, मगर।

क्यों न अपनी लाल आँखें हम करें।

वे बने बाल पै+शनों वाले।

जो मुड़े भाल पर लटकते हैं।

देखता हूँ कि आँखवालों की।

आँख में बेतरह खटकते हैं।

तब भला सादगी बचे वै+से।

जाय संजीदगी न वै+से टल।

जब लगायेंगे दाँत में मिस्सी।

जब घुलायेंगे आँख में काजल।

है बहुत पूच और छोटी बात।

जो चले मर्द औरतों की चाल।

कब करेंगे पसंद अच्छे लोग।

काढ़ना माँग औ बनाना बाल।

मुँहचोर

हम नहीं हैं कमाल वाले कम।

लोग हममें कमाल पाते हैं।

वु+छ चुराते नहीं किसी का भी।

पर सदा मुँह हमीं चुराते हैं।

वे अगर हैं चतुर कहे जाते।

ए बड़े बेसमझ कहायेंगे।

जब कि चितचोर चित चुराते हैं।

क्यों न मुँहचोर मुँह चुरायेंगे।

तब उसे सामना रुचे वै+से।

जब रही लाज की लगी डोरी।

है लटे चित्ता की लपेट बुरी।

चूक की है चपेट मुँहचोरी।

हमारे मालदार

क्या कहें हाल मालदारों का।

माल से है छिनाल घर भरता।

काढ़ते दान के लिए कौड़ी।

है कलेजा धुकड़ पुकड़ करता।

किस तरह तब मान की मोहरें मिलें।

उलहती रुचि बेलि रहती लहलही।

देख कौड़ी दूर की लाते हमें।

जब मची हलचल कलेजे में रही।

निराले लोग

एक डौंडी है बजाती नींद की।

दूसरे मुँहचोर से ही हैं हिले।

नाक तो है बोलती ही, पर हमें।

नाक में भी बोलने वाले मिले।

आप जो चाहिए बिगड़ कहिये।

पर नहीं यह सवाल होता हल।

पाँव की धूल झाड़ने वाला।

किस तरह जाय कान झाड़ निकल।

तब हमारी बात ही फिर क्या रही।

जब न कोई कान नित मलता रहे।

हिल न बकरे की तरह दाढ़ी सके।

मुँह न बकरी की तरह चलता रहे।

बाल से बेतरह बिगड़ करके।

किस जनम की कसर गई काढ़ी।

बन गई भौंह, कट गई चोटी।

उड़ गई मूँछ, बन गई दाढ़ी।

हैं भला किस काम के वु+छ बाल वे।

जो किसी मुँह पर न भूले भी खिले।

तब करे रख क्या, न रखना चाहिए।

जब कि बकरे सी बुरी दाढ़ी मिले।

सब खटाई ही हमें खट्टी मिली।

और मीठी ही मिलीं सब साढ़ियाँ।

देख लम्बा डील लम्बी बात सुन।

क्यों खटक जातीं न लम्बी दाढ़ियाँ।

तरह तरह की बातें

मोह

और भी दाँत गड़ गये रस में।

क्या हुआ दाँत जो सभी टूटा।

ताकने की तनिक न ताब रही।

ताकना झाँकना नहीं छूटा।

अन्न हम दें सके न भूखों को।

दीन को दान के लिए न चुना।

है बड़ा दुख किसी दुखी का दुख।

कान देकर किसी समय न सुना।

चाहतें आज भी सताती हैं।

भेद पाया न झूठ औ सच का।

सन हुआ बाल तन हुआ दुबला।

गिर गये दाँत, गाल भी पचका।

गल गया तन, झूलने चमड़े लगे।

सामने हैं मौत के दिन भी खड़े।

पर न छूटी बान डँसने की अभी।

दाँत बिख के सब नहीं अब तक झड़े।

भाग ने धोखा दिया ही था हमें।

देव ने भी साथ मेरे की ठगी।

आज तक हम बन न अलबेले सके।

कंठ से अब तक न अलबेली लगी।

पेट के पचड़े

सब बुराई बेइमानी है रवा।

भूख देती है बना बेताब जब।

पापियों को पाप प्यारा है नहीं।

है कराता पेट पापी पाप सब।

मांस खाया पिया हुआ लोहू।

क्या पचाना इसे न प्यारा है।

है कमोरा कपट कटूसी का।

पेट यह पाप का पेटारा है।

है बड़ा जंजाल, है झंझट भरा।

माजरा है मान मटियामेट का।

है कनौड़ा कर नहीं देता किसे।

पेट रखना या रखाना पेट का।

पाप जो प्यारा नहीं होता उसे।

मान, तो पापी कहा खोता नहीं।

वह पचाता तो पराया माल क्यों।

पेट मलवाला अगर होता नहीं।

क्यों पले पीस कर किसी को तू।

है बहुत पालिसी बुरी तेरी।

हम रहे चाहते पटाना ही।

पेट तुझ से पटी नहीं मेरी।

भर सके हो नहीं, भरे पर भी।

कब नहीं हर तरह भरे जाते।

पट सके हो न पाटने पर भी।

पेट तुम से निपट नहीं पाते।

बेचारा बाप

भाग पलटे पलट गया वह भी।

बासमझ औ बहुत भला जो था।

आज वह सामना लगा करने।

आँख के सामने पला जो था।

प्यार का प्याला पिला पाला जिसे।

हाथ से उस के बहुत से दुख सहे।

कर रहा है छेद छाती में वही।

हम जिसे छाती तले रखते रहे।

मानते जिस को बहुत ही हम रहे।

मानता है क्यों न वह मेरा कहा।

किस लिए वह मूँग छाती पर दले।

जो सदा छाती तले मेरी रहा।

क्यों वही है आँख का काँटा हुआ।

आँख जिस को देख सुख पाती रही।

जी हमारा क्यों जलाता है वही।

पा जिसे छाती जुड़ा जाती रही।

बावला हो जाय जी वै+से नहीं।

आँख से वै+से न जलधारा बहे।

है कलेजे में छुरी वह मारता।

हम कलेजे में जिसे रखते रहे।

फूल से हम जिसे न मार सके।

है वही आज भोंकता भाला।

आज है खा रहा कलेजा वह।

है कलेजा खिला जिसे पाला।

क्यों कलेजा न प्यार का दहले।

ले कलेजा पकड़ न क्यों नेकी।

बाप के मोम से कलेजे को।

दे वु+चल कोर जो कलेजे की।

किरकिरी वह आँख की जाये न बन।

जो हमारी आँख का तारा रहा।

कर न दे टुकड़े कलेजे के वही।

है जिसे टुकड़ा कलेजे का कहा।

सुख अगर दे हमें नहीं सकता।

तो रखे लाज दुख ऍंगेजे की।

वह फिरे देखता न कोर कसर।

कोर है जो मेरे कलेजे की।

दूसरा क्या सपूत करता है।

किस तरह मुँह न मोड़ लेवे वह।

पीठ पर ही उसे फिरे लादे।

पीठ वै+से न तोड़ देवे वह।

निराली धु न

मिल गई होती हवा में ही तुरत।

चाहिए था चित्ता वह लेती न हर।

जो उठी उस से लहर जी में बुरी।

तो गई क्यों पै+ल गाने की लहर।

सुन जिसे मनचले बहँक जावें।

मन करे बार बर मनमाना।

क्यों नहीं वह बिगड़ बिगड़ जाता।

दे भली रुचि बिगाड़ जो गाना।

कान से सुन गीत पापों के लिए।

जो न पापी आँख से आँसू छना।

ढंग लोगों का बना उस से न जो।

तब अगर गाना बना तो क्या बना।

कंठ मीठा न मोह ले हम को।

है बुरा राग-रंग का बाना।

सुन जिसे गाँठ का गँवा देवें।

है भला गठ सके न वह गाना।

जो बुरे भाव भर दिलों में दे।

कर उन्हें बार बार बेगाना।

सुन जिसे पग सुपंथ से उखड़ें।

क्यों नहीं वह उखड़ गया गाना।

जब हमें ताक ताक कान तलक।

काम ने था कमान को ताना।

जब जमा पाँव था बुरे पथ में।

तब भला किस लिए जमा गाना।

सुन जिसे बार बार सिर न हिला।

लय न जिस की रही ठमक ठगती।

तब भला गान में रहा रस क्या।

तान पर तान जो न थी लगती।

दूसरे उपजा नहीं सकते उसे।

है उपजती जो उपज उर से नहीं।

पा सकेगा रस नहीं नीरस गला।

गा सकेगा बेसुरा सुर से नहीं।

रात दिन वे गीत अब सुनते रहें।

चाव से जिनको भली रुचि ने चुना।

रीझ रीझ अनेक मीठे कंठ से।

आज तक गाना बहुत मीठा सुना।

चाहते हैं हम अगर गाना सुना।

तो भले भावों भरा गाना सुनें।

चौगुनी रुचि साथ सुनने के लिए।

गीत न्यारा रामरस चूता चुनें।

तब भला किस लिए बजा बाजा।

जब न भर भाव में बहुत भाया।

जब सराबोर था न हरिरस में।

गीत तब किस लिए गया गाया।

खरी बातें

कौन उन में बिना कसर का था।

हैं दिखाई दिये हमें जितने।

खोल दिल कौन मिल सका किस से।

हैं खुले दिल हमें मिले कितने।

ढोल में पोल ही मिली हम को।

बारहा आँख खोल कर देखा।

है वहाँ मोल जोल मतलब का।

लाखहा दिल टटोल कर देखा।

वु+छ मिले काम नाम के भूखे।

वु+छ मिले चाम दाम मतवाले।

वु+छ पियाले पिये मिले मद के।

हैं लिये देख हम ने दिलवाले।

क्यों सके जान दिल दिलों का दुख।

बात खुभती न जो खुभे दिल में।

बात चुभती हम कहें वै+से।

चुभ गई बात तो चुभे दिल में।

बात मुँहदेखी कही जाती नहीं।

किस तरह कर चापलूसी चुप रहें।

दिल किसी का वु+ढ़ रहा है तो वु+ढ़े।

दिल यही है चाहता, दिल की कहें।

मिल सके जो न देवतों को भी।

क्यों न मेवे मिलें उसे वैसे।

मन भरे, आम रस भरे क्या हैं।

न भरे पेट को भरे वै+से।

धान बढ़े कब भला न लोभ बढ़ा।

कब हुई लाभ के लिये न सई।

प्यास है और भी अधिाक होती।

पेट पानी हुए न प्यास गई।

कर कपट साधु-संत से गुरु से।

कब न कपटी बुरी तरह मूये।

एक दिन जायगा छला वह भी।

पाँव छल साथ जो छली छूये।

चाँद जैसा खिल अगर सकता नहीं।

क्यों न तो वह फूल जैसा ही खिले।

क्या छोटाई में भलाई है नहीं।

दिल करे छोटा न छोटा दिल मिले।

क्या नहीं बामन बड़ाई पा सके।

क्या न छोटी बाँसुरी सुन्दर बजीे।

फूल छोटे क्या नहीं हैं मोहते।

हैं अगर छोटे करें छोटा न जीे।

है किसी का दिल फफोलों से भरा।

और कोई है बहुत फूला फला।

एक की तो है उतरती आरती।

दूसरे का है उतर जाता गला।

पड़ वु+दिन के बुरे झकोरों में।

पाँव किस के भला नहीं उखड़े।

कौन बस जो बिपद पड़े सिर पर।

क्या करे जो गले पड़ें दुखड़े।

मठ, महल, लाट, पुल, मदरसों को।

है अदम गोद में लिटा देता।

है कहाँ आज मय-रचे मंदिर।

है समय-हाथ सब मिटा देता।

है कलेवा काल का होता सभी।

है कहाँ वह आज लंका सा किला।

काँख में जिस की दबा दसमुख रहा।

वह बली बाली गया पल में बिला।

बहारदार बातें

बसंत बहार

आ बसंत बना रहा है और मन।

बौर आमों को अनूठा मिल गया।

फूल उठते हैं सुने कोयल-वु+हू।

फूल खिलते देख कर दिल खिल गया।

आम बौरे, वू+कने कोयल लगी।

ले महँक सुन्दर पवन प्यारी चली।

फूल कितनी बेलियों में खिल उठे।

खिल उठा मन, खिली दिल की कली।

भर उमंगों में भँवर हैं गूँजते।

कोयलों का चाव दोगुना हुआ।

चाँदनी की चंद की चोखी चमक।

देख चित किस का न चौगुना हुआ।

आम बौरे बही बयार बसी।

सज लतायें हरी भरी डोलीं।

बोल बाला बसंत का होते।

खिल उठीं बेलि, कोयलें बोलीं।

भाँवरें बार बार भर भौंरे।

फूल की देख कर फबन भूले।

कोंपलें देख कोयलें वू+कीं।

दिल-कमल खिल गया कमल फूले।

हैं निराली रंगतें दिखला रहीं।

सेत कलियाँ, लाल नीली कोपलें।

फूल नाना रंग के, पत्तो हरे।

भौंर काले और काली कोयलें।

हैं लुभाती दिल भला किस का नहीं।

लहलहाती बेलि फूलों की महक।

गूँज भौंरों की, तितलियों की अदा।

कोयलों की वू+ज, चिड़ियों की चहक।

हैं फबे आज बेल बूटे भी।

झाड़ियों पर लसी लुनाई है।

दूब पर है अजब छटा छाई।

फूल ला घास रंग लाई है।

आज है और रंग काँटों का।

फूल हैं अंग बन गये जिन के।

वु+छ अजब ढंग का हरापन पा।

हो गये हैं हरे भरे तिनके।

चाँद में है भर गई चोखी चमक।

चाँदनी में है भरी चाही तरी।

है फलों में भर गई प्यारी फबन।

फूल में हैं रंगतें न्यारी भरी।

बसंत के पौधो

कोंपलों से नये नये दल से।

हैं फबन से निहाल कर देते।

हो गये हैं लुभावने पौधो।

फूल हैं दिल लुभा लुभा लेते।

हैं सभी पेड़ कोंपलों से पुर।

है नया रस गया सबों में भर।

आम सिरमौर बन गया सब का।

मौर का मौर बाँधा कर सिर पर।

लस रही है पलास पर लाली।

या घिरी लालरी बबूलों से।

है लुभाते किसे नहीं सेमल।

लाल हो लाल लाल फूलों से।

लह बड़ी ही लुभावनी रंगत।

फूल कचनार औ अनार उठे।

फूल पाकर बहार में प्यारे।

हो बहुत ही बहारदार उठे।

पा गये पर बहार सा मौसिम।

क्यों न अपनी बहार दिखला लें।

लहलही बेलि, चहचहे खग के।

डहडहे पेड़, डहडही डालें।

लस रही हैं कोंपलों से डालियाँ।

फूल उन को फूल कर हैं भर रहे।

हर रहा है मन हरापन पेड़ का।

जी हरा पत्ते हरे हैं कर रहे।

रस नया है समा गया जड़ में।

रंगतें हैं बदल रही छालें।

पेड़ हैं थालियाँ बने फल की।

फूल की डालियाँ बनीं डालें।

हैं उसे दे रहे निराला सुख।

कर रहे हैं तरह तरह से तर।

आँख में भर रहे नयापन हैं।

पेड़, पत्तो नये नये पाकर।

रंगतें न्यारी बड़ी प्यारी छटा।

कर रहे हैं लाभ मिट्टी धूल से।

पा रहे हैं पेड़ फल फल दान का।

कोंपलों, कलियों, फलों से, फूल से।

पेड़ प्यारे पलास सेमल के।

फूल पा लाल, लाल लाल हुए।

हैं बहुत ही लुभावने लगते।

लाल दल से लसे हुए महुए।

पाकरों औ बरगदों के लाल दल।

कम लुनाई से न मालामाल हैं।

हैं हरे दल में बहुत लगते भले।

डालियों की गोदियों के लाल हैं।

छा गई है बड़ी छटा उन पर।

बन गये हैं बहार के छत्तो।

हैं लुनाई विजय फरहरे से।

छरहरे पेड़ के हरे पत्तो।

हो गये हैं वु+छ हरे, वु+छ लाल हैं।

वु+छ गुलाबी रंग से हैं लस रहे।

आम के दल रंगतें अपनी बदल।

बाँधा कर दल हैं दिलों में बस रहे।

रस बहे बौर देख कर उन में।

उर रहे जो बने तवे तत्तो।

कर रहे हैं निहाल आमों के।

लाल नीले हरे भरे पत्तो।

है रही दिल लुभा नहीं किस का।

कोंपलों की लुभावनी लाली।

रस भरे फूल, छबि भरी छालें।

दल भरे पेड़, फल भरी डाली।

सोहते हैं नये नये पत्तो।

मोहती है नवीन हरियाली।

हैं नये पेड़ भार से फल के।

है नई फूल-भार से डाली।

फूल की फैली महँक के भार से।

चाल धीमी है पवन की हो गई।

हैं फलों के भार से पौधो नये।

है नये-दल-भार से डाली नई।

जो न होती हरी हरी पत्ताी।

कौन तो ताप धूप का खोती।

क्यों भली छाँह तन तपे पाते।

क्यों तपी आँख तरबतर होती।

धूप तीखी पवन तपी रूखी।

तो बहुत ही उसे सता पाती।

तर न करते अगर हरे पत्तो।

किस तरह आँख में तरी आती।

बसंत की बेलि

खिल दिलों को हैं बहुत बेलमा रहीं।

हैं फलों फूलों दलों से भर रही।

खेल कितने खेल प्यारी पौन से।

बेलियाँ अठखेलियाँ हैं कर रही।

बेलियों में हुई छगूनी छबि।

बहु छटा पा गया लता का तन।

फूल फल दल बहुत लगे फबने।

पा निराली फबन फबीले बन।

है लुनाई बड़ी लताओं पर।

है चटकदार रंग चढ़ा गहरा।

लह बड़े ही लुभावने पत्तो।

लहलही बेलि है रही लहरा।

फूल के हार पैन्ह सज धाज कर।

बन गई हैं बसंत की दुलही।

हो लहालोट, हैं रही लहरा।

लहलही बेलियाँ लता उलही।

पा छबीला बसंत के ऐसा।

क्यों न छबि पा लता छबीली हो।

बेलियाँ क्यों बनें न अलबेली।

फूल फल फैल फब फबीली हो।
बसंत के फूल

रस टपक है रहा फले फल से।

हैं फबन साथ फब रहीं फलियाँ।

फूल सब फूल फूल उठते हैं।

खिलखिला हैं रही खिली कलियाँ।

पेड़ सब हैं कोंपलों से लस रहे।

है लुनाई बेल, बाँस, बबूल पर।

है लता पर, बेलि पर छाई छटा।

है फबन फैली फलों पर, फूल पर।

तन, नयन, मन सुखी बनाते हैं।

पेड़ के दल हरे हरे हिल कर।

बास से बस बसंत की बैंहर।

फूल की धूल धूल से मिल कर।

रस भरा एक एक पत्ताा है।

आज किस का न रस बना सरबस।

फूल से ही न रस बरसता है।

फूल पर भी बरस रहा है रस।

कर दिलों का लहू लहू डूबे।

ए छुरे पूच पालिसी के हैं।

या खिले लाल फूल टेसू के।

या कलेजे छिले किसी के हैं।

आज काँटे बखेर कर जी में।

फूल भी हो गया कटीला है।

चिटकती देखकर गुलाब-कली।

चोट खा चित हुआ चुटीला है।

बसंत बयार

फूल है घूम घूम चूम रही।

है कली को खिला खिला देती।

है महँक से दिसा महँकती सी।

है मलय-पौन मोह दिल लेती।

है सराबोर सी अमीरस में।

चाँदनी है छिड़क रही तन पर।

धूम मह मह महँक रही है वह।

बह रही है बसंत की बैहर।

मंद चल फूल की महँक से भर।

सूझती चाल जो न भूल भरी।

आँख में धूल झोंक धूल उड़ा।

तो न बहती बयार धूल भरी।

फूल को चूम, छू हरे पत्तो।

बास से बस जगह जगह अड़ती।

जो न पड़ती लपट पवन ठंढी।

तो लपट धूप की न पट पड़ती।

कोयल

वू+क करके निज रसीले कंठ से।

है निराला रस रगों में भर रही।

कोयले से रंग में रंगत दिखा।

हैं दिलों में कोयलें घर कर रही।

रंग बिरंगे फूल हैं फूले हुए।

है दिसायें रंग बिरंगी गूँजती।

चहचहा चिड़ियाँ रही हैं चाव से।

भौंरे गूँजें, कोयलें हैं वू+जती।

मन मरा या दिल हुआ वु+छ और ही।

कोंपलों में है छटा वैसी कहाँ।

सुन जिसे जी की कली खिलती रही।

कोयलों में वू+क है ऐसी कहाँ।

देख करके दुखी जनों का दुख।

दुंद है वह मचा रही पल पल।

या किसी का कराहना सुन कर।

बेतरह है कराहती कोयल।

जो हुआ है लालसाओं का लहू।

लाल फल दल है उसी में ही रँगा।

है उसी के दर्द कोयल वू+क में।

कोंपलों में है वही लोलू लगा।

बसंत के भौंरे

गूँजकर, झुक कर, झिझक कर, झूमकर।

भौंर करके झौंर हैं रस ले रहे।

फूल का खिलना, बिहँसना, बिलसना।

दिल लुभाना देख हैं दिल दे रहे।

गूँजते गूँजते उमग में आ।

हैं बहुत चौंक चौंक कर अड़ते।

चाव से चूम चूम कलियों को।

मनचले भौंर हैं मचल पड़ते।

हैं रहे घूम घूम रस लेते।

घूम से झूम झूम आते हैं।

देह-सुधा भूल भूल कर भौंरे।

फूल को चूम चूम आते हैं।

गूँजते हैं, ललक लपटते हैं।

हैं दिखाते बने हुए बौरे।

कर रहे हैं नहीं रसिकता कम।

रसभरे फल के रसिक भौंरे।

चौगुने चाव साथ रस पी पी।

झौंर वह ठौर ठौर करती है।

आँख भर देख देख फूल फबन।

भाँवरें भौंर भीर भरती है।
हम और तुम

हम तुमारे लिए रहें फिरते।

आँख तुम ने न आज तक फेरी।

हम तुमें चाहते रहेंगे ही।

चाह चाहे तुमें न हो मेरी।

पेड़ हम हैं, मलय-पवन तुम हो।

तुम अगर मेघ, मोर तो हम हैं।

हम भँवर हैं, खिले कमल तुम हो।

चन्द जो तुम, चकोर तो हम हैं।

कौन है जानकर तुम जैसा।

है हमारा अजान का बाना।

तुम हमें जानते जनाते हो।

नाथ हम ने तुमें नहीं जाना।

तुम बताये गये अगर सूरज।

तो किरिन क्यों न हम कहे जाते।

तो लहर एक हम तुमारी हैं।

तुम अगर हो समुद्र लहराते।

तब जगत में बसे रहे तुम क्या।

जब सके आँख में न मेरी बस।

लग न रस का सका हमें चसका।

है तुमारा बना बनाया रस।

हम फँसे ही रहे भुलावों में।

तुम भुलाये गये नहीं भूले।

नित रहा फूलता हमारा जी।

तुम रहे फूल की तरह फूले।

है यही चाह तुम हमें चाहो।

देस-हित में ललक लगे हम हों।

रंग हम पर चढ़ा तुमारा हो।

लोक-हित-रंग में रँगे हम हों।

तुम उलझते रहो नहीं हम से।

उलझनों में उलझ न हम उलझें।

तुम रहो बार बार सुलझाते।

हम सदा ही सुलझ सुलझ सुलझें।

भेद तुम को न चाहिए रखना।

क्यों हमें भेद हो न बतलाते।

हो कहाँ पर नहीं दिखाते तुम।

क्यों तुमें देख हम नहीं पाते।

जो कि तुम हो वहीं बनेंगे हम।

दूर सारे अगर मगर होंगे।

हम मरेंगे, नहीं मरोगे तुम।

पा तुम्हें हम मरे अमर होंगे।

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