लोककथा – दानी (लेखक – हरिशंकर परसाई)
बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा हो रहा था। कुछ जनसेवकों ने एक संगीत-समारोह का आयोजन किया, जिसमें धन एकत्र करने की योजना बनाई। वे पहुँचे एक बड़े सेठ साहब के पास। उनसे कहा, ‘देश पर इस समय संकट आया है। लाखों भाई-बहन बेघर-बार हैं, उनके लिए अन्न-वस्त्र जुटाने के लिए आपको एक बड़ी रकम देनी चाहिए। आप समारोह में आइएगा।’
वे बोले, ‘भगवान की इच्छा में कौन बाधा डाल सकता है। जब हरि की इच्छा ही है तो हम किसी की क्या सहायता कर सकते हैं? फिर भैया, रोज दो-चार तरह का चंदा तो हम देते हैं और व्यापार में कुछ दम नहीं हैं।’
एक जनसेवी ने कहा, ‘समारोह में खाद्य मंत्री भी आने वाले हैं और वे स्वयं धन एकत्र करेंगे।’
सेठजी के चेहरे पर चमक आई। जैसे भक्त के मुख पर भगवान का स्मरण करके आती है। वे बोले, ‘हाँ, बेचारे तकलीफ में तो हैं! क्या किया जाए? हमसे तो जहाँ तक हो सकता है, मदद करते ही हैं। आखिर हम भी तो देशवासी हैं। आप आए हो तो खाली थोड़े ही जाने दूँगा। एक हजार दे दूँगा। मंत्रीजी ही लेंगे न? वे ही अपील करेंगे न? उनके ही हाथ में देना होगा न?’
वे बोले, ‘जी हाँ, मंत्रीजी ही रकम लेंगे।’
सेठजी बोले, ‘बस-बस, तो ठीक है। मैं ठीक वक्त पर आ जाऊँगा।’
समारोह में सेठजी एक हजार रुपए लेकर पहुँचे, पर संयोगवश मंत्रीजी जरा पहले उठकर जरूरी काम से चले गए। वे अपील नहीं कर पाए, चंदा नहीं ले पाए।
संयोजकों ने अपील की। पैसा आने लगा। सेठजी के पास पहुँचे।
सेठजी बोले, ‘हमीं को बुद्धू बनाते हो! तुमने तो कहा था, मंत्री खुद लेंगे, और वे तो चल दिए।’
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