हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – फूल-पत्तो- (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)भेद भरी बातें

पी कहाँ

चौपदे

श्याम घन में है किसकी झलक।

कौन रहता है रस से भरा।

लुभा लेती है धारती किसे।

दुपट्टा ओढ़ ओढ़ कर हरा।1।

बड़ी ऍंधिायाली रातों में।

बन बहुत ऑंखों के प्यारे।

बैठ कर खुले झरोखों में।

देखते हैं किसको तारे।2।

फाड़ कर नीले परदे को।

चन्द्रमा की किरणें बाँकी।

झाँकती हैं झुक झुक करके।

देखने को किसकी झाँकी।3।

तोड़ कर सन्नाटा जब तू।

बोलता है अपनी बोली।

लगन तब किसके माथे पर

लगाती है मंगल रोली।4।

कौन थल है बतला तू हमें।

नहीं वह दिखलाता है जहाँ।

पपीहा पागल बन बन बहक।

पूछता किससे है ‘पी कहाँ’।5।1।

देखने वाली ऑंखें

चौपदे

चाँद के हँसने में किसकी।

कला है बहुत लुभा पाती।

चैत की खिली चाँदनी में।

चमक किसकी है दिखलाती।1।

लाल जोड़ा किससे ले कर।

उषा है सदा रंग लाती।

महक प्यारी पाकर किससे।

हवा है हवा बाँधा जाती।2।

कौन रस वाले से रस ले।

रसीले फल बन जाते हैं।

रँग गये किसकी रंगत में।

हरापन पौधो पाते हैं।3।

निकल कोमल कोमल पत्तो।

पता किसका बतलाते हैं।

फबन किसकी फैली देखे।

फूल फूले न समाते हैं।4।

किसे अपना सिरमौर बना।

आम दिखलाता है मौरा।

भूल किसके भोलापन पर।

भाँवरें भरता है भौंरा।5।

रंगतें मनमानी किससे।

तितिलियों का तन लेता है।

कौन? जादू करने वाला।

कंठ कोयल को देता है।6।

लुभाने किसको आता है।

‘लाल’ सेमल फूलों से बन।

बहुत बेलमाता है किसको।

बेलियों का अलबेलापन।7।

झूमते हैं मतवालों से।

कौन से मद की पी प्याली।

हो गये लाल लाल महुए।

देख किस मुखड़े की लाली।8।

लहलहाती क्यों दिखलाई।

उमंगें बन बन कर ऊबें।

हो गयी हरी भरी दुगुनी।

देख किसको दबकी दूबें।9।

बैठ कर मीठे कंठों में।

कब नहीं गीत सुनाता वह।

देखने वाली ऑंखें हों।

तो कहाँ नहीं दिखाता वह।10।2।

किसी का स्वागत

चौपदे

आज क्यों भोर है बहुत भाता।

क्यों खिली आसमान की लाली।

किस लिए है निकल रहा सूरज।

साथ रोली भरी लिये थाली।1।

इस तरह क्यों चहक उठीं चिड़ियाँ।

सुन जिसे है बड़ी उमंग होती।

ओस आ कर तमाम पत्ताों पर।

क्यों गयी है बखेर यों मोती।2।

पेड़, क्यों हैं हरे भरे इतने।

किस लिए फूल हैं बहुत फूले।

इस तरह किसलिए खिलीं कलियाँ।

भौंर हैं किस उमंग में भूले।3।

क्यों हवा है सँभल सँभल चलती।

किसलिए है जहाँ तहाँ थमती।

सब जगह एक एक कोने में।

क्यों महक है पसारती फिरती।4।

लाल नीले सुपेद पत्ताों में।

भर गये फूल बेलि बहली क्यों।

झील तालाब और नदियों में।

बिछ गईं चादरें सुनहली क्यों।5।

किसलिए ठाट बाट है ऐसा।

जी जिसे देख कर नहीं भरता।

किसलिए एक एक थल सज कर।

स्वर्ग की है बराबरी करता।6।

किसलिए है चहल पहल ऐसी।

किसलिए धाूम धााम दिखलाई।

कौन सी चाह आज दिन किसकी।

आरती है उतारने आई।7।

देखते राह थक गईं ऑंखें।

क्या हुआ क्यों तुम्हें न पाते हैं।

आ अगर आज आ रहा है तू।

हम पलक पाँवड़े बिछाते हैं।8।3।

उठी ऑंखें

चौपदे

रंग रह सका रंग बदले।

बन गयी बात, बात बिगड़े।

रहा पानी पानी खो कर।

मिटे सारे झगड़े, झगड़े।1।

बच गया गला, गला उतरे।

खुलीं ऑंखें, ऑंखें मूँदे।

हाथ के बिना हाथ मारा।

बिना पाँवों के ही कूदे।2।

बने अंधाा सब कुछ देखा।

बने बहरा सब सुन पाया।

राख मिट्टी हो जाने पर।

मिली सोने की सी काया।3।

चेत आया अचेत हो कर।

चित्ता खो चेतनता आई।

राह मिल गयी राह भूले।

सब गँवा सारी सिधा पाई।4।

सिर कटे हरे हुए पनपे।

फले फूले मिट्टी में मिल।

जल गये मिली जोत न्यारी।

हिले दिल गया फूल सा खिल।5।

घर गँवा कर के घर पाया।

बने सब के, बंधान टूटे।

किसी की लहर बहर में पड़े।

मोह की लहरों से छूटे।6।

चाँदनी, बिना चाँद निकली।

बिना सूरज किरणें फूटीं।

हवा में हवा बाँधा अपनी।

निराली फुलझड़ियाँ छूटीं।7।

ऍंधोरे में सूरज निकला।

घरों में चाँद उतर आया।

जगमगाईं काली रातें।

हुई उजली मैली छाया।8।

नहीं जो दिखलाई देता।

उसे हमने देखा भाला।

फेंक कर के सारी कुंजी।

खोल पाया सच्चा ताला।9।

जी उठे मर जाने पर हम।

उठा नीचे गिर कर पारा।

बूँद में दरिया दिखलाया।

समाया तिल में जग सारा।10।4।

बटोही

सुनो ठहरो जाते हो कहाँ।

राह अटपट है काँटों भरी।

रात आई ऍंधिायाला हुआ।

सामने है पहाड़ की दरी।1।

चोर फिरते हैं चारों ओर।

खड़े हैं जहाँ तहाँ बटपार।

मिलेगी कुछ आगे ही गये।

पहाड़ी नदियों की खर धाार।2।

क्या सकोगे सारे दुख झेल।

क्या गिनोगे काँटों को फूल।

साँसतों के झूलों पर बैठ।

क्या सकोगे उमंग से झूल।3।

जहाँ ऍंधिायाला होगा वहाँ।

जग सकोगे क्या बन कर जोत।

क्या बलाओं को दोगे टाल।

बारहा कर बहुतेरी ब्योंत।4।

जो पहाड़ों को सको उखेड़।

काल के सिर पर जो भी चढ़ो।

बना दो जो समुद्र को बूँद।

बटोही तो तुम आगे बढ़ो।5।5।

दिल के फफोले

(2)
बावले की बड़

फूल प्यारे हमने तोड़े।

या फफोले दिल के फोड़े।

या कि फूटे आईने के।

जमा कर हैं टुकड़े जोड़े।1।

कहें किससे अपने दुखड़े।

सुनेंगे क्या, वे, जो उखड़े।

नहीं किसको दुख देते हैं।

बहुत चिकने चुपड़े मुखड़े।2।

चाँद के टुकड़े होते हैं।

दुखों के बहते सोते हैं।

किसलिए बतला दे कोई।

फूट कर बादल रोते हैं।3।

सितारे चमकीले प्यारे।

नगीने कोई हैं न्यारे।

फूल हैं बिखरे या ये हैं।

किसी की ऑंखों के तारे।4।

सोचते हैं क्या मन मारे।

रंग दिखलाते हैं न्यारे।

राह किसकी हैं देख रहे।

ऍंधोरी रातों के तारे।5।

मचल जाता है मन मेरा।

देख करके मुखड़ा तेरा।

छिन गयी मेरी ऑंखों को।

न तेरी ऑंखों ने फेरा।6।

न फल, पत्ताों में से छाँटे।

गये हैं फूल नहीं बाँटे।

ऐ हवा पगली यह बतला।

बखेरे, तूने क्यों काँटे।7।

लुभा ऑंखें क्यों हिलते हो।

तो महकते क्यों मिलते हो।

खिलाई जो न कली जी की।

फूल तो क्या तुम खिलते हो।8।

न तारों से कुछ है कहता।

साँसतें हैं कितनी सहता।

न जाने किस चाहत में पड़।

चाँद चक्कर में है रहता।9।

ढंग में कितने ढलते हैं।

मचल कर ऑंखें मलते हैं।

क्यों नहीं चालाकी छोड़ी।

चाल क्यों हमसे चलते हैं।10।

किसी कोठे में पैठे हैं।

या बहुत ही वे ऐंठे हैं।

क्यों नहीं जल बादल देते।

फूल मुँह खोले बैठे हैं।11।

लगाई क्यों सुन पाते हैं।

लाग में क्यों आ जाते हैं।

जला कर के औरों का जी।

लोग क्यों आग लगाते हैं।12।

हिले दिल चोटें खाते हैं।

जले दिल, सब जल जाते हैं।

खिले दिल ऑंखें हैं हँसती।

फूल मुँह से झड़ पाते हैं।13।

खले बातें घबराते हैं।

ऑंख में ऑंसू आते हैं।

जले दिल पानी है मिलता।

मले दिल मोती पाते हैं।14।

चोट पर चोटें सहते हैं।

चैन से कब हम रहते हैं।

कलेजा पिघला जाता है।

ऑंख से ऑंसू बहते हैं।15।1।

जी की कचट

गीत

क्या हो गया, समय क्यों, बे ढंग रंग लाया।

क्यों घर उजड़ रहा है, मेरा बसा बसाया।1।

सुन्दर सजे फबीले,

थे फूल जिस जगह पर।

अब किसलिए वहाँ पर काँटा गया बिछाया।2।

जो बेलि लह लही थी,

जो थी खिली चमेली।

क्यों किस हवा ने उनको बदरंग कर दिखाया।3।

क्यों प्रेम हार टूटा,

क्यों प्रीति गाँठ छूटी।

क्यों फूल से दिलों में छल कीट आ समाया।4।

सुन कर जिसे न थकते,

जो बात रस भरी थी।

किस बेदिली ने उसमें विष बेतरह मिलाया।5।

जो मुँह कि था अनूठा,

था फूल जिससे झड़ता।

अब आग का उगलना किसने उसे सिखाया।6।

जिस ऑंख में बराबर,

था प्यार ही छलकता।

दिल छीलना उसी को कैसे पसन्द आया।7।

क्यों लाग बन गयी वह,

जो थी लगन कहाती।

क्यों मोम सा कलेजा पत्थर गया बनाया।8।2।

ऑंखों का तारा

चौपदे

फूल मैं लेने आई थी।

किसी को देख लुभाई क्यों।

हो गया क्या, कैसे कह दूँ।

किसी ने ऑंख मिलाई क्यों।1।

फूल कैसे क्या हैं बनते।

क्यों उन्हें हँसता पाती हूँ।

किसलिए उनकी न्यारी छबि।

देख फूली न समाती हूँ।2।

ललकती हूँ मैं क्यों इतना।

किसलिए जी ललचाया यों।

निराली रंगत में कोई।

रंग लाता दिखलाया क्यों।3।

बहुत ही भीनी भीनी महँक।

कहाँ से क्यों आती है चली।

किधार वह गया, खोज कर थकी।

क्यों नहीं मिलती उसकी गली।4।

फूल सब दिन फूले देखे।

आज क्यों इतने फूले हैं।

भूल में मैं ही पड़ती हूँ।

या किसी पर वे भूले हैं।5।

हवा इतनी कैसे महँकी।

क्या उसी को छू आई है।

चली आती है बढ़ती क्यों।

क्या सँदेसा कुछ लाई है।6।

बरस क्यों गया अनूठा रस।

पा गयी कैसे सुख सारा।

अचानक हमें मिला कैसे।

हमारी ऑंखों का तारा।7।3।

दिल का दर्द

नहीं दिन को पड़ता है चैन।

नहीं काटे कटती है रात।

बरसता है ऑंखों से नीर।

सूखता जाता है सब गात।1।

आज है कैसा उसका हाल।

भरी है उसमें कितनी पीर।

दिखाऊँ कैसे उसको आह।

कलेजा कैसे डालूँ चीर।2।

चित्ता में है वैसी ही चाह।

उठे रहते हैं अब भी कान।

गये तुम क्यों अपनों को भूल।

आ सुना दो मुरली की तान।3।

जहाँ थी चहल पहल की धाूम।

वहाँ अब रहता है सुनसान।

कलेजा कौन न लेगा थाम।

देख उजड़ा घर स्वर्ग समान।4।

कहाँ हैं हरे भरे अब पेड़।

नहीं मिलते हैं सुन्दर फूल।

कहाँ हो ऐ मेरे घनश्याम।

उड़ रही है कुंजों में धाूल।5।4।

मसोस

कलेजा मेरा जलता है।

याद में किसकी रोता हूँ।

अनूठे मोती के दाने।

किसलिए आज पिरोता हूँ।1।

फूल कितने मैंने तोड़े।

बनाता हूँ बैठा गजरा।

चल रहा है धाीरे धाीरे।

प्यार दरिया में दिल बजरा।2।

चुने कोमल कोमल पत्तो।

अछूते फल मैंने बीछे।

न जाने क्यों कितनी चाहें।

पड़ गयी हैं मेरे पीछे।3।

सामने हुए रंगरलियाँ।

रंगतें क्यों दिखलाता हूँ।

देख कर के खिलतीं कलियाँ।

किसलिए मैं खिल जाता हूँ।4।

चित्ता हरने वाली छवि से।

पेड़ की हरियाली बिलसी।

बलाएँ किस की लेने को।

बेलि अलबेली है बिकसी।5।

फबन से बड़ी फबीली बन।

हँस रही है फूली क्यारी।

क्यों बहुत ही मीठे सुर से।

गा रही हैं चिड़ियाँ सारी।6।

लहक हैं रही सिंची दूबें।

हवा है महँक भरी बहती।

भँवर की गूँज कान में क्यों।

अनूठी बातें हैं कहती।7।

उमंगें छलकी पड़ती हैं।

दिन बहुत लगता है प्यारा।

जोहता है किसकी राहें।

जगमगा ऑंखों का तारा।8।

देखता सपना हूँ किसलिए।

भाग मेरा ऐसा है कहाँ।

सदा ऊसर ऊसर ही रहा।

मिली कब केसर क्यारी वहाँ।9।

कलेजा मेरा पत्थर है।

ऑंख का ऑंसू है पानी।

हवा बन जाती हैं आहें।

पीर क्यों जाये पहचानी।10।5।

दिल का छाला

चौपदे

गईं चरने कितनी ऑंखें।

बँधाी है बहुतों पर पट्टी।

अधाखुली ऑंखें क्यों खुलतीं।

बनी हैं धाोखे की टट्टी।1।

किसी से ऑंसू छनता है।

किसी में है सरसों फूली।

देख भोला भाला मुखड़ा।

ऑंख कितनी ही है भूली।2।

रही सब दिन कोई नीची।

नहीं ऊँची कोई होती।

ऑंख कोई अंगारा बन।

आग ही रहती है बोती।3।

मचलती मिलती है कितनी।

ऍंधोरा कितनी पर छाया।

दिखाई ऐसी भी ऑंखें।

पड़ा परदा जिन पर पाया।4।

नहीं मिलते ऑंखों वाले।

पड़ा अंधाों से है पाला।

कलेजा किसने कब थामा।

देख छिलते दिल का छाला।5।6।

दुखड़े

ओढ़ काली चादर आई।

देख कर के मुझ को रोती।

पड़ी उस पर दुख की छाया।

रात कालापन क्यों खोती।1।

जान पड़ता है दर देखे।

निगलने को मुँह बाता है।

बहुत मेरा प्यारा जो था।

घर वही काटे खाता है।2।

करवटें बदला करती हूँ।

दुखों के लगते हैं चाँटे।

बिछौने से तन छिदता है।

बिछ गये क्यों इस पर काँटे।3।

जगाता है क्यों कोई आ।

आग क्यों जी में है जगती।

हो गयी इसे लाग किस से।

किसलिए ऑंख नहीं लगती।4।

बे तरह जलती रहती है।

नहीं कैसे वह डर जाती।

ऑंसुओं में बह जावेगी।

नींद क्यों ऑंखों में आती।5।7।

प्यार के पचड़े

उमंगें पीसे देती हैं।

चोट पहुँचाती हैं चाहें।

नहीं मन सुनता है मेरी।

भरी काँटों से हैं राहें।1।

बहुत जिससे दिल मलता है।

काम क्यों ऐसा करती हूँ।

नहीं कुछ परवा है जिसको।

उसी पर मैं क्यों मरती हूँ।2।

सुनेगा कब वह औरों की।

बात अपनी जो सुनता है।

महँक से उसको मतलब क्या।

फूल जो मन के चुनता है।3।

देख कर उसकी करतूतें।

न कैसे ऑंसू मैं पीती।

न इतना भी जिसने जाना।

किसी के जी पर क्या बीती।4।

समझ यों क्यों हो मन मानी।

बहुत मन मेरा रोता है।

फूल बन मैं जिस पर बरसी।

आग वह कैसे बोता है।5।

निठुर बन बन करके वह क्यों।

कुचलता है मेरी ललकें।

पाँव के नीचे मैं जिसके।

बिछाती रहती हूँ पलकें।6।

हाथ मलते दिन जाता है।

कलपते रातें हैं बीती।

नहीं वह मुख दिखलाता क्यों।

देख मुँह जिसका हूँ जीती।7।

कलेजा नहीं पसीजा क्यों।

सूखता है रस का सोता।

चाह सोने की रखता है।

हाथ का पारस है खोता।8।

लुभाने वाली बातों का।

पड़ा है कानों को लाला।

रह गईं ऑंखें प्यासी ही।

कहाँ पाया रस का प्याला।9।

मिल गया क्या इससे उसको।

बला में उसने क्यों डाला।

फूल जैसे मेरे जी को।

मल गया क्यों मलने वाला।10।8।

चाहत के चोचले

चौपदे

देख कर के मुझको रोती।

रो सके तो तू भी रो दे।

जलाता है क्यों तू इतना।

जलद जल देता है तो दे।1।

कह रही हूँ अपनी बातें।

क्यों नहीं उसको सुन पाता।

गिरा जाता है मेरा जी।

गरजता क्यों है तू आता।2।

टपकता है तुझको देखे।

कलेजे का मेरे छाला।

मिला जैसा काला तन है।

न कर तू दिल वैसा काला।3।

फेर में क्यों पड़ जाती हूँ।

बावली सी क्यों फिरती हूँ।

घिर रहा है तो तू घिर ले।

दुखों से मैं क्यों घिरती हूँ।4।

बरस, क्यों घड़ियाँ बनती हैं।

कलपता है क्यों मन मेरा।

बरसने लगती हैं ऑंखें।

क्यों बरसना देखे तेरा।5।

लाग क्या मुझ से है उसको।

जी जला कर क्या पाती है।

कौंधा कर के तुझ में बिजली।

किसलिए आग लगाती है।6।

ऑंख तुझ पर पड़ते ही क्यों।

ऑंख में कोई फिरता है।

देख कर के बूँदें गिरतीं।

किसलिए ऑंसू गिरता है।7।

कहाँ तो है तू रस वाला।

तरल क्यों है कहलाता तू।

तरसते मेरे तन मन को।

जो नहीं तर कर पाता तू।8।

हवा पर रहता है तो रह।

बे तरह काहें मुड़ता है।

उड़ रहा है तो तू उड़ ले।

किसी का जी क्यों उड़ता है।9।

रात है कितनी ऍंधिायाली।

ऍंधोरा जी में है छाया।

न कर अंधोर मेघ तू भी।

किसलिए अंधाापन भाया।10।9।

कली

बच सकेगा नहीं भँवर से रस।

आ महँक को हवा उड़ा लेगी।

पास पहुँच बनी ठनी तितली।

पंखड़ी को मसल दगा देगी।1।

छीन ले जायगी किरिन छल से।

ओस की बूँद से मिला मोती।

फूलने का न नाम भी लेती।

जो कली भेद जानती होती।2।10।

फूल

किस लिए तो रहे महँकते वे।

कुछ घड़ी में गई महँक जो छिन।

क्या खिले जो सदा खिले न रहे।

क्या हँसे फूल जो हँसे दो दिन।1।

पंखड़ी देख कर गिरी बिखरी।

हैं कलेजे न कौन से छिलते।

क्या गया भूल तब भ्रमर उन पर।

जब रहे फूल धाूल में मिलते।2।

यह बताता हमें नहीं कोई।

क्या मिलेगा वहाँ जहाँ खोजें।

जो कि जी की कली खिलाता था।

आज उस फूल को कहाँ खोजें।3।

रंग है वह नहीं फबन है वह।

है नहीं वह महँक नहीं वह रस।

अब कहाँ फूल का समाँ है वह।

धाूल में पंखड़ी पड़ी है बस।4।

”रह गया फूल ही नहीं” अब तो।

सज सकेंगी न पास की फलियाँ।

साथ किस के फबन दिखा अपनी।

रंगरलियाँ मनाएँगी कलियाँ।5।

रोजश् के सैकड़ों बखेड़ों में।

वे न जायें बुरी तरह फाँसे।

है खिलाती खुली हवा उनको।

फूल हैं ओस बूँद के प्यासे।6।

है न गोरा बदन पसंद उसे।

हैं न भाती कलाइयाँ न्यारी।

क्यों न उसमें भरे रहे काँटे।

हैं हरी डाल फूल को प्यारी।7।

फूल से पूछता अगर कोई।

तो बिहँस वह यही बात पाता।

काम के हैं महल न सोने के।

हैं हमें बन हरा भरा भाता।8।

हैं न गहने पसंद सोने के।

हैं न हीरे जड़े मुकुट भाते।

हैं लुभाते उन्हें हरे पत्तो।

हैं कली देख फूल खिल जाते।9।

चाह उसको न मंदिरों की है।

वह मठों से न रख सका नाते।

फूल का प्यार क्यारियों से है।

हैं बगीचे उसे बहुत भाते।10।11।

l

तितलियाँ नोचने लगीं कुढ़ कर।

तंग करने लगे भ्रमर भूले।

आ लगाने लगी हवा धाौलें।

कौन फल फूल को मिला फूले।1।

है सताता समीप आ भौंरा।

तितलियों ने न कब सितम ढाया।

छेदता बेधाता रहा माली।

फूल ने रंग रूप क्यों पाया।2।

पिंड छूटा कभी न भौंरों से।

बे तरह तन हवा लगे हिलता।

मालियों से मिला न छुटकारा।

है कहाँ चैन फूल को मिलता।3।

छेदता है घड़ी घड़ी माली।

गाँव घर किस तरह भला भावे।

कम बखेड़े न बाग बन में हैं।

क्या करे फूल औ कहाँ जावे।4।

है हवा चोर मतलबी माली।

क्या करे वह कि जी बचे जिससे।

भौंरे हैं ढीठ तितलियाँ हलकी।

फूल मुँह खोल क्या कहे किससे।5।12।

कलपता कलेजा

चौपदे

मैं ऊब ऊब उठती हूँ।

क्या ऊब नहीं तुम पाते।

आ कर के अपना मुखड़ा

क्यों मुझे नहीं दिखलाते।1।

मैं तड़प रही हूँ, जितना।

किस तरह तुम्हें बतलाऊँ।

यह मलता हुआ कलेजा।

कैसे निकाल दिखलाऊँ।2।

जो दर्द देखना चाहो।

तो मुझे याद कर रो लो।

अपने मोती से प्यारे।

मेरे मोती को तोलो।3।

मेरे सुख की राहों में।

दुखड़े काँटे बोते हैं।

बन गयी बावली इतनी।

बन के पत्तो रोते हैं।4।

आहें हैं बहुत सतातीं।

दम घुटता ही रहता है।

मेरी ऑंखों का ऑंसू।

लोहू बन बन बहता है।5।

तब जी जाता है छितरा।

हैं सब अरमान कलपते।

ये मेरे दिल के छाले।

जब हैं बे तरह टपकते।6।

बे चैन बनी रहती हूँ।

मेरे तन मन हैं हारे।

दिन काट रही हूँ रो रो।

रातों में गिन गिन तारे।7।

है सोच सुन सकूँगी क्या।

वे मीठी मीठी बातें।

फिर दिन वैसे क्या होंगे।

आएँगी क्या वे रातें।8।13।

दुखता दिल

चौपदे

क्यों नहीं बता दो प्यारे।

सुख की घड़ियाँ आती हैं।

क्यों तुम्हें तरसती ऑंखें।

अब देख नहीं पाती हैं।1।

हो गये महीने कितने।

पर मेरी याद न आई।

क्यों पिघला नहीं कलेजा।

क्यों ऑंख नहीं भर पाई।2।

मैं समझ नहीं सकती हूँ।

क्यों गया मुझे कलपाया।

जो नरम मोम जैसा था।

वह पत्थर क्यों बन पाया।3।

दिल उन्हें देख छिलता है।

है उनकी फबन न भाती।

मैं जिन फूलों को देखे।

थी फूली नहीं समाती।4।

बावली बनाना था ही।

तो क्यों हँस हँस कर बोले।

सब दिन जो फूला रहता।

उस दिल में पड़े फफोले।5।

जब मुझे याद आती हैं।

वे प्यार भरी सब बातें।

तब बीत नहीं दिन पाता।

काटे खाती हैं रोतें।6।

मैं भूल गयी हूँ कैसे।

यह मुझे बता दो प्यारे।

बस गये ऑंख में किस की।

मेरी ऑंखों के तारे।7।

मैं घिरी ऍंधोरे से हूँ।

है भरा रगों में दुखड़ा।

आकर मुझ को दिखला दो।

वह खिले चाँद सा मुखड़ा।8।14।

पते की बातें

(3)

मिटना

(1)
चौपदे

रंग बू फूल नहीं रखता।

धाूल में जब मिल जाता है।

सूख जाने पर पत्तो खो।

फल नहीं पौधाा लाता है।1।

गँवाते हैं अपना पानी।

बिखर जब बादल जाते हैं।

गल गये दल रस के निचुड़े।

कमल पर भौंर न आते हैं।2।

नहीं जब सर में जल होता।

कहाँ तब वह लहराता है।

चाँद खो कर अपनी किरणें।

नहीं रस बरसा पाता है।3।

जोत किसने उस में पाई।

ऑंख जब अंधाी है होती।

दिये की बुझी हुई बत्ताी।

ऍंधोरा कभी नहीं खोती।4।

नहीं उसकी ऑंखें खुलतीं।

सूझ जिसकी सब दिन सोई।

रखा क्या मिट जाने में है।

किसलिए मिटाता है कोई।5।

(2)

सदा जल जल कर के दीया।

उँजाला करता रहता है।

भला औरों का करने को।

फूल छिदता सब सहता है।6।

बीज मिट्टी में मिल मिल कर।

अन्न कितने उपजाते हैं।

पेट लोगों का भरता है।

मगर फल कटते जाते हैं।7।

तब किसे नहीं पिलाती रस।

ऊख जब पेरी जाती है।

क्या नहीं देती है किस को।

ठोकरें धारती खाती है।8।

खिंचे ताने बाँधो टाँगे।

चाँदनी करती है साया।

सुख नहीं किसको पहुँचाती।

पाँव के नीचे पड़ छाया।9।

भलाई अगर नहीं भाती।

काम क्या आई तो काया।

नहीं उस को मरते देखा।

जिसे है मर मिटना आया।10।1।

मतवाला

बन गये फूलों से काँटे।

आम से मीठे कड़वे फल।

बलाएँ लगीं बला लेने।

चढ़ाई हमने वह बोतल।1।

मोल सारी दौलत ले ली।

कमाया हमने वह पैसा।

नहीं दम मार सका कोई।

लगाया हम ने दम ऐसा।2।

पहुँचता जहाँ नहीं कोई।

पहुँच कर वहाँ पलट आई।

तोड़ लाई तारों को उचक।

पिनक हमने ऐसी पाई।3।

बताएँ कैसे रस उस का।

बताते मुँह जाता है सी।

लगी जिस से ताड़ी शिव की।

हमीं ने वह ताड़ी पी ली।4।

उठाया ऑंखों का परदा।

भेद जिस ने सारा खोला।

न उतरा किसी गले से जो।

हमीं ने निगला वह गोला।5।

और की बिगड़ें तो बिगड़ें।

हमारी बातें हैं बनती।

किसी गाढ़े दिन के हित से।

हमारी गाढ़ी है छनती।6।

न खिंचने वाली जगहों में।

खिंच सकी है जिस की रेखा।

उसे अपनी ऑंखें मूँदे।

नशा की झोंकों में देखा।7।

नहीं जिनसे चढ़ जाता है।

काँखते हैं तो वे काँखें।

चढ़ गयी हैं सब से ऊँचे।

हमारी चढ़ी हुई ऑंखें।8।

सभी ने जगता ही पाया।

पर नहीं नींद कभी टूटी।

जड़ी बूटी कितनी देखी।

हमारी बूटी है बूटी।9।

न जिस को जान सका कोई।

बात वह हमने जानी है।

छू सकी जिसे नहीं दुनिया।

भंग वह हमने छानी है।10।

न जिस का नशा कभी उतरा।

पिया है हमने वह प्याला।

मस्त है रंगत में अपनी।

हमें कहते हैं मतवाला।11।2।

निजता

हैं डराते न राजसी कपड़े।

क्यों रहे वह न चीथड़े पहने।

धाूल से तन भरा भले ही हो।

हैं लुभाते न फूल के गहने।1।

है धानी तो धानी रहे कोई।

है उसे लाख पास का पैसा।

घूर पर बैठ दिन बिताती है।

सेज पर ऑंख डालना कैसा।2।

हों किसी के महल बड़े ऊँचे।

वह उन्हें देख ही नहीं पाती।

क्यों न होवे गिरी पड़ी टूटी।

झोंपड़ी है उसे बहुत भाती।3।

लोग खायें मिठाइयाँ मेवे।

घर में हो दूधा की नदी बहती।

है उसे साग पात से मतलब।

वह नहीं मुँह निहारती रहती।4।

बाल कर आसमान पर दीया।

क्यों किसी की न जोत हो जगती।

देख कर ऑंख और की मुँदती।

है गरीबी उसे भली लगती।5।

लोग सारी सवारियों पर चढ़।

नित फिरें क्यों न मूँछ फटकारे।

देख उन से अनेक को पिसते।

हैं उसे पाँव ही बहुत प्यारे।6।

पीसना पेरना नहीं भाता।

कब किसी को कहाँ सताती है।

क्यों बने लोग-बाग-वाली वह।

बे कसी ही उसे बसाती है।7।

क्यों ललाती रहे ललक में पड़।

किसलिए हो सुखी लहू गारे।

चींटियों सी चली न कब बच बच।

भिड़ नहीं है कि डंक वह मारे।8।

सादगी को पसंद करती है।

बेबसी देख है सुखी रहती।

साहबी क्यों न हो बड़ी सबसे।

वह उसे है लहू भरी कहती।9।

गोद में आन बान की सोई।

देखती है बडे बड़े सपने।

रोब की मानती नहीं निजता।

मस्त रहती है रंग में अपने।10।3।

निराले नाते

चौपदे

रात मुख उजला क्यों होता।

जो न तारे गोदी भरते।

दिशा क्यों हँसती दिखलाती।

चंद घर अगर नहीं करते।1।

गगन मुख लाली क्यों रहती।

ललाई जो न रंग करती।

भोर सिर पर सेहरा बँधाते।

माँग ऊषा की है भरती।2।

चमकती चटकीली सुथरी।

चाँदनी उगी जो न रहती।

धाूल को धाो धाो धारती पर।

दूधा की धारा क्यों बहती।3।

जो न जुगनू होते तो क्यों।

ऍंधोरे खोंतों के टलते।

बड़ी ऍंधिायाली रातों में।

करोड़ों दीये क्यों बलते।4।

सुनहला सजा ताज पहने।

किसलिए सूरज तो आते।

सब जगह कितनी ही ऑंखें।

वे अगर बिछी नहीं पाते।5।

जगमगाती न्यारी किरणें।

जो न छूकर करतीं टोना।

हरे पेड़ों पर पत्ताों पर।

किस तरह लग जाता सोना।6।

ओस की बूँदों में कोई।

जोत जो जगी नहीं होती।

फूल फूले न समाते तो।

उन्हें कैसे मिलते मोती।7।

हवा से कान जो न फँकता।

किसी की ऑंखें क्यों खुलतीं।

दौड़ कर किसी रँगीले से।

तितलियाँ क्यों मिलती जुलतीं।8।

किसी के याद दिलाने से।

जो न दिल औरों के खिलते।

तो बड़े सुन्दर कंठों से।

पखेरू क्यों गाते मिलते।9।

कौन सा नाता है इन में।

एक से एक हिले क्यों हैं।

कहीं क्यों तारे छिटके हैं?

कहीं पर फूल खिले क्यों हैं?।10।4।

मनमाना

चौपदे

कभी है नया जाल बिछता।

कभी फंदे हैं पड़ जाते।

कभी कोई कमान खिंचती।

तीर पर तीर कभी खाते।1।

मोहनी कभी मोहती है।

कभी मनमोल लिया जाता।

कभी मोती जैसा ऑंसू।

पत्थरों को है पिघलाता।2।

कभी कुछ टोना होता है।

कभी जादू चल जाता है।

कभी छू मन्तर के बल से।

छलावा छल कहलाता है।3।

चोचले कर कर ‘चालाकी’।

बे तरह नाच नचाती है।

‘मचल’ कितनी ही चालें चल।

न किस को चित कर पाती है।4।

चौकड़ी क्यों न भूल जाती।

क्यों न पड़ता धाोखा खाना।

न कैसे लुट जाता कोई।

न कैसे होता मनमाना।5।5।

दुखदर्द

चौपदे

लगी है अगर ऑंख मेरी।

किसलिए ऑंख नहीं लगती।

किस तरह आते हैं सपने।

रात भर जब मैं हूँ जगती।1।

उँजाला अंधाा करता है।

मेंह में जलती रहती हूँ।

नहीं खुलता है मुँह खोले।

न जाने क्या क्या कहती हूँ।2।

ऑंख में फिरता है कोई।

मगर मैं देख नहीं पाती।

बिना छेदे ही औरों के।

बे तरह छिदती है छाती।3।

और की ओर देखती क्यों।

कहाती है जो सत धांधाी।

लाख हा ऑंखों के होते।

बनी रहती है जो अंधाी।4।

हो गया चूर चैन चित का।

चंद से अंगारे बरसे।

देह से चिनगारी निकली।

चाँदनी चंदन के परसे।5।

लगी जलने सारी दुनिया।

आग जी में लग जाने से।

हवा हो गया हमारा सुख।

घटा दुख की घिर आने से।6।

आस पर ओस पड़ी है तो।

आस क्यों फूल नहीं बनती।

क्यों नहीं काली छाया पर।

चाँदनी पत्ताों से छनती।7।

मोतियों की लड़ियाँ टूटीं।

हाथ का पारस खोने से।

दिल जला बहने से पानी।

गुल खिला काँटा बोने से।8।6।

टूटे तार

उँगलियों से छिड़ते जिस काल।

सुधाा की बूँदें पाते कान।

धाुन सुने सिर धाुनते थे लोग।

तान में पड़ जाती थी जान।1।

रगों में रम जाती थी रीझ।

कंठ का जब करते थे संग।

मीड़ जब बनते मिले मरोड़।

थिकरने लगती लोक उमंग।2।

निकलते थे इन में वे राग।

गलों के जो बनते थे हार।

सुरों में मिलती ऐसी लोच।

बरस जाती थी जो रस धाार।3।

मनों को जो ले लेती मोल।

वह लहर इन से पाती बीन।

सितारों में भरते वह गूँज।

दिलों को जो लेती थी छीन।4।

बोल थे इन के बड़े अमोल।

कभी इन में भी थे झंकार।

करेगा प्यार इन्हें अब कौन।

आज तो हैं ये टूटे तार।5।7।

भेद की बातें

चौपदे

फूल के पास जायँगे कैसे।

देख काँटे उठे डरेंगे जो।

मिल सकेगा उन्हें न रस कैसे।

भौंर सा भाँवरें भरेंगे जो।1।

क्यों दिलों में न घर बना लेंगे।

जो निराली फबन दिखाते हैं।

वे सकेंगे न रंग रख कैसे।

फूल सा जो कि रंग लाते हैं।2।

वे किसे हाथ में नहीं करते।

प्यार कर के रहे परसते जो।

प्यार किस की नहीं बुझा पाते।

बादलों सा रहे बरसते जो।3।

फल मिलेगा भला नहीं कैसे।

डालियों सा झुका हुआ तो हो।

वह करेगा न जी हरा किसका।

पेड़ जैसा हरा भरा जो हो।4।

जो लगन जाय लग किसी जी को।

प्यार तो क्यों न जायगा पोसा।

उठ सकेगा न दर्द किस जी में।

जो पिहकता रहे पपीहों सा।5।

किस तरह चैन पा सकेंगे वे।

ऑंख जैसा भरे रहेंगे जो।

जी न किस का दुखी बनाएँगे।

ऑंसुओं की तरह बहेंगे जो।6।

नेह से रख सके न जो नाता।

प्यार वाले उसे न क्यों खलते।

क्यों जलाते न दूसरों को वे।

जो दिये की तरह रहे जलते।7।

वह किसे है लुभा नहीं लेता।

बालकों सा लुभावना जो है।

वह बसेगा न ऑंख में किसकी।

चाँद जैसा सुहावना जो है।8।

जो कली की तरह रहा खिलता।

कब नहीं वह खिला सका किसको।

बात उसकी नहीं सुनी किसने।

कोयलों सा गला मिला जिस को।9।

मान उन को कहाँ नहीं मिलता।

जो कहीं फूल सा महँकते हैं।

चाह उनकी किसे नहीं है जो।

बुलबुलों सा सदा चहकते हैं।10।8।

प्यार के लिए प्यार

चौपदे

रो रहा है बहा बहा ऑंसू।

या कि है वह पिरो रहा मोती।

हित नहीं सूझता उसे अपना।

प्यार को ऑंख क्या नहीं होती?।1।

वे लगाये लगन लगी कैसे।

क्यों लहू घूँट लोग पीते हैं।

ऑंख जिस की कभी न उठ पाई।

क्यों उसे देख देख जीते हैं।2।

साँसतें अब सही नहीं जातीं।

किस तरह बार बार दुख झेलें।

हम बहुत तंग आ गये इससे।

किस तरह दिल बदल किसी से लें।3।

रात में चैन है नहीं आता।

साँसतें क्या कभी नहीं सोतीं।

चोट पर चोट हैं अगर खाती।

क्यों नहीं चूर चाहतें होतीं।4।

काठ है और है न पत्थर वह।

मास ही है उसे कहा जाता।

ऑंच कुछ प्यार में अगर होती।

तो कलेजा न क्यों पिघल पाता।5।

दिल अगर हाल जानता दिल का।

बेदिली ऑंख क्यों दिखाती तो।

वे हमें चाहते अगर होते।

चाह कैसे कुएँ झ्रकाती तो।6।

कर सके क्या उतर गया पानी।

गाँठ जी की खुली नहीं खोले।

हो बड़े मोल के मगर ऑंसू।

मोतियों से गये नहीं तोले।7।

मतलबों के न देखते सपने।

मौज के बीज जो न मन बोता।

बे तरह चाहतें सतातीं क्यों।

प्यार जो प्यार के लिए होता।8।9।

उलाहने

चौपदे

प्यास से सूख है रहा तालू।

दिल किसी का न इस तरह छीलो।

सामने है भरा हुआ पानी।

पर कहाँ यह कहा कि तुम पी लो।1।

चाहता एक बूँद ही जो है।

पीर उसकी गयी न पहचानी।

किसलिए तो बरस गये बादल।

जो पपीहा न पा सका पानी।2।

वह कभी ऑंख भर न देख सका।

ऑंख का जो गिना गया तारा।

चाँद को जो न चाहता होता।

क्यों चबाता चकोर अंगारा।3।

गर्म से गर्म क्यों न वह होवे।

हैं कलेजे कभी नहीं हिलते।

क्यों न मुँह फेरता रहे सूरज।

हैं उसे देख कर कमल खिलते।4।

क्यों बुरे से बुरा न वह होवे।

छोड़ उसको सुधाा नहीं पीतीं।

जल इसे जान तक नहीं सकता।

मछलियाँ जल बिना नहीं जीतीं।5।

वह रहा मस्त रंग में अपने।

चैन इसको कभी नहीं आया।

कोयलें कूक कर हुईं पगली।

मुँह नहीं खुल बसंत का पाया।6।

सोच कर यह उमंग से आया।

रूप रस जायगा लिपट पीया।

जान पाया नहीं फतिंगा यह।

जान लेगा जला जला दीया।7।

है बेचारा हिरन बड़ा भोला।

भूल होगी बड़ी लहू गारे।

जो पसीजे न प्यार कर कोई।

तो सुना बीन बान क्यों मारे।

क्यों न काँटे लगे रहे छिदता।

और किस का उसे सहारा है।

तुम कमल रस कभी न दो या दो।

भौंर तो सब तरह तुम्हारा है।9।10।

बिखरे फूल

चौपदे

बिना छेदे बेधो बाँधो।

किसी ने कब गजरे पहने।

नहीं गोरेपन के भूखे।

क्यों बनें वे तन के गहने।1।

दूसरों का मन रखने को।

किसलिए बनें अनमने वे।

जिसे बनना हो वह बन ले।

गले का हार क्यों बनें वे।2।

जहाँ हैं पड़े वहीं रह कर।

रंग अपना दिखलावेंगे।

नहीं इसकी परवा उनको।

जो न सिर पर चढ़ पावेंगे।3।

फेर लो अपनी ऑंखों को।

बे तरह वे गड़ जावेंगे।

करोगे उन्हें उठा कर क्या।

हाथ मैले हो जावेंगे।4।

पास आते हैं क्यों भौंरे।

मना कर दो इन भूलों को।

पड़ा रहने दो मत छूओ।

हमारे बिखरे फूलों को।5।11।

मन का मोल

कह सका कौन पेट की बात।

भेद कोई भी सका न खोल।

कौन अपने मतलब को भूल।

किसी के जी को सका टटोल।1।

दिखाता कोई सुन्दर रूप।

सुनाता कोई धान की बात।

बोलियाँ मीठी मीठी बोल।

रिझाता था कोई दिन रात।2।

हाथ में करते थे कुछ लोग।

बड़ी ऑंखों का जादू डाल।

चला देता था कोई मूठ।

दिखा कर गोरा गोरा गाल।3।

मेघ से काले काले बाल।

देख कोई बनता था मोर।

चंद मुख ओर टकटकी बाँधा।

कहाता कोई ‘चतुर’ चकोर।4।

दिखा कर गठे हुए सब अंग।

चमकता मुखड़ा बड़ा सुडौल।

ऊब को अनबन को झकझोड़।

जमा देता था कोई धाौल।5।

जवानी के मद में हो चूर।

किसी की चाहों भरी उमंग।

किया करती मन माने काम।

दिखा कर बड़े अनूठे रंग।6।

किसी की ऑंख न पाती देख।

किसी के पास नहीं था कान।

किसी की ऐंठ से गये ऊब।

उमड़ते कितने ही अरमान।7।

न चढ़ता देखे चोखा रंग।

बन गया कोई लापरवाह।

मिली भौंरे सी प्रीति विहीन।

किसी की रस लेने की चाह।8।

मिले कुछ ऐसे भी जो लोग।

दिखाते रहते झूठा प्यार।

पर रही यह झक उन पर रीझ।

दूसरा दे तन मन धान वार।9।

कई कितनी जगहों में घूम।

उमड़ते आते घन से पास।

पर नहीं था, उन में वह नीर।

बुझा देता जो जी की प्यास।10।

भला बदले में लेकर पोत।

कौन देता है मोती तोल।

महँग हो गयी प्रेम की माँग।

नहीं मिल पाया मन का मोल।11।12।

ऑंसू पर ऑंसू

(4)

मोती के दाने

हमारे मोती के दाने।

भला किसने हैं पहचाने।

लाख माँगें पर माँगें कब।

मोल मिलते हैं मनमाने।1।

किसी के दिल को क्यों छू दें।

किसी का मुँह कैसे मूँदें।

धाूल में मिल जाने वाली।

गाल पर गिरतीं कुछ बँदें।2।

किसी का दिल क्यों जलता है।

बे तरह दुख क्यों खलता है।

जानते हैं कितने इसको।

किसी का दिल क्यों मलता है।3।

ऐंठ अपने को ठगती है।

रंग में हठ के रँगती है।

मानता है यह कोई नहीं।

आग पानी से लगती है।4।

कीच कमलों को जनता है।

ऑंख से ऑंसू छनता है।

रतन सीपी में हैं मिलते।

बूँद से मोती बनता है।5।

जान जो इसको जाते हैं।

पहुँच तह तक जो पाते हैं।

कहीं पर नहीं हमें ऐसे।

ऑंख वाले दिखलाते हैं।6।

टटोलें दिल ऑंखें खोलें।

समझ सारे भेदों को लें।

बहुत कम ऐसे दिखलाये।

ठीक मोती को जो तोलें।7।

जलन इनकी किसने जानी।

पीर किसने है पहचानी।

कौन पानी पानी होगा।

देख इन का जाता पानी।8।

कलपती हैं इनमें आहें।

सिसिकती हैं इनमें चाहें।

जान किसने पाया इनकी।

भरी काँटों से हैं राहें।9।

बे तरह बिखरे आते हैं।

कब नहीं मुँह की खाते हैं।

देख नीचा ऑंखों से गिर।

धाूल में मिलते जाते हैं।10।

विपत में आड़े आते हैं।

पसीजे ही दिखलाते हैं।

बना देते हैं जी हलका।

पत्थरों को पिघलाते हैं।11।

भँवर में नावें खेते हैं।

सहारा दुख में देते हैं।

ऑंख में बसते हैं आकर।

दिलों में घर कर लेते हैं।12।

बड़े सादे कहलाते हैं।

पर भरे पाये जाते हैं।

बदलते रंग नहीं, लेकिन।

रंग बदला ही पाते हैं।13।

लोग क्यों हलका कहते हैं।

सिर पड़े ये सब सहते हैं।

पार करते हैं औरों को।

आप बहते ही रहते हैं।14।

न देखी हैं इतनी ऑंखें।

मिलीं इनको जितनी ऑंखें।

बोलते हैं चुप रहकर भी।

खोलते हैं कितनी ऑंखें।15।1।

ऑंसू

बहुत ही हम घबराते हैं।

कलप कर के रह जाते हैं।

कलेजा जब दुख जाता है।

ऑंख में ऑंसू आते हैं।1।

बे तरह दुख से घिरते हैं।

ऑंख से तो क्यों गिरते हैं।

क्यों भरम खो करके अपना।

ऑंख में ऑंसू फिरते हैं।2।

दुखों पर दुख सहते देखे।

मुसीबत में रहते देखे।

कलेजा कभी नहीं पिघला।

बहुत ऑंसू बहते देखे।3।

कौन सुख की नींदों सोता।

किस तरह सारे दुख खोता।

आग जी की कैसे बुझती।

जो न ऑंखों का जल होता।4।

पसीजे ही दिखलाते हैं।

बरस अंगारे जाते हैं।

बहा करते हैं पानी बन।

मगर ये आग लगाते हैं।5।

बीज हित का बो देते हैं।

कसर कितनी खो देते हैं।

बहुत ही धाीरे धाीरे बह।

मैल जी का धाो देते हैं।6।

डरे बहुतेरे मिलते हैं।

कलेजे कितने हिलते हैं।

फूँक देते हैं महलों को।

ये कभी आग उगिलते हैं।7।

कब नहीं दिखलाते हैं तर।

पर जलाते हैं लाखों घर।

बड़े हैं नरम मगर इन से।

मोम हो जाता है पत्थर।8।

साँसतें कितनी सहते हैं।

फिसलते गिरते रहते हैं।

न जाने किसका लोहू कर।

लहू से भर भर बहते हैं।9।

हमारा चित्ता उमगता है।

रंग में उन के रँगता है।

खबर कैसे न उन्हें होगी।

तार ऑंसू का लगता है।10।

नहीं कटतीं काटे घड़ियाँ

नहीं मिलतीं क्यों हित कड़ियाँ।

टूटती ही जाती हैं क्यों।

हमारी मोती की लड़ियाँ।11।

ऑंख से ऑंख मिला देखो।

चाह की थाह लगा देखो।

डूबता ही जाता है जी।

झड़ी ऑंसू की आ देखो।12।

नाम बिकता है तो बिक ले।

राह छिकती है तो छिक ले।

खोज में तेरी ही प्यारे।

ऑंख से ऑंसू हैं निकले।13।

कँपा तो जाय कलेजा कँप।

नपी तो गरदन जाये नप।

टकटकी लगी आज भी है।

टपकते हैं ऑंसू टप टप।14।

याद तेरी ही आती है।

छ टुकड़े होती छाती है।

बरस बन गये हमारे दिन।

ऑंख ऑंसू बरसाती है।15।2।

ऑंसुओं की माला

कलेजे मैंने देखे हैं।

टटोले जी मैंने कितने।

काम सबने रस से रक्खा।

मिले मिलने वाले जितने।1।

सुनी मीठी मीठी बातें।

चाव बहुतों में दिखलाया।

मिले सुन्दर मुखड़े वाले।

प्यार सच्चा किस में पाया।2।

सुखों की चाहें हैं सब में।

नहीं मतलब किस को प्यारा।

ऑंख में बसने वाले हैं।

कौन है ऑंखों का तारा।3।

रूप के भूखे दिखलाये।

मिला मुखड़ों का दीवाना।

किसी ने कब सच्चे जी से।

किसी के दुख को दुख माना।4।

इसे मैं किसको पहनाऊँ।

नहीं मिलता है दिल वाला।

ऑंसुओं का मोती ले ले।

बनाई क्यों मैंने माला।5।3।

प्रेमी पखेरू

(5)
दो बूँद

न उसको मोती की है चाह।

न उसको है कपूर से प्यार।

नहीं जी में है यह अरमान।

तू बरस दे उस पर जल धाार।1।

स्वाति घन! घूम घूम सब ओर।

ऑंख अपनी तू मत ले मूँद।

बहुत प्यासा बन चोंच पसार।

चाहता है चातक दो बूँद।2।1।

कोकिल

बने रहते हो मतवाले।

कौन से मद से माते हो।

रात भर जाग जाग कर के।

कौन सा मंत्रा जगाते हो।1।

आम की डालों पर बैठे।

बोलते नहीं अघाते हो।

बौर को देख देख कर के।

बावले क्यों बन जाते हो।2।

किस तरह से किस से सीखे।

गले में इतना रस आया।

कौन सा पाठ कंठ कर के।

गला इतना मीठा पाया।3।

बोलियाँ बोल बोल प्यारी।

कान में रस बरसाते हो।

गँवा कर तन की सुधिा सारी।

गीत किसका तुम गाते हो।4।

कूकते हो जब कू कू कर।

याद किस की तब आती है।

किसी की छिपी हुई सूरत।

क्या झलक दिखला जाती है।5।

भोर के समय खोल कर दिल।

बोलने तुम क्यों लगते हो।

देख कर ऊषा की लाली।

कौन से रंग में रँगते हो।6।

किसी के कू कू करने से।

किसलिए तुम हो चिढ़ जाते।

लाग में क्यों आ जाते हो।

राग अपना गाते गाते।7।

स्वरों में भर भर कर जादू।

किसे तुम अपना हो लेते।

किस लिए बाँधा बाँधा कर धाुन।

कलेजा हो निकाल देते।8।

क्यों तुम्हें चैन नहीं मिलता।

बता दो किस पर मरते हो।

बोल कर के मीठी बोली।

किसे मूठी में करते हो।9।

कंठ पा जाते हैं सुन्दर।

सुरों में जादू भरते हैं।

क्या सभी काले तन वाले।

मोहनी डाला करते हैं।10।2।

प्रबोधा

चौपदे

किसी की ही सुनता कैसे।

सभी की जो सुन पाता है।

एक का वह होगा कैसे।

जगत से जिसका नाता है।1।

उसे दो बूँदें दे देना।

भला कैसे भारी होता।

बहुत सा जल बरसा कर जो।

ताप धारती का है खोता।2।

समझ तू इतना सब पंखी।

जल दिया किसका पीते हैं।

पेड़ पौधो क्या पत्तो तक।

जिलाये किस के जीते हैं।3।

सदा तुझको प्यासा पाया।

जनम तेरा यों ही बीता।

कुऑं तालाबों नदियों का।

क्यों नहीं पानी तू पीता।4।

कौन जाने क्या बातें हैं।

कहाँ पर क्यों वे अड़ती हैं।

क्या नहीं स्वाती की बूँदें।

चोंच में तेरे पड़ती हैं।5।

चुप रहे पाती है मोती।

भली है तुझ से तो सीपी।

प्यास तुझ को है तो किससे।

तू कहा करता है पी पी।6।

सदा पिघला ही करता है।

मेघ की बातें हैं जानी।

और का पानी रखने को।

कौन होगा पानी पानी।7।

दूसरों का हित करने को।

कौन है, गलता ही जाता।

छोड़कर सरग के सुखों को।

कौन धारती पर है आता।8।

देख दुनिया का दुख कोई।

न उतना कलपा घन जितना।

कौन ऐसा पसीज पाया।

बहा किस को ऑंसू इतना।9।

बहुत व्याकुल बन पी पी रट।

पपीहा तू क्या पाता है।

तुझे वह क्यों भूलेगा जो।

सभी पर रस बरसाता है।10।3।

पपीहे की पिहक

चौपदे

मर रहा है कोई मुझ पर।

कब भला यह जी में आया।

थक गये पी पी कहते हम।

पर कहाँ पी पसीज पाया।1।

बहुत जल हैं समुद्र पाते।

पहाड़ों को तर करता है।

न हम ने दो बूँदें पाईं।

भरे को वह भी भरता है।2।

कलपता कितना है प्यासा।

किस तरह के दुख सहता है।

इसे कैसे वह जानेगा।

जो भरा जल से रहता है।3।

गरज ले बिजली चमका ले।

मचा ले मनमाने ऊधाम।

हमें वह सब दिन तरसा ले।

जिएँगे उसे देख कर हम।4।

जल मिले खुले भाग सब के।

हम अभागे ही हैं छँटते।

प्यास से चटक गया तालू।

लट गयी जीभ नाम रटते।5।

जल नहीं देता तो मत दे।

लेयँगे सह दुख भी सारे।

निछावर सदा हुए जिस पर।

वह हमें पत्थर क्यों मारे।6।

जिया जग जिसका पानी पी।

हमें वह क्यों है कलपाता।

सूखता जाता है सब तन।

जल नहीं ऑंखों में आता।7।

प्यास कब बनी जलन जी की।

बात यह सब की है जानी।

हमें है जलन मिली ऐसी।

बुझाता है जिसको पानी।8।

न देखेंगे मुँह औरों का।

पिएँगे हम विष की घूँटें।

टकटकी बाँधोंगे सब दिन।

क्यों न दोनों ऑंखें फूटें।9।

दाँव पर प्राणों को रख कर।

फेंकता रहता हूँ पासा।

दूसरा पानी क्यों पीऊँ।

स्वाति जल का मैं हूँ प्यासा।10।4।

देख भाल

(6)

फूल

चौपदे

किसलिए दिया सरग को छोड़।

हो गयी कैसे ऐसी भूल।

कह रहे हो क्या मुँह को खोल।

क्या बता दोगे हम को फूल।1।

रंग ला दिखलाते हो रंग।

दिलों को ले लेते हो मोल।

खींच कर जी को अपनी ओर।

कौन सा भेद रहे हो खोल।2।

मुसकिरा जतलाते हो प्यार।

चुप सदा रह करते हो बात।

किसलिए कर के किस का मोह।

महँकते रहते हो दिन रात।3।

हुआ है किसका इतना मान।

मची कब किसकी इतनी धाूम।

भाँवरें भर जाता है भौंर।

आ हवा मुँह लेती है चूम।4।

हो बड़े अलबेले अनमोल।

डालियों की गोदी के लाल।

सदा लेते हो ऑंखें छीन।

न जाने कैसा जादू डाल।5।

सुनहला पहनाता है ताज।

तुझे उगता सूरज कर प्यार।

वार देती है तुझ पर ओस।

निज गले का मोती का हार।6।

तू न होता तो खिल कर कौन।

बुझाता कितनों की रस प्यास।

बड़ी रंगीन साड़ियाँ पैन्ह।

तितलियाँ आतीं किसके पास।7।

फबीला तुम सा मिला न और।

रसीला याँ है ऐसा कौन।

खिल सका तुम सा कोई कहाँ।

हँस सका है तुम जैसा कौन।8।

बुरों का सब दिन करके साथ।

सका अपने को कौन सँभाल।

तुम्हीं काँटों में करके वास।

खिले ही मिलते हो सब काल।9।

प्यार कर कोई लेवे चूम।

दुखों में कोई देवे डाल।

भूल कर अपना सारा रंज।

कर सके सबको तुम्हीं निहाल।10।1।

हँसते फूल

बरस जाये बादल मोती।

या गिराये उन पर ओले।

कीच में उन्हें डाल दे या।

सुधाा जैसे जल से धाो ले।1।

हवा उन को चूमे आकर।

या मिला मिट्टी में देवे।

डाल दे उन्हें बलाओं में।

या बलाएँ उन की लेवे।2।

लुभाएँ गूँज गूँज भौंरा।

या नरम दल उन के मसले।

रसिकता दिखलाये दिन दिन।

या खिसक जाये सब रस ले।3।

तितलियाँ छटा दिखाएँ आ।

रंगतें या उनकी खोयें।

गलें मिल मिल कर के नाचें।

या दुखाएँ उनके रोयें।4।

रहें चुभते सब दिन काँटे।

या बनें उन के रखवाले।

ओस की बूँदों से विलसें।

या पड़ें कीटों के पाले।5।

सताएँ किरणें आकर या।

हार सोने का पहनाएँ।

बडे उजले दिखलाएँ दिन।

या ऍंधोरी रातें आएँ।6।

प्यार की ऑंखों से देखे।

या उन्हें चुन, भर ले डाली।

छिड़क कर पानी तर रक्खे।

या सुई से छेदे माली।7।

नहीं उनको इस की परवा।

एक रस रहने वाले हैं।

उन्हें किस ने रोते देखा।

फूल तो हँसने वाले हैं।8।2।

दिल

बरस पड़ते उन को देखा।

पड़ा था रस जिन के बाँटे।

खिले जो मिले गुलाबों से।

खटकते थे उन के काँटे।1।

भरी पाईं उन में भूलें।

दिखाये जो भोले भाले।

चाँद जैसे जो सुन्दर थे।

मिले उन में धाब्बे काले।2।

रहे जो रुई के पहल से।

बिनौले कम न मिले उन में।

सदा वे करते मनमानी।

मस्त जो थे अपनी धाुन में।3।

बहर जैसे जो गहरे थे।

बिपत उनकी लहरें ढातीं।

रहे जो हरे भरे बन से।

बलाएँ उन में दिखलातीं।4।

मिले जो कोमल फूलों से।

बात कहते वे कुम्हलाते।

हवा सा सुबुक जिन्हें पाया।

धाूल से वे थे भर जाते।5।

उमड़ते जो बादल जैसा।

पिघल कर ऑंसू बरसाते।

गिराते थे वे ही ओले।

बे तरह बिजली चमकाते।6।

आप जल जल जो दीपक सा।

उँजाला थे घर में करते।

जले झुलसे उनसे कितने।

वे रहे काजल से भरते।7।

मिले जो जल जैसे ठंढे।

रहे जो सारा मल धाोते।

उन्हें देखा नीचे गिरते।

ऑंच लग गये गर्म होते।8।

तेज सूरज सा था जिनका।

दूर करते जो ऍंधिायाला।

नहीं उनके जैसा पाया।

आग का बरसाने वाला।9।

छिपे सौ परदों में जो थे।

गये वे भी तिल तिल देखे।

कसर के बिना किसे पाया।

खोल कर लाखों दिल देखे।10।3।

कसौटी

चौपदे

साँवला कोई हो तो क्या।

अगर हो ढंगों में ढाला।

करेगा क्या गोरा मुखड़ा।

जो किसी का दिल हो काला।1।

बड़ी हों या होवें छोटी।

भले ही रहें न रस वाली।

चाहिए वे ऑंखें हमको।

प्यार की जिनमें हो लाली।2।

भरा होवे उनमें जादू।

न रक्खें वे अपना सानी।

क्या करें ऐसी ऑंखें ले।

गिर गया है जिनका पानी।3।

न जिसमें दर्द मिला, ऐसे।

ऑंख में ऑंसू क्यों आये।

हित महँक जो न मिल सकी तो।

फूल क्या मुँह से झड़ पाये।4।

क्या करे लेकर के कोई।

किसी का रूप रंग ऐसा।

फूल सा होकर के भी जो।

खटकता है काँटों जैसा।5।

आदमीयत जो खो अपनी।

काम रखते मतलब से हैं।

भले ही गोरे चिट्टे हों।

आबनूसी कुन्दे वे हैं।6।

न बिगड़े रंगत रंगत से।

न मन हो तन पर मतवाला।

भूल में हमको क्यों डाले।

किसी का मुख भोला भाला।7।

रूप के हाथ न बिक जाएँ।

न सुख देवें लेकर दुखड़ा।

काठ से अगर पड़ा पाला।

क्या करेगा सुडौल मुखड़ा।8।4।

अपने अरमान

(7)
लाल

घिरा ऍंधिायाला होवे दूर।

जाय बन उजली काली रात।

चाँद सा मुखड़ा जिसका देख।

जगमगाये तारों की पाँत।1।

जाय खुल बन्द हुई सब राह।

बसें फिर से उजड़े घरबार।

लग गये जिसका न्यारा हाथ।

देस का होवे बेड़ा पार।2।

जाय भर जी में नई उमंग।

हित भरी सुन कर जिसकी तान।

मंत्रा सा जो कानों में फूँक।

डाल देवे जानों में जान।3।

रुके जिससे ऑंसू की धाार।

जाय जुड़ जिससे टूटी आस।

दूर होवे भूखे की भूख।

बुझे जिससे प्यासों की प्यास।4।

जाति में जो भर देवे जोत।

दिया अंधाी ऑंखों में बाल।

भरे जिससे माता की गोद।

मिलेगा कब हमको वह लाल।5।1।

फूल

फूल तुम हो सुहावने सरस।

नहीं प्यारे लगते हो किसे।

लुभा लेते हो किसको नहीं।

हो न किस की ऑंखों में बसे।1।

तुम्हारी चाह नहीं है कहाँ।

चढ़े हो किस के सिर पर नहीं।

न भोले भाले तुम से मिले।

न तुम से सुन्दर पाये कहीं।2।

भला करते ही देखे गये।

जब मिले तब हँसते ही मिले।

रंग लाते पत्ताों में रहे।

दिखाये काँटों में भी खिले।3।

कभी तुम सिर का सेहरा बने।

कभी तुम बने गले का हार।

किसी कोमल कर कमलों के।

कभी तुम बने प्रेम उपहार।4।

मोल अनमोल मुकुट के हो।

तुम्हीं हो सब ताजों के ताज।

बहुत तुम से है मेरा प्यार।

मान लो इतनी बातें आज।5।

धाूल से ही तुम हो जनमे।

और मैं हूँ पाँवों की धाूल।

बरस जाओ इन सुजनों पर।

झड़ो तुम मेरे मुँह से फूल।6।2।

कामना

बन सकें, सब दिन उतना ही।

दिखाते हैं सब को जितना।

सभी जिससे नीचा देखे।

न माथा ऊँचा हो इतना।1।

वार पर वार न कर पाये।

न लोहू पी कर हो सेरी।

न बन जाएँ तलवारों सी।

भवें टेढ़ी हो कर मेरी।2।

भरें दामन उन दुखियों का।

सदा जो दानों को तरसें।

ग़रीबों के गँव के जो हों।

ऑंख से मोती वे बरसें।3।

सुने तो दुखियों के दुखड़े।

न भर देने से भर जाये।

आह को रहे कान करता।

कान जो खोले खुल पाये।4।

बने क्यों कोई जी खट्टा।

बात मीठी ही कह पाये।

रस भरा है जिस में उस पर।

जीभ क्यों राल न टपकाये।5।

गड़े क्यों सोच सोच कर यह।

नाम बिकता है तो बिक ले।

अनारों के दानों सा रस।

पिलाते रहें दाँत निकले।6।

फूल से हैं तो सुख देवें।

फूल जैसा खिल खिल करके।

न दहलाएँ औरों का दिल।

होठ मेरे हिल हिल करके।7।

चाँदनी जलतों पर छिड़के।

सोत रस की ही कहलावे।

हँसा देवे जो रोतों को।

हँसी वह होठों पर आवे।8।

निकाले दिल की कसरों को।

भूल जाये मेरा तेरा।

खोल दे जी की गाँठों को।

खुले जो खोले मुँह मेरा।9।

प्यार के हाथों से गुँधा कर।

गलों में गजरे बनकर पड़ें।

खिला दें जी की कलियों को।

फूल जो मेरे मुँह से झड़ें।10।3।

चटपटी बातें

(8)
नोक झोंक
द्विपद

न मेरी बात सुनते हैं

न अपनी वे सुनाते हैं।

न जाने चाहते क्या हैं।

न जाने क्यों सताते हैं।1।

कलेजा जल गया तो जाय।

जले पर क्यों जले ऑंसू।

न जाने किसलिए वे आग।

पानी में लगाते हैं।2।

अगर मुँह है बिगड़ता, बात।

तो कैसे न बिगड़ेगी।

बने तब बात क्यों जब।

बेतरह बातें बनाते हैं।3।

किसी भी काम की तो हैं।

नहीं रंगीनियाँ उनकी।

न रख कर रंग औरों का।

अगर वे रंग लाते हैं।4।

बदलते हम नहीं उनका।

बदलना ऑंख का देखो।

हमारी ऑंख में रह वे।

हमें ऑंखें दिखाते हैं।5।

बता यह भेद कोई दे।

समझ हम तो नहीं पाते।

वे कैसे ऑंख के ही।

सामने ऑंखें चुराते हैं।6।

खुलीं ऑंखें नहीं खोले।

मगर खुलकर कहेंगे हम।

तुम्हारी राह में ऑंखें।

हमीं अपनी बिछाते हैं।7।

बता दें बात यह हमको।

बड़े वे ऑंख वाले हैं।

छिपाते ऑंख हैं तो ऑंख।

में कैसे समाते हैं।8।

गया जी जल तो ऑंखों से।

न क्यों चिनगारियाँ निकलें।

लगाते आग हैं तो।

किसलिए ऑंखें लगाते हैं।9।

खटकते ऑंख में हैं ऑंख।

के काँटे बने हैं हम।

मिलाएँ किस तरह से ऑंख।

वे ऑंखें बचाते हैं।10।2।

पार है

बीन में तेरी भरी झनकार है।

बज रहा मेरी रगों का तार है।1।

यों भवें क्यों हैं नचाई जा रहीं।

आज किस पर चल रही तलवार है।2।

जायगी मेरी खबर उन तक पहुँच।

लग गया अब ऑंसुओं का तार है।3।

फूल मुँह से किसलिए झड़ते नहीं।

वह बना मेरे गले का हार है।4।

किस तरह वे ऑंख भर तब देखते।

ऑंख जब होती नहीं दो चार है।5।

वह लगाता है किसी से ऑंख क्यों।

ऑंख में जिसका कि बसता प्यार है।6।

था बरस पड़ना बरस पड़ते न क्यों।

बेतरह क्यों हो रही बौछार है।7।

लड़ गईं ऑंखें बला से लड़ गईं।

दो दिलों में क्यों मची तकरार है।8।

ऑंख में घर कर रहे हो तो करो।

क्यों हमारा लुट रहा घरबार है।9।

मतलबों के रंग में सब है रँगे।

कौन किसका दोस्त किसका यार है।10।

पार तूने है नहीं किसको किया।

क्यों हुआ मेरा न बेड़ा पार है।11।

वह बिचारी हैट से कब तक भिड़े।

छोड़ कर सिर को भगी दस्तार है।12।

किसलिए बेकार तब कोई रहे।

इन दिनों जब कार की भरमार है।13।

टाट वह कैसे उलट देता नहीं।

है टके का, जो टके का यार है।14।

देख भाल

द्विपद

टल सकी किस की मुसीबत की घड़ी।

है बला किस के नहीं सिर पर खड़ी।1।

आदमी जिससे कि जीता ही रहे।

मिल सकी कोई नहीं ऐसी जड़ी।2।

दिल छिले, उस के लगे, साटे पड़े।

हो भले ही फूल की कोई छड़ी।3।

जब लड़ी है मोतियों की टूटती।

ऑंख से तब ऑंख कोई क्या लड़ी।4।

बेतरह दिल भर अगर आता नहीं।

ऑंसुओं की किस तरह लगती झड़ी।5।

किसलिए दिल खोल कर मिलते न तो।

गाँठ जो होती नहीं जी में पड़ी।6।

पीस देती पाँतियाँ हैं दाँत की।

किस तरह वे मोतियों की हैं लड़ी।7।

जाति ही है तंग करती जाति को।

जब गड़ी तब ऑंख ऑंखों में गड़ी।8।

भाग वाले का चमकता भाग है।

हर ऍंगूठी है कहाँ हीरे जड़ी।9।

तीन काने की करें परवा न तो।

आन कर बाजी अगर पौ पर अड़ी।10।

कर दिखाएँ काम वे कैसे बड़ा।

है बड़ों की बात ही होती बड़ी।11।

ऑंख से चिनगारियाँ निकलें न क्यों।

हैं कलेजे से सही ऑंचें कड़ी।12।

जब किसी जी में भरी है गन्दगी।

क्यों न मुँह से बात तब निकले सड़ी।13।

हैकड़ी वह काम की होती नहीं।

हाथ में पड़ जाय जिससे हथकड़ी।14।

देख रंगत किसलिए है फूलती।

जब कि मिलती धाूल में है पंखड़ी।15।3।

लेखनी

कमाती रहती है पैसे।

दूर की कौड़ी लाती है।

बात कह लाख टके की भी।

चाम के दाम चलाती है।1।

रंग औरों का रखती है।

आप कौवे सी है काली।

बना कर अपना मुँह काला।

मुँहों की रखती है लाली।2।

चाह में डूबी रहती है।

चोट पर चोट चलाती है।

बहुत ऑंखों में है गड़ती।

दिलों में चुभती जाती है।3।

सिर कटाने वाली जब है।

बला तब जाती क्यों टाली।

न कैसे नागिन सी डँसती।

जब कि है दो जीभों वाली।4।

धाारदारों से भी तीखी।

धाार दिखलाती है किस में।

नोक किस की ऐसी पाई।

भरी हो नोक झोंक जिस में।5।

आप ही बदला लेती है।

बेचारी ताके मुँह किस का।

न छाती वह कैसे छेदे।

कलेजा छिदता है जिसका।6।

रंग लाते उसको देखा।

रंगतें भी वह खोती है।

नहीं काली ही बनती है।

लाल पीली भी होती है।7।

कलेजा तर रख कर के भी।

बहुत ही जलती भुनती है।

गुल खिलाती है ऊसर में।

फूल काँटों में चुनती है।8।

बहाती है रस के सोते।

भला कब आग नहीं बोती।

सिआही से भर कर के भी।

पिरोती रहती है मोती।9।

ढंग उस के कुछ पन्नों में।

निराले हीरे जड़ते हैं।

न जिनको कुँभलाते देखा।

फूल वे मुँह से झड़ते हैं।10।4।

छल

टटोले गये सैकड़ों दिल।

बहुत हम ने देखा भाला।

प्यार सच्चा पाया किस में।

याँ सभी है मतलब वाला।1।

विहँस किरणों को फूलों ने।

गोद में अपनी बैठाला।

न जाना था बेचारों ने।

छिनेगी मोती की माला।2।5।

हँसी

रँगीली तितली पर, जिसको।

रंग दिखलाना भाता है।

घूमने वाले भौंरों पर।

भाँवरे जो भर जाता है।1।

चिटख जाते दिखलाते हो।

या कि आवाजश् कसते हो।

सको बतला तो बतला दो।

फूल तुम किस पर हँसते हो।2।6।

मातम
दिल के फफोले

(9)

चौपदे

बनों में जिस से रही बहार।

बाग का जो था सुन्दर साज।

मसल क्यों उस को देवे पाँव।

सजे थे जिससे सर के ताज।1।

बनी जिस से अलबेली बेलि।

फबन जिससे पाते थे रूख।

धाूल में उसको मिलता देख।

सकेगा कैसे ऑंसू सूख।2।

महँक से जो लेता था मोह।

तर हुई जिसको देखे ऑंख।

न लेगा कौन कलेजा थाम।

देख कर उड़ती उसकी राख।3।

चूमता था जिसको कर प्यार।

भाँवरें भर भर करके भौंर।

उठे उस पर क्यों उसका हाथ।

कहाता है जो जग सिर मौर।4।

राह में देवें उन्हें न डाल।

न जी से देवें उन्हें उतार।

भरी थी जिन से कितनी गोद।

बने जो किसी गले का हार।5।

किया था जिसको जी से प्यार।

दिया क्यों उसे बला में डाल।

बना किसलिए काल का कौर।

रहा जो किसी कोख का लाल।6।

दिया क्यों उसे धाूल पर फेंक।

बने क्यों उससे बे परवाह।

खिंचे थे जिसकी रंगत देख।

कभी थी जिसकी चित में चाह।7।

न उनकी पंखड़ियाँ लें नोच।

उन्हें दे गलियों में न बखेर।

नहीं जिनकी छवि पाते भूल।

सके हम ऑंख न जिनसे फेर।8।

कम न उनका कर देवें मोल।

किसलिए उन्हें करें पामाल।

मेलियों से करते हैं मेल।

गले में जिन का गजरा डाल।9।

कलेजे जिस से खाएँ चोट।

किसी से हो क्यों ऐसी भूल।

किसलिए नुचे बने बद रंग।

हाथ में आया कोई फूल।10।1।

दुख दर्द

चौपदे

रही वह प्यारी रंगत नहीं।

जहाँ रस था अब रज है वहाँ।

किसलिए भौंरे आवें पास।

बास अब फूलों में है कहाँ।1।

धाूल में कुम्हलाया है पड़ा।

चाहती थीं वे जी से जिसे।

साड़ियाँ बड़ी सजीली पैन्ह।

तितलियाँ नाच दिखाएँ किसे।2।

देख कर जिसकी प्यारी फबन।

नहीं ऑंखें सकती थीं घूम।

नहीं मिलता है अब वह कहीं।

हवा किसका मुँह लेवे चूम।3।

लिपटती थी जिस से जी खोल।

नहीं मिलता उसका वह माल।

बे तरह बिखर बिखर सब ओर।

क्यों न फैले किरणों का जाल।4।

पिरोती मोती जिस के लिए।

मानती जी में जिस का पोस।

पा सकी आज न उस की खोज।

क्यों न रोती दिखलाती ओस।5।2।

वह फूल

चौपदे

धाूल सिर पर उड़ा उड़ा कर के।

है उसे वायु खोजती फिरती।

है कभी साँस ले रही ठंढी।

है कभी आह ऊब कर भरती।1।

हो गयी गोद बेलि की सूनी।

है न वह रंग बू न तन है वह।

बे तरह हैं खटक रहे काँटे।

पत्तिायों में कहाँ फबन है वह।2।

इस तरह फिर रही तितलियाँ हैं।

हों किसी के लिए दुखी जैसे।

है ललक वह न ढंग ही है वह।

हैं न भौंरे उमंग में वैसे।3।

है किरण आसमान से उतरी।

पर कहाँ आज रंग लाती है।

मिल गले खेलती रही जिससे।

अब उसे देख ही न पाती है।4।

बाग जिस फूल के मिले महँका।

फूल वह तोड़ ले गया कोई।

ओस ऑंसू बहा बहा करके।

रात उसके लिए बहुत रोई।5।3।

खिली कली

किसलिए आई दुनिया में।

बला जो टली नहीं टाले।

दुखों से गला जो न छूटा।

सुखों के पडे रहे लाले।1।

किसलिए दिखलाई रंगत।

रंग जो सदा न रह पाया।

धाूल में जो मिल जाना था।

फूल कर तो क्या फल पाया।2।

गोद में हरी डालियों की।

बैठ कर के क्या तू बहँकी।

पड़ा जो कीड़ों से पाला।

किसलिए तो मह मह महँकी।3।

प्यार दिखला के भौंरों से।

किसलिए जोड़ी हित कड़ियाँ।

दो दिनों में ही जब बिखरीं।

फबीली तेरी पंखड़ियाँ।4।

ऑंसुओं की ए बूँदें हैं।

ओस कह ले इनको कोई।

खिली तब क्यों जब कुम्हलाई।

हँसी तब क्यों जब तू रोई।5।4।

लानतान

(10)
कसकते काँटे

बुरे रंगों में जो रँग दें।

न जी में उठें तरंगें वे।

भरी बदबू से जो होवें।

धाूल में मिलें उमंगें वे।1।

दिखाते बने न जिससे मुँह।

न होवे ऐसी मनमानी।

क्यों उठें वे लहरें जी में।

उतर जाय जिससे पानी।2।

मान अपने जी की बातें।

बाप के दिल को क्यों मसले।

नागिनों सी बल खा खा कर।

ऑंख की पुतली क्यों डँस ले।3।

प्यार से पाली पोसी क्यों।

बला जैसी सिर पर टूटे।

कोख को कोस कोस कर माँ।

क्यों कलेजा अपना कूटे।4।

हतक क्यों ऐसी हो जिससे।

जाय तनबिन मरजादा तन।

सुन जिसे लोग कान मूँदें।

जाति की नीची हो गरदन।5।

किसलिए लगे लगन ऐसी।

भरे होवें जिसमें चसके।

किसी परिवार कलेजे में।

सदा जो काँटों सा कसके।6।

अछूता क्यों न उसे छोड़ें।

जवानी की छिछली छूतें।

हिला दें क्यों समाज का दिल।

किसी की काली करतूतें।7।

रँग रलियों में जो डूबी।

जायँ जल ऐसी सुख चाहें।

लगा दें आग देश में जो।

खुलें क्यों ऐसी रस राहें।8।

पड़े जिस पर भद्दे धाब्बे।

वह चलन चादर चिथड़े हो।

बनें जिससे पड़ोस गन्दे।

क्यों न वह तन सौ टुकड़े हो।9।

मन उड़ा उड़ा फिरे जिससे।

जाय जिससे तन में लग घुन।

उमंगों भरे किसी जी में।

समा जाये क्यों ऐसी धाुन।10।

धाुनों पर क्यों मतवाली हो।

क्यों न सुर तालों को जाँचें।

किसी बे सुरे राग पर क्यों।

चाहतें नंगी हो नाचें।11।1।

उड़ती छींटें

चौपदे

कम नहीं है किसी कसाई से।

जो गला और का रहे कसते।

किस तरह जान बच सके उनसे।

जो कि हैं साँप की तरह डँसते।1।

वे करेंगे न लाल किसका मुँह।

जो सदा मारते रहे चाँटे।

वे चुभेंगे भला नहीं कैसे।

राह के जो बने रहे काँटे।2।

छीलती जो रहें कलेजों को।

क्यों लिखी जायँगी न वे सतरें।

है कतर ब्योंत ही जिन्हें प्यारा।

क्यों किसी का न कान वे कतरें।3।

वे भला क्यों न नोच खाएँगे।

खुल गये ऑंख टूटते जो हैं।

क्यों सकें देख और का दुख वे।

मूँद कर ऑंख लूटते जो हैं।4।

दिन बहुत ही उसे डराता है।

क्यों न बोली डरावनी बोले।

है ऍंधोरा पसंद उल्लू को।

किसलिए रात में न पर खोले।5।

है उन्हें फूट ही बहुत प्यारा।

क्यों न फट जाय पेट ककड़ी सा।

है जिन्हें मक्खियाँ फँसाना वे।

क्यों बुनेंगे न जाल मकड़ी सा।6।

क्यों न मर जाय या जिये कोई।

पेट अपना उन्हें तो भरना है।

तब चलें क्यों न चाल बगलों सी।

जब किसी का शिकार करना है।7।

क्यों चलेें भाग वे न खरहों सा।

जो कहीं पर छिपे पड़े होंगे।

चौंकते बात बात में हैं जो।

कान उनके न क्यों खड़े होंगे।8।

कूदते फाँदते उछलते हैं।

कर खुटाई बहुत सटकते हैं।

मार उन पर न क्यों पड़ेगी जो।

बन्दरों की तरह मटकते हैं।9।

निज फटे पेट को दिखा करके।

लोग मिलते जहाँ तहाँ रोते।

तो किसे छोड़ते बिना मारे।

जो गधो सींग पा गये होते।10।

क्यों लगे हों न ढेर रत्नों के।

मानते जायँगे उन्हें ढूहे।

मोल वे जान ही नहीं सकते।

जो बिलों के बने रहे चूहे।11।

चापलूसी बुरी कचाई है।

हैं बुरे सब दिये गये बुत्तो।

पूँछ अपनी हिला हिला करके।

पेट पालें न पेट के कुत्तो।12।2।

चेतावनी

द्विपद

है समझ आज घर बसा न रही।

राह पर है हमें लगा न रही।1।

जागते क्यों नहीं जगाने से।

जाति क्या है हमें जगा न रही।2।

तब भला क्यों हवा न हो जाते।

जब हमारी बँधाी हवा न रही।3।

बे तरह हो रहे दुखी क्यों हैं।

क्या दुखों की कोई दवा न रही।4।

रंगतें यों बिगाड़ कर मेरी।

रंग लाती कभी बला न रही।5।

जाय वह हार क्यों गले का बन।

कब भला काहिली ववा न रही।6।

बेबसी बे तरह फँसा कर के।

यों कभी फाँसती गला न रही।7।

क्यों लहू पर है पड़ गया पाला।

चाट क्या चोट है चला न रही।8।

बेहयापन पसन्द क्यों आया।

किसलिए ऑंख में हया न रही।9।

कब तलक यों फटे रहेंगे हम।

क्या गला फूट है दबा न रही।10।

नशा

गीत

पीना नशा बुरा है पीये नशा न कोई।

है आग इस बला ने लाखों घरों में बोई।1।

उसका रहा न पानी।

जिसने कि भंग छानी।

क्यों लाख बार जाये वह दूधा से न धाोई।2।

चंड की चाह से भर।

किस का न फिर गया सर।

पी कर शराब किसने है आबरू न खोई।3।

चसका लगे चरस का।

रहता है कौन कस का।

चुरटों की चाट ने कब लुटिया नहीं डुबोई।4।

क्या रस है ऊँघने में।

सुँघनी के सूँघने में।

उसने कभी न सिर पर गठरी सुरति की ढोई।5।

लगती नहीं किसे वह।

ठगती नहीं किसे वह।

सुरती बिगाड़ती है लीपी पुती रसोई।6।

अफयून है बनाती।

छलनी समान छाती।

यह देख बेबसी कब मुँह मूँद कर न सोई।7।

जी देख कर सनकता।

घुन देख तन में लगता।

कब सुधा गँजेड़ियों की सर पीट कर न रोई।8।4।

कड़वा घोंट

चौपदे

जब कि पटरी ही नहीं है बैठती।

तब पटाये जाति से कैसे पटे।

वे चले हैं कान सबका काटने।

देस की है नाक कटती तो कटे।1।

मुँह बना रखते रहेंगे बात वे।

जाति मुँह की खा रही है खाय तो।

वे उचक तारे रहेंगे तोड़ते।

देस जाता है रसातल जाय तो।2।

डूब कर पानी अगर पीते नहीं।

जाति का बेड़ा डुबोते किस तरह।

जब निकल जी का नहीं काँटा सका।

देस में काँटे न बोते किस तरह।3।

लीडरी की जड़ न हिलनी चाहिए।

जाति का दिल हिल रहा है तो हिले।

हिन्दुओं की तो उड़ेगी धाूल ही।

देस मिलता धाूल में है तो मिले।4।

है कलेजे को पहुँच ठंढक रही।

क्या करें वे, जल रहे हैं जो सगे।

आग ही वे हैं उगलना चाहते।

देस में है आग लगती तो लगे।5।5।

ताड़ झाड़

द्विपद

बे तुके किस तरह कहाएँगे।

बे तुकी जो नहीं सुनाएँगे।1।

तो कहे जाएँगे जले तन क्यों।

आग घर में न जो लगाएँगे।2।

है बढ़ाना समाज को आगे।

पाँव पीछे न क्यों हटाएँगे।3।

हैं बड़े, नाम है बड़प्पन में।

लाल अपने न क्यों लुटाएँगे।4।

बीर हैं, ऑंख में लहू उतरे।

क्यों न सग का लहू बहाएँगे।5।

हैं दुखी, हो गयी जलन दूनी।

लड़कियों को न क्यों जलाएँगे।6।

जब बड़े आन बान वाले हैं।

अनबनों को न क्यों बढ़ाएँगे।7।

लीडरी किस तरह सकेगी बच।

फूट की जड़ न जो जमाएँगे।8।

देस को पार जब लगाना है।

जाति को क्यों न तो डुबाएँगे।9।

क्यों मिलेगा स्वराज, सब हिन्दू।

जो न नाकों चने चाबाएँगे।10।3।

मुँह काला

चौतुके

भरी नटखटी रग रग में है।

एक एक रोऑं है ऐंठा।

उस के जी में सब पाजीपन।

पाँव तोड़ कर के है बैठा।1।

वह कमीनपन का पुतला है।

ढीठ, ऊधामी बैठा ठाला।

झूठा, नीच, कान का पतला।

बड़ा निघरघट मद मतवाला।2।

छली छिछोरा जी का ओछा।

कुन्दा है बे छीला छाला।

छिछला बरतन घड़ा अधाभरा।

अंधाा है हो ऑंखों वाला।3।

है छटाँक पर मन बनता है।

कितनी ऑंखों का है काँटा।

रँगा सियार काठ का उल्लू।

छँटे हुए लोगों में छाँटा।4।

सधाा उचक्का पक्का ढोंगी।

काला साँप जहर का प्याला।

किस के हित का काल नहीं है।

काले दिन वाला मुँह काला।5।7।

काला दिल

चितवन क्या तो भोली भाली।

पड़ा कलेजे में जो छाला।

ऑंखों से तो क्या रस बरसा।

पीना पड़ा अगर विष प्याला।1।

आग सी लगाते हैं जी में।

जब थोड़ा आगे हैं बढ़ते।

होठ क्या रँगें लाल रंग में।

बोल बड़े कड़वे हैं कढ़ते।2।

लगा कहाँ तब रस का चसका।

जब नीरस बातें कहती है।

जीभ किसी की तब क्या सँभली।

जब काँटा बोती रहती है।3।

हँसी उस हँसी को न कहेंगे।

लगी गले में जिस से फाँसी।

मीठी बात रही क्या मीठी।

चुभी कलेजे में जो गाँसी।4।

अंधाकार का जो है पुतला।

उसमें कैसे मिले उँजाला।

गोरे मुखड़े से क्या होगा।

अगर किसी का दिल है काला।5।8।

अपने दुखड़े

दोपदे

बात अपनी किसे बताएँगे।

हाल घर का किसे सुनाएँगे।1।

जो सके सुन न आप दुख मेरा।

क्यों कलेजा निकाल पाएँगे।2।

जब कि हम ऑंख देख लेवेंगे।

लोग ऑंखें न क्यों दिखाएँगे।3।

जब गयी ऑंख तब नहीं क्यों हम।

ऑंख की पुतलियाँ गँवाएँगे।4।

बे तरह जब कि आज हैं बिगड़े।

तब बड़ों को न क्यों बनाएँगे।5।

काटना कान है सपूतों का।

नाक अपनी न क्यों कटाएँगे।6।

पड़ गयी मार, पर मिले टुकड़े।

पूँछ कैसे नहीं हिलाएँगे।7।

क्यों दिखाएँगे नीच को नीचा।

ऑंख ऊँची अगर उठाएँगे।8।

हैं अगर बे हिसाब मुँह बाते।

किस तरह तो न मुँह की खाएँगे।9।

जाति को तो जिला नहीं सकते।

जान पर खेल जो न जाएँगे।10।9।

डाँट डपट

चौपदे

रंग लाते नये नये क्यों हैं।

किसलिए हैं उमंग में आते।

जो दिलों में पड़े हुए छाले।

छातियाँ छेद ही नहीं पाते।1।

किसलिए साँस फूलती है तो।

जो सितम की जड़ें नहीं खनतीं।

एक बे पीर के लिए साँसत।

जो नहीं काल साँपिनी बनती।2।

दून की ले, बना बना बातें।

बीज क्यों आन बान का बोएँ।

वेधा देते नहीं कलेजों को।

जो हमारे कलप रहे रोएँ।3।

तो बँधाी धााक धाूल मिट्टी है।

और है सब चटक मटक फीकी।

चूसने की तमाम चाटों को।

कर गयी चट न जो कचट जी की।4।

बात लगती अगर नहीं लगती।

तो कहाएँ न क्यों गये बीते।

निज दुखों का न क्यों पिएँ लोहू।

हैं लहू घूँट हम अगर पीते।5।

क्यों न बिन बाल-बाल जाएगा।

बल रहा जो बवाल मुँह तकता।

रंज क्यों जायँगे न पहुँचाये।

रंज जो बन बला नहीं सकता।6।

तो न करते रहें अबस फूँ फूँ

आज हैं फँक से अगर उड़ते।

कढ़ रही गर्म गर्म आहों से।

हैं ऍंगारे अगर नहीं झड़ते।7।

किसलिए तो बनें जले तन हम।

जल रही हैं अगर नहीं माखें।

आग जो हैं बरस नहीं पातीं।

ऑंसुओं से भरी हुई ऑंखें।8।10।

दुखियों के दुखड़े

(11)
भिखारिणी
गीत

उमगती हँसती आती हूँ।

अनूठा गजरा लाती हूँ।

भरा ऑंखों में हो ऑंसू मगर मोती बरसाती हूँ।1।

बाल हों बुरी तरह फैले।

अंग होवें मेरे मैले।

फटे सारे कपड़े होवें मगर फूली न समाती हूँ।2।

ठोकरें पर ठोकर खाऊँ।

निकाली घर घर से जाऊँ।

गालियाँ सुनूँ लगें धाक्के रंग में अपने माती हँ।3।

बन्द होवें सुख की राहें।

धाूल में मिल जाएँ चाहें।

उमंगें हों मेरी पिसती गीत मन माने गाती हँ।4।

यहाँ हैं कहाँ ऑंख वाले।

लोग हैं अंधो मतवाले।

मतलबों के कीड़े सब हैं भेद यह मैं बतलाती हूँ।5।

नाम की चाह किसी को है।

काम की चाह किसी को है।

चाम पर भूला है कोई भला मैं किस को भाती हँ।6।

कौड़ियाले घर घर पाये।

लहू के प्यासे दिखलाये।

कलेजा खाते हैं कितने कब न मैं मुँह की खाती हूँ।7।

दया किसमें दिखलाती है।

पिघलती किसकी छाती है।

किसी को मिट्टी का पुतला किसी को पत्थर पाती हूँ।8।

दुखों से घिरती रहती हूँ।

बुरी ऑंचें मैं सहती हूँ।

बे तरह जलती भुनती हूँ कहाँ मैं आग लगाती हूँ।9।

किसी का दिल न दुखाती हूँ।

सभी का भला मनाती हूँ।

किसी पर फूल बखेरे हैं किसी को हार पिन्हाती हूँ।10।1।

एक भिखारी

चाल चल चल कर के कितनी।

मैं नहीं माल मूसता हूँ।

घिनाये क्यों मुझसे कोई।

मैं नहीं लहू चूसता हूँ।1।

फटे कपड़े मेरे होवें।

भाग मेरा होवे फूटा।

बता दो लोट पोट कर कब।

किसी का घर मैंने लूटा।2।

दाँत मेरे निकले होवें।

पर कभी नहीं उखड़ता हूँ।

मिले कौड़ी न, कौड़ियों को।

दाँत से नहीं पकड़ता हूँ।3।

पेट मैं दिखलाता होऊँ।

पर न है पेट पाप-थैला।

भले ही तन मैला होवे।

नहीं है मन मेरा मैला।4।

ऑंख नीची मैं रखता हूँ

गिने है सबको ऊँचा मन।

नहीं दिखलाता हूँ नीचा।

ऑंख ऊँची कर ऊँचा बन।5।

आप मैं पिसता रहता हूँ।

बहुत गत बनती है मेरी।

मगर कब मेरे हाथों से।

गयी जनता पिसी पेरी।6।

ठोकरें खाता फिरता हूँ।

सिसिकती रहती हैं माँखें।

लहू कब किस का करती हैं।

लहू बन बन मेरी ऑंखें।7।

बुरी सूरत होवे मेरी।

धाूल से भर जाता हो तन।

कभी मन मेरा फूँ फँ कर।

नहीं बन सका साँप का फन।8।

कलेजा मेरा छिलता है।

गत बनी ऑंखों के तिल की।

कहाँ मेरे मुँह से निकली।

सड़ी बू सड़े हुए दिल की।9।

सदा मैं भूखों मरता हूँ।

पर कहाँ दिल में है कीना।

दुही मैंने किस की पोटी।

कौर किस के मुँह का छीना।10।2।

बेतुकी बातें

(12)
देख भाल

चौपदे

जब लगा तार तार ही टूटा।

और झनकार फूट कर रोई।

जब कि बोली न बोल की तूती।

किसलिए बीन तब बजी कोई।1।

जो निछावर हुई नहीं तितली।

जो न भर भाँवरें भँवर भूला।

रंग बू है अगर नहीं रखता।

तो कहीं फूल किसलिए फूला।2।

सुन उसे सिर धाुना अगर धाुन ने।

और खट राग राग को भाया।

सुर अगर बे सुरे बने सारे।

किसलिए गीत तो गया गाया।3।

एक पत्ता हरा न हो पाया।

पर गये सब खिले गुलाब झुलस।

देखिए ये उठे हुए बादल।

किस तरह का बरस रहे हैं रस।4।

क्यों गँवाएँ न हाथ के हीरे।

भूल पर भूल है अगर होती।

किसलिए लोग मूँद कर ऑंखें।

पोत को हैं बता रहे मोती।5।

हैं न वैसे हरे भरे पौधो।

फूल में हैं न रंगतें वैसी।

है कहाँ वह बहार बागों में।

आज है बह रही हवा कैसी।6।

देख करके जमाव कौओं का।

पत्तिायों में न क्यों छिपे जाते।

है मचा काँव काँव कुछ ऐसा।

पिक कहीं कूकने नहीं पाते।7।

देख उनकी लुभावनी चालें।

हो गये खीज खीज कर पगले।

चोंच अपनी चला चला करके।

हंस को नोच हैं रहे बगले।8।

इस तरह क्यों उठा रहे हो सिर।

किसलिए हो बहुत बढ़े जाते।

जो तुम्हें पालती नहीं मिट्टी।

पेड़ तो तुम पनप नहीं पाते।9।

भूल है मत हँसी करो उसकी।

रूप औ रंग मिल सके जिस से।

धाूल की धाूल क्यों उड़ाते हो।

पा सके फूल तुम महँक किससे।10।1।

फूल-पत्तो

चौपदे

है जिन्हें तोड़ना भले ही वे।

तोड़ लें आसमान के तारे।

ये फबीले इधार उधार फैले।

फूल ही हैं हमें बहुत प्यारे।1।

दिन ऍंधोरा भरा नहीं होता।

जगमगातीं नहीं सभी रातें।

है खुला दिल खुली हुई ऑंखें।

फिर कहें क्यों न हम खुली बातें।2।

बाँधाने से हवा नहीं बँधाती।

हो सकेंगे कभी न सच सपने।

दूसरे रंग लें जमा, हम तो।

मस्त रहते हैं रंग में अपने।3।

सूझ कर सूझता नहीं जिन को।

सूझ वाले कहीं न हों ऐसे।

कब कहाँ कौन पा सका पारस।

दे सके काम पास के पैसे।4।

क्यों टटोला करें ऍंधोरे में।

सींक सा क्यों हवा लगे डोलें।

क्यों बुनें जाल उलझनें डालें।

ऑंख अपनी न किसलिए खोलें।5।

जो हमें भेज दे रसातल को।

यों हवा में कभी नहीं मुड़ते।

चींटियों का लगा लगा के पर।

हम नहीं आसमान पर उड़ते।6।

सूझता है नहीं ऍंधोरे में।

जोत में ही सदा रहेंगे हम।

क्यों किसी ऑंख में करें उँगली।

बात देखी सुनी कहेंगे हम।7।

हों हमारे कलाम क्यों मीठे।

वे शहद से भरे न छत्तो हैं।

किस तरह हम उन्हें अमोल कहें।

पास मेरे तो फूल पत्तो हैं।8।2।

पागल

बाल को साँप समझते हैं।

तनी भौंहों को तलवारें।

तीर कहते हैं ऑंखों को।

भले ही वे उनको मारें।1।

नाक उड़ जाये पर वे तो।

नाक को कीर बताएँगे।

कान मल दे कोई पर वे।

कान को सीप बनाएँगे।2।

इस उपज की है बलिहारी।

क्यों न हो कितनी ही खोटी।

डँस लिया उसने कब किस को।

बन गयी क्यों नागिन चोटी।3।

गिरे ऑंसू की बूँदों में।

क्यों न हों पीड़ाएँ सोती।

उतर जाएँ पानी पर वे।

बताएँगे उनको मोती।4।

दाँत कितने ही हों दीखें।

वे उन्हें कुन्द बनाते हैं।

हँसी से गिरती है बिजली।

सुधाा उसमें बतलाते हैं।5।

लाल वे उनको कहते हैं।

घर नहीं जिनसे पाते बस।

चाटते रहे होठ सब दिन।

पर भरा होठों में है रस।6।

ठिकाने जिसका जी हो, वह।

बहँकता कब दिखलाता है।

कंठ जो कोकिल का सा है।

क्यों कबूतर कहलाता है।7।

जिन्हें फल बतलाया उनसे।

बूँद पय की कैसे टपकी।

कमर को सिंह कहा, पर वह।

बता दो कब किस पर लपकी।8।

बात जो आती है मुँह पर।

किसी की बड़ है बन जाती।

न जाने क्यों ऍंधिायाले में।

ज्योति छिपती है दिखलाती।9।

गान नीरव रह गाते हैं।

मौन में सुनते हैं कल कल।

बजाते हैं टूटी वीणा।

कहें हम क्यों कवि हैं पागल।10।

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