हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 3 – चुभते चौपदे (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)गागर में सागर

देवदेव
चौपदे

अब बहुत ही दलक रहा है दिल।

हो गईं आज दसगुनी दलवें+।

उ+बता हूँ उबारने वाले।

आइये, हैं बिछी हुई पलवें+।

डाल दे सिर पर न सारी उलझनें।

जी हमारा कर न डाँवाडोल दे।

इन दिनों तो है बिपत खुल खेलती।

तू भला अब भी पलक तो खोल दे।

वु+छ बनाये नहीं बनी अब तक।

जान पर आ बनी बचा न सके।

हम कहें क्या तपाक की बातें।

आप की राह ताक ताक थके।

मान औ आन बान महलों पर।

डाह बिजली अनेक बार गिरी।

हो गये फेर में पड़े बरसों।

आप की दीठ आज भी न फिरी।

बैर है बरबाद हम को कर रहा।

फूट का है दुंद घर घर में मचा।

हम बचाये बच सकेंगे आप के।

आप मत अपनी निगाहें लें बचा।

हम बड़े ही बखेड़िये होवें।

आप यों मत उखेड़िये बखिये।

पास करना अगर पसंद नहीं।

गाह गाहें निगाह तो रखिये।

गत हमारी बना रहे हो क्यों।

मिल न, गद की सकी हमें लकड़ी।

पाँव हम तो रहे पकड़ते ही।

पर कहाँ बाँह आप ने पकड़ी।

देखिये आप आ कलेजे में।

पड़ गये वु+छ अजीब छाले हैं।

आप के हाथ अब निबाह रही।

आप ही चार बाँहवाले हैं।

खोलिये पलकें दया कर देखिये।

मूँछ के भी बाल अब हैं बिन रहे।

दिन फिरेंगे या फिरेंगे ही नहीं।

ऊब दिन हैं उँगलियों पर गिन रहे।

अब नहीं है निबाह हो पाता।

नेह करिये निहारिये हम को।

क्या उबर अब नहीं सवें+गे हम।

हाथ देकर उबारिये हम को।

पास मेरे इधार उधार आगे।

है दुखों का पड़ा हुआ डेरा।

है गई अब बुरी पकड़ पकड़ी।

आप आ हाथ लें पकड़ मेरा।

फिर रही है बुरी बला पीछे।

खोलता दुख बिहंग है फिर पर।

बेतरह फेर में पड़े हम हैं।

फेरते हाथ क्यों नहीं सिर पर।

बह रहे हैं बिपत लहर में हम।

अब दया का दिखा किनारा दें।

क्या कहूँ और-हूँ बहुत हारा।

प्रभु हमें हाथ का सहारा दें।

क्यों दिखाने में ऍंगूठा दीन को।

आप की रुचि आज दिन यों है तुली।

हैं तरसते एक मूठी अन्न को।

आप की मूठी नहीं अब भी खुली।

दें न हलवे छीन तो करवे न लें।

नाथ कब तक देखते जलवे रहें।

कब तलक बलवे रहेंगे देस में।

कब तलक हम चाटते तलवे रहें।

सच्चे देवते

मान के ऊँचे महल में पा जिसे।

सिर उठाये जाति के बच्चे घुसे।

आँख जिससे देस की ऊँची हुई।

क्यों न आँखों पर बिठायें हम उसे।

जो कि समझें कठोर राहों से।

टल गये तो किया मरद हो क्या।

उन बिछे सिर धारों के पाँव तले।

जो न आँखें बिछीं बिछीं तो क्या।

हो चुके देस पर निछावर जो।

स्वाद जो जाति प्यार का चख लें।

धूल लें पाँव की लगा उन के।

चाहिए आँख पर उन्हें रख लें।

नित बहुत दौड़ धूप जी से कर।

जो गिरी जाति को उठा देवें।

चाहिए पाँव चाह से उन का।

चूम लें आँख से लगा लेवें।

प्यार से पाँव चूम लेवेंगे।

धूल सिर पर ललक लगा लेंगे।

आइये ऐ मिलाप के पुतले।

हम पलक पाँवड़े बिछा देंगे।

हाथ वे ही हाथ हैं जिस हाथ के।

चूमने की चाह रखते हों बड़े।

पाँव वे ही पाँव हैं जिन के लिए।

पाँवड़े कितनी पलक के हों पड़े।

जाति की जान देख जोखों में।

जो जसी लोग जान पर खेलें।

लालसा लाख बार होती है।

हम पलक पर उन्हें ललक ले लें।

क्यों नहीं उन को बिठायें आँख पर।

धूल पग की क्यों न आदर साथ लें।

जाति जिन के हाथ से ऊँचे उठी।

लोग उन को क्यों न हाथों हाथ लें।

पाँव जो हैं जाति के जीवन बने।

क्यों न उन की धूल ले लेकर जियें।

गल रहा है पाप मल है धुल रहा।

क्यों भला धो धो न हम तलवे पियें।

पाँव वह क्यों चाव से चूमें न हम।

काठ उकठे छू जिसे फूलें फलें।

धूल लगते देखने अंधो लगे।

लोग आँखें क्यों न तलवों से मलें।

तब कहाँ सच्ची लगन है लग सकी।

प्यार में पग जो न पग देखे भले।

क्या बिछाये आँख तब बैठे रहे।

आँख बिछ पाई न जब तलवों तले।

जाति के जीवन

साहसी

बीज को धूल में मिला कर भी।

जो नहीं धूल में मिला देते।

ऊसरों में कमल खिला देना।

वे हँसी खेल हैं समझ लेते।

धाज्जियाँ उड़ते दहलते जो नहीं।

सिर उतरते किस लिए वे सी करें।

तन नपाते जो सहम पाते नहीं ।

वे भला गरदन नपाते क्यों डरें।

पाजियों को गाल क्यों दें मारने।

सामने दुख फिरकियाँ फिरती रहें।

जिस तरह हो चीर देंगे गाल हम।

चिर गईं तो उँगलियाँ चिरती रहें।

वह बने आस छोड़ बेचारा।

पास जिस के रहा न चारा है।

हार हिम्मत न छोड़ देंगे हम।

नँह नहीं गिर गया हमारा है।

क्या करेगा भाग हिम्मत चाहिए।

हाथ में हित वु+ंजियाँ क्या हैं नहीं।

जो लकीरें हैं लकीरें भाग की।

कब न मूठी में हमारी वे रहीं।

है करमरेख मूठियों में ही।

बेहतरी बाँह के सहारे है।

कर नहीं कौन काम हम सकते।

क्या नहीं हाथ में हमारे है।

साहसी के हाथ में ही सिध्दि है।

लोटता है लाभ पाँवों के तले।

है दिलेरी खेल बायें हाथ का।

हैं खिलौने हाथ के सब हौसले।

जो रहे ताकते पराया मुँह।

तो दुखों से न किस लिए जकड़ें।

क्यों न हों पाँव पर खड़े अपने।

और का पाँव किस लिए पकड़ें।

ठोकरें मार चूर चूर करें।

पथ अगर हो पहाड़ ने घेरा।

क्यों नहीं बेडिगे भरें डग हम।

पाँव क्यों जाय डगमगा मेरा।

जम गये, छोड़ता जगह क्यों है।

क्यों नहीं गड़ पहाड़ लौं पाता।

दूसरों के उखाड़ देने से।

पाँव क्यों है उखड़ उखड़ जाता।

काँपता बात बात में है जी।

फल बुरे हैं इसी लिए चखते।

पूँ+क से आप उड़ न जावेंगे।

पाँव क्यों फूँक फूँक हैं रखते।

जी लगा यह पाठ हम पढ़ते रहें।

कट गये हैं बाल बढ़ने के लिए।

बात यह चित से कभी उतरे नहीं।

हैं उतरते फूल चढ़ने के लिए।

सच्चे वीर

संकटों की तब करे परवाह क्या।

हाथ झंडा जब सुधारों का लिया।

तब भला वह मूसलों को क्या गिने।

जब किसी ने ओखली में सिर दिया।

दूसरे को उबार लेते हैं।

एक दो बीर ही बिपद में गिर।

पर बहुत लोग पाक बनते हैं।

ठीकरा फोड़ दूसरों के सिर।

सामने पाकर बिपद की आँधिायाँ।

बीर मुखड़ा नेक वु+म्हलाता नहीं।

देख कर आती उमड़ती दुख-घटा।

आँख में आँसू उमड़ आता नहीं।

सब दिनों मुँह देख जीवट का जिये।

लात अब कायरपने की क्यों सहें।

क्यों न बैरी को बिपद में डाल दें।

हम भला क्यों डालते आँसू रहें।

वे कभी बात में नहीं आते।

लग गई हैं जिन्हें कि सच्ची धुन।

वे भला आप सूख जाते क्या।

मुख न सूखा जवाब सूखा सुन।

काल की परवाह बीरों को नहीं।

वह रहे उन को भले ही लूटता।

काम छेड़ा छूटता छोड़े नहीं।

टूटता है दम रहे तो टूटता।

हमारे सूरमे

छोड़ कर लाड़ प्यार लड़ने को।

जो हमें बार बार ललकारें।

तीर तदबीर हाथ में ले कर।

क्यों उन्हें तो न ताक कर मारें।

हम लड़ेंगे और लड़ते रहेंगे।

क्यों न वे जी जान से हम से लड़ें।

धो न बैठेंगे हितों से हाथ हम।

हाथ धो कर क्यों न वे पीछे पड़ें।

हम डरेंगे कभी नहीं उन से।

पाप से जो नहीं डरे होंगे।

हाथ उन के नहीं बँटायेंगे।

हाथ जिन के लहू भरे होंगे।

क्यों उमंगें जाँय दसगूनी न हो।

चाव वै+से चित न चौगूना करे।

जब कि जी भर हम उभर पाते नहीं।

किस तरह तब जी बिना उभरे भरे।

जान कितने लोग की बच जाय तो।

जान जाना जान जाना है नहीं।

जाति के हित के लिए गँव आ गये।

जी गँवाना जी गँवाना है नहीं।

मान सच्चा हाथ आने के लिए।

हाथ की ही हथकड़ी, हैं हथकड़े।

जाति-हित बीड़ा उठा आगे बढ़े।

भाग है, जो पाँव में बेड़ी पड़े।

जम गया तो जमा रहे रन में।

क्यों लहू से न रोम रोम सिंचे।

है खचाखच मची हुई तो क्या।

खींच लें पाँव हम न खाल खिंचे।

जाति-हित बूटी रहेंगे खोजते।

चोट खा, वे क्यों न झन्नाते रहें।

हम पहाड़ों में रहेंगे घूमते।

पत्थरों से पाँव टकराते रहें।

जम गये काम कर दिखायेंगे।

कौन से काम हैं नहीं ‘कस’ के।

जी गये भी खसक नहीं सकते।

क्यों खसक जाँय पाँव के खसके।

हम नहीं हैं फूल जो वे दें मसल।

हैं न ओले जो हवा लगते गलें।

हैं न हलवे जाय जो कोई निगल।

हैं न चींटी जो हमें तलवे मलें।

आनबानवाले

बीसियों बार छान बीन करें।

पर चलें वे न और का मत लें।

जी करे ढाह दें बिपत हम पर।

पर उतारें न कान के पतले।

जो लगाये कहें लगी लिपटी।

वे कभी बन सके नहीं सच्चे।

क्यों भला बात हम सुनें कच्ची।

हैं न बच्चे न कान के कच्चे।

देख मनमानी बहुत जी पक गया।

अब भला चुप किस तरह से हम रहें।

बात लगती बेकहों को बेधाड़क।

हम कहेंगे औ न क्यों मुँह पर कहें।

हम फिरेंगे न बात से अपनी।

आँख जो फिर गई तो फिरने दो।

हम गिरेंगे कभी न मुँह के बल।

मुँह अगर गिर गया तो गिरने दो।

खींच ली जाय जीभ क्यों उन की।

गालियाँ जो कि जी जले ही दें।

बंद होगा न आँख का आँसू।

आप मुँह बन्द कर भले ही दें।

सब समझ सोच तो सवें+गे ही।

आप सारे उपाय कर लेवें।

बंद होगा न, देखना सुनना।

आप मुँह क्यों न बन्द कर देवें।

पड़ गया जब कि देखना नीचा।

तब भला किस तरह न वह खलता।

जब चलाये न बात चल पाई।

तब भला किस तरह न मुँह चलता।

जो पड़े सिर पर, रहें सहतें उसे।

पर न औरों के बुरे तेवर सहें।

दिन बितायें चाब मूठी भर चना।

पर किसी की भी न मूठी में रहें।

तब खरा रह गया कहाँ सोना।

जब हुआ मैल दूर आँचें खा।

क्यों न मुँह की बनी रहे लाली।

गाल क्यों लाल हो तमाचे खा।

हित-गुटके

याद

क्या रहे और हो गये अब क्या।

याद यह बार बार कहती है।

सोच में रात बीत जाती है।

आँख छत से लगी ही रहती है।

हुन बरसता था, अमन था, चैन था।

था फला-फूला निराला राज भी।

वह समाँ हम हिन्दुओं के ओज का।

आँख में है घूम जाता आज भी।

वे हमारे अजीब धुनवाले।

सब तरह ठीक जो उतरते थे।

आज जो हैं कमाल के पुतले।

काल उन के कभी कतरते थे।

जब रहे रात दिन हमारे वे।

पाँव जब धाक चूम जाती है।

क्या रहे और तब रहे वै+से।

अब न वह बात याद आती है।

हैं पटकते कलप कलप उठते।

याद कर राज पाट खोना हम।

होठ को चाट चाट लेते हैं।

देख दिल का उचाट होना हम।

जो कि दमदार थे बड़े उन को।

धूल में था मिला दिया दम में।

थे दिलाबर कभी हमीं जग में।

थी बड़ी ही दिलावरी हम में।

साँसतों का सगा सितम पुतला।

कब हमें मानता न यम सा था।

थी दिलेरी बहुत बड़ी हम में।

कौन जग में दिलेर हम सा था।

ललक

बीत पाते नहीं दुखों के दिन।

कब तलक दुख सहें वु+ढ़ें काँखें।

देखने के लिए सुखों के दिन।

है हमारी तरस रहीं आँखें।

सुख-झलक ही देख लेने के लिए।

आज दिन हैं रात-दिन रहते खड़े।

बात हम अपने ललक की क्या कहें।

डालते हैं नित पलक के पाँवड़े।

कचट

क्या न हित-बेलि लहलही होगी।

क्या सकेगा न चैन चित में थम।

हो सवें+गे न क्या भले दिन फल।

क्या सकेंगे न फूल फल अब हम।

साँसतें क्या इसी तरह होंगी।

जायगा सुख न क्या कभी भोगा।

क्या दुखी दिन बदिन बनेंगे ही।

क्या वु+दिन अब सुदिन नहीं होगा।

क्या बचाये न बच सकेगा वु+छ।

क्या चला जायगा हमारा सब।

क्या गिरेंगे इसी तरह दिन दिन।

क्या फिरेंगे न दिन हमारे अब।

कर लगातार भूल पर भूलें।

क्या रहेंगे सदा बने भोले।

क्यों खेले खोखले बना कोई।

क्या खुलेगी न आँख अब खोले।

क्या बुरे से बुरे दुखों को सह।

एड़ियाँ ही घिसा करेंगे हम।

क्या टलेंगे न पीसने वाले।

क्या सदा ही पिसा करेंगे हम।

क्या से क्या

धूल में धाक मिल गई सारी।

रह गये रोब दाब के न पते।

अब कहाँ दबदबा हमारा है।

आज हैं बात बात में दबते।

आज दिन धूल है बरसती वाँ।

हुन बरसता रहा जहाँ सब दिन।

तन रतन से सजे रहे जिन के।

बेतरह आज वे गये तन बिन।

आज बेढंग बन गये हैं वे।

ढंग जिन में भरे हुए वु+ल थे।

बाँधा सकते नहीं कमर भी वे।

बाँधाते जो समुद्र पर पुल थे।

जो रहे आसमान पर उड़ते।

आज उन के कतर गये हैं पर।

सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ।

जो उठाते पहाड़ उँगली पर।

हैं रहे डूब वे गड़हियों में।

बेतरह बार बार खा धोखा।

सूखता था समुद्र देख जिन्हें।

था जिन्होंने समुद्र को सोखा।

जो सदा मारते रहे पाला।

वे पड़े टालटूल के पाले।

आज हैं गाल मारते बैठे।

जंगलों के ख्रगालने वाले।

तप सहारे न क्या सके कर जो।

मन उन्हीं का मरा बहुत हारा।

हैं लहू घूँट आज वे पीते।

पी गये थे समुद्र जो सारा।

सब तरह आज हार वे बैठे।

जो कभी थे न हारने वाले।

आप हैं अब उबर नहीं पाते।

स्वर्ग के भी उबारने वाले।

पेड़ को जो उखाड़ लेते थे।

हैं न सकते उखाड़ वे मोथे।

वे नहीं कूद फाँद कर पाते।

फाँद जाते समुद्र को जो थे।

जो जगत-जाल तोड़ देते थे।

तोड़ सकते वही नहीं जाला।

वे मथे मथ दही नहीं पाते।

था जिन्होंने समुद्र मथ डाला।

क्या थे क्या हो गये।

भोर-तारे जो बने थे तेज खो।

आज वे हैं तेज उन का खो रहे।

माँद उन की जोत जगती हो गई।

चाँद जैसे जगमगाती जो रहे।

पालने वाले नहीं अब वे रहे।

इस लिए अब हम पनप पलते नहीं।

डालियाँ जिनकी फलों से थीं लदी।

पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं।

धूल उन की है उड़ाई जा रही।

धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते।

सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा।

आज वे हैं मुँह पराया ताकते।

चोट पर है चोट चित्ता को लग रही।

आज उन का मन बहुत ही है मरा।

धूम जिन का धूम धामों की रही।

धाक से जिन की धासकती थी धारा।

जो बनाते ही बिगड़तों को रहे।

आप अब वे हैं बिगड़ते जा रहे।

रख सके जो लोग मुँह लाली सदा।

आज हैं वे लोग मुँह की खा रहे।

जातियाँ मुँह जोह जिनका जी सकीं।

इन दिनों हैं आग वे ही बो रहीं।

जग न लेता साँस जिनके सामने।

आज उनकी साँसतें हैं हो रहीं।

फूल जिन पर था बरसता सब दिनों।

इन दिनों वे धूल से हैं भर रहे।

राज पाकर राज जो करते रहे।

काम अब वे राज का हैं कर रहे।

मिल रही है न खाट टूटी भी।

चैन बेचैन बन न क्यों खोते।

आज हैं फूट फूट रोते वे।

जो रहे फूल-सेज पर सोते।

बन गये हैं औगुनों की खान वे।

गुन अनूठे हाथ से छन छन छिने।

डालते थे जान जो बेजान में।

आज वे हैं जानवर जाते गिने।

हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।

औ सका आँख का न आँसू थम।

क्या कहें वु+छ कहा नहीं जाता।

क्या रहे और हो गये क्या हम।

काम के कलाम

चेतावनी

पिस रहा है आज हिन्दूपन बहुत।

हिन्दुओं में हैं बुरी रुचियाँ जगीं।

ऐ सपूतो, तुम सपूती मत तजो।

हैं तुमारी ओर ही आँखें लगीं।

हो गया है क्या, समझ पड़ता नहीं।

हिन्दुओ, ऐसी नहीं देखी कहीं।

खोल कर के खोलने वाले थके।

है तुमारी आँख खुलती ही नहीं।

हिन्दुओ, जैसी तुमारी है बनी।

बेबसी ऐसी बनी किस की सगी।

जागने पर जो लगी ही सी रही।

कब किसी की आँख ऐसी है लगी।

देख कर बेचारपन से तंग को।

आप तुम बेचारपन से मत घिरो।

हो बचा सकते उन्हें तो लो बचा।

हिन्दुओ, आँखें बचाते मत फिरो।

छीजते ही जा रहे हो हिन्दुओ।

भाइयों को पाँव से अपने मसल।

है उसी का मिल रह बदला तुम्हें।

बेतरह आँखें गई हैं क्यों बदल।

हिन्दुओ, हाथ पाँव के होते।

जब कि है बेबसी तुम्हें भाती।

तो भला क्यों न फेर में पड़ते।

दैव की आँख क्यों न फिर जाती।

फल फले बैर फूट के जिस में।

दूधा से बेलि वह गई सींची।

देख कर नीचपन तुम्हारा यह।

हिन्दुओ, आँख हो गई नीची।

सब जगह बे-जागतों को भी जगा।

आज दिन जो जोत जगती है नई।

तब भला वै+से हमारे दिन फिरें।

जब हमारी दीठ उस से फिर गई।

है अगर जीना जियें जीवट दिखा।

या कि अब हम मौत वु+त्तो की मरें।

पिट गये जितना कि पिट सकते रहे।

अब भला रो पीट कर के क्या करें।

सूझता है न क्या है हो रहा।

और लम्बी तान कर हैं सो रहे।

हाथ धोना सब सुखों से ही पड़ा।

क्या अजब जो आज हैं रो धो रहे।

थे समझते जाति-हित-रुचि-बेलि को।

कर सकेंगे हम हरी आँसू चुआ।

वह पनपने भी अगर पाई नहीं।

वु+छ न तो रोने कलपने से हुआ।

जी लगा जाति के सुनो दुखड़े।

सच्च कहते हुए डिगो न डरो।

एक क्या लाख जोड़बन्द लगे।

बन्द तुम कान मुँह कभी न करो।

दम अगर तोड़ना पड़ेहीगा।

किस लिए तो बिचार को छोड़ें।

क्यों बड़े ही हरामियों का सिर।

तोड़ते तोड़ते न दम तोड़ें।

घोंटते जो लोग हैं उस का गला।

क्यों नहीं उन का लहू हम गार लें।

है हमारी जाति का दम घुट रहा।

हम भला दम किस तरह से मार लें।

धूल में मरदानगी अपनी मिला।

लात हिम्मत को लगा जीते मरें।

है अगर हम में न वु+छ दम रह गया।

तो भरोसा और के दम का करें।

टूट जावे मगर न खुल पावे।

इस तरह से कमर कसें बाँधों।

जाति का काम साधाती बेला।

दम निकल जाय पर न दम साधों।

छोड़ दें पेचपाच की आदत।

बीच का खींचतान कर दें कम।

तोड़ कर औ मरोड़ कर बातें।

जाति का क्यों गला मरोड़ें हम।

है कसर कौन सी नहीं हम में।

है भला कौन इस तरह लुटता।

जब हमीं घोट घोट देते हैं।

तब गला जाति का न क्यों घुटता।

जो उन्हें गोद में नहीं लेते।

जो गले से नहीं लगाते हो।

बेबसों पर छुरी चला कर के।

क्यों गले पर छुरी चलाते हो।

जो निबाहो नेह के नाते न तुम।

जो न रोटी बाँट कर खाओ जुरी।

तो छुरी बेढंग आपस में चला।

मत गले पर जाति के फेरो छुरी।

जो पिलाते बन सके तो दो पिला।

वह निराला जल की जिस से हो भला।

प्यास सुख की बेतरह है बढ़ गई।

आस का है सूखता जाता गला।

तब भला किस तरह बसेंगे हम।

जब कि होवे न देस ही बसता।

तब हमारा गला फँसेगा ही।

जब कि है जाति का गला फँसता।

मौत का जो पयाम लाती है।

क्या न है आ रही वही खाँसी।

जब गले फँस गये वु+फंदे में।

क्या गले में न तब लगी फाँसी।

चाहिए वु+छ दबंगपन रखना।

दब बहुत दाब में न आयें हम।

बेसबब दबदबा गँवा अपना।

जाति का क्यों गला दबायें हम।

हैं बुरे पं+द बहुत पै+ले हुए।

जाल कितने बिछ गये हैं बरमला।

बेतरह तुम आप भी फँस जावगे।

जाति का हो क्यों फँसा देते गला।

बात है यह बहुत बड़े दुख की।

हम अगर बेतरह कभी बढ़ दें।

वू+ढ़पन बात बात में दिखला।

मूढ़पन जाति के गले मढ़ दें।

सोच सामान अब करो सुख का।

दुख बहुत दिन तलक रहे चिमट।

गा चलो गीत जाति-हित के अब।

गा चुवे+ कम न दादरे खेमटे।

फिर भला किस तरह हमारी रुचि।

देश-हित राग रंग में रँगती।

सावनी है सुहावनी होती।

लावनी है लुभावनी लगती।

जाति-हित के बड़े अनूठे पद।

हम बड़ी ही उमंग से गावें।

अब बहुत ही बुरी ठसकवाली।

ठुमरियों की न ठोकरें खावें।

क्यों जगाये भी नहीं हो जागते।

आज दिन सारा जगत है जग गया।

लाग से ही जाति-हित गाड़ी खिंचे।

लग गया कंधा बला से लग गया।

क्यों कसकती नहीं कसक जी की।

क्यों खली आज भी न कोर कसर।

है बुरी चाट लग गई तो क्या।

अब रहें नाचते न चुटकी पर।

चूकते ही चूकते तो सब गया।

चूक कर खोना न अब घर चाहिण्।

नटखटों की चाट, जी की चोट को।

क्या उड़ाना चुटकियों पर चाहिए।

जाति का काम हम किये जावें।

क्यों लहू से न बार बार सिंचें।

बिन गये बाल बाल भी न हटें।

खिंच गये खाल भी न हाथ खिंचे।

हो सका क्या न हौसला बाँधो।

जग गये, कौन सा न भाग जगा।

कस कमर कौन काम कर न सके।

लग गये लाग क्या न हाथ लगा।

जाति-हित क्यारियाँ लगे हाथों।

क्यों नहीं आप सींच लेते हैं।

चाहिए इस तरह न ख्ािंच जाना।

किस लिए हाथ खींच लेते हैं।

जाँय कीलें सकल नँहों में गड़।

जाति-हित हौसले न हट पावें।

हाथ लट जाय, शल हथेली हो।

उँगलियाँ पोर पोर कट जावें।

कौर मुँह का क्यों न तब छिन जायगा।

जाँयगी पच क्यों न प्यारी थातियाँ।

पेट कटता देख जब रो पीट कर।

लोग पीटा ही करेंगे छातियाँ।

कढ़ रही हैं तो कढ़ें चिनगारियाँ।

अब न आँखें नीर बरसाती रहें।

वू+टते हैं तो बदों को वू+ट दें।

कट मरें, क्यों वू+टते छाती रहें।

हौसले और दबदबे वाला।

क्या नहीं है दबंग बन पाता।

हम किसी की न दाब में आयें।

दिल दबे कौन दब नहीं जाता।

आज दिन तो दौड़ ही की होड़ है।

फिर हमें है दौड़ने में कौन डर।

क्या निगाहें भी नहीं हैं दौड़तीं।

दौड़ता है दिल न दौड़ाये अगर?।

माल निगला क्यों उगलवा लें न हम।

है हमें वु+छ कम न टोटा हो रहा।

जो निकल पावे निकालें पेट से।

दिन ब दिन है पेट मोटा हो रहा।

कौड़ियाँ पैसे हमारे क्यों लुटें।

वे रहें वै+से किसी की टेंट में।

लें उगलवा माल पकड़ें फेंट हम।

पेट में है तो रहे क्यों पेट में।

दुख न भोगें उखाड़ दें उस को।

है अगर जम गया हिला डालें।

लाभ क्या टालटूल से होगा।

जो सकें टाल पाँव को टालें।

नाक रगड़े मिटें नहीं रगड़े।

माथ क्या पाँव पर रगड़ करते।

दो रगड़ जो रगड़ सको खल को।

पाँव क्या हो रगड़ रगड़ मरते।

सजीवन जड़ी

दुख बने वह अजब नशा जिस में।

मौत का रूप रंग ही भावे।

जाति-हित के लिए मरें हँसते।

आह निकले न, दम निकल जावे।

काम लेते जो विचारों से रहे।

हाथ वे बेसमझियों के कब बिके।

जो छिंके जी की कचाई से नहीं।

छेंकने से छीेंक वे+ वे कब छिंके।

हौसलेवाले हिचिकते ही नहीं।

राह चाहे ठीक या बेठीक हो।

हो सगुन या काम असगुन से पड़े।

दाहिने हो या कि बायें छींक हो।

पड़ गये हो उधोड़बुन में क्यों।

तुम गये बार बार बीछे हो।

कब सके बीर पाँव पीछे रख।

सैकड़ों छींक क्यों न पीछे हो।

करतबी की देख नाकाबंदियाँ।

छक गई सी है निकल पाती नहीं।

छींकनेवाले करें तो क्या करें।

छींकते हैं छींक ही आती नहीं।

दूर अंधाधुंधा जिस से हो सके।

बाँधा कर के धुन वही धांधा करें।

जाति की औ देस की सेवा सदा।

लोग कंधो से मिला कंधा करें।

बीज जब थे बिगाड़ का बोते।

किस तरह प्यार बेलि उग पाती।

जब कि हम बात बात में बिगड़े।

बात वै+से न तब बिगड़ जाती।

जब मनाने ही हमें आता नहीं।

तब सकेंगे किस तरह से हम मना।

कब भला बनती किसी से है बने।

बात बनती ही नहीं बातें बना।

मान, जिनका मान रखकर के मिला।

मत बिगाड़ो मान का उन के धुरा।

है बिना हारे हराना आप को।

है बड़ों की बात दोहराना बुरा।

तब बखेड़े किस तरह उठते नहीं।

जब बखेड़ों का रहा जी में न डर।

बात तब वै+से भला बढ़ती नहीं।

बात बढ़ बढ़ कर, रहे करते अगर।

क्यों नहीं तब जायगा कोई उखड़।

बात हम उखड़ी हुई जब कहेंगे।

रिस लहर वै+से न तब बढ़ जायगी।

बात को जब हम बढ़ाते रहेंगे।

है बहुत वाजिब बहुत ही ठीक है।

बाँट में बेढंग के जो पड़ गई।

तब भला वह किस तरह जी में जमे।

जब बताई बात ही बेजड़ गई।

तो उछल वू+द क्या रहे करते।

जो किया छोड़ छल न देस भला।

सब बला टाल देस के सिर की।

जो कलेजा न बिüयों उछला।

जाति-हित की अगर लगी लौ है।

तो करें काम बेबहा हाथों।

हौसला हो छलक रहा दिल में।

हो कलेजा उछल रहा हाथों।

लोक-हित में कब लगे जी जान से।

कब लगा प्यारा न परहित से टका।

देस सुख मुख देख कमलों सा खिला।

कब कलेजा है उछल बाँसों सका।

हो भला, वह हो भलाई से भरा।

भाव जो जी में जगाने से जगे।

जातिहित जनहित जगतहित में उमग।

जी लगायें जो लगाने से लगे।

क्यों सितम पर सितम न हो हम पर।

क्यों बला पर बला न आ जाये।

घेर घबराहटें न लें हम को।

जी हमारा न नेक घबराये।

क्या नहीं हाथ पाँव हम रखते।

एक बेपीर क्यों हमें पीसे।

फिर हमें जो लगी तो क्या।

आज भी जो लगी नहीं जी से।

जी ठिकाने है अगर रहता नहीं।

चुटकियों पर तो मुहिम होगी न सर।

तो उड़ेंगे फूँक से दुखड़े नहीं।

जी हमारा है उड़ा रहता अगर।

सूरमा साहस दिखा कर सौगुना।

कौन सा पाला नहीं है मारता।

तो हरायें भूलकर उस को न हम।

जी हराये ही अगर है हारता।

चोचलों की चली नहीं सब दिन।

काम का ही जहान है खोजी।

अब नहीं लाड़ प्यार के दिन हैं।

जी लड़ायें लड़ा सकें जो जी।

है अगर आगे निकलना चाहता।

तो किसे पीछे नहीं है छोड़ता।

देख लेवें लोग दौड़ा कर उसे।

दौड़ने पर जी बहुत है दौड़ता।

धीर होते कभी अधीर नहीं।

क्यों न सिर बिपत बितान तने।

हाथ का आँवला न है अवसर।

बावला मन उतावला न बने।

काम से मोड़ें न मुँह, तोड़ें न दम।

चाम तन का क्यों न छन छन परछिले।

हिल गये दिल भी न, हिलना चाहिए।

जाँय हिल क्यों पेट का पानी हिले।

जो गिरें टूट टूट तन रोयें।

जग उठें और जाति जय बोलें।

बन अमर देस-हित रहें करते।

मर मिटें पर कमर न हम खोलें।

फूट घर में न पै+लने पावे।

फूट कर भी न आँख फूट सके।

टूट में जाय पड़ नहीं कोई।

टूट कर भी कमर न टूट सके।

सब दिनों दुख पीसता जिन को रहा।

मुँह पराया ताककर ही वे पिसे।

वह कमाई कर कभी हारा नहीं।

जाँघ का अपनी सहारा है जिसे।

वह जिसे सामने सदा लाई।

है नहीं अंत उस समाई का।

नाम कर काम का बना देना।

काम है जाँघ की कमाई का।

जी लगा काम औ कमाई कर।

हो गये कामयाब माहिर सब।

हैं जवाहिर न जौहरी के घर।

जाँघ में हैं भरे जवाहिर सब।

छल कपट के हाथ से छूटे रहें।

पाँव मेरे तो कहीं वै+से छिकें।

कर न दें तलबेलियाँ बेकार तो।

धार पर तलवार की तलवे टिकें।

बूते की बात

चाहिए आँखें खुली रखना सदा।

दुख सकेंगे टल नहीं आँखें ढके।

सूख जाते हैं बिपद को देख जब।

किस तरह से सूख तब आँसू सके।

जाँयगे पेच पाच पड़ ढीले।

छेद देगा वु+ढंग बरछी ले।

खोज कर के नये नये हीले।

आँख से आँख लड़ भले ही ले।

देख कर के ही किसी ने क्या किया।

साँसतें सह जातियाँ कितनी मुईं।

तब हुआ क्या बाहरी आँखें बचे।

जब कि आँखें भीतरी अंधी हुईं।

हो बुरा उन कचाइयों का जो।

पत उतारे बिना नहीं मुड़तीं।

जब हवा आप हो गये हम तो।

क्यों न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।

आ रही हैं जम्हाइयाँ यों क्यों।

काम क्यों बीर की तरह न करें।

हैं उबरते अगर उबर लेवें।

साँस हम ऊब ऊब कर न भरें।

और बातें भूल दें तो भूल दें।

चोट जी की किस तरह है भूलती।

हैं बरसते फूल साँसत में नहीं।

फिर किसी की साँस क्यों है फूलती।

मर मिटें पर काम से मोड़ें न मुँह।

आ बने जी पर मगर सच्ची कहें।

साँसतें सह छोड़ दें साहस नहीं।

साँस रहते तक उबरते हम रहें।

हो भला जिस से वही जी से करें।

पीटते हैं हम पुरानी लीक क्या।

साँस क्यों लें जाति-हित करते चलें।

साँस आई या न आई ठीक क्या।

लोक-हित के लिए बढ़े जब तो।

पाँव पीछे कभी न टल जावे।

हम भली राह से निकल न भगें।

क्यों नहीं साँस ही निकल जावे।

सब तरह से न जाँय जुट जब तक।

जीत तब तक न हाथ आती है।

आस वै+से न टूट जाती तब।

साँस जब टूट टूट जाती है।

खुल कहें और बार बार कहें।

बात वाजिब सदा कही जावे।

बन्द तब तक न मुँह करें अपना।

साँस जब तक न बन्द हो जावे।

जब निकल ऐंठ ही गई सारी।

तब भला मूँछ किस लिए ऐंठें।

बैठती आन बान से तो क्यों।

बात बैठी अगर चपत बैठे।

बाँह के बल को समझ को बूझ को।

दूसरों ने तो बँटाया है नहीं।

धान किसी का देख काटें होठ क्यों।

हाथ तो हम ने कटाया है नहीं।

कौड़ियों पर किस लिए हम दाँत दें।

है हमारा भाग तो फूटा नहीं।

क्या हुआ जो वु+छ हमें टोटा हुआ।

है हमारा हाथ तो टूटा नहीं।

जो सदा हैं बखेरते काँटे।

दे सके वे न फूल के दोने।

क्यों भला काम लें न ढाढ़स से।

क्यों लगें ढाढ़ मार कर रोने।

हौसलों के बने रहें पुतले।

हार हिम्मत कभी न हम हारें।

काम मरदानगी दिखा साधों।

मार मैदान लें, न मन मारें।

भेद दिल का उन्हें नहीं मिलता।

हैं नहीं जो टटोल दिल पाते।

पेट की बात जानना है तो।

पेट में पैठ क्यों नहीं जाते।

सूझ बूझ

उलझनों को बढ़े बखेड़ों को।

सैकड़ों टालटूल कर टालें।

बात जो भेद डाल दे उस को।

जो सकें डाल पेट में डालें।

तो बखेड़े करें बहुत से क्यों।

जो कहे बात, बात हो पूरी।

काम हो कान के उखेड़े जो।

जो घुसेड़ें न पेट में छूरी।

तो न तकरार के लिए ललकें।

जो बला प्यार से टले टालें।

जो चले काम पेट में पैठे।

तो न तलवार पेट में डालें।

दाँत तो तोड़ किस लिए देवें।

जो दबायें न दुख रही दाढ़ें।

काढ़ काँटा न जो सवें+ दिल का।

तो किसी की न आँख हम काढ़ें।

भागने में अगर भलाई है।

क्यों भला जी न छोड़ कर भागूँ।

माँगने से अगर मिले हम को।

क्यों न जी की अमान तो माँगूँ।

तो चलें चाल किस लिए गहरी।

बात देवें सँभाल जो लटके।

तो पटकने चलें न सिर अपना।

काम चल जाय पाँव जो पटके।

आप अपने लिए बला न बनें।

जो न सिर पर पड़ी बला टालें।

लाग से लोग जल रहे हैं तो।

पाँव अपना न आग में डालें।

पते की बातें

क्यों जम्हाई आ रही है बेतरह।

इस तरह से आँख क्यों है झप रही।

देख लो सब ओर क्या है हो रहा।

बात सुन लो, आँख खोलो तो सही।

जाति को है अगर जिला रखना।

तो न मीठी को मान लें खट्टी।

भेद का बाँधा बाँधाती बेला।

आँख पर बाँधा लें न हम पट्टी।

जोत में आइये जतन करिये।

जागिये हो रहा सबेरा है।

बन गये हैं इसी लिए अंधो।

आँख के सामने ऍंधोरा है।

हैं बड़े ही कपूत कायर हम।

जो बुरी तेवरियाँ हमें न खलें।

ठोकरें देख जाति को खाते।

ठीकरी आँख पर अगर रख लें।

तो बला यों न बेलती पापड़।

पाँव जाता न यों दुखों का जम।

तो न खुल खेलती मुसीबत यों।

जो खुला आँख कान रखते हम।

देख कर भी न देख जो पावें।

वे सजग और ढंग से हो लें।

खुल सकें या न खुल सकें आँखें।

क्या खुली बात को भला खोलें।

सार को प्यार जो नहीं करते।

क्यों न रुचती उन्हें घुनी बातें।

वे गुनी की गुनी सुनें वै+से।

जब सुनी हैं बनी चुनी बातें।

छेदने बेधाने बहँकने से।

काम लेवें न मुँह अगर खोलें।

जाति को है सँभाल लेना तो।

जीभ को हम सँभाल कर बोलें।

है घड़ा जो नहीं भरा पूरा।

क्यों न तो बार बार वह छलके।

जाति-हित का सवाल कोई भी।

कर सके हल न पेट के हलके।

सुन सकें बात हित भरी वे ही।

हैं न जो लोग कान के बहरे।

क्यों कहें वे न पेट की बातें।

हैं न जो लोग पेट के गहरे।

हम निबल भूल पर बहुत बिगड़े।

पर सबल के सितम हुए न जगे।

लग गये पाँव क्यों गये जल भुन।

लग गई क्यों न आग लात लगे।

सु धा र की बातें

तब भला क्या सुधार सकेंगे हम।

जब कि सुनते सुधार नाम जले।

देखने के समय कसर अपनी।

छा गया जब ऍंधोरा आँख तले।

अनसुनी कर सुधार की बातें।

वू+ढ़ वै+से भला कहलवा लें।

खोट रह जायगी उसे न सुने।

कान का खोंट हम निकलवा लें।

जो जियें जाति को निहार जियें।

जो मरें जाति को उबार मरें।

है यही तो सुधार की बातें।

कान क्यों बार बार बन्द करें।

पार हो नाव डूबती जिस से।

जब नहीं ब्योंत वे बता देते।

तब सुने नाम ही सुधारों का।

लोग क्यों जीभ हैं दबा लेते।

हर तरह की बिगाड़ की बातें।

हैं दिलों में सुधार बन पैठी।

सब घरों में खड़े बखेड़े हैं।

फूट है पाँव तोड़ कर बैठी।

भाग

हैं पड़े भूल के भुलावों में।

कब भरम ने भरम गँवा न ठगा।

क्या कहें हम अभाग की बातें।

आज भी भाग भूत भय न भगा।

बिन उठाये न जायगा मुँह में।

सामने अन्न जो परोसा है।

है भरी भूल चूक रग रग में।

भाग का ही अगर भरोसा है।

जब बने तो बने गये बीते।

काहिली हो सकी न जौ भर कम।

भाग वै+से अभाग तब पावे।

जब रहे भाग के भरोसे हम।

पा सके जो जहान में सब वु+छ।

क्या न थे वे उपाय कर करते।

हैं उमगते उमंग में भर जो।

दम रहे भाग का न वे भरते।

पाँव पर अपने खड़े जो हो सके।

ताक पर-मुख वे सभी सहते नहीं।

बाँह के बल का भरोसा है जिन्हें।

वे भरोसे भाग के रहते नहीं।

बीर हैं तदबीर से कब चूकते।

करतबी करतब दिखाते कब नहीं।

भाग वाले हैं जगाते भाग को।

भाग की चोटें अभागों ने सहीं।

क्यों न रहती सदा फटी हालत।

पास सुख किस तरह फटक पाता।

करतबों से फटे रहे जब हम।

भाग वै+से न फूट तब जाता।

है नहीं जब लाग जी से लग सकी।

लाभ तो होगा नहीं मुँह के तके।

जब जगाने से नहीं जीवट जगी।

भाग कोई जाग तब वै+से सके।

देख करतूत की कमर टूटी।

बेहतरी फूट फूट कर कोई।

जब न हित आँख खुल सकी खोले।

किस तरह भाग खुल सके कोई।

हम अगर हाथ पाँव डाल सके।

तब वु+दिन पीस क्यों नहीं पाता।

फट पड़ा जब अभाग का पर्वत।

भाग वै+से न फूट तब जाता।

मेल जोल

तो कहेंगे मिलाप परदे में।

है बुरी मौत की हुई संगत।

रंग बदरंग कर हमारा दे।

जो किसी मेल जोल की रंगत।

लाख उनको रहें मिलाते हम।

हैं न बेमेल मन मिले रहते।

है मुलम्मा किया हुआ जिस पर।

मेल उस मेल को नहीं कहते।

प्यार कहला कर किसी का प्यार क्यों।

काम हित जड़ के लिए दे तेल का।

जो हमें बेमोल करता ही रहे।

वु+छ नहीं है मोल ऐसे मेल का।

मिल गये पर चाहिए फटना नहीं।

तो परस्पर हों निछावर जो हिलें।

वु+छ न फल है दूधा काँजी सा मिले।

जो मिलें तो दूधा जल जैसा मिलें।

एक रंगत में न रँग पाई अगर।

साथ दो कलियाँ खिलीं, तो क्या खिलीं।

जब मिलाने से नहीं मिल मन सका।

तब मिलीं दो जातियाँ तो क्या मिलीं।

वह न खेला जाय जिस में हो कपट।

क्यों न कितना ही निराला खेल हो।

कल्ह मिलते आज मिट्टी में मिले।

जो न मालामाल हित से मेल हो।

तात जल जो मिलन-लता का है।

और है जो कि हित-कमल पाला।

मेल उस मेल को कहें वै+से।

है न जो प्यार-बेलि का थाला।

हाथ धो बैठें धारम से किस लिए।

मुँह हमारे क्यों सहम करके सिलें।

ला मुसीबत माल पर पामाल हो।

धूल में क्यों मेल के नाते मिलें।

क्यों मलामत हम करें उस की नहीं।

मेल कर बेमैल जो होवे न मन।

जो हमें मेली दिये जैसा मिले।

हो फतिंगे के मिलन सा जो मिलन।

धूल में जाय मिल मिलन वह जो।

मसलहत का महँग मसाला हो।

प्यार जो प्यार मतलबों का हो।

मेल जो मेल जोल वाला हो।

है भला मेल मेल वालों का।

जल गया बल गया चला बल क्या।

एक बेमेल बेदहल लौ से।

मेल कर तेल को मिला फल क्या।

है बुरा बरबादियों का है सगा।

बैर जो हो प्रीति-पागों में पगा।

प्यार-परदे में परायापन छिपा।

मैल जी का मेल रंगत में रँगा।

मिल, न उसको क्यों मुसीबत की कहें।

जो मिलन लेने न देवे कल हमें।

बेतरह जो मुँह मुरौअत का मले।

दे गिरा जो मेल मुँह के बल हमें।

किस तरह से हम मिलन उसको कहें।

जो कि दो बेमेल मन का खेल हो।

क्यों न वह होगा मलालों से भरा।

मामलों के ही लिए जो मेल हो।

मतलबों की मलाल की जिस पर।

है जमी एक एक मोटी तह।

हम उसे कह मिलन नहीं सकते।

है न वह मेल है मिलाप न वह।

सबल निबल

जब न संगत हुई बराबर की।

तब भला कब बराबरी न छकी।

साथ सूरज हुए चमकता क्या।

चाँद की रह चमक दमक न सकी।

जो कड़ाई मिल सकी पूरी नहीं।

क्यों न चन्दन की तरह घिस जाँयगे।

आप हैं संगीन वैसे हम न तो।

संग कर के संग का पिस जाँयगे।

कर सबल संग कब निबल निबहा।

कब सितम के उसे रहे न गिले।

भेड़ियों से पटीें न भेड़ों की।

बाघ बकरे हिले मिले न मिले।

किस तरह उस की न छिन जातीकला।

कब सबल लायें न निबलों पर बला।

क्यों न जाती धूप में मिल चाँदनी।

चाँद सूरज साथ क्या करने चला।

जब निबल हो बने सबल संगी।

तब पलटते न किस तरह तखते।

तो चले क्यों बराबरी करने।

बल बराबर अगर नहीं रखते।

घट गये, मान घट सके वै+से।

बाँट में बाट जब समान पड़े।

तौल में कम कभी नहीं होंगे।

दो बराबर तुले हुए पलड़े।

पेड़ देखे गये नहीं पिसते।

जब पिसी तब पिसी नरम पत्ताी।

लौ दमकती रही दमक दिखला।

बल गया तेल जल गई बत्ताी।

चाल चल चल निगल निगल उन को।

हैं बड़ी मछलियाँ बनीं मोटी।

सौ तरह से छिपीं लुकीं उछलीें।

छूट पाईं न मछलियाँ छोटी।

बििüयों से चली न चूहों की।

छिपकली से सके न कीड़े पल।

कब निबल पर बला नहीं आती।

है बली कब नहीं दिखाता बल।

धूप जितनी चाहिए उतनी न पा।

निज हरापन छोड़ हरिआते नहीं।

उग रहे पौधो पवन अपनी छिने।

पास पेड़ों के पनप पाते नहीं।

हैं न काँटों से छिदी कब पत्तिायाँ।

कब लता को लू लपट खलती नहीं।

मालिनों से कल न कलियों को मिली।

मालियों से फूल की चलती नहीं।

पत्थरों को नहीं हिला पाती।

पत्तिायाँ तोड़ तोड़ है लेती।

है न पाती हवा पहाड़ों से।

पेड़ को है पटक पटक देती।

है हवा खेलती हिलोरों से।

बुलबुले के लिए बलाती है।

फूल को चूम चूम लेती है।

ओस को धूल में मिलाती है।

मारता कौन मारतों को है।

पिट गये कब नहीं गये बीते।

हैं हरिन ही चपेट में आते।

बाघ पर टूटते नहीं चीते।

संगदिल से मिला नरम दिल क्या।

प्रेम के काम का न है कीना।

संग टूटा न संग से टकरा।

हो गया चूर चूर आईना।

सजीवनी बूटी

दिल के फफोले

पौ फटी है निकल रहा सूरज।

हैं सभी लोग ढंग में ढलते।

देख करके मलाल होता है।

आप हैं आँख ही अभी मलते।

लड़ पड़े पोत के लिए सग से।

दूसरे लूट ले चले मोती।

एक क्या लाख बार देखे भी।

आँख इस की हमें नहीं होती।

दिन गये सिंह मार लेने के।

है भला कौन मार मन पाता।

मारते हैं जमा पराई अब।

है हमें आँख मारना आता।

साँसतें देख देख अपनों की।

चोट जी ने न भूल कर खाई।

डूबता देख जाति का बेड़ा।

कब कभी आँख डबडबा आई।

दिन ब दिन हम घट रहे हैं तो घटें।

लुट रही हैं तो लुटें पौधों नई।

वु+छ न चारा है बिचारी क्या करे।

जाति की है आँख ही चरने गई।

क्या कहें किस से कहें जायें कहाँ।

हैं बिगड़ते वु+छ भी बन आई नहीं।

दौड़ में हम हैं बहुत पीछे पड़े।

पर किसी ने आँख दौड़ाई नहीं।

ठोंक कर के या कि दे दे थपकियाँ।

और भी दें नौनिहालों को सुला।

खुल रहा है दिन ब दिन परदा मगर।

आँख का परदा नहीं अब भी खुला।

रंग बिगड़ा कम न, बेसमझी मगर।

रंग में अपने सदा भूली रही।

हैं हमीं वु+छ इस तरह के सिर-फिरे।

आँख में सरसों सदा फूली रही।

जिन दिनों लू से लपट से धूप की।

फूल पत्ताा है झुलसता जा रहा।

आँख में ही वु+छ कसर है, उन दिनों।

आँख में टेसू अगर फूला रहा।

फिर नहीं तो कलंक के धाब्बे।

जाति क्यों जी लगा नहीं धोती।

वह भला देख वु+छ सके वै+से।

आँख ही है जिसे नहीं होती।

तुल गई ढील लील लेने को।

सूझ तब भी सबील पर न तुली।

बँधा गये, और हैं बँधो जाते।

पर बँधी दीठ आज भी न खुली।

तो बुरी दीठ किस तरह लगती।

किस लिए आग जाति में बोती।

जो किसी देव-दीठ वाले की।

दीठ से दीठ जुड़ गई होती।

दुख पड़े पर ठीक वह सँभली नहीं।

राह उस ने कब सजग होकर गही।

चूक अपनी कब समय पर देख ली।

दीठ सब दिन चूकती ही तो रही।

अब न धान है न मान ही वह है।

और क्या क्या कहाँ कहाँ खोवें।

लाख में एक लख पड़ा न हितू।

हम न वै+से बिलख बिलख रोवें।

पाट सकते एक नाली भी नहीं।

रीस उन की जो नदी हैं पाटते।

काटते हैं होठ उन को देख कर।

कान उन का क्या भला हम काटते।

जाति का ढाढ़ मार कर रोना।

देस पर है विपत्तिायाँ ढाता।

सुन उसे कान के फटे परदे।

कान अब तो दिया नहीं जाता।

हैं हमारे न कारनामे कम।

फूट के बीज बेतरह बोये।

जाति को भेज कर रसातल में।

कान में तेल डाल कर सोये।

वु+छ अजब हाल है बतायें क्या।

खुल न आँखें सकीं न उमगा मन।

आ हरापन सका न चेहरे पर।

जा सका कान का न बहरापन।

दुख पड़े धुल गया बदन सारा।

जाति में वह रहा जमाल कहाँ।

है नहीं वह हरा भरा चेहरा।

अब रहा लाल लाल गाल कहाँ।

एक है बातें बनाने में फँसा।

एक है बेढंग झुँझलाया हुआ।

हैं कहाँ वे आप वु+म्हला जाँय जो।

जाति का मुँह देख वु+म्हलाया हुआ।

एक क्या लाख बार जान पड़ा।

हैं न हम से जहान में कायर।

नाच हम ने न कौन सा नाचा।

कब तमाचा न खा लिया मुँह पर।

जब कभी जाति के दुखों पर हम।

आँख अपनी पसार देते हैं।

है बुरा हाल सोच से होता।

नोच मुँह बार बार लेते हैं।

कर थके सैकड़ों जतन, पर जी।

जाति हित में कभी नहीं सनता।

देखते लोग हैं हमारा मुँह।

मुँह दिखाते हमें नहीं बनता।

इस सितम संगीन साँसत से कहीं।

आज तक कोई छिका नाका नहीं।

क्यों कहें, दिल के फफोलों की टपक।

टूट मुँह का तो सका टाँका नहीं।

आँख जो काढ़ी गई आँसू कढ़े।

जी चुराने के लिए जो जी गया।

जो सितम औ साँसतों की हद हुई।

सी कहे जो मुँह किसी का सी गया।

क्या दबायेंगे भला वे और को।

आप ही जो दूसरों से दब चले।

रख सकेंगे दाब वे वै+से भला।

दाब लें जो दूब दाँतों के तले।

किस तरह रंग तब चढ़े पक्का।

जब कि कच्चा न रंग ही छूटा।

किस तरह दाँत तब मिलें सच्चे।

दाँत ही जब न दूधा का टूटा।

धूम के साथ धाकवालों ने।

हैं दिये धाक के लिए धोखे।

और का चीख चीख कर लोहू।

दाँत किस के न हो गये चोखे।

जी हमारा बहुत गया वु+म्हला।

जी कहाँ से खिला हुआ ले लें।

है न हँसते न खेलते बनता।

हम भला किस तरह हँसें खेलें।

झेलते योंही रहेंगे क्या सदा।

आज दिन हैं जिस तरह दुख झेलते।

क्या न खेलेंगे हँसेंगे उस तरह।

हम रहे जैसे कि हँसते खेलते।

हम जिसे खोल भी नहीं सकते।

किस तरह से भला उसे खोलें।

बेतरह जब पिटा लिया उस को।

कौन मुँह से भला हँसें बोलें।

मान मरजादा मिटा कर जाति की।

इस जगत में जो जिये तो क्या जिये।

नाम की वह प्यास मिट्टी में मिले।

जो कि बुझ पाई न बातों के पिये।

नीच को तो बिठा लिया सिर पर।

ऊँच की चोटियाँ गईं नोची।

हो गया दूर जाति का सब दुख।

दूर की बात है गई सोची।

भूख कितनों का लहू है पी रही।

रोग कितनों का लहू है गारते।

लोग हैं बे मौत लाखों मर रहे।

हम नहीं हैं आह तब भी मारते।

जा रही हैं सूखती सारी नसें।

पर लगी जोंकें गईं घींची नहीं।

बेतरह है जाति का खिंचता लहू।

आह हम ने आज भी खींची नहीं।

दिल हुआ ठंढा, लहू ठंढा हुआ।

देख ठंढे आँख की ठंढक बढ़ी।

हो चले हम बेतरह ठंढे मगर।

आह ठंढी तो नहीं अब भी कढ़ी।

किस तरह वे उन्हें जलायेंगी।

जो सितम ढूँढ़ ढूँढ़ कर ढाहें।

जब हमीं में न रह गई गरमी।

क्या करेंगी गरम गरम आहें।

जाति-बेचैनियाँ हमें अब भी।

आह! निज रंग में नहीं रँगतीं।

तार बँधाता न आँसुओं का है।

आज भी हिचकियाँ नहीं लगतीं।

रंगरलियों की जहाँ पर धूम थी।

आँसुओं की है बही धारा वहाँ।

आज गरदन बेतरह है नप रही।

पर हमारी फिर सकी गरदन कहाँ।

क्या बखेड़े हैं नहीं पीछे पड़े।

क्या कड़ी आँखें न दुखड़ों की लखी।

धार तीखी क्या कँपाती है नहीं।

क्या उठी तलवार गरदन पर रखी?।

जाति-हित-गाड़ी न दलदल से कढ़ी।

चाहिए था जो न करना वह किया।

जब कि कंधा था लगाना चाहता।

आह! हम ने डाल तब कंधा दिया।

घिस चुके जितना कि घिस सकते रहे।

लाभ क्या अब एड़ियाँ अपनी घिसे।

आग ही उस पीसने में जाय लग।

जिस पिसाई में पड़े उँगली पिसे।

कम नमूने न हैं मुसीबत के।

कम सितम के बने न साँचे हैं।

आज तो वे तमक तमक कर के।

बेतरह मारते तमाचे हैं।

आज हूँ बार बार मैं गिरता।

सामने हैं बहुत बुरे नाले।

थामते हाथ क्यों नहीं मेरा।

हैं कहाँ हाथ थामनेवाले।

कौन सा कारबार छूट सका।

है बहुत अबतरी नहीं जिस में।

क्या बच रह गया बिचार करें।

मौत का हाथ है नहीं किस में।

लोग बेजान बन गये जब हैं।

जब मरे मन मिले, न जाग जगे।

तब हमारे हरेक मनसब पर।

क्यों मुहर मौत हाथ की न लगे।

क्यों न तो मेल जोल लट जाता।

एकता क्यों न छटपटा जाती।

देख कर नाक जाति की छिदती।

छरछराती अगर नहीं छाती।

आप अपनी जड़ हमीं जब खोद दें।

किस तरह हम तब भला फूलें फलें।

जब दलाते हैं हमीें दिल थाम तो।

लोग कोदो क्यों न छाती पर दलें।

बेतरह टूट टूट करके हम।

हो रहे हैं समान रेजे के।

पास होते हुए कलेजा भी।

हैं हमीें लोग बे कलेजे के।

कब सताये गये नहीं दुखिये।

ला उन्हीं पर सका बला बिल भी।

बाल ही है पका नहीं मेरा।

देखते देखते पका दिल भी।

रुक सके रोके न परहित के लिए।

जातिहित पर ठीक जम पाये नहीं।

देसहित पथ पर थमा कर थक गये।

ए हमारे पाँव थम पाये नहीं।

क्या बचा छोड़ एक लोप ललक।

आ गई अबतरी नहीं जिस में।

खोल कर आँख की पलक देखें।

है नहीं मौत की झलक किस में।

अपने दुखड़े

जब कि जीना न रह गया जीना।

तब भला है कि मौत ही आती।

जब कि उठना बहुत सताता है।

आँख तो बैठ क्यों नहीं जाती।

वार करना भी जिन्हें आता नहीं।

चल सकी तलवार उन की कब कहीं।

सिर उठा वै+से सकेंगे वे भला।

आँख अपनी जो उठा सकते नहीं।

जब कि दबते गये दबाने से।

लोग वै+से न तब दबावेंगे।

जब कि हम आँख देख लेवेंगे।

लोग आँखें न क्यों दिखावेंगे।

दौड़ में सब जातियाँ आगे बढ़ीं।

पेट में सबके पड़ी है खलबली।

आज भी हम करवटें हैं ले रहे।

खुल सकीं खोले न आँखें अधाखुली।

काटने से कट न दुख के दिन सके।

यों पड़े कब तक रहें काँटों में हम।

आज भी जी का नहीं काँटा कढ़ा।

है खटकता आँख का काँटा न कम।

रह गई अब न ताब रोने की।

दर दुखों का कहाँ तलक मूँदें।

कम निचोड़ी गईं नहीं आँखें।

आँसुओं की कहाँ मिलें बूँदें।

जाति का दिन फिरा जिन्हें पाकर।

जो न फरफंद के रहे नेही।

है बिपद फेरफार में फँस कर।

मुँह पु+लाये फिरें अगर वे ही।

सुन सके तो किस तरह से सुन सके।

कान में जब तेल ही डाला रहा।

खुल सके तो किस तरह से खुल सके।

जब किसी मुँह में लगा ताला रहा।

हो बुरा उन कचाइयों का जो।

पत उतारे बिना नहीं मुड़तीं।

जब हवा आप हो गये हम तो।

क्यों न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।

पेट वै+से न तब भला ऐंठे।

जब कि हैं मल भरी हुई आँतें।

तो न क्यों जाति पेच में पड़ती।

जो रुचीं पेचपाच की बातें।

दिन अगर लाग डाँट में बीतें।

तो कटें खींच तान में रातें।

आज हैं दिल मिले अलग होते।

हैं कहाँ मेल जोल की बातें।

जब कि नामरदी पड़ी है बाँट में।

क्यों न तब मरदानपन की जड़ खने।

तब भला मरदानगी वै+से रहे।

मूँछ बनवा जब मरद अमरद बने।

है भला और क्या हमें आता।

दूसरी बात और क्या होती।

हँस दिये देख सूरतें हँसती।

रो दिये देख सूरतें रोती।

किस लिए इस तरह गया पकड़ा।

इस तरह क्यों अभाग आ टूटा।

जायगा छूट या न छूटेगा।

आज तक तो गला नहीं छूटा।

जी गया ऊब कर जतन कितने।

जा रहा है बुरी तरह जकड़ा।

है वु+दिन ने बुरी पकड़ पकड़ी।

है गया बेतरह गला पकड़ा।

जो बुरा हो चाहते, कर लो बुरा।

क्या भलाई कर नहीं देगा भला।

बंधानों को खोलते हैं दूसरे।

बाँधा दो जो बाँधा देते हो गला।

कौन किस की भला पुकार सुने।

कौन किस के लिए भला आये।

देखते आँख फाड़ फाड़ रहे।

हम गला फाड़ फाड़ चिल्लाये।

घिर गये बेतरह बिपत-बादल।

मच गई लूट, पत गई लूटी।

वू+टते क्यों न तब फिरें छाती।

फूटते आँख बाँह भी टूटी।

हाल अब तो लिखा नहीं जाता।

आज दिन बात है सभी बदली।

पक गया जी, बहक गया है मन।

थक गया हाथ, घिस गई उँगली।

है जहाँ पर पेट भी पला नहीं।

किस तरह सुख से वहाँ कोई जिये।

क्यों वहाँ पर चैन मिल पाये जहाँ।

है चपत चलता चपाती के लिए।

तब थमेगी किस तरह संजीदगी।

थामने से मन न जब थमता रहा।

तब हमारी किस तरह चाँदी रहे।

जब कि चाँदी पर चपत जमता रहा।

है मुसीबत बेतरह पीछे पड़ी।

हैं नहीं सामान बचते साथ के।

हाथ मल मल कर न क्योंपछताँयहम।

उड़ गये तोते हमारे हाथ के।

टूटने की ब्योंत बहुतेरी हुई।

पर बुरा बंधान तनिक टूटा नहीं।

छूटते तो किस तरह हम छूटते।

जब हमारा हाथ ही छूटा नहीं।

बेतरह है गला बँधा अब भी।

है न रस्सी कमरबँधी छूटी।

पाँव की बेड़ियाँ न खुल पाईं।

हथकड़ी हाथ की नहीं टूटी।

टूट पाये न जाल दुखड़ों के।

उलझनों के नुचे न झोले हैं।

खोलते खोलते पड़े फंदे।

पड़ गये हाथ में फफोले हैं।

मन हमारा रहा नहीं बस में।

और कस में रही नहीं काया।

है इसी से बसर नहीं होती।

रह सका हाथ का न सरमाया।

देख करके नौजवानों की बहँक।

सिरधारों की बात सुन कर अटपटी।

देखकर टूटा हुआ दिल जाति का।

भाग ही फूटा न, छाती भी फटी।

क्यों भला बेताबियाँ बढ़तीं नहीं।

बेतरह लूटे गये, बेढब पिटे।

तब भला जी जाय क्यों छितरा नहीं।

जब कि छाती में रहें काँटे छिंटे।

हो गये शल हाथ सब तदबीर के।

घट गया बल, पड़ गई पीछे बला।

हम उबर पाये न सिर के बार से।

बोझ छाती का नहीं टाले टला।

उस बहुत ही बुरे बसेरे में।

है जहाँ बैर फूट का डेरा।

जाति को देख बेधाड़क जाते।

है कलेजा धाड़क रहा मेरा।

चाहिए था कि जाति का बेड़ा।

रह सजग ढंग से सँभल खेते।

देख गिरदाब में गिरा उस को।

हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।

सामने से बहाव जो आया।

वह उसी में गई, न पाई थम।

देख यह जाति की बड़ी सुबुकी।

रह गये थाम कर कलेजा हम।

तब गई कब नहीं उधार ही फिर।

जब किसी ने उसे जिधार फेरा।

जाति का देख बेकलेजापन।

है कलेजा निकल पड़ा मेरा।

जाति के पाँचवें सवारों में।

और उन में जिन्हें कहें बरतर।

देख कर चोट बेतरह चलती।

चोट है लग रही कलेजे पर।

हम दुखी हैं कहें कहाँ तक दुख।

कब न सूई चुभी नयन तिल में।

कब रहे दुख न फूलते फलते।

कब कफोले पड़े नहीं दिल में।

आज दिन भी बेतरह हैं पिस रहे।

छूटते उन के बतोले हैं नहीं।

हैं फफोले पर फफोले पड़ रहे।

टूटते दिल के फफोले हैं नहीं।

देख करके चहल पहल अब तो।

दिल अनायस है दहल जाता।

क्यों न सब दुख-सवाल हल होते।

दिल हमारा अगर बहल जाता।

वह रहा फूल हो गया काँटा।

स्वर्ग से भूत का बना डेरा।

लाट था अब गया बहुत ही लट।

बल पड़े दिल उलट गया मेरा।

है बुरी चाट लग गई जी को।

बेतरह है कचट कचट जाता।

हो गया है उचाट वु+छ ऐसा।

आज दिल है उचट उचट जाता।

क्या अभी अब नहीं खिलेगा वह।

फूल सुख का न खिल सका मेरा।

खा बुरी चोट दुख-चपेटों की।

हो गया चूर चूर दिल मेरा।

है कलेजा निकल रहा मेरा।

हैं लहू घूँट इन दिनों पीते।

काटते हैं बड़े दुखों से दिन।

पेट हम काट काट हैं जीते।

भीख माँगे हमें नहीं मिलती।

रह गये हाथ में नहीं पैसे।

आग है लग गईं कमाई में।

पेट की आग बुझ सके वै+से।

पेट पापी नहीं कराता क्या।

सोच लें बल निकालनेवाले।

पालना पेट तो पड़े ही गा।

क्या करें पेट पालनेवाले।

आँख उठती नहीं उठाये भी।

मुँह बहुत ही सहम सिये हम हैं।

रात दिन पेट थाम कर अपना।

दौड़ते पेट के लिए हम हैं।

कब दुखी-दुख सुखी समझता है।

मतलबी लोग हैं न यम से कम।

रह गये हैं न देखनेवाले।

पेट अपना किसे दिखायें हम।

देखता कोई दुखी का दुख नहीं।

मूँद आँखों को दिया आराम ने।

आज दिन है माँगना खलता बहुत।

हम खलायें पेट किस के सामने।

तरबतर हो आँसुओं से बेतरह।

कब हमारी बेकसी रोई नहीं।

पीठ वै+से लग नहीं जाती भला।

है हमारी पीठ पर कोई नहीं।

जातिहित के बड़े कठिन पथ में।

कब ठहर वह सका ठिकाने से।

टल गया टालटूल कर कितने।

टिक सका पाँव कब टिकाने से।

सब सुखों के हमें पड़े लाले।

है वु+दिन ने न कौन डाले बल।

है न कल मिल रही कसाले सह।

घिस गये पाँच कोस काले चल।

हित न हो पाया गया चित हो दुचित।

आँख से आँसू छगूना नित छना।

कोस काले चल कलेजा हिल गया।

पाँव काँटों से छिले छलनी बना।

काहिली भागी भगाने से नहीं।

है नहीं जीवट जगाने से जगी।

तूल हो दुख तिल गया है ताल बन।

है हमें तब भी न तलवों से लगी।

जी की कचट

जो बड़े बेपीर को पिघला सके।

जाय टल जिस से बिपद बादल घिरा।

चाहिए जैसा गरम वैसा रहे।

हम सके ऐसा कहाँ आँसू गिरा।

छोड़ दें आप अठकपालीपन।

मत करें होठ काट काट सितम।

हो चुके काठ गाँठ का खोकर।

रो चुके आठ आठ आँसू हम।

भर गये छलके अड़े उमड़े बहुत।

मोतियों के रंग में ढलते बढ़े।

कर सके क्या, गिर गले, जल भुन गये।

एक क्या सौ बार तो आँसू कढ़े।

आँखवाले आँख भर कर हैं खड़े।

अब बढ़ी बेहूदगी से ऊब जा।

क्यों डुबाती जाति को है डाह तू।

डबडबाये आँसुओं में डूब जा।

आदमीयत की अगर होती चली।

तो न अनबन आग जग देता जगा।

रंग लाती प्यार की रंगत अगर।

हाथ जाता तो न लोहू से रँगा।

हो रहा हे बेतरह बेचैन जी।

सुधा हमारी बेसुधी है लूटती।

देख कर कटता कलेजा जाति का।

फूटती हैं आँख, छाती टूटती।

झेलते झेलते मुसीबत को।

हो गया नाक में हमारा दम।

हो गये काठ, बन गये पत्थर।

थामते थामते कलेजा हम।

दे जिन्हें मान मान मिलता है।

मान हैं कर रहे उन्हीं का कम।

देख यह हाल नौनिहालों का।

थाम कर रह गये कलेजा हम।

अब उसे किस तरह जगायें हम।

जाग कर वह अगर नहीं जगता।

क्या करें लोग बाग के हित में।

लाग से दिल अगर नहीं लगता।

सिर झुकाने से सका जितना कि झुक।

झंझटें सह सैकड़ों झुकता गया।

जो कभी उकता, सका उकता नहीं।

अब वही दिल है बहुत उकता गया।

तब भला वै+से पटाये पट सके।

जब कि उस से आज तक पाई न पट।

वह चलाते चोट थकता ही नहीं।

चोट खा खा बढ़ गई जी की कचट।

देस का दुख बखानती बेला।

किस तरह रुँधा गला नहीं जाता।

जाति की देख कर भरी आँखें।

जी रहा कौन सा न भर जाता।

देस पर जो निसार होते थे।

हार अब वे रहे नहीं वैसे।

पड़ गये कान में भनक ऐसी।

जायगा जी सनक नहीं वै+से।

क्या वु+दिन अब सुदिन नहीं होगा।

दिन ब दिन गात है लटा जाता।

नस गई सूख धाँस गईं आँखें।

पेट है पीठ से सटा जाता।

काम जो आज कर रहे हैं हम।

कब गया वह कठिन नहीं माना।

साँसतें नित नई नई सह सह।

है सहल पाँव का न सहलाना।

समय का फेर

धान विभव की बात क्या जिन के बड़े।

रज बराबर थे समझते राज को।

है तरस आता उन्हीं के लाड़िले।

हैं तरसते एक मूठी नाज को।

क्या दिनों का फेर हम इस को कहें।

या कि है दिखला रही रंगत बिपत।

थी कभी हम से नहीं जिन की चली।

आज दिन वे ही चलाते हैं चपत।

बेर, खा वे बिता रहे हैं दिन।

जो रहे धान-वु+बेर कहलाते।

अन्न से घर भरा रहा जिन का।

आज वे पेट भर नहीं पाते।

चाव से चुगते जहाँ मोती रहे।

हंस तज कर मानसर आये हुए।

पोच दुख से आज वाँ के जन पचक।

फिर रहे हैं पेट पचकाये हुए।

जो सुखों की गोदियों के लाल थे।

दिन ब दिन वे हैं दुखों से घिर रहे।

जो रहे अकड़े जगत के सामने।

आज वे हैं पेट पकड़े फिर रहे।

बाँटते जो जहान को उन को।

सुधा रही बाट बाँटने ही की।

पाटते जो समुद्र थे उन को।

है पड़ी पेट पाटने ही की।

पेट जिन से चींटियों तक का पला।

जा सके जिन के नहीं जाचक गिने।

कट रहे हैं पेट के काटे गये।

लट रहे हैं कौर वे मुँह का छिने।

दूधा पीने को उन्हें मिलता नहीं।

जो सहित परिवार पीते घी रहे।

अब किसी का पेट भर पाता नहीं।

लोग आधा पेट खा हैं जी रहे।

पेट भर अब अन्न मिलता है कहाँ।

हैं कहाँ अब डालियाँ फल से लदी।

बह रहा है सोत दुख का अब वहाँ।

थी जहाँ घी दूधा की बहती नदी।

छिन गया आज कौर मुँह का है

गाय देती न दूधा है दूहे।

है बुरा हाल भूख से मेरा।

पेट में वू+द हैं रहे चूहे।

बात बिगड़े नहीं किसी की यों।

मरतबा यों न हो किसी का काम।

पाँव मेरे जहान पड़ता था।

दुख पड़े पाँव पड़ रहे हैं हम।

आज वे हैं जान के गाहक बने।

मुँह हमारा देख जो जीते रहे।

हाथ धो वे आज पीछे हैं पड़े।

जो हमारा पाँव धो पीते रहे।

छू जिन्हें मैल दूर होता था।

आज वे हो गये बहुत मैले।

वे नहीं आज पै+लते घर में।

पाँव जो थे जहान में पै+ले।

बेतरह क्यों न दिल रहे मलता।

दुख दुखी चित्ता किस तरह हो कम।

लोटते पाँव के तले जो थे।

पाँव उनका पलोटते हैं हम।

गालियाँ हैं आज उन को मिल रहीं।

गीत जिन का देवते थे गा रहे।

पाँव जिन के प्रेम से पुजते रहे।

पाँव की वे ठोकरें हैं खा रहे।

अब वहाँ छल की, कपट की, फूट की।

नटखटी की है रही फहरा धुजा।

पापियों का पाप मन का मैल धो।

है जहाँ पर पाँव का धोअन पुजा।

आज वे पाले दुखों के हैं पड़े।

जो सदा सुख-पालने में ही पले।

सेज पर जो फूल की थे लेटते।

वे रहे हैं लेट तलवों के तले।

जगाने की कल

फटकार

बात चिकनी कपट भरी कह कर।

जब कि वह जाति पर बला लावे।

जब रही खींचतान में पड़ती।

जीभ तब खैंच क्यों न जी जावे।

पेट की चापलूसियों में पड़।

गालियाँ जो कि जाति को देवें।

चाहिए तो बिना रुके हिचके।

जीभ उन की निकाल ही लेवें।

जो कि बेढंग चल करे चौपट।

चाहिए ऐंच कर उसे दम लें।

जाति की नाक कट गई जिस से।

काट उस जीभ को न क्यों हम लें।

वार पर वार कर रही जब थी।

तब भला किस तरह, तरह देते।

पड़ गई जाति गाढ़ में जिस से।

काढ़ उस जीभ को न क्यों लेते।

जाति के काम जब नहीं आते।

डींग हम मारते रहे तब क्या।

जब कि फटकार ही रही पड़ती।

मूँछ फटकारते रहे तब क्या।

जाति के देख देख कर दुखड़े।

जो न बेताब बन उन्हें पूछें।

रोंगटे जो खड़े न हो जावें।

तो रहीं क्या खड़ी खड़ी मूँछें।

जाग तब वै+से सवें+गे, ज्ञान की।

जोत जी में जब कि जगती ही नहीं।

तब भला वै+से हमें जी से लगे।

बात लगती जब कि लगती ही नहीं।

है बहँक इतनी कि कितनी बात को।

ताड़ कर के भी नहीं हम ताड़ते।

है हमारी बात की यह बानगी।

हैं बना कर बात बात बिगाड़ते।

क्यों न बल को तौल लें, होगा बुरा।

बात जी में बेठिकाने की ठने।

क्या किसी की हम गढ़ेंगे हव्यिाँ।

बात गढ़ लेवें अगर गढ़ते बने।

जीभ सड़ जाती न जाने क्यों नहीं।

बेअटक कहते हुए बातें सड़ी।

बात सीधी किस तरह से तब कहें।

बाँट में जब बात टेढ़ी ही पड़ी।

दूर की लेंगे बकेंगे बहक कर।

काम के हित जी हुआ बै ही नहीं।

किस तरह लेंगे खिलौना चाँद का।

बात है, करतूत वु+छ है ही नहीं।

जाति को देख कर पड़ा दुख में।

अब चलेंगे न हम मदद देने।

पड़ गये काम काइयाँपन कर।

लग गये हैं जँभाइयाँ लेने।

है उन्हें छुट्टी कहाँ जो वु+छ करें।

क्या हुआ जो आबरू है जा रही।

लें अगर ऍंगड़ाइयाँ हैं ले रहे।

लें जँभा जो है जँभाई आ रही।

जाति औ प्रीति की अजब जोड़ी।

है बँधी धाक जो बिछुड़ खोती।

आज तक भी जुड़ी न जोड़े से।

है इसी से थुड़ी थुड़ी होती।

जल गया वह मुँह न क्यों जिससे कि हम।

जातिहित को भाड़ में हैं झूँकते।

मुँह छिपा लेवें, मगर मुँह पर भला।

थूकनेवाले न वै+से थूकते।

आज दिन तो हैं कलेजे चिर रहे।

क्या हुआ दो चार उँगली जो चिरी।

क्यों फिराये आँख फिरती ही नहीं।

क्या छुरी अब भी न गरदन पर फिरी।

राह उलटी किस लिए पकड़ी गई।

क्यों घुमाने से नहीं हैं घूमते।

जो ऍंगूठा हैं हमें दिखला रहे।

क्यों ऍंगूठा हैं उन्हीं का चूमते।

हो सकेगा काम तो कोई नहीं।

बात हित की सुन चिटक जाया करें।

चोट जी को तो लगेगी ही नहीं।

उँगलियों को बैठ चटकाया करें।

हो सकेगी बात वै+से दूसरी।

मुँह भलाई से सदा मोड़ा करें।

फोड़ पायें तो रहें घर फोड़ते।

बैठ कर या उँगलियाँ फोड़ा करें।

सूरमापन अगर न धाक रखे।

चाहिए तो चलें न धामकाने।

जो न तलवार को सकें चमका।

तो लगें उँगलियाँ न चमकाने।

बात हित की जमी नहीं जी में।

पग न पाया बिचारपथ में थम।

किस लिए आज हो गये जड़ हैं।

क्या तमाचे जड़े गये हैं कम।

जाति-हित-रुचि जब कि जी में आजमी।

बन गई तब काहिली वै+से सगी।

लाग से लगते नहीं क्यों काम में।

हाथ में तो है नहीं मेहँदी लगी।

किस तरह तो हम निरे पत्थर नहीं।

चोट जी को जब कि लग पाती नहीं।

देख टुकड़ा जाति का छिनते अगर।

सैकड़ों टुकड़े हुई छाती नहीं।

देस का मुँह गया बहुत वु+म्हला।

किस तरह मुँह रहा खिला तेरा।

छिल रहा जाति का कलेजा है।

पर कलेजा कहाँ छिला तेरा।

हौसले की गोद में हित हैं पले।

है जहाँ साहस उमंगें हैं वहीं।

बेदिली वै+से न दिल में घर करें।

पास दिल है पर दिलेरी है नहीं।

देसहित देख जो नहीं पाते।

जातिहित है अगर नहीं भाता।

आँख तो फूट क्यों नहीं जाती।

किस लिए बैठ जी नहीं जाता।

जान में जान तो न आयेगी।

आन भी जायगी चली धीमें।

बात बेजान जाति के हित को।

जो जमाये जमी नहीं जी में।

जाति हित का जाप क्या जपते रहे।

देख जो भय का भयानक मुख भगे।

देस दुख दलने चले क्या दौड़ कर।

पेट में जो दौड़ने चूहे लगे।

तब सकेंगे पाल वै+से देस को।

जब कि है परिवार भी पलता नहीं।

तब चलाये राज वै+से चल सके।

जब चलाये पेट भी चलता नहीं।

है जिसे पेट देस से प्यारा।

जो जने जाति का अहितकारी।

मर गया वह न क्यों जनमते ही।

क्यों गई कोख वह नहीं मारी।

दौड़ कर के जातिहित – मैदान में।

पाँव वै+से वह भला सकता गड़ा।

चल दबे पाँवों परग दो चार ही।

पाँव दबवाना जिसे अपना पड़ा।

किस लिए भाग हैं खड़े होते।

क्यों सुपथ में न पाँव अड़ पाया।

गड़ गये आप क्यों न लाज लगे।

पाँव गाड़े अगर न गड़ पाया।

देस मिल जाय धूल में तो क्या।

भूल है जो उन्हें कहें अहदी।

वे उठें फूल सेज तज वै+से।

पाँव की जायगी बिगड़ मेहँदी।

जी भलाई के लिए है फूलता।

तो समय पर क्यों विफल है हो रहा।

भय हुए फूले समाते आप हैं।

पाँव वै+से फूल जाता तो रहा।

काल के गाल में न कौन गया।

अब कहाँ वेणु, कंस, रावन हैं।

छोड़ कर जाति-पाँव पावन क्यों।

पूजते पाँव हम अपावन हैं।

किस लिए है आँख पर परदा पड़ा।

दिन ब दिन है उठ रहा परदा ढका।

लात पर है लात लगती जा रही।

छूट तलवे का न सहलाना सका।

देसहित और जातिहित पथ में।

चाव से जो नहीं सके चल वे।

तो तुरत जाँय धूल ही में मिल।

जाँय गल पाँव, जाँय जल तलवे।

लानतान

जब कि कस ली पत गँवाने पर कमर।

पर उतरने का रहा तब कौन डर।

बेपरद क्यों हों न परदेवालियाँ।

पड़ गया परदा हमारी आँख पर।

नित कचूमर है धारम का कढ़ रहा।

है भली करनी कलपती दुख भरी।

जो गई हैं बाहरी आँखें बिगड़।

तो गईं क्यों फूट आँखें भीतरी।

क्यों सुनोगे मरे या जाति जिये।

बस तुम्हें खाना पीना सोना है।

सच है अंधो के सामने रोना।

अपने आप अपनी आँख खोना है।

देस का दुख न देखनेवाले।

देख पाये कहीं न तुम जैसे।

आँख ऊँची न रख सके जब तो।

आँख ऊँची भला रहे वै+से।

वु+छ न सूझा, है न अब भी सूझता।

दाम देते हैं हमीं तो राख का।

खोल देखो आँख हम सा है कहाँ।

गाँठ का पूरा व अंधा आँख का।

पाँव होते पड़े रहे पीछे।

हाथ होते न कर सके धंधे।

सूझती हैं भलाइयाँ न हमें।

आँख होते बने रहे अंधो।

बँधा सकेंगे न एक डोरे में।

तोड़ कर के रहा सहा बंधान।

घर बसा कब उजाड़ कर के घर।

जा सका आज भी न अंधापन।

डालते आज भी नहीं बनता।

बोझ से बेतरह छिले कंधो।

है हमें देख भाल का दावा।

सच तो यों है कि हैं बड़े अंधो।

वह ललाई रही नहीं मुँह की।

है सियाही निखर रही छन छन।

रंग पहचान तब सकें वै+से।

रंग लाता है जब कि अंधापन।

दिन ब दिन हैं बिगड़ रहे लेकिन।

हैं वही काम औ वही धांधो।

क्यों हरा ही हरा न सूझेगा।

जब कि सावन के आप हैं अंधो।

सुन जिसे धाँधाली दहल उठती।

और जाते दबक दिखावे सब।

जब बजाये बजे न वे बाजे।

हम रहे गाल क्या बजाते तब।

पूछता बात तक नहीं कोई।

पर नहीं तार डींग की टूटा।

ठोकरे हैं गली गली खाते।

गाल का मारना नहीं छूटा।

लोग अपने हकों पदों को भी।

वीरता के बिना नहीं पाते।

जब गई बीरता बिदा हो तब।

क्या रहे बार बार मुँह बाते।

पाँव पर अपने खड़े होते नहीं।

धान लुटा कर दिन ब दिन हैं चूकते।

चाटते हैं जब पराया थूक हम।

लोग तब वै+से न मुँह पर थूकते।

बेटियाँ बेंच बेंच पेट पला।

हैं लुटीं हाथ से न राँड़ें कम।

हैं छिपाते छिपी हुई चालें।

पर कभी मुँह नहीं छिपाते हम।

क्यों बचाये न आँख वह, जिसने।

जाति को बेंच पा लिये पैसे।

लग गया जब कलौंस ही मुँह में।

तब भला मुँह दिखा सकें वै+से।

कर दिखाते भलाइयाँ तब क्या।

जब भला ठान भी नहीं ठनता।

तब भला भाग खोल देते क्या।

जब कि मुँह खोलते नहीं बनता।

है न पाता पनाह अपनापन।

मेल को धूल में मिला डाला।

जाति को डाल काल के मुँह में।

बेतरह मुँह किया गया काला।

क्या हँसी खेल है सँभल जाना।

तुम कहीं बैठ कर हँसो खेलो।

है तुमारा न मुँह कि सँभलोगे।

मुँह तनिक देख आइने में लो।

नौजवानों की उमंगों को वु+चल।

तुम गये हो आँख में बेढब समा।

जो चले हो जाति का मुँह मूँदने।

दाँत तालू में तुमारे तो जमा।

हम रहेंगे बेसुधो कब तक बने।

ओस से भी प्यास जाती है कहीं।

क्यों न तलवों से हमें अब भी लगी।

दिन रहे तालू उठाने के नहीं।

खुल गया भेद सब बिना खोले।

आँख बतलाइये खुलेगी कब।

भर लबालब गया सितम-प्याला।

खुल हमारा सका न अब भी लब।

जब कि था चाहिए नहीं दबना।

तब भला किस लिए गये दब हम।

जब कि था चाहिए उसे खुलना।

तब हुआ बन्द क्यों हमारा लब।

क्या न दो बात कह सकें हम।

क्यों हमें है बिपत्तिा ने घेरा।

कौन बेजान है भला हम सा।

जी हिला पर न लब हिला मेरा।

तो कहाँ धुन हमें लगी सच्ची।

जातिहित जो सही न आँच कड़ी।

मुँह हमारा अगर नहीं सूखा।

होठ पर जो पड़ी नहीं पपड़ी।

बैरियों को न चाट जब पाया।

तब रहे होठ चाटते हम क्या।

जब सके काट ही न दुख अपना।

तब रहे होठ काटते हम क्या।

जाति को राह पर लगाने की।

काम की बात सैकड़ों सिखला।

तब भला क्या निकालते सूरत।

जब कि सूरत सके नहीं दिखला।

जाति जिस से उठे हिले डोले।

पत्थरों की न जाय बन मूरत।

तो न सूरत दिखाइये हम को।

जो न इस की बताइये सूरत।

दूर बेचारपन करें सारा।

मत बिचारा करें महूरत ही।

क्या नतीजा सवाल का होगा।

साहबो है सवाल सूरत ही।

तो मरें डूब नाम सुन रन का।

है हमें आ गई अगर जूड़ी।

जम लड़ें, दें पछाड़ जम को भी।

लें पहन हाथ में न हम चूड़ी।

हो गई क्यों न तो कई टुकड़े।

किस लिए टूट वह नहीं जाती।

जाति के देख देख कर दुखड़े।

है न छाती अगर धाड़क पाती।

छिन गया सरबस कलेजा छिल गया।

चौगुनी क्यों चोट लग पाती नहीं।

छटपटाते देख दुख से जाति को।

क्यों छ टुकड़े हो गई छाती नहीं।

काठ हैं, जो जातिहित करते समय।

सेज आलस की हुई सूनी नहीं।

जो न चौगूनी उमंगें हो गईं।

हो गई छाती अगर दूनी नहीं।

बात तो जाति प्यार की सुन ली।

पर रहा वह न दुख ऍंगेजे पर।

जाति पर कब रखी गई पत खो।

हाथ रख कर कहें कलेजे पर।

चुन सकें तो चाहिए चुन लें उन्हें।

आज तक काँटे न कम हैं बो गये।

आज भी क्यों है धाड़क खुलती नहीं।

दिल धाड़कते तो बहुत दिन हो गये।

बढ़ावा

काम में देर तब न वै+से हो।

दिल गया भूल भागवाले का।

अब लगेगी न देर होने में।

जब लगा हाथ लागवाले का।

वार तलवार कर पड़ें पिल हम।

वू+र को सूर साधाना सिखला।

मोड़ कर मुँह मिजाजवालों का।

दें मँजें हाथ के मजे दिखला।

किस लिए कमहिम्मती से काम लें।

बैरियों को क्यों नहीं दे मारते।

कल्ह मरते आज क्यों जायें न मर।

हाथ छाती पर अगर हैं मारते।

चार बाँहें तो किसी के हैं नहीं।

क्यों सतायें दूसरे औ हम सहें।

क्यों रहे वे टूट पड़ते लूटते।

किस लिए हम वू+टते छाती रहें।

जो बुरी बातें बहुत ही खल चुकीं।

इस समय भी वैसिही के क्यों खलें।

भाग को तो ठोंकते ही हम रहे।

आज छाती ठोंक कर भी देख लें।

वह करे सामने न मुँह अपना।

जो करे सामना न नेजे का।

क्यों बिना जान का बने कोई।

जाय बन क्यों बिना कलेजे का।

क्यों भला आसमान पर न चढ़ें।

जब पतंगें चढ़ीें चढ़ाने से।

बढ़ करें क्यों न काम हम बढ़ बढ़।

जाय बढ़ दिल अगर बढ़ाने से।

बिपत्तिा के बादल

कोर कसर

कोयलों पर हम लगाते हैं मुहर।

पर मुहर लुट जा रही है हर घड़ी।

मिट गये पर ऐंठ है अब भी बनी।

है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।

है कहीं रोक थाम का पचड़ा।

है कहीं काट छाँट का ऊधाम।

अब इसे देख हम सकें वै+से।

हो गया देख देख नाकों दम।

बात हो काम की बला से हो।

हैं बड़े बेसुधो कहाँ ऐसे।

कान ही जब कि ले गया कौआ।

तक उसे कान कर सवें+ वै+से।

देखता हूँ कि जाति का जौहर।

है बहा ले चला समय सोता।

लोग होंगे खड़े कमर कस क्या।

कान भी तो खड़ा नहीं होता।

बार सौ सौ सुना सुना ऊबे।

जाति दुखड़ा सुना नहीं जाता।

थक गये काढ़ काढ़ने वाले।

कान का मैल कढ़ नहीं पाता।

तब भला सूझता हमें वै+से।

आँख में जब कि चुभ गई सूई।

तब सुनेंगे कही किसी की क्यों।

कान में जब भरी रही रूई।

तब अगर वह उठा उठा तो क्या।

यह भला था उमेठना सहता।

जाति की लान तान सुनने को।

कान जब है उठा नहीं रहता।

बात सुन बदहवास लोगों की।

क्यों भला बदहवास हम होवें।

दौड़ पीछे पड़ें न कौवे के।

कान अपना न किस लिए टोवें।

जाति के लाल जो न लाल बने।

औ लिये पाल लाल औ मुनिये।

तो खुलेगा न भाग खोले भी।

बात यह कान खोल कर सुनिये।

दौड़ थी दूर की बहुत लम्बी।

हम निराली छलाँग भर न सके।

नाम के तो रहे बहुत भूखे।

काम की बात कान कर न सके।

वह बचन बात से कहीं तीखा।

बेधाता है बिना बिधो ही जो।

छिद उठे जो उसे नहीं सुन कर।

कान में छेद ही नहीं है तो।

जब कि जीवट गई रसातल को।

आप ही सोचिये रहा तब क्या।

जब खुले आम कह नहीं सकते।

वु+छ दबी जीभ से कहा तब क्या।

क्यों रहेगी जाति जीती जागती।

जब घड़ी है मेल की ही टल रही।

ठीक नाड़ी है न चलती बूझ की।

सूझ की ही साँस जब है चल रही।

जान ही जब नहीं किसी में है।

तब भला मान क्यों रहे मन में।

किस तरह साँस ले भला कोई।

साँस ही जब रही नहीं तन में।

जाति के हित के लिए कस कर कमर।

भूल कोई किस लिए जाता रहा।

मुँह दिखायेगा भला तब किस तरह।

साँस तक भी जो नहीं नाता रहा।

बैर जैसे बड़े लड़ाके को।

प्रीति वै+से पछाड़ तब पाती।

पाँव अनबन उखाड़ देने में।

साँस जब थी उखड़ उखड़ जाती।

जाय जुआ बुरा उतर जिससे।

जो न करते रहे वही धांधो।

तो हमें बैल ही बनाते हैं।

बैल वै+से उठे उठे कंधो।

वह सुधारता तो सुधारता किस तरह।

देश की सुधा ही नहीं जब ली गई।

जातिहित की बात जब वै+से सुनें।

कान में जब डाल उँगली दी गई।

जो हथेली पर लिये ही सिर फिरे।

टालने को जाति के सिर की बला।

देख उन पर दाँत हम को पीसते।

कौन दाँतों में न उँगली दे चला।

तब नहीं वै+से हमारी गत बने।

जब कि गत हम आप बनवाते रहे।

पत रहे तो किस तरह से पत रहे।

जब चपत हर बात में खाते रहे।

साँसतें तब क्यों नहीं सहनी पड़ें।

जब उन्हें चुपचाप हम ने हैं सहे।

हाथ वै+से तब न बाँधो जाँयगे।

जब खड़े हम हाथ बाँधो ही रहे।

तब न मनमानियाँ सहेंगे क्यों।

हाथ में जब कि मन मरे के हैं।

तब न बेकार जाँयगे बन क्यों।

जब बिके हाथ दूसरे के हैं।

हो सके दुख-सवाल हल वै+से।

है अगर छूटता न छल मेरा।

देख कर जाति को दहल जाते।

कब कलेजा गया दहल मेरा।

रंग उड़ जाय क्यों न सुख-मुख का।

क्यों फरेरा उड़े न दुख तेरा।

बेतरह जाति जी उड़ा देखे।

जो कलेजा उड़ा नहीं मेरा।

तब दुखी-जाति-दुख टले वै+से।

जब न दुख देख झोंक से झपटे।

जान बेजान में पड़े वै+से।

जब दिलोजन से नहीं लपटे।

तोड़ लाते उचक तरैया को।

औ घड़े में समुद्र को भरते।

कौन सा काम कर नहीं पाते।

हम दिलोजान से अगर करते।

देस को देख कर फला फूला।

कब खिला फूल की तरह मुखड़ा।

जाति को कब हरा भरा पाकर।

दिल हमारा उमड़ उमड़ उमड़ा।

जान पर खेल जो नहीं जाते।

किस तरह नोंक झोंक तो निपटे।

छूटती जाति-जान तो वै+से।

लोग जी जान से न जो लिपटे।

किस तरह कामयाब तो बनते।

किस तरह हों निहाल, भाग जगे।

लाग के साथ काम करने में।

लोग जी जान से अगर न लगे।

साधाते साधाते गये थक हम।

जातिहित साधाना मगर न सधी।

बाँधाते बाँधाते जनम बीता।

देसहित के लिए कमर न बँधी।

क्यों खटकते हमें बुरे काँटे।

क्यों लगे चाट गाँठ का खोते।

सब बुरी हाट ठाट बाटों से।

पाँव मेरे अगर हटे होते।

देख ऊँचे समाज को चढ़ते।

हैं हमीें आँख मीचने वाले।

पड़ बुरी खींचतान पचड़ों में।

हैं हमीें पाँव खींचने वाले।

तो पड़े क्यों पहाड़ सिर पर गिर।

नँह अगर दुख रहे सुखी के हों।

किस लिए तो हमें न, दुख भी हो।

पाँव दुखते अगर दुखी के हों।

हैं गये तन बिन बहुत, सब छिन गया।

लोग काँटे हैं घरों में बो रहे।

है मुसीबत का नगारा बज रहा।

पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।

भर गया पोर पोर में औगुन।

नाम हम में न रह गया गुन का।

जो गला चाँप चाँप देते हैं।

पाँव हम चाँप हैं रहे उन का।

कर सके देस जाति का न भला।

चल भले भाव के भले रथ में।

तज धारम के धुरे अधार्मीं बन।

पाँव है धार रहे बुरे पथ में।

फूट

लुट गये पिट उठे गये पटके।

आँख के भी बिलट गये कोये।

पड़ बुरी फूट के बखेड़े में।

कब नहीं फूट फूट कर रोये।

बढ़ सके मेल जोल तब वै+से।

बच सके जब न छूट पंजे से।

क्यों पड़ें टूट में न, जब नस्लें।

छूट पाईं न फूट-पंजे से।

खुल न पाईं जाति-आँखें आज भी।

दिन ब दिन बल बेतरह है घट रहा।

लूट देखे माल की हैं लट रहे।

फूट देखे है कलेजा फट रहा।

जो हमें सूझता, समझ होती।

बैर बकवाद में न दिन कटता।

आँख होती अगर न फूट गई।

देख कर फूट क्यों न दिल फटता।

फूट जब फूट फूट पड़ती है।

प्रीति की गाँठ जोड़ते क्या हैं।

जब मरोड़ी न ऐंठ की गरदन।

मूँछ तब हम मरोड़ते क्या हैं।

भारी भूल

सूझ औ बूझ के सबब, जिस के।

हाथ में जाति के रहे लेखे।

है बड़ी भूल और बेसमझी।

जो कड़ी आँख से उसे देखे।

वे हमारे ढंग, वे अच्छे चलन।

आज भी जिन की बदौलत हैं बसे।

दैव टेढ़े क्यों न होंगे जो उन्हें।

देखते हैं लोग टेढ़ी आँख से।

हिन्दुओं पर टूट पड़ने के लिए।

मौत का वह कान नित है भर रहा।

खोद देने के लिए जड़ जाती की।

जो कि है सिरतोड़ कोशिश कर रहा।

जी सके जिस रहन सहन के बल।

चाहिए वह न चित्ता से उतरे।

कर कतरब्योंत बेतरह उस में।

क्यों भला जाति का गला कतरे।

एका की कमी

धुन हमारी अलग रही बँधाती।

एक ही राग कब हमें भाया।

जाति रँग में ढले पदों को भी।

कब गले से गला मिला गाया।

दम सुनाने में नहीं जिस के रहा।

है नहीं उस की सुनी जाती कहीं।

खोलते तो कान वै+से खोलते।

एक सुर से बोलते ही जब नहीं।

है समाई न एक धुन अब तक।

दिल हिले तो भला हिले वै+से।

वु+छ न वु+छ है कसर मिलाने में।

सुर मिले तो भला मिले वै+से।

तो समय पर चूकते हम किस तरह।

जो समय की रंगतें पहचानते।

कौन सुर से सुर मिलाता तब नहीं।

सुर अगर सुर से मिलाना जानते।

बात कहते अगर नहीं बनती।

तो भला था यही कि चुप रहते।

सुर सदा है अलग अलग रहता।

एक सुर से कभी नहीं कहते।

बेताबी

अब तनिक भी न ताब है तन में।

किस तरह दुख समुद्र में पैठें।

बेतरह काँपता कलेजा है।

क्यों कलेजा न थाम कर बैठें।

बेतरह वह लगा धुआँ देने।

चाहता है जहान जल जाया।

मुद्दतें हो गईं सुलगते ही।

अब कलेजा न जाय सुलगाया।

है टपक बेताब करती बेतरह।

हैं न हाथों से बला के छूटते।

टूटते पाके पके जी के नहीं।

हैं नहीं दिल के फफोले फूटते।

जाति जिस से भूल चूकों में फँसी।

था भला वह भाव खलता ही नहीं।

क्या करें किस भाँति बहलायें उसे।

दिल हमारा तो बहलता ही नहीं।

अब हमारा वहीं ठिकाना है।

है जहाँ ठीक ठीक दुख देरा।

तब कहें बात क्यों ठिकाने की।

है ठिकाने न जब कि दिल मेरा।

जो रहा है बीत दिल है जानता।

है न इतनी ताब जो आहें भरें।

जब समय ने है पकड़ पकड़ी बुरी।

तब न दिल पकड़े फिरें तो क्या करें।

बेबसी

बेबसी, हो सदा बुरा तेरा।

यह कहाँ ताब जो करें चूँ तक।

हम भला कान क्या हिलायें।

कान पर रेंगती नहीं जूँ तक।

देसहित का काम करने के समय।

हम न योंही डालते कंधो रहे।

झंझटों में डाल डावाँडोल कर।

पेट के धांधो किये अंधो रहे।

लाभ गहरा किस तरह तो हो सके।

हाथ लग पाया अगर गहरा नहीं।

हम भला वै+से ठहर पाते वहाँ।

पाँव ठहराये जहाँ ठहरा नहीं।

छूट तो पीछा सका दुख से कहाँ।

तो मुसीबत है कहाँ पीछे हटी।

हाथ की जो हथकड़ी टूटी नहीं।

जो न बेड़ी पाँव की काटे कटी।

गड़ गये, सौ सौ मनों के बन गये।

अड़ गये, हैं राह पर आये कहाँ।

पैठने को जातिहित के पैंठ में।

ए हमारे पाँव उठ पाये कहाँ।

और दूभर हुआ हमें जीना।

मन, थके मार, मर नहीं पाता।

हैं उतरते अकड़ अखाड़े में।

पैंतरा पाँव भर नहीं पाता।

जातिहित पथ न देख तै होते।

रुचि बहुत बार बार घबराई।

राह भारी हुए भर आया जी।

भर गये पाँव, आँख भर आई।

तंग है कर रही जगह तंगी।

हैं बखेड़े तमाम तो ‘तै’ से।

वे समेटे सिमिट नहीं पाते।

पाँव लेवें समेट हम वै+से।

पै+लते देख पाँव औरों के।

वे भला क्यों नहीं अकड़ जाते।

चाहता हूँ सिकोड़ लेना मैं।

पाँव मेरे सिवु+ड़ नहीं पाते।

बेबसी बाँट में पड़ी जब है।

जायगी नुच न किस लिए बोटी।

चोट पर चोट तब न क्यों होगी।

जब दबी पाँव के तले चोटी।

हर तरह कर बुराइयाँ अपनी।

वे कलें और के भले की हैं।

जातियाँ बेतरह दबी वु+चली।

चींटियाँ पाँव के तले की हैं।

थक गये बल कर, निकल पाये नहीं।

जा रहे हैं और वे नीचे धाँसे।

दिल दलक कर बेतरह दलके न क्यों।

हैं हमारे पाँव दलदल में फँसे।

छूतछात

जो बहुत दुख पा चुके हैं आज तक।

कम न दुख होगा उन्हें अब दुख दिये।

सब तरह से जो बेचारे हैं दबे।

मत उन्हें आँखें दबा कर देखिये।

छूत क्या है, अछूत लोगों में।

क्यों न उन का अछूतपन लखिये।

हाथ रखिये अनाथ के सिर पर।

कान पर हाथ आप मत रखिये।

भूत सिर पर है बड़प्पन का चढ़ा।

छल रही है छूत जैसी बद बला।

कर बुरी बेकार बेजा ऐंठ क्यों।

जाति का हम ऐंठ देते हैं गला।

बाहरी जातपाँत के पचड़े।

भीतरी छूतछात की साधों।

हैं हमें बाँधा बेतरह देतीं।

क्यों उन्हें जाति के गले बाँधों।

है कही जाती कहीं पर दानवी।

पुज रही है वह बनी देवी कहीं।

आज छूआछूत – चिन्ता से छिदे।

कौन सी छाती हुई छलनी नहीं।

तब सके छूट क्यों छिछोरापन।

सूझ जब छाँह छू नहीं पाती।

क्यों मिटे छूतछात के झगड़े।

जब छिले दिल छिली नहीं छाती।

आदमी हैं, आदमीयत है भली।

बात यह कोई कहे इतरा नहीं।

छेद छाती में अछूतों के हुए।

जो अछूता जी गया छितरा नहीं।

तब न छुटकारा दुखों से पा सके।

हम छोटाई छूत से छूटे न जब।

एक सा सब छूटना होता नहीं।

छूटने से पेट छूटा पेट कब।

वे अछूता हमें न छोड़ेंगे।

छूत से हैं जिन्हें नहीं छूते।

हैं दबे पाँव के तले तो क्या।

क्या हमें काटते नहीं जूते।

क्या उसी से कढ़ी न गंगा हैं।

बल उसी के न क्या पुजे बावन।

हैं अपावन अछूत सब वै+से।

है भला कौन पाँव सा पावन।

नाड़ी की टटोल

हमारे मनचले

सब तरह की सूझ चूल्हे में पड़े।

जाँय जल उन की कमाई के टके।

जब भरम की दूह ली पोटी गई।

लाज चोटी की नहीं जब रख सके।

लुट गई मरजाद पत पानी गया।

पीढ़ियों की पालिसी चौपट गई।

चोट खा वह ठाट चकनाचूर हो।

चाट से जिस की कि चोटी कट गई।

लग गई यूरोपियन रंगत भली।

क्यों बनें हिन्दी गधो भूँका करें।

साहबीयत में रहेंगे मस्त हम।

थूकते हैं लोग तो थूका करें।

सिरधारे या सिरफिरे

लुट गया कोई बला से लुट गया।

वु+छ नहीं तो गाँठ का उनकी गिरा।

है सुधारों की वहाँ पर आस क्या।

हो जहाँ पर सिरधारों का सिर फिरा।

बढ़ गये मान भूख तंग बने।

आप का रह गया न वह चेहरा।

देखिये अब उतर न जाय कहीं।

आप के सिर बँधा सुजस सेहरा।

तब भला वै+से न हम मिट जायँगे।

मनचले वै+से न तब हम को ठगें।

फिर गये सिर जब हमारे सिर धारे।

बात बे-सिर-पैर की कहने लगें।

हैं हमारे पंथ जो प्यारे बड़े।

हैं बुरे काँटे उन्हीं में वो रहे।

देख कर के सिरधारों का सिर फिरा।

हैं कलेजा थाम कर हम रो रहे।

ढोंगिये

ढोंग रच रच ढकोसले पै+ला।

जब उन्होंने कि जाति घर घाले।

तब रखें पाँव पूँ+क पूँ+क न क्यों।

और के कान फूँकने वाले।

तुम भली चाह को समझ लो तिल।

ताल होगा उसे बढ़ा लेना।

ताल तिल को न जो बना पाया।

काम आया न तो तिलक देना।

दुख सहे, पर दूसरों का हित करे।

वह रहा घिसता सदा ही इस लिए।

यह मरम जी में समाया जो नहीं।

तो भला चन्दन लगाया किस लिए।

इस तरह के हैं कई टीके बने।

जो कि तन के रोग देते हैं भगा।

जो न मन के रोग का टीका बना।

तो हुआ फिर लाभ क्या टीका लगा।

सोहते दिन रात माथे पर रहे।

देखता हूँ बाल भी अब तो पके।

जो न केसर की कियारी जी बना।

तो न केसर के तिलक वु+छ कर सके।

जो न हरि के प्यार का रँग चढ़ सका।

जो न चाही लालियों का सँग रहा।

जो चिरौरी चाह की होती रही।

तो न रोरी के तिलक का रँग रहा।

छाप भलमंसी लगा करके छला।

दिन दहाड़े की ठगी धोखा दिया।

नटखटी का रंग जो उतरा नहीं।

तो किसी ने क्या लगा टीका लिया।

जो न उस में झलक दिखायेंगी।

सब भली चाहतें ठिकाने से।

आप के तो खिले हुए मुँह की।

‘श्री’ रहेगी न ‘श्री’ लगाने से।

जब कि चोटें हों धारम पर चल रही।

औ बनावट ने उसे हो ढक लिया।

तान ली तब आप ने लम्बी अगर।

तो तिलक लम्बा लगा कर क्याकिया।

तीन गुन के न जो तिकट टूटे।

तुम रहे जो तिलोक से ऐंठे।

तो तमाशा तुम्हें बनाने को।

हैं तिकोने तिलक तुले बैठे।

धूर्त हैं, गोल गोल बातों में।

जो धारम का मरम छिपाते हैं।

तुम करो गोलमाल मत ऐसा।

नित तिलक गोल यह बताते हैं।

देख कर पाँव धार्म का उखड़ा।

भूल कर भूख प्यास बाँधा कमर।

तू खड़ा रात दिन अगर न रहा।

क्या किया तो खड़ा तिलक दे कर।

जो न तिरछी आँख से तिरछे रहे।

वु+छ न पाया तो तिलक तिरछे दिये।

धार्म के आड़े न आये जो कभी।

तो तिलक आड़े लगाये किस लिए।

छोड़ करके सजी सरग की सेज।

तू गया आग में नरक की लेट।

धार्म की ओर फेर करके पीठ।

दे तिलक पालता रहा जो पेट।

क्या किया दे कर बड़े उजले तिलक।

जो रहा मन मैल में सब दिन सना।

जो न जी में छींट परहित की पड़ी।

तो हुआ क्या छींट माथे का बना।

वु+छ न छूआछूत से बच कर हुआ।

किस लिए खटराग पै+लाये बड़े।

छूतवाले बन कपट की छूत से।

जब तिलक पर लोभ के धाब्बे पड़े।

जो करें पार और की नावें।

हैं भँवर के वही पड़े पाले।

फूँकते कान क्यों नहीं अपना।

और के कान फूँकनेवाले।

हमारे सा धू संत

और की पीर जो न जान सके।

वे जती हैं न हैं बड़े ढोंगी।

कान जिन के फटे न परदुख सुन।

वे कभी हैं कनफटे जोगी।

कौन है रंग ढंग से ले सोच।

संत हैं या कि संतपन के काल।

राख तन पर मले चढ़ाये भंग।

लाल आँखें किये बढ़ाये बाल।

तब रहे धूल फाँकते तो क्या।

देह में रख जब कि दी समवा।

किस लिए आप तब कमायें वे।

बाल को जब दिया गया कमवा।

भूल में ही हो पड़े भगवा पहन।

जो भुलावों से नहीं अब लों भगे।

जो सकी जी से न रंगीनी निकल।

रह सकेगा रंग न तो माथा रँगे।

और दुनिया चिमट गई इन को।

संत का मन का रोकना देखो।

इन लँगोटी भभूत वालों का।

आँख में धूल झोंकना देखो।

धूल दे पाँव की टका ऐंठे।

धूतपन को भभूत दे पाले।

धूल में संतपन मिला करके।

संत क्यों धूल आँख में डाले।

तंगियों के बुरे गढ़े में गिर।

साधुओं का गरेरना देखो।

जो कि भरते हैं तारने का दम।

उन का आँखें तरेरना देखो।

घर रहे पर सुधा नहीं घर की रही।

अब लगे ठगने रमा करके धुईं।

बाहरी आँखें गई पहले रहीं।

भीतरी आँखें भी अब अंधी हुईं।

किस लिए माला हिलाते तब रहे।

माल पर ही जब जमी आँखें रहीं।

तब रहे चन्दन लगाते किस लिए।

जब कि मुँह में लग सका चन्दन नहीं।

बन गये जब संत तब तज चाहते।

संतपन चित को सिखाना चाहिए।

जो दिखावों में फँसे अब भी रहे।

तो न तुम को मुँह दिखाना चाहिए।

मान के अरमान जी में थे भरे।

संत बनने को मरे जाते रहे।

चाह थी लाली रहे मुँह की बनी।

बेतरह मुँह की मगर खाते रहे।

दूसरों के लिए बिके जो हैं।

वे करेंगे न झोल की बातें।

मोल वै+से नहीं घटायेंगी।

संत की मोल जोल की बातें।

जब चिलम जगती रही तब ज्ञान की।

जोत न्यारी क्यों न जगती कम रहे।

नाक में दम क्यों रहे दम का न तब।

जब कि दम पर दम लगाते दम रहे।

फँस गये जब कि चाह-फंदे में।

नेह नाते रह छुड़ाते क्या।

लग गई पूँछ पिछलगों की जब।

मूँछ को तब रहे मुड़ाते क्या।

नाम के उन साधुओं के सामने।

आयु जिन की दाम के पीछे चुकी।

किस तरह से आप झुक जायें भला।

जब झुकाये भी नहीं गर्दन झुकी।

छोड़ घर-बार किस लिए बैठे।

दूर जी से न जो हुई ममता।

तो रमाये भभूत क्या होगा।

जो रहा मन न राम में रमता।

क्यों खुले भी न आँख खुल पाई।

किस लिए चेत कर नहीं चेते।

लोग क्यों संत- पंथ – पंथी हो।

पाँव हैं पाप – पंथ में देते।

कसौटी

देखना है अगर निकम्मापन।

तो हमें आँख खोल कर देखो।

हैं हमीं टालटूल के पुतले।

जी हमारा टटोल कर देखो।

टाट वै+से नहीं उलट जाता।

जब बुरी चाट के बने चेरे।

दिन पड़े खाट पर बिताते हैं।

काहिली बाँट में पड़ी मेरे।

कायरों का है वहाँ पर जमघटा।

था जहाँ पर बीर का जमता परा।

सूर हम में अब उपजते ही नहीं।

सूरपन है सूर लोगों में भरा।

जाति आँखों की बड़ी अकसीर को।

हैं गया बीता समझते राख से।

देखते हम आँख भर कर क्या उसे।

देख सकते हैं न फूटी आँख से।

क्यों बला में न बोलियाँ पड़तीं।

जब बने जान बूझ कर तुतले।

फूट पड़ती न वाँ बिपद वै+से।

हैं जहाँ बैर फूट के पुतले।

तब बला में न किस तरह फँसते।

जब बला टाल ही नहीं पाते।

हो सकेगा उबार तब वै+से।

जब रहे बार बार उकताते।

बेहतरी किस तरह हिली रहती।

जब रहे काहिली दिखाते हम।

भूल वै+से न तब भला होती।

जब रहे भूल भूल जाते हम।

किस तरह काम हो सके कोई।

जब कि हैं काम कर नहीं पाते।

गुत्थियाँ किस तरह सुलझ सकतीं।

जब रहे हम उलझ उलझ जाते।

हैं अगर देखभाल कर सकते।

क्यों नहीं देखभाल की जाती।

तब भला किस तरह भला होगा।

जब भली बात ही नहीं भाती।

ढंग मन मार बैठ रहने का।

है गया रोम रोम में रम सा।

छूट पाईं लतें न आलस की।

है भला कौन आलसी हम सा।

परख

खोट वै+से न खूँट में बँधाती।

मन गया है खुटाइयों में सन।

बान क्यों काटवू+ट की न पड़े।

है भरा वू+ट वू+ट पाजीपन।

जब पड़ी बान आग बोने की।

आग वै+से भला नहीं बोता।

मिल सका ढंग ढंगवालों में।

ढंग बेढंग में नहीं होता।

जूठ खाना जिसे रहा रुचता।

किस लिए वह न खायगा जूठा।

है उसे झूठ बोलना भाता।

बोलता झूठ क्यों नहीं झूठा।

जा रही है लाज तो जाये चली।

लाज जाने से भला वह कब डरा।

घट रहा है मान तो घटता रहे।

है निघरघटपन निघरघट में भरा।

चूल से चूल हैं मिला देते।

रंगतें ढंग से बदलते हैं।

चाल चालाकियाँ भरी कितनी।

कब न चालाक लोग चलते हैं।

पास तब वै+से फटक पाती समझ।

जब कि जी नासमझियों में ही सने।

तब गले वै+से न उल्लूपन पड़े।

उल्लुओं में बैठ जब उल्लू बने।

किस तरह बेऐब कोई बन सके।

बेतरह हैं ऐब पीछे जब लगे।

कम नहीं उल्लू कहाना ही रहा।

काठ के उल्लू कहाने अब लगे।

बात बतालाई सुनें, समझें, करें।

कर न बेसमझी समझ की जड़ खनें।

जो बदा है क्यों बदा मानें उसे।

हम न बोदापन दिखा बोदे बनें।

बाल की खाल काढ़ खल पन कर।

खल किसे बेतरह नहीं खलते।

चाल चल छील छील बातों को।

छल छली कर किसे नहीं छलते।

पेच भर पेच पाच करने में।

क्यों सभी का न सिर धारा होगा।

है भरी काट पीट रग रग में।

क्यों न कपटी कपट भरा होगा।

वे और हम

चाहते हैं यह तरैया तोड़ लें।

बेतरह मुँह की मगर हैं खा रहे।

हैं उचक कर हम सरग छूने चले।

पर रसातल को चले हैं जा रहे।

क्यों सुझाये भी नहीं है सूझता।

बीज हैं बरबादियों के बो गये।

क्यों ऍंधोरा आँख पर है छा गया।

किस लिए हम लोग अंधो हो गये।

एक है जाति के लिए जीता।

दूसरा जाति लग नहीं लगता।

एक है हो रहा सजग दिन दिन।

दूसरा जाग कर नहीं जगता।

हैं लटू हम यूनिटी पर हो रहे।

और वह लट बेतरह है पिट रही।

सुधा गँवा सारी हमारी जाति अब।

है हमारे ही मिटाये मिट रही।

जाति जीतें सुन उमग हैं वे रहे।

जाति – दुखड़े देख हम ऊबे नहीं।

आज दिन सूबे चला हैं वे रहे।

हैं हमारे पास मनसूबे नहीं।

जाति अपनी सँभालते हैं वे।

हम नहीं हैं सँभाल सकते घर।

क्या चले साथ दौड़ने उन के।

जो कि हैं उड़ रहे लगा कर पर।

क्यों न मुँह के बल गिरें खा ठोकरें।

छा ऍंधोरा है गया आँखों तले।

हो न पाये पाँव पर अपने खड़े।

साथ देने चालवालों का चले।

लुट रहा है घर, सगे हैं पिट रहे।

खोलते मुँह बेतरह हैं डर रहे।

मौत के मुँह में चले हैं जा रहे।

हैं मगर हम दूसरों पर मर रहे।

दौड़ उन की है बिराने देस तक।

घूम फिर जब हम रहे तब घर रहे।

हम छलाँगें मार हैं पाते नहीं।

वह छलाँगें हैं छगूनी भर रहे।

वह कहीं हो पर गले का हार है।

इस तरह वे जाति-रंग में हैं रँगे।

रंगतें इतनी हमारी हैं बुरी।

हैं सगे भी बन नहीं सकते सगे।

है पसीना जाति का गिरता जहाँ।

वे वहाँ अपना गिराते हैं लहू।

जाति – लोहू चूस लेने के लिए।

कब नहीं हम जिन्द बनते हूबहू।

जाति-दुख से वे दुखी हैं हो रहे।

क्यों न वह हो दूर देसों में बसी।

देख कर भी देख हम पाते नहीं।

जा रही है जाति दलदल में धाँसी।

बावलों जैसा बना उन को दिया।

दूर से आ जाति-दुख के नाम ने।

आँख में उतरा नहीं मेरे लहू।

जाति का होता लहू है सामने।

जाति को ऊँचा उठाने के लिए।

बाग अपनी कब न वे खींचे रहे।

नीच बन आँखें बहुत नीची किये।

हम गिराते जाति को नीचे रहे।

अठकपालीपन दिखा हैं वे रहे।

है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।

वे महल अपने खड़े हैं कर रहे।

हम रहे हैं फूँक अपनी झोंपड़ी।

हों भले ही वे विदेसों में बसे।

प्यार में हैं जाति के पूरे सने।

बात अपनी बेकसी की क्या कहें।

देस में भी हम विदेसी हैं बने।

धाक अपनी बाँधा हैं जग में रहे।

एक झंडे के तले वे हो खड़े।

फूट है घर में हमारे पड़ रही।

हैं लुढ़कते जा रहे घी के घड़े।

धार्म्म पर हो रहे निछावर हैं।

आज वे बोल बोल कर हुर्रे।

हम अधूरे बुरे धुरे पकड़े।

धार्म्म के हैं उड़ा रहे धुर्रे।

क्यों न हों बहु देस में पै+ले हुए।

हैं मगर वे एक बंधान में बँधो।

साधा रहते देस में हम से नहीं।

एकता के मंत्रा साधो से सधो।

दूसरों की जड़ जमाने के लिए।

क्यों बहक कर आप अपनी जड़ खनें।

हम नहीं कहते कि लोहा लोग लें।

पर न चुम्बक के लिए लोहा बनें।

पोल

दूसरे बीर बन भले ही लें।

बीरता तो हमीं दिखाते हैं।

हम उड़ाते अबीर हैं अड़ कर।

और बढ़ कर कबीर गाते हैं।

मान मरजाद है मरी जाती।

आबरू का निकल रहा है दम।

भाँड़ भड़वे बनें न तब वै+से।

जब कि गाने लगे भड़ौवे हम।

भाव के रसभरे कलेजे में।

हैं सुरुचि की जहाँ बहीं धारें।

गालियों से भरी, बुरी, गंदी।

होलियाँ गा न गोलियाँ मारें।

जाति का मान रह सका जिन से।

मान उन का कभी न कर दें कम।

कर धामा चौकड़ी भली रुचि से।

क्यों मचा दें धामार गा ऊधाम।

मोड़ लें मुँह न आदमीयत से।

तोड़ देवें न ढंग का तागा।

बात यह कान से सुनें रसिया।

नास रस का करें न ‘रसिया’ गा।

बेसुधो इतने न बन जावें कभी।

जो बुरा धाब्बा हमें देवे लगा।

किस लिए हम ताल पर नाचा करें।

चाल बिगड़े क्यों बुरे चौताल गा।

दल बहँक जाय दिल-चलों का जो।

तो न बरसें उमड़ घुमड़ बादल।

जाय वह मुँह तुरंत जल, जिस में।

गा बुरी कजलियाँ लगे काजल।

माँ, बहन, बेटियाँ निलज न बनें।

इस तरह से हमें न लजवावें।

हैं लगातार तालियाँ बजती।

गालियाँ गा न गालियाँ खावें।

जाति राह के रोड़े

ईसवी पंजा

आँख की पट्टी नहीं तब भी खुली।

बिछ रहे हैं जाल अब भी नित नये।

क्या कहें ईसाइयों की चाल को।

लाल पंजे से निकल लाखों गये।

तब सुनायें जली कटी तो क्या।

जब पड़े हैं कड़े शिकंजे में।

आग ए लोग जब लगा घर में।

आ गए हैं मसीह – पंजे में।

आज हम जिन के घटाये हैं घटे।

बढ़ गई जिन के बढ़ाये बेकसी।

बात यह अब भी बसी जी में कहाँ।

जाति पंजे में उन्हीं के है फँसी।

जो हमारे रत्न ही हैं लूटते।

जो कि हैं ढलका रहे घी का घड़ा।

ठेस जी को लग सकी यह सोच कब।

देस पंजे में उन्हीं के है पड़ा।

है कलेजा नुच रहा बेचैन हूँ।

हो रहे हैं रोंगटे फिर फिर खड़े।

हम निकालें तो निकालें किस तरह।

बेतरह ईसाइयत पंजे गड़े।

शेर जैसे क्यों न ईसाई बनें।

हिन्दियों से मेमने क्या हैं कहीं।

पा सदी यह बीसवीं इस हिन्द में।

पै+लता क्यों ईसवी पंजा नहीं।

डाल कर ईसाइयत के जाल में।

तब भला भौंहें चढ़ाते क्यों न वे।

जी रहा ईसाइयों का जब बढ़ा।

तब भला पंजा बढ़ाते क्यों न वे।

घाव पर हैं घाव गहरे कर रहे।

चुभ रहे हैं वे बहुत बेढब फँसे।

दुख रहे हैं और दुख हैं दे रहे।

बेतरह हैं ईसवी पंजे धाँसे।

हो गये हैं शेर वे, तो हर तरह।

क्यों न देवेंगे हमें बेकार कर।

क्या मसीहाई मसीही करेंगे।

मार देंगे और पंजे मार कर।

ताली

तो भलाई क्या हुई रगड़े बढ़े।

नींव झगड़े की अगर डाली गई।

हाथ के तोते किसी के जब उड़े।

तब बजाई किस लिए ताली गई।

झूठ के सामने झुके सिर क्यों।

फूल से लोग क्यों उसे न सजें।

सच कहें, क्यों न गालियाँ खायें।

तालियाँ क्यों न बार बार बजें।

प्यालियाँ जो हैं बड़े आनन्द की।

डालियाँ वे क्यों कपट छल की बनें।

भर बहुत मैले मनों के मैल से।

तालियाँ क्यों नालियाँ मल की बनें।

हितभरी बात जग-हितु की सुन।

भर गई लोक-भक्ति की थाली।

सज उठी फूल से सजी पगड़ी।

बज उठी धूम धाम से ताली।

धूम से बेढंगपन है चल रहा।

हैं नहीं बेहूदगी आँखें खुली।

तोड़ देने के लिए हित की कमर।

तालियों की तड़तड़ाहट है तुली।

डालियाँ अब वे न फूलों की रहीं।

भर गईं उन की धुनों में गालियाँ।

तूल हैं तलबेलियों को दे रही।

तौल कर बजती नहीं अब तालियाँ।

तब भला वह किस लिए बजती रही।

लोग उसको जब न रस-डाली कहें।

खोल पाई जब न ताला प्यार का।

तब उसे हम किस तरह ताली कहें।

देस को, जाति को समाजों को।

क्यों कलह-फूल से सजाते हैं।

लाग की बेलियों तले बैठे।

लोग क्यों तालियाँ बजाते हैं।

लाग से वे जल रहे हैं तो जलें।

क्यों जला घर सुन रहे हैं गालियाँ।

जी जला कर जाति के सिरताज का।

क्यों जले तन हैं बजाते तालियाँ।

बेतुकेपन, बाँकपन बेहूदपन।

बैलपन को हैं किया करती हवा।

हैं बलायें बावलेपन के लिए।

तालियाँ हैं बेदहलपन की दवा।

चेलियाँ औ सहेलियाँ दोनों।

बोलियों के सकल कला की हैं।

रीझ की और खीझ आँखों की।

तालियाँ पुतलियाँ बला की हैं।

भर उमंगें बना दुगूना दिल।

रख बड़े मान साथ मुँह – लाली।

बेखुली आँख खोल देती है।

बात तौली हुई तुली ताली।

वोट

वोट देते हैं टके की ओट में।

हैं सभाओं में बहुत ही ऐंठते।

वु+छ उठल्लू लोग ऐसे हैं कि जो।

हैं उठाते हाथ उठते बैठते।

वोट देने से उन्हें मतलब रहा।

एतबारों को न क्यों लेवें उठा।

वे उठाते हाथ योंही हैं सदा।

क्यों न उन पर हाथ हम देवें उठा।

वोट देने का निकम्मा ढंग हो।

है उन्हें बेआबरू करता न कम।

हैं उठाते तो उठायें हाथ वे।

क्यों उठा देवें पकड़ कर हाथ हम।

वोट की क्या चोट लगती है नहीं।

क्यों कमीने बन कमाते हैं टका।

नीचपन से जब लदा था बेतरह।

तब उठाये हाथ वै+से उठ सका।

वोट दें पर खोट से बचते रहें।

क्यों करें वह, लिम लगे जिस के किये।

जब कि ऊपर मुँह न उठ सकता रहा।

हाथ ऊपर हैं उठाते किस लिए।

चालाक लोग

जी चुरायें, करें न हित जी से।

जाति को क्यों जवाब दें सूखे।

नाम पाकर नमकहराम न हों।

नाम बेंचें न नाम के भूखे।

जो हितू बन बना बना बातें।

जाति – हित के लिए गये बीछे।

वे करें हित न तो अहित न करें।

हों न बदनाम नाम के पीछे।

वह रसातल क्यों चला जाता नहीं।

देस – हित जिसकी बतोलों में सना।

जो बिगाड़े बात बनती जाति की।

बात रखने के लिए बातें बना।

क्यों थपेड़े उन्हें नहीं लगते।

जो न थे बन बखेड़िये डरते।

जाति – हित के लिए खड़े हो कर।

जो बखेड़े रहे खड़े करते।

जो भली राह है हमें भूली।

तो बुरे पंथ में न पग देवें।

बन लुटेरे न जाति को लूटें।

कर ठगी जाति को न ठग देवें।

कर दिखायें उसे कहें जो हम।

जीभ मुँह में कभी नहीं दो हो।

है बुरी बात ढोंग बहुरंगी।

देस – हित – रंग में रँगी जो हो।

क्यों हमारी कपट – भरी करनी।

जाति – सिर के लिए पसेरी हो।

देस – हित के लिए चले मचले।

चाल भूचाल सी न मेरी हो।

आठ आठ आँ सू

चार जाति

जो अजब जोत था जगा देता।

जाति में जाति के बसेरे में।

देवता जो कि हैं धारातल का।

क्यों पड़ा है वही ऍंधोरे में।

जो वहाँ अपना गिराती थी लहू।

जाति का गिरता पसीना था जहाँ।

अब दिखा पड़ती सपूती वह नहीं।

इन दिनों वह राजपूती है कहाँ।

जो बसा जाति को रही बसती।

देस में बाढ़ बीज जो बोवे।

बेंच कर नाम बेबसों सा बन।

बैस वह बैस किस लिए खोवे।

जिस जगह काँटा मिला बिखरा हुआ।

निज कलेजा थे बिछा देते वहाँ।

जो कि सेवा पर निछावर हो गये।

आज दिन वे जाति – सेवक हैं कहाँ।

काँपता और थरथराता है।

है फिसलता कभी कभी, छिंकता।

तब भला जाति हो खड़ी वै+से।

जब कि है पाँव ही नहीं टिकता।

वु+छ अजब है नहीं, हमें रोटी।

पेट भर आज जो नहीं मिलती।

तब भला किस तरह कमाई हो।

जाति की जाँघ जब कि है हिलती।

खुल सकें तो भला खुलें वै+से।

बेहतरी की रुकी हुई राहें।

जाति को किस तरह निबाहें तब।

जब कि बेकार हो गईं बाँहें।

बात न्यारी बहुत ठिकाने की।

दूर की सोच किस तरह पावे।

किस तरह जाति तब न वू+र बने।

जब कि सिर चूर चूर हो जावे।

क्यों न पड़ जाँय तब रगें ढीली।

क्यों भला सिर न घूम जाता हो।

तब भला जाति – तन पले वै+से।

जब कि मुँह में न अन्न जाता हो।

क्यों न बहँके सब सहे बिगड़े बहुत।

क्यों नहीं सरबस गँवा जीते मरे।

किस तरह से जाति तब सँभले भला।

बात बे-सिर-पैर की जब सिर करे।

चार नाते

चाहिए था सींचना जल बन जिसे।

तेल वह उस के लिए वै+से बने।

तब भला हम क्यों न जायेंगे उजड़।

जब कि जोड़ई ही हमारी जड़ खने।

घरनियाँ हैं सभी सुखों की जड़।

रूठ सुख – सोत वे सुखायें क्यों।

निज कलेजा निकाल देवें जो।

वे कलेजा कभी कँपायें क्यों।

भूल जायें न नेकियाँ सारी।

बाप के सब सलूक को सोचें।

हो गईं रोटियाँ अगर महँगी।

बेटियाँ तो न बोटियाँ नोचें।

वे पहन लें न, या पहन लेवें।

चूड़ियाँ किस तरह मरद पहनें।

नेह – गहने अगर पसंद नहीं।

चौंक पत्थर हमने न तो बहनें।

जो जिलायें उलझ न उलझायें।

और बेअदबियाँ न सिखलायें।

वे मुआ दें हमें जनमते ही।

पर बलाये बनें न मातायें।

दूसरे मोड़ मुँह भले ही लें।

माँ किसी की कभी न मुँह मोड़े।

रंग बदले तमाम दुनिया का।

देवतापन न देवता छोड़े।

जब बदी पर कमर कसे घरनी।

सुख फिरे किस तरह न कतराया।

तब भला वह सँभल सके वै+से।

जब करे देह पर सितम साया।

मुँह सदुख ताक ताक बहनों का।

तो न नाते तमाम क्यों रोवें।

चोर जी में अगर घुसे उन के।

जो सराबोर नेह में होवें।

हित करें जो बेटियाँ हित कर सकें।

नित मचा कर दुंद वे न दुचित करें।

तब भला वै+से ठिकाने चित रहे।

जब हमें चित की पुतलियाँ चित करें।

हमारी देवियाँ

जाति की, वु+ल की, धारम की, लाजकी।

बेतरह ए ले रही हैं फबतियाँ।

हैं लगाती ठोकरें मरजाद को।

देवियाँ हैं याकि ए हैं बीबियाँ।

हम उन्हें तब देवियाँ वै+से कहें।

बेतरह परिवार से जब तन गईं।

बीबिआना ठाट है बतला रहा।

आज दिन वे बीबियाँ हैं बन गईं।

चूस करके सब सलूकों का लहू।

नेह-साँसें चाव से गिनने लगीं।

तब भला न मसान घर वै+से बने।

डायनें जब देवियाँ बनने लगीं।

क्या न है फेर यह समय का ही।

देवियाँ जाँय जो चुड़ैलें बन।

नाम के साथ वे लिखें देवी।

जो रखें नाम को न देवीपन।

सब घरों को दें सरग जैसा बना।

लाल प्यारे देवतों जैसा जनें।

अब रहे ऐसे हमारे दिन कहाँ।

देवियाँ जो देवियाँ सचमुच बनें।

निघरघट

आज दिन तो अनेक ऊँचों की।

रोटियाँ नाम बेंच हैं सिंकती।

क्या कहें बात बेहयाई की।

हैं खुले आम बेटियाँ बिकती।

हैं कहीं बेढंगियाँ ऐसी नहीं।

हैं भला हम से कहाँ पर नीच नर।

लूटते हैं सेंत मेंत हमें सभी।

छूटते हैं खेत बेटी बेंच कर।

किस तरह हम को भला वु+छ सूझता।

क्योंकि हम में आँख की ही है कमी।

काठ के पुतले कहाँ हम से मिले।

बेंचते हैं आँख की पुतली हमीं।

कर मकर मन के मसोसों के बिना।

जो कभी दामाद को हैं मूसते।

वु+ल बड़ाई के लहू से हाथ रँग।

हैं लहू वे बेटियों का चूसते।

आज कितनी ही हमारी चाह पर।

बेटियाँ बहनें सभी हैं खो रही।

क्या भला देंगे निछावर हम उन्हें।

आप ही वे हैं निछावर हो रही।

बेटियाँ बहनें बिकें धान के लिए।

भाव ऐसा क्यों किसी जी में जगे।

जो लगा दे लात वु+ल की लाज को।

लत बुरी ऐसी न दौलत की लगे।

किस लिए तो पले न बेटी से।

जो दवा पाप – भार से तन हो।

मान का मान तब रखे वै+से।

जब कि पामाल माल से मन हो।

बेवायें

जाति का नास बेतरह न करें।

दें बना बेअसर न सेवायें।

जो न बेहद उन्हें दबायें हम।

तो बबायें बनें न बेवायें।

थे उपज पाये दयासागर जहाँ।

अब निरे पत्थर उपजते हैं वहाँ।

है कलेजा तो हमारे पास ही।

पास बेवों के कलेजा है कहाँ।

मर्द चाहें माल चाबा ही करें।

औरतें पीती रहेंगी माँड़ ही।

क्यों न रँड़ुये ब्याह कर लें बीसियों।

पर रहेंगी राँड़ सब दिन राँड़ ही।

खीज बेबस और बेवों पर अबस।

हम गिरा देवें भले ही बिजलियाँ।

पर समझ लेवें किसी की भी सदा।

रह सकीं घी में न पाँचों उँगलियाँ।

हम नहीं आज भी समझ पाये।

जाति की किस तरह करें सेवा।

हो बहुत बंस क्यों न बेवारिस।

जब कि बेवा बनी रहें बेवा।

जाति जिस से चल बसा है चाहती।

आज भी छूटीं वु+चालें वे कहाँ।

क्यों वहाँ होंगे न लाखों दुख खड़े।

लाखहा बेवा बिलखती हों जहाँ।

जब कि बेवों का न बेड़ा पार कर।

बेसुधी की धार में हैं बह चुकी।

आज दिन भी जाग जब सकती नहीं।

जाति जीती जागती तो रह चुकी।

क्यों न दुख पाँव तोड़कर बैठे।

क्यों वहाँ हो न मौत की सेवा।

एक दो क्या, जहाँ बहुत सी हों।

चार या पाँच साल की बेवा।

जब नहीं आबाद बेवायें हुईं।

तब भला हम किस तरह आबाद हों।

क्यों भला बरबाद होवेंगे न हम।

बेटियाँ बहनें अगर बरबाद हों।

किस तरह से जाति बिगड़ेगी न तो।

जब कि बेवायें बिगड़ती ही रहें।

हद हमारी बेहयाई की हुई।

जो कसाला बेटियाँ बहनें सहें।

जाति वै+से भला न डूबेगी।

किस लिए वह न जाय दे खेवा।

जब नहीं सालती कलेजे में।

चार औ पाँच साल की बेवा।

आज बेवा हिन्दुओं की हीन बन।

दूसरों के हाथ में है पड़ रही।

जन रही है आँख का तारा वही।

जो हमारी आँख में है गड़ रही।

लाज जब रख सके न बेवों की।

तब भला किस तरह लजायें वे।

घर बसे किस तरह हमारा तब।

और का घर अगर बसायें वे।

गोद में ईसाइयत इसलाम की।

बेटियाँ बहुयें लिटा कर हम लटे।

आह ! घाटा पर हमें घाटा हुआ।

मान बेवों का घटा कर हम घटे।

जो बहँक बेवा निकलने लग गई।

पड़ गया तो बढ़तियों का काल भी।

आबरू जैसा रतन जाता रहा।

खो गये कितने निराले लाल भी।

देखता हूँ कि जाति डूबेगी।

है जमा नित्ता हो रहा आँसू।

लाखहा बेगुनाह बेवों की।

आँख से है घड़ों बहा आँसू।

रंज बेवों का देखती बेला।

बैठती आँख, टूटती छाती।

जो न रखते कलेजे पर पत्थर।

आँख पथरा अगर नहीं जाती।

नापाकपन

देख वु+ल की देवियाँ कँपने लगीं।

रो उठी मरजाद बेवों के छले।

जो चली गंगा नहाने, क्यों उसे।

पाप – धारा में बहाने हम चले।

रंग बेवों का बिगड़ते देख कर।

किस लिए हैं ढंग से मुँह मोड़ते।

जो सुधार तीरथ बनाती गेह को।

क्यों उसे हैं तीरथों में छोड़ते।

जोग तो वह कर सकेगी ही नहीं।

जिस किसी को भोग ही की ताक हो।

जो हमीं रक्खें न उस का पाकपन।

पाक तीरथ क्यों न तो नापाक हो।

जब कि बेवा हैं गिरी ही, तो उन्हें।

दे न देवें पाप का थैला कभी।

मस्तियों से चूर दिल के मैल से।

तीरथों को कर न दें मैला कभी।

बेटियाँ

हैं तभी से पड़ रहीं जंजाल में।

जिन दिनों वे थीं नहीं पूरी खिली।

धूल में ही दिन ब दिन हैं मिल रही।

फूल की ऐसी हमारी लाड़िली।

हैं सदा बिकती भुगतती दुख बहुत।

धूम हैं उन के उखाड़ पछाड़ की।

हम भले ही लड़खड़ाती जीभ से।

बात कह लें लड़कियों के लाड़ की।

बेटियाँ छिलते कलेजे को कभी।

सामने आ खोल भी सकतीं नहीं।

किस लिए हम फेर दें उन पर छुरी।

जो कि मुँह से बोल भी सकतीं नहीं।

बेटियाँ जो सकीं नहीं चिüा।

बारहा दुख बहुत ऍंगेजे पर।

तो कभी क्यों न हाथ रख देखें।

हम उछलते हुए कलेजे पर।

फूल जैसी के लिए भी काठ बन।

कब सके हम धूल में रस्सी न बट।

आज हम हैं चट उसी को कर रहे।

जो नहीं दिखला सकी जी की कचट।

मांस का वह है न, औ वह पास है।

जिस किसी के, हैं नहीं वे भी सगे।

जो कलेजा है कलप जाता नहीं।

ठेस लड़की के कलेजे में लगे।

खेह होते देख सुन्दर देह को।

नेह – धारें हैं नहीं जिस में बहीं।

जो न पिघला देख कलियाँ सूखती।

वह कलेजा है कलेजा ही नहीं।

बाप ही ढाह जो बिपद देवे।

तो किसे वह पुकारने जाती।

आह! सारी विपत्तिायों में ही।

जो रही बाप बाप चिüाती।

उस बुरी चाह का बुरा होवे।

जो कि दे बोर बेटियाँ क्वारी।

चाहते हम जिसे रहे उस की।

हो गई चूर चाहतें सारी।

मान है, उन में अभी मरजाद है।

बेटियों को मान वै+से लें मिसें।

तो भला वै+से न माँगें मौत वे।

जो जवानी की उमंगें ही पिसें।

लड़कियों को न बेतरह लूटें।

भूल उन का लहू न हम गारें।

वे अगर हाथ का खेलौना हैं।

तो न उन को खेला खेला मारें।

क्यों न यह सोचा गया, हम किसलिए।

सुख सदा बिलसें, सदा वे दुख सहें।

क्यों कराते हम फिरें कायाकलप।

क्यों कलपती बेटियाँ बहनें रहें।

क्यों कलेजा थाम कर रोवें न वे।

बेटियाँ वै+से न तो दुख में सनें।

माँ बने अनजान सब वु+छ जान कर।

आँख होते बाप जो अंधो बनें।

दुख भला किस तरह कहें उस का।

जो पड़ी हो बिपत्तिा – घानी में।

दुख उठा मार मार मन अपना।

जो मरी हो भरी जवानी में।

बेजोड़ ब्याह

बंस में घुन लगा दिया उसने।

औ नई पौधा की कमर तोड़ी।

जाति को है तबाह कर देती।

एक बेजोड़ ब्याह की जोड़ी।

जो कली है खिल रही उसके लिए।

बर पके, सूखे फलों जैसा न हो।

दो दिलों में जाय जिस से गाँठ पड़।

भूल गँठजोड़ कभी ऐसा न हो।

है उसे चाह रँगरलियों की।

हैं इसे उलझनें नहीं थोड़ी।

क्यों न जाती उधोड़बुन में पड़।

एक अल्हड़ अधोड़ की जोड़ी।

आह ! घन देह में लगा देगी।

औ बनायेगी बाघ को गोरू।

आठ दस साल के जमूरे की।

बीस बाईस साल की जोरू।

है समय पर फूलना फलना भला।

बात कोई है न असमय की भली।

अधाखिले सब फूल ही हैं अधाखिले।

हैं सभी कच्ची कली कच्ची कली।

आह ! बचपन से पली जो गोद में।

वह बिना ही आग सब दिन क्योंजले।

जो कि जगने जोग बच्चे के हुई।

बाँधा दें उस को न बच्चे के गले।

पाप को लोग भाँप लेते हैं।

पत रहेगी कभी न पत खोये।

बेटियाँ ब्याह दूधापीते से।

बन सकेंगे न दूधा के धोये।

मिल सकेगा सुख न वह धान धाम से।

दुख न मेटेंगी मुहर की पेटियाँ।

तज सयानप कमसिनों से किस लिए।

ब्याह हम देवें सयानी बेटियाँ।

है बड़ी बात ही बड़ा करती।

चाहिए सूझ बूझ बड़कों को।

हो सयाने करें लड़कपन क्यों।

लड़कियाँ दें कभी न लड़कों को।

लोग बेढंग बेसमझ हम से।

मिल सकेंगे कहीं न ढूँढ़े से।

आप ही हम तबाह होते हैं।

बेटियाँ ब्याह ब्याह बूढ़े से।

बूढ़े का ब्याह

आप जो वे मर रहे हैं तो मरें।

क्यों मुसीबत बेमुँही सिर मढ़ेंगे।

वे चेताये क्यों नहीं हैं चेतते।

जो चिता पर आज कल में चढ़ेंगे।

हो बड़े बूढ़े न गुड़ियों को ठगें।

पाउडर मुँह पर न अपने वे मलें।

ब्याह के रंगीन जामा को पहन।

बेइमानी का पहन जामा न लें।

छोकरी का ब्याह बूढ़े से हुए।

चोट जी में लग गई किसके नहीं।

किस लिए उस पर गड़ाये दाँत वह।

दाँत मुँह में एक भी जिसके नहीं।

जो कलेबा काल का है बन रहा।

वह बने खिलती कली का भौंर क्यों।

मौर सिर पर रख बनी का बन बना।

बेहयाओं का बने सिरमौर क्यों।

छाँह भी तो वह नहीं है काँड़ती।

क्योंकि बन सकता नहीं अब छैल तू।

ढीठ बूढ़े लाद बोझा लाड़ का।

क्यों बना अलबेलियों का बैल तू।

तब भला क्या फेर में छबि के पड़ा।

आँख से जब देख तू पाता नहीं।

तब छछूँदर क्या बना फिरता रहा।

जब छबीली छाँह छू पाता नहीं।

दिन ब दिन है सूखती ही जा रही।

हो गई बेजान बूढ़े की बहू।

जब कि दिल को थाम कर दूल्हा बने।

तब न लेवें चूस दुलहिन का लहू।

चाहतें कितनी बहुत वु+चली गईं।

क्यों न टूटी टाँग बूढ़े टेक की।

एक दुनिया से उठा है चाहता।

और है उठती जवानी एक की।

राज की, साज बाज, सज धाज की।

है न वह दान मान की भूखी।

मूढ़ बूढ़े करें न मनमानी।

है जवानी जवान की भूखी।

निज लटू की देख कर सूरत लटी।

आँख में उस की उतरता है लहू।

आँख बूढ़े की भले ही तर बने।

देख रस की बेलि अलबेली बहू।

कच्चे फल

हो गया ब्याह लग गईं जोंकें।

फूल से गाल पर पड़ी झाईं।

सूखती जा रहीं नसें सब हैं।

भीनने भी मसें नहीं पाईं।

पड़ गया किस लिए खटाई में।

क्यों चढ़ी रूप रंग की बाई।

फिर गई काम की दुहाई क्यों।

मूँछ भी तो अभी नहीं आई।

लथेड़

हैं बहुत बच्चे भटकते फिर रहे।

औरतें भी ठोकरें हैं खा रही।

अब भला परदा रहेगा किस तरह।

जो उठेगा आँख का परदा नहीं।

वे बिचारी फूल जैसी लड़कियाँ।

जो नहीं बलिदान होते भी अड़ीं।

आँखवाले हम तुम्हें वै+से कहें।

जब न आँखें आज तक उन पर पड़ीं।

बेबसी बेबिसात बेवों की।

सामने जब बिसूरती आई।

सिर गया घूम, बन गये बुत हम।

बात मुँह से नहीं निकल पाई।

देख कर नीच हाथ से नुचती।

एक खिलती हुई अबोल कली।

चाहिए तो न खोलना फिर मुँह।

बात मुँह से अगर नहीं निकली।

सोच ले बात, मत सितम पर तुल।

तू उन्हें दे न भीख की झोली।

तब सके बोल और बेटी क्यों।

जब सकी वु+छ न बोल मुँहबोली।

बेटियों को बेंच बेवों को सता।

क्या कलेजे में नहीं चुभती सुई।

नाम अपना हम हँसाते क्यों रहें।

है हँसी थोड़ी नहीं अब तक हुई।

लताड़

क्या किसी खोह में पड़ी पा कर।

लड़कियाँ लोग हैं उठा लाते।

जो बड़े ही कपूत लड़कों से।

हैं तिलक बेधाड़क चढ़ा आते।

हैं न भलमंसियाँ जिन्हें प्यारी।

है जिन्हें रूपचन्द से नाता।

जब न मुट्ठी गरम हुई उन की।

क्यों भला तब तिलक न फिर आता।

नीचपन, नंगपन, निठूरपन का।

है जिन्होंने कि ले लिया ठीका।

न्योत करके बिपद बुलाते हैं।

लोग उनके यहाँ पठा टीका।

लोग इतने गिरे जहाँ के हैं।

कौड़ियों तक सहेज घर भेजा।

पिस गईं लड़कियाँ जहाँ जा कर।

हैं वहाँ भेजना तिलक बेजा।

पास जिन के नहीं कलेजा है।

बेटियाँ बेंच जो अघाते हैं।

वे लगा कर कलंक का टीका।

मोल टीका बहुत लगाते हैं।

क्या सयानी हुई नहीं लड़की।

लाख फटकार ऐसे कच्चे को।

आप वह बन गया निरा बच्चा।

दे तिलक आज एक बच्चे को।

जो भली राह पर चला न सके।

तो बुरी राह भी न बतलाये।

हो तिलक एक नामवर वु+ल के।

क्या तिलक लंठ के यहाँ लाये।

लड़कियाँ बोल जो नहीं सकतीं।

तो बला में उन्हें फँसायें क्यों।

भेज करके बुरी जगह टीका।

हम उन्हें धूल में मिलायें क्यों।

जन्मलाभ

लोकसेवा

हव्यिाँ तो काम देती हैं नहीं।

काम आता है न उस का चाम ही।

वह बना है लोकसेवा के लिए।

साथ देना हाथ का है काम ही।

जो उसे उस का सहारा हो नहीं।

तो सकेगा काम पल भर चल नहीं।

जो न सेवा तेल बल देवे उसे।

तो सकेगा हाथ दीया बल नहीं।

तो पनपता न हित-हवा पा कर।

मिल गये प्यार-जल नहीं पलता।

जो न सेवा सहायता देती।

हाथ-पौधा न फूलता फलता।

तब छबीले हाथ क्या बनते रहे।

जो न सेवा कर छगूनी छवि बनी।

है कलस वह जगमगाती जोत यह।

है चँदोवा हाथ सेवा चाँदनी।

एक बरसात है अगर प्यारी।

दूसरा तो हरा भरा बन है।

जड़ हुए हाथ के लिए जग में।

लोक – सेवा जड़ी सजीवन है।

जो जड़ाऊ ताज बतलावें उसे।

तो कहें कलँगी इसे न्यारी बड़ी।

हाथ शमले के सजाने के लिए।

लोकसेवा मोतियों की है लड़ी।

राज-सुख तो न दे सवें+गे सुख।

लोक-हित में रमा नहीं जो मन।

धान्य जो हों न हाथ सेवा कर।

क्या बने तो धानी कमा कर धान।

छोड़ कर भाव देवतापन का।

दैंतपन किस लिए न दिखलाता।

साथ है जब न लोक – सेवा बल।

हाथ – बल तब न क्यों बला लाता।

हाथ को अपने जलाते क्या रहे।

कर भली करतूत दिखलाई न जो।

तो लगाते छाप क्या थे दूसरे।

लोक – सेवा – छाप लग पाई न जो।

धान कमायें तो करें उपकार भी।

यह अगर है काल तो वह लाल है।

धान तजें पर लोक – सेवा तज न दें।

हाथ का यह मैल है वह माल है।

लोक – सेवा ललक रहे करता।

काल जाये न काल का भी बन।

दे कमल क्यों न छोड़ कमला को।

हाथ कोमल तजे न कोमलपन।

दूसरे तोर मोर क्यों न करें।

क्यों नहीं हाथ तुम अलग रहते।

क्यों नहीं पैर प्यार – धारा में।

लोक – सेवा तरंग में बहते।

जब लगे तब हाथ परहित में लगे।

है जनमता जीव जग – हित के लिए।

लोक क्या, परलोक भी बन जायगा।

जी लगा कर लोक की सेवा किये।

हिल गया उन के हिलाने से जगत।

देख कर दुख दूसरों का जो हिले।

ले बलायें लोग सारे लोक के।

जाँयगे बल लोक -सेवा -बल मिले।

है भला धान लगे भलाई में।

हो भले काम पर निछावर तन।

लोभ यश लाभ का हमें होवे।

लोक – हित – लालसा लुभा ले मन।

जतिसेवा

काम मुँह देख देख कर न करे।

मुँह किसी और का कभी न तके।

जातिसेवा करे अथक बन कर।

न थके आप औ न हाथ थके।

हो भला, वह हो भलाई से भरा।

भाव जो जी में जगाने से जगे।

जातिहित, जनहित, जगतहित में उमग।

जी लगायें जो लगाने से लगे।

कौन ऐसा भला कलेवा है।

वह भली है अमोल मेवा से।

फेर में पड़ न जाय जन कोई।

फिर न जी जाये जाति – सेवा से।

नाम सेवा का न वे लें भूल कर।

देख दुख जिन के न दिल हों हिलगये।

बोझ उन पर रख बनें अंधो नहीं।

बेतरह कंधो अगर हों छिल गये।

जाति – हित में ललक लगें वै+से।

ले लुभा जब कि लाभ सा मेवा।

जब कि आराम में रमा मन है।

हो सकेगी न लोक की सेवा।

नींव है वह बेहतरी – दीवार की।

है सहज सुख – हार की सुन्दर लड़ी।

है जगत को जीत लेने की कला।

जाति – सेवा जाति-हित की है जड़ी।

जो रहेगा जाति – हित पौधा हरा।

तो हरा मुख रख, सकेंगे रह भले।

हम सवें+गे हर तरह से फूल फल।

देस – सेवा – बेलि के फूले फले।

गेह की क्या, देह की सुधा भी गँवा।

भूल जाना, जो पड़े मरना मरें।

खा सकें या खा सकें मेवा नहीं।

लोग सेवा के लिए सेवा करें।

पारस परस

धार्म

जोत फूटी गया ऍंधोरा टल।

हो गई सूझ सूझ पाया धान।

दूर जन-आँख-मल हुआ जिस से।

धार्म है वह बड़ा बिमल अंजन।

रह सका पी जिसे जगत का रस।

रस – भरा वह अमोल प्याला है।

जल रहे जीव पा जिसे न जले।

धार्म – जल – सोत वह निराला है।

है सकल जीव को सुखी करता।

रस समय पर बरस बहुत न्यारा।

है भली नीति – चाँदनी जिस की।

धार्म है चाँद वह बड़ा प्यारा।

छाँह प्यारी सुहावने पत्तो।

डहडही डालियाँ तना औंधा।

हैं भले फूल फल भरे जिस में।

धार्म है वह हरा भरा पौधा।

तो न बनता सुहावना सोना।

औ बड़े काम का न कहलाता।

जीव – लोहा न लौहपन तजता।

धार्म – पारस न जो परस पाता।

ज्ञान – जल का सुहावना बादल।

प्रेम – रस का लुभावना प्याला।

है भले भाव – फूल का पौधा।

धार्म है भक्ति – बेलि का थाला।

जो कि निर्जीव को सजीव करें।

वह उन्हीं बूटियों – भरा बन है।

धार्म है जन समाज का जीवन।

जाति – हित के लिए सजीवन है।

धार्म पाला कलह कमल का है।

रंज मल के निमित्ता है जल कल।

है पवन बेग बैर बादल का।

लाग की आग के लिए है जल।

धार्म की धा क

है चमकता चाँद, सूरज राजता।

जोत प्यारी है सितारों में भरी।

है बिलसती लोक में उस की कला।

है धुरे पर धार्म के धारती धारी।

धार्म – बल से जगमगाती जोत है।

है धारा दल फूल फल से सोहती।

जल बरस, बादल बनाते हैं सुखी।

है हवा बहती महँकती मोहती।

छाँह दे फूल से फबीले बन।

फल खिला है उदर भरा करता।

धार्म के रंग में रँगा पौधा।

रह हरा चित्ता है हरा करता।

क्यों घहरते न पर – हितों से भर।

हैं उन्हें धार्म – भाव बल देते।

चोटियाँ चूम चूम पेड़ों की।

मेघ हैं घूम घूम जल देते।

धार्म – जादू न जो चला होता।

तो न जल – सोत वह बहा पाता।

किस तरह तो पसीजता पत्थर।

क्यों पिघल दिल पहाड़ का जाता।

लोक – हित में न जो लगे होते।

किस तरह ताल पोखरे भरते।

धार्म की झार जो न रस रखती।

तो न झरने सदा झरा करते।

है लगातार रात दिन आते।

भूलता है समय नहीं वादा।

धार्म – मर्याद से थमा जग है।

है न तजता समुद्र मर्यादा।

जो न मिलती चमक दमक उस की।

तो चमकता न एक भी तारा।

धार्म की जोत के सहारे ही।

जगमगा है रहा जगत सारा।

धार्म की धु न

है पनपने फूट को देता नहीं।

धार्म आपस में करा कर संगतें।

है बढ़ाता पाठ बढ़ती के पढ़ा।

है चढ़ाता एकता की रंगतें।

धार्म है काम का बना देता।

काहिली दूर काहिलों की कर।

खोल आँखें अकोर वालों की।

वू+र की काढ़ काढ़ कोर कसर।

धार्म की चाल ही निराली है।

वह चलन को सुधार है लेता।

है चलाता भली भली चालें।

वह वु+चल है वु+चाल को देता।

काढ़ता धार्म उस कसर को है।

धयान जो नाम का नहीं रखती।

काम उस का तमाम करता है।

जो ‘कमी’ काम का नहीं रखती।

धार्म ने उस के कसाले सब हरे।

हैं सुखों के पड़ गये लाले जिसे।

है वही पिसने नहीं देता उन्हें।

पीसते हैं पीसने वाले जिसे।

जो दोहाई न धार्म की फिरती।

तो बिपत पर बिपत बदी ढाती।

काट तो काटती कलेजों को।

चाट तो चाट और को जाती।

धार्म की देखभाल में होते।

है बहँक बेतरह न बहँकाती।

है बुराई नहीं बुरा करती।

पालिसी पीसने नहीं पाती।

धार्म के चलते सितम होता नहीं।

जाति कोई है नहीं जाती जटी।

धूल झोंकी आँख में जाती नहीं।

धूल में जाती नहीं रस्सी बटी।

धार्म का बल

रंग अनदेखनपन नहीं लाया।

अनभलों को न सुधा रही तन की।

धार्म की आन बान के आगे।

बन बनाये सकी न अनबन की।

बद लतों की बदल बदल रंगत।

धार्म बद को सुधार लेता है।

दूर करता ठसक ठसक की है।

ऐंठ का कान ऐंठ देता है।

धूल में रस्सी न बट धाकें सकीं।

देख करके धार्म की आँखें कड़ी।

कर न अंधाधुंधा पाई धाँधाली।

दे नहीं धोखा सकी धोखाधाड़ी।

कर धामाचौकड़ी न धूत सके।

भूत के पूत चौंक कर भागे।

कर सका ऊधामी नहीं ऊधाम।

धार्म की धूम धाम के आगे।

देख कर धार्म धार पकड़ होती।

है न बेपीरपन बिपत ढाता।

साँसतें साँस हैं न ले सकतीं।

औ सितम कर सितम नहीं पाता।

धार्म उस बान को बदलता है।

है सगी जो कि बदनसीबी की।

जाति-सर की बला बनी जो है।

वह कसर है निकालता जी की।

धार्म की धाौल है उसे लगती।

चाल जो देस को करे नटखट।

भूल जो डाल दे भुलावों में।

चूक जो जाति को करे चौपट।

है बनाता बुरी गतें उन की।

जो तरंगें न जाति – मुख देखें।

धार्म नीचा उन्हें दिखाता है।

जो उमंगें न देस – दुख देखें।

धार्म है उन को रसातल भेजता।

जिन बखेड़ों से न जन होवे सुखी।

जो बनावट जाति-दिल देवे दुखा।

जो दिखावट देस को कर दे दुखी।

चोट करता धार्म है उस चूक पर।

काट दे जो देस – ममता – मूल को।

लोग जिस से जाति को हैं भूलते।

है मिलाता धूल में उस भूल को।

धार्म है बीज प्यार का बोता।

बात बिगड़ी हुई बनाता है।

जो नहीं मानता मनाने से।

मिन्नतें कर उन्हें मनाता है।

जो नहीं हेल मेल कर रहते।

वह उन्हें हित बना हिलाता है।

मैल कर दूर मैल वालों का।

धार्म मैलान ही मिलाता है।

ठोकरें खा जो कि मुँह के बल गिरे।

है उन्हें उस ने समय पर बल दिया।

धार्म ने ही भर रगों में बिजलियाँ।

कायरों का दूर कायरपन किया।

धार्म का कमाल

धार्म ऊँचे न जो चढ़ा पाता।

तो न ऊँचे किसी तरह चढ़ती।

जो बढ़ाता न धार्म बढ़ कर के।

तो बढ़ी जाति किस तरह बढ़ती।

क्यों बहुत देस में न हो बसती।

क्यों न हो रंग रंग की जनता।

धार्म निज रंगतें दिखा न्यारी।

है उसे एक रंग में रँगता।

है उभर कर न देस जो उभरा।

धार्म ही ने उसे उभारा है।

हार कर भी कभी नहीं हारा।

वह गिरी जाति का सहारा है।

मर रही जाति के जिलाने को।

धार्म है सैकड़ों जतन करता।

है वही जान डालता तन में।

है रगों में वही लहू भरता।

है जहाँ दुख दरिद्र का पटपर।

धार्म सुख – सोत वाँ लसाता है।

बेजड़ों की जमा जमा कर जड़।

देस उजड़ा हुआ बसाता है।

जाति जो हो गई कई टुकड़े।

धार्म हिल मिल उसे मिलाता है।

जोड़ता है अलग हुई कड़ियाँ।

वह जड़ी जीवनी पिलाता है।

खोल आँखें, हिला डुला बहला।

कर सजग काम में लगाता है।

धार्म कर सब जुगुत जगाने की।

सो गई जाति को जगाता है।

धार्म का बल मिल गये सारी बला।

जो भगाने से नहीं है भागती।

तो जगाये भाग जागेगा नहीं।

लाख होवे जाति जीती जागती।

धार्म की करामात

जब भलाई मिली नहीं उस में।

किस तरह घर भली तरह चलता।

क्यों ऍंधोरा वहाँ न छा जाता।

धार्म – दीया जहाँ नहीं बलता।

जो कि पुतले बुराइयों के हैं।

क्यों न उन में भलाइयाँ भरता।

देवतापन जिन्हें नहीं छूता।

है उन्हें धार्म देवता करता।

जो रहे छीलते पराया दिल।

क्यों न वे छल – भरे छली होंगे।

जायगा बल बला न बन वै+से।

धार्म – बल से न जो बली होंगे।

है बड़ा ही अमोल वह सौदा।

मतलबों – हाथ जो न पाया बिक।

मूल है धार्म प्यार – पौधो का।

है महल – मेल – जोल का मालिक।

है ऍंधोरा जहाँ पसरता वाँ।

धार्म की जोत का सहारा है।

डर – भरी रात की ऍंधोरी में।

वह चमकता हुआ सितारा है।

धूत – पन – भूत भूतपन भूला।

बच बचाये सकी न बेबाकी।

धार्म के एक दो लगे चाँटे।

भागती है चुड़ैल – चालाकी।

धार्म – जल पाकर अगर पलता नहीं।

तो न सुख – पौधा पनपता दीखता।

बेलि हित की पै+लती फबती नहीं।

फूलती फलती नहीं बढ़ती लता।

है जिसे धार्म की गई लग लौ।

हो न उस की सकी सुरुचि फीकी।

है नहीं डाह डाहती उस को।

है जलाती नहीं जलन जी की।

धार्म देता उसे सहारा है।

जो सहारा कहीं न पाता है।

टूटता जी न टूट सकता है।

दिल गया बैठ वह उठाता है।

बाँधा – तदबीर बाँधा देने से।

कब न भरपूर भर गये रीते।

ब्योंत कर धार्म के बनाने से।

बन गये लाखहा गये बीते।

धार्म के सच्चे धुरे के सामने।

दाल जग – जंजाल की गलती नहीं।

भूलती है नटखटों की नटखटी।

हैकड़ों की हैकड़ी चलती नहीं।

धार्म उस का रंग देता है बदल।

जाति जो दुख – दलदलों में है फँसी।

बेकसों की बेकसी को चूर कर।

दूर करके बेबसों की बेबसी।

खल नहीं सकता उन्हें खलपन दिखा।

छल नहीं सकता उन्हें कोई छली।

खलबली उन में कभी पड़ती नहीं।

धार्म – बल जिन को बनाता है बली।

किस लिए अंधी न हित-आँखें बनें।

धार्म का दीया गया बाला नहीं।

क्यों न वाँ ऍंधोरा – ऍंधिायाला घिरे।

है जहाँ पर धार्म – उँजियाला नहीं।

पाप से पेचपाच पचड़ों से।

प्यार के साथ पाक रखती है।

धाक है और धाक से न रही।

धार्म की धाक धाक रखती है।

परिशिष्ट

जी की कचट
छतुका

किसी के कभी यों बुरे दिन न आये।

किसी ने कभी दुख न ऐसे उठाये।

भला इस तरह हाथ किस ने बँधाये।

किसी ने कभी यों न आँसू बहाये।

हमारी तरह बात किस ने बिगाड़ी।

उलहती हुई बेलि किस ने उखाड़ी।

हमारे लिए आन की बात वै+सी।

किसी की हुई आँख नीची न ऐसी।

हमारी गई है बिगड़ चाल जैसी।

किसी की कभी चाल बिगड़ी न वैसी।

किसी के न यों उलझनें पास आईं।

किसी ने बुरी ठोकरें यों न खाईं।

किसी ने हमारी तरह है न खोया।

किसी ने नहीं नाम हम सा डुबोया।

किसी ने नहीं इस तरह हाथ धोया।

भला कौन यों मूँद कर आँख सोया।

किसी की गई पीठ कब यों लगाई।

भला यों गई धूल किस की उड़ाई।

कभी यों न पतले हुए दिन किसी के।

कभी यों हुए रंग किसी के न फीके।

किसी ने किये काम कब यों हँसी के।

कभी इस तरह हम बुरे थे न जी के।

किसी ने कभी है न इतना ऍंगेजा।

भला थाम किस ने लिया यों कलेजा।

गिरे जिस तरह हम गिरेगा न कोई।

कभी इस तरह पत किसी ने न खोई।

किसी की न मरजाद यों फूट रोई।

किसी ने कभी यों न लुटिया डुबोई।

हमारी तरह धाक किस ने गँवाई।

किसी ने न यों आग घर में लगाई।

हमें हैं बहुत डाह के ढंग भाते।

हमीें फूट को हैं गले से लगाते।

हमीं बैर को आँख पर हैं बिठाते।

हमीं हैं घरों बीच काँटे बिछाते।

हमीं ने सगों का लहू तक बहाया।

हमीं ने बहँक जाति बेड़ा डुबाया।

हमारी रगों में भरी है बुराई।

खुटाई सभी बात में है समाई।

हमें भूल सी अब गई है भलाई।

हमें देख कर है कलपती सचाई।

हमीं हाथ हैं बेढबों का बटाते।

हमीं बेतरह हैं अड़ंगे लगाते।

दिखावट हमें है बहुत ही लुभाती।

बनावट बिना नींद ही है न आती।

हमें ऐंठ की रंगतें हैं रिझाती।

ठसक की सभी बात ही है सुहाती।

बढ़ा आज बेढंग पन है हमारा।

सगों से हमीं कर रहे हैं किनारा।

न जाने हुईं क्या उमंगें हमारी।

उभरतीं नहीं आज चाहें उभारी।

बहुत ही जँची काम की बात सारी।

उतरती नहीं हैं गले से उतारी।

गई गाँठ कायरपने से बँधाई।

पड़ी बाँट में है हमारे कचाई।

नहीं हम किसी के सँभाले सँभलते।

नहीं हम बुरे ढंग अपने बदलते।

पकड़ ठीक राहें हमीं हैं न चलते।

बुरी लीक पर से हमीं हैं न टलते।

समय ओर आँखें हमीं हैं न देते।

सबेरा हुआ करवटें हैं न लेते।

निकम्मापन

नहीं चाहते जो कभी काम करना।

नहीं चाहते जो कि जौ भर उभरना।

नहीं चाहते जो कमर कस उतरना।

कठिन हैं कहीं पाँव जिन का ठहरना।

करेंगे न तिल भर बहुत जो बकेंगे।

भला कौन सा काम वे कर सकेंगे।

जिन्हें भूल अपनी गई बात सारी।

भली सीख लगती जिन्हें है न प्यारी।

जिन्होंने नहीं चाल अपनी सुधारी।

जिन्होंने नहीं आँख अब तक उघारी।

भला क्यों न वे सब गँवा सब सहेंगे।

इसी तौर से वे बिगड़ते रहेंगे।

सच्चे काम करनेवाले

दुखों की गरज क्यों न धारती हिलावे।

लगातार कितने कलेजे कँपावे।

बिपद पर बिपद क्यों न आँखें दिखावे।

बिगड़ काल ही सामने क्यों न आवे।

कभी सूरमे हैं न जीवट गँवाते।

बलायें उड़ाते हैं चुटकी बजाते।

रुकावट उन्हें है नहीं रोक पाती।

उन्हें उलझनें हैं नहीं धर दबाती।

न पेचीदगी ही उन्हें है गढ़ाती।

न कठिनाइयाँ हैं उन्हें वु+छ जनाती।

बिचलते नहीं हैं कभी आनवाले।

उन्होंने मसल कब न डाले कसाले।

पड़े भीड़ जौहर उन्होंने दिखाये।

खुले वे कसौटी वु+दिन पर कसाये।

निखरते मिले वे बिपद आँच पाये।

बने ठीक वु+न्दन गये जब तपाये।

सभी आँख में जो सके फूल से फब।

मिले वे न काँटे दुखों में खिले कब।

न समझा कठिन पाँव बन में जमाना।

कभी वु+छ बड़े पर्वतों को न माना।

हँसी खेल जाना समुन्दर थहाना।

पड़े काम आकाश पाताल छाना।

कठिन से कठिन काम भी जो सकेकर।

उन्होंने मुहिम कौन सी की नहीं सर।

उन्हें काठ उकठे हुए का फलाना।

उन्हें दूब का पत्थरों पर जमाना।

उन्हें गंग धारा उलट कर बहाना।

उन्हें ऊसरों बीच बीये उगाना।

बहुत ही सहल काम सा है जनाता।

भला साहसी क्या नहीं कर दिखाता।

अड़ंगे लगाना न वु+छ काम आया।

वही गिर गया पाँव जिस ने अड़ाया।

दिया डाल बल झंझटों को बढ़ाया।

न तब भी उन्हें बैरियों ने डिगाया।

जिन्हें काम कर डालने की लगी धुन।

सदा ही सके फूल काँटों में वे चुन।

जिन्होंने न औसान अपना गँवाया।

जिन्होंने कभी जी न छोटा बनाया।

हिचकना जिन्हें भूल कर भी न भाया।

जिन्होंने छिड़ा काम कर ही दिखाया।

न माना उन्होंने बखेड़ों को टोना।

न जाना कि कहते किसे हैं ‘न होना’।

चले चाल गहरी नहीं वे बिचलते।

नहीं वे कतर ब्योंत से हैं दहलते।

किये लाख चतुराइयाँ हैं न टलते।

फँसे फन्द में हाथ वे हैं न मलते।

उन्हें तंगियाँ है नहीं तान पातीं।

न लाचार लाचारियाँ हैं बनातीं।

पिछड़ना उन्हें है न पीछे हटाता।

फिसलना उन्हें है न नीचे गिराता।

बिचलना उन्हें है सँभलना सिखाता।

गया दाँव है और हिम्मत बँधाता।

उलझ गुत्थियाँ हैं उमंगें बढ़ाती।

धाड़ेबंदियाँ हैं धाड़क खोल जाती।

बढ़ा जी रखा काम का ढंग जाना।

बखेड़ों दुखों उलझनों को न माना।

जिन्होंने हवा देख कर पाल ताना।

जिन्हें आ गया बात बिगड़ी बनाना।

उन्होंने बड़े काम कर ही दिखाये।

भला कब तरैया न वे तोड़ लाये।

ढाढ़स

सभी दिन कभी एक से हैं न होते।

बहे हैं यहाँ साथ सुख दुख के सोते।

हँसे जो कभी थे वही ऊब रोते।

मिले मंगते मोतियों को पिरोते।

अभी आज जो राज को था चलाता।

वही कल पड़ा धूल में है दिखाता।

कभी फेर से है दिनों के न चारा।

सदा ही न चमका किसी का सितारा।

बिपद से न कोई सका कर किनारा।

कहाँ पर नहीं पाँव दुख ने पसारा।

हुई बेबसी दूर होनी टली कब।

भला भाग से है किसी की चली कब।

न हो जो कि बिगड़ा बना कौन ऐसा।

गिरा जो न होवे उठा कौन ऐसा।

न हो जो कि उतरा चढ़ा कौन ऐसा।

घटा जो न होवे बढ़ा कौन ऐसा।

सदा एक सा है किसी का न जाता।

यहाँ का यही ढंग ही है दिखाता।

चमकते दिनों बाद रातें ऍंधेरी।

घिरे बादलों बीच डूबी उँजेरी।

पड़ी कीच में फूलवाली चँगेरी।

दहकती हुई आग की राख ढेरी।

हमें है यही बात सब दिन बताती।

सदा ही घड़ी एक सी है न आती।

भला फिर कुदिन के लिए हम कहें क्या।

बुरी गत बिपत के लिए हम कहें क्या।

दरद औ दुखों के लिए हम कहें क्या।

गये छिन सुखों के लिए हम कहें क्या।

हमें है यही एक ही बात कहना।

भला है न मन मार कर बैठ रहना।

कभी अब नहीं दिन हमारे फिरेंगे।

न सँभलेंगे अब हम दिनों दिन गिरेंगे।

सदा पास बादल दुखों के घिरेंगे।

कभी अब न सागर बिपद का तिरेंगे।

सकेगा चमक अब न डूबा सितारा।

उबर अब सकेगा न बेड़ा हमारा।

समझ सोच यों सोच में डूब जाना।

गिरा हाथ और पाँव जीवट गँवाना।

न जी से उमगना न हिम्मत दिखाना।

अपाहिज बने काम से जी चुराना।

बुरा है, खनेंगे यही जड़ हमारी।

बिगड़ जायगी बन गई बात सारी।

अगर चाँद खो सब कला फिर पलेगा।

अगर बीज मिल धूल में बढ़ चलेगा।

अगर काटने बाद केला फलेगा।

अगर बुझ गये पर दिया फिर बलेगा।

भला तो न क्यों दिन फिरेंगे हमारे।

दमकते मिले जब कि डूबे सितारे।

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आपके ‘चोखे चौपदे’ का रस चखकर हमने रोना-हँसना सीखा, ‘चुभते चौपदे’ हमारे अन्तरतम में चुभकर हमें जागरूक बना लाए और तब अपनी राष्ट्रभाषा की ओर हमारी आँखें लगीं…आपके चौपदों के चोंचले, कलाम के करिश्मे, भावों की जिंदादिली, कल्पना की रंगीेनी, छन्दों की लहरी, शब्दों की मीनाकारी, हिन्दी-संसार में निराली ही नहीं, अनूठा भी है।…दरिद्र नारायण की सेवा का व्रत लेकर आज आप कवि सम्राट ही नहीं, हृदय सम्राट भी हैं।

– राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘ हरिऔध ‘

जन्म- 15 अप्रैल, सन् 1865 ई., विद्वान और राजसम्मान से सम्मानित परिवार में, निजामाबाद, आजमगढ़, उत्तार प्रदेश।

शिक्षा- 1879 ई. में मिडिल की परीक्षा पास की। फिर काशी के क्वींस कॉलेज में अध्ययन। 1887 ई. में नार्मल की परीक्षा और1889 ई. में कानूनगो की परीक्षा पास की।

आजीविका- पढ़ाई के साथ ही 1884 ई. में निजामाबाद के मिडिल स्कूल में अध्यापन-कार्य शुरू। 1890 ई. में कानूनगो होने के बाद ही वहाँ से मुक्त। 1923 ई. से सरकारी कार्य से अवकाश।

साहित्यिक जीवन का आरम्भ- 1899 ई. में ‘रसिक रहस्य’ नामक पहले काव्य का प्रकाशन खड्गविलास, प्रेस, पटना से।

प्रमुख कृतियाँ- काव्य: काव्योपवन, प्रियप्रवास, बोलचाल, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, रसकलस, वैदेही वनवास, पारिजात, कल्पता,मर्मस्पर्श, पवित्रा पर्व, दिव्य दोहावली, हरिऔध सतसई। गद्य : रुक्मिणी परिणय (नाटक), ठेठ हिन्दी का ठाट (उपन्यास), अधखिला फूल (उपन्यास), हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास, विभूतिमती ब्रजभाषा, संदर्भ सर्वस्व (आलोचना), कबीर वचनावली (सम्पादन)।

सम्मान- मार्च 1924 ई. से 1941 ई. तक हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक। 1922 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति। 1934 ई. में दिल्ली में होनेवाले हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन के सभापति। 12 सितम्बर1937 ई. को नागरी प्रचारिणी सभा, आरा की ओर से राजेन्द्र बाबू के करकमलाें द्वारा अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट। 1938 ई. में’प्रियप्रवास’ पर मंगला प्रसाद पुरस्कार।

निधन- होली, 1947 ई.।

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