व्यंग – सिद्धांतों की व्यर्थता (लेखक – हरिशंकर परसाई)
अब वे धमकी देने लगे हैं कि हम सिद्धांत और कार्यक्रम की राजनीति करेंगे। वे सभी जिनसे कहा जाता है कि सिद्धांत और कार्यक्रम बताओ। ज्योति बसु पूछते थे, नंबूदरीपाद पूछते थे। मगर वे बताते नहीं थे। हम लोगों को सिद्धांतों के बारे में पिछले चालीस सालों से सुनते-सुनते इतनी एलर्जी हो गई कि हमें उसमें दाल में काला नजर आता है। जब कोई नया मुख्यमंत्री कहता है कि मैं स्वच्छ प्रशासन दूँगा तब हमें घबराहट होती है। भगवान, अब क्या होगा? ये तो स्वच्छ प्रशासन देने पर तुले हैं। स्वच्छ प्रशासन के मारे हम लोगों की किस्मत में कब तक स्वच्छ प्रशासन लिखा रहेगा।
हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। कई सदियों से हमारे देश के आदमी की प्रवृत्ति बनाई गई है अपने को आदर्शवादी घोषित करने की, त्यागी घोषित करने की। पैसा जोड़ना त्याग की घोषणा के साथ शुरु होता है। स्वाधीनता संग्राम के सालों में गाँधीजी के प्रभाव से आदर्शवादिता और त्याग राजनीतिकर्ता को शोभा देने लगे थे। वे वर्ष त्याग के थे भी। मगर सत्ता की राजनीति एक ठोस व्यवहारिक चीज है। विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ निकले लोगों और पहले से बाहर लोगों ने ‘जनमोर्चा’ बनाया था। ये लोग आदर्शवाद के मूड के थे। विश्वनाथ प्रताप को आदर्शवाद का नशा आ गया था। मोर्चे के नेता की हैसियत से उन्होंने घोषणा की कि मोर्चे का कोई सदस्य पाँच साल तक कोई पद नहीं लेगा। सब त्यागी हो गए। हमें तब लगा कि आगे चुनाव के बाद अगर ये जीत गए तो पद लेने के लिए इन्हें मनाना पड़ेगा। हाथ जोड़ना पड़ेगा कि आप मुख्यमंत्री बन जाइए और वह कहेगा हटो – मैं पदलोलुप नहीं हूँ। मैं नहीं बनूँगा मुख्यमंत्री। तब मंत्रिमंडल कैसे बनेंगे?
कोई मंत्री बनने को तैयार नहीं होगा। देश शासकविहीन होने की स्थिति में आ जाएगा। तब हमें इन नेताओं के दरवाजों पर सत्याग्रह करना पड़ेगा, आमरण अनशन करना पड़ेगा कि आप मंत्री नहीं होंगे, तो हम प्राण दे देंगे। तब कहीं ये पद ग्रहण को तैयार होंगे।
मगर अभी जो आपसी कशमकश चल रही है वह पदों के लिए है। समाजवादी दल बनना तय है तो उसमें त्यागी लोग अपनी सीट तय कर लेना चाहते है। सबसे बड़ी लड़ाई सबसे ऊँचे पद प्रधानमंत्री के लिए है। देवीलाल ने घोषणा कर दी और एन.टी. रामाराव ने समर्थन कर दिया कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री होंगे। इस पर चंद्रशेखर और बहुगुणा को एतराज है। दोनों विश्वनाथ को अपना नेता नहीं मानते। एन.टी. रामाराव का कोई सिद्धांत नहीं है। रूपक सजाना कोई सिद्धांत नहीं। चावल सस्ता तीन रुपए किलो कर देंगे, अगर वोट हमें दिए – यह कोई सिद्धांत नहीं है। इस चावल सिद्धांत, वेश, चैतन्य रथ और नाटकबाजी से बने मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव कोई सिद्धांत मान भी नहीं सकते। देवीलाल का भी कोई सिद्धांत नहीं है। चंद्रशेखर कभी कांग्रेस में युवा तुर्क थे। वे समाजवादी थे। अब क्या हो गए हैं? बहुगुणा की छवि वामपंथी की रही है। पिछले सालों से वे न जाने क्या हैं। पदलिप्सा को त्यागने की घोषणा करनेवालों का हाल यह है कि पदों के लिए पार्टियाँ टूट रही हैं। मगर बहुगुणा और चंद्रशेखर को नेता नहीं मानते, तो विश्वनाथ ने भी इनसे कुछ जवाब माँगे और समाजवादी दल में शामिल होने के लिए शर्ते रखीं। अब सिद्धांत की जरूरत ही क्या? मगर घोषणाएँ हो रही हैं कि गड़बड़ की तो हम सिद्धांत की राजनीति करने लगेंगे।
कृपया हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे यूट्यूब चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
कृपया हमारे ट्विटर पेज से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
(आवश्यक सूचना – “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान की इस वेबसाइट में प्रकाशित सभी जानकारियों का उद्देश्य, लुप्त होते हुए दुर्लभ ज्ञान के विभिन्न पहलुओं का जनकल्याण हेतु अधिक से अधिक आम जनमानस में प्रचार व प्रसार करना मात्र है ! अतः “स्वयं बनें गोपाल” संस्थान अपने सभी पाठकों से निवेदन करता है कि इस वेबसाइट में प्रकाशित किसी भी यौगिक, आयुर्वेदिक, एक्यूप्रेशर तथा अन्य किसी भी प्रकार के उपायों व जानकारियों को किसी भी प्रकार से प्रयोग में लाने से पहले किसी योग्य चिकित्सक, योगाचार्य, एक्यूप्रेशर एक्सपर्ट तथा अन्य सम्बन्धित विषयों के एक्सपर्ट्स से परामर्श अवश्य ले लें क्योंकि हर मानव की शारीरिक सरंचना व परिस्थितियां अलग - अलग हो सकतीं हैं)