लेख – सूक्तियाँ – (लेखक – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172सूक्तियों से मेरा अभिप्राय वैचित्रयपूर्ण उक्तियों से है जिनमें वाक्चातुर्य ही प्रधान होता है। कोई बात यदि नए अनूठे ढंग से कही जाय तो उससे लोगों का बहुत कुछ मनोरंजन हो जाता है, इससे कवि लोग वाग्वैदग्ध्‍य से प्राय: काम लिया करते हैं। नीतिसंबंध पद्यों में चमत्कार की योजना अकसर देखने में आती है। जैसे, बिहारी के ‘कनक कनक ते सौ गुनी’ वाले दोहे में अथवा रहीम के इस प्रकार के दोहों में –

(क) बड़े पेट के भरन में, है रहीम दुख बाढ़ि।

 

यातें हाथी हहरि कै, दिए दाँत द्वै काढ़ि॥

 

(ख) ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कुपूत गति सोइ।

 

बाकरे उजियारो लगै, बढ़े अँधेरो होइ॥

 

ऐसे कथनों में आकर्षित करनेवाली वस्तु होती है वर्णन के ढंग का चमत्कार। इस प्रकार का चमत्कार चित्त को आकर्षित करता है पर उसी रूप में जिस रूप में कोई तमाशा आकर्षित करता है। इस प्रकार के आकर्षण में ही काव्यत्व नहीं है। मन को इस प्रकार से ऊपर ही ऊपर आकर्षित करना, केवल कुतूहल उत्पन्न करना,

 

1. ‘उठि जाइ न छूआ’ के स्थान पर यदि ‘उठि होइ गा धूआ’ पाठ होता तो और भी अच्छा होता।

 

काव्य का लक्ष्य नहीं है। उसका लक्ष्य है मन को भिन्न-भिन्न भावों में (केवल आश्चर्य में ही नहीं, जैसा चमत्कारवादी कहा करते हैं) लीन करना। कुछ वैलक्षण्य द्वारा आकर्षण साधन हो सकता है, साध्‍य नहीं। जो लोग कथन की चतुराई या अनूठेपन को ही काव्य समझा करते हैं उन्हें अग्निपुराण के वचन पर ध्यान देना चाहिए –

 

वाग्वैदग्ध्‍यप्रधा नेऽपि रस एवात्र जीवितम्।

 

भावव्यंजना, वस्तुवर्णन और तथ्यप्रकाश सबके अंतर्गत चमत्कारपूर्ण कथन हो सकता है। ऊपर जो दोहे दिए गए हैं वे तथ्यप्रकाश के उदाहरण हैं। भावव्यंजना के अंतर्गत जायसी की चमत्कारयोजना के कुछ उदाहरण आ चुके हैं, जैसे –

 

यह तन जारौं छार कै, कहौ कि ‘पवन! उड़ाव’।

 

मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव॥

 

वस्तुचित्रण के बीच भी जायसी में उक्तिवैचित्रय स्थान-स्थान पर है, जैसे –

 

चकई बिछुरि पुकारै, कहाँ मिलौं, हो नाह।

 

एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माँह॥

 

भावव्यंजना, वस्तुवर्णन और तथ्यप्रकाश तीनों में यह बात है कि यदि चमत्कार के साथ ही किसी भाव की अनुभूति में उपयोगी सामग्री भी है तब उक्ति प्रकृत काव्य कही जा सकती है नहीं तो काव्याभास होगी। जायसी के दोनों दोहों को ले कर देखते हैं तो प्रथम में जो चमत्कार है वह अभिलाषा के उत्कर्ष की व्यंजना में सहायक है और द्वितीय में जो चमत्कार है वह आलंबन के सौंदर्य की अनुभूति में।

 

यहाँ पर चमत्कारपद्धति और रसपद्धति में जो भेद है उसे स्पष्ट करने का थोड़ा प्रयत्न करना चाहिए। किसी वस्तु के वर्णन या किसी तथ्य के कथन में बुद्धि को दौड़ा कर यदि ऐसी वस्तु या प्रसंग की योजना की जाय जिसकी ओर प्रस्तुत वस्तु या प्रसंग के संबंध में श्रोता का ध्यान पहले कभी न गया हो और इस कारण बिलकुल नया या विलक्षण लगे तो एक प्रकार का कुतूहल उत्पन्न होगा। यही कुतूहल उत्पन्न करना चमत्कार का उद्देश्य है। रससंचार के निमित्त जो कथन किया जाता है उसमें भी कभी -कभी साधारण से कुछ और ढंग पकड़ना पड़ता है (क्या ढंग पकड़ना पड़ता है, इस पर और कभी विचार किया जायगा) पर उसमें यह उद्देश्य मुख्य नहीं होता कि जिस वस्तु या प्रसंग की योजना की जाय वह श्रोता को नया, विलक्षण या झूठा लगे बल्कि अपने मर्मस्पर्शी स्वरूप के कारण भाव की गहरी व्यंजना करे या श्रोता के हृदय में वासनारूप में स्थित किसी भाव को जाग्रत करे। इस प्रकार विचार करने से कवि की उक्ति तीन प्रकार की हो सकती है – (1) जिसमें केवल चमत्कार या वैलक्षण्य हो; (2) जिसमें केवल रस या भावुकता हो; (3) जिसमें रस और चमत्कार दोनों हों।

 

इनमें से प्रकृत काव्य हम केवल पिछली दो उक्तियों में ही मान सकते हैं, प्रथम में केवल काव्याभास मानेंगे। यहाँ पर हमें प्रयोजन प्रथम और द्वितीय प्रकार की उक्ति से है। ऊपर बिहारी और रहीम के जिन दोहों का उल्लेख हुआ है वे जनसमाज से स्वीकृत साधारण तथ्यों को एक अनूठे ढंग से सामने रखते हैं। अब यह देखिए कि इनमें काव्य का प्रकृत स्वरूप किसमें है, किसमें नहीं। किसी तथ्य का कथन जब काव्यपद्धति द्वारा किया जाता है तब उसकी सत्यता का निश्चय करना विवक्षित नहीं रहता, बल्कि उस तथ्य के प्रति किसी स्वाभाविक भाव के अनुभव को तीव्र करना – जैसे, ‘कनक कनक तें सौगुनी’ वाले दोहे में कवि धन के बुरे प्रभाव के कारण उसके प्रति श्रोता की तिरस्कार बुद्धि जाग्रत करना चाहता है, इसलिए धतूरे का उल्लेख करता है। इसी प्रकार ‘बड़े पेट के भरन में’ वाले दोहे में असंतोषजन्य दीनता के प्रति जो जुगुप्सा विवक्षित है वह हाथी ऐसे बड़े जानवर का दाँत निकलना देख कर उत्पन्न हो सकती है। इन दोनों उक्तियों की तह में कुछ भाव निहित हैं अत: हम इन्हें चमत्कार प्रधान काव्य कह सकते हैं। इस प्रकार का काव्य रसप्रधान काव्य की कोटि तक तो नहीं पहुँच सकता पर काव्य कहला सकता है।

 

जिसमें भाव का पता देनेवाला अथवा भाव जाग्रत करनेवाला कोई शब्द या वाक्य अथवा प्रस्तुत प्रसंग के प्रति किसी प्रकार का भाव उत्पन्न कराने में समर्थ अप्रस्तुत वस्तु या व्यापार न हो, केवल दूर की सूझ या शब्दसाम्यमूलक विलक्षणता हो वह उक्ति काव्याभास होगी। जैसे, मिस्सी लगे काले दाँत को देख कर यह कहना कि ‘मनो खेलत है लरिका हबसी के’, दूर की सूझ या अनूठापन चाहे सूचित करे पर सौंदर्य का भाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। दूर की सूझ दिखाने के लिए लोगों ने ‘भानु मनो सनि अंक लिए’ तक कह डाला है पर उनकी यह सूझ वास्तव में दूर की नहीं है – उन पोथियों तक की है जिनमें ग्रहों का रंग लिखा रहता है। ऐसी भद्दी उक्तियाँ भी सूक्ति कहलाती हैं। सूक्ति कहलाएँ, पर इनका उत्तम काव्य कहा जाना तो रोकना चाहिए।

 

तथ्यवर्णन में अब रहीम का ‘ज्यों रहीम गति दीप की’ वाला दूसरा दोहा लीजिए। इसमें कही हुई बात यह है कि कुपुत्र जब तक बच्चा रहता है तभी तक अच्छा लगता है, जब बढ़ता है तब दु:खदायी हो जाता है। ‘बारे’ और ‘बाढ़े’ शब्दों के श्लेष के आधार पर ही कवि ने दीपक का उल्लेख क्या है। पर इस दीपक के व्यापार की योजना कुपुत्र के प्रति विरक्ति आदि के अनुभव में कुछ जोर नहीं पहुँचाती। अत: इन दोहों में कोरा चमत्कार ही कहा जा सकता है। इसी चमत्कार के कारण हम इस उक्ति को कोरा तथ्यकथन न कह कर काव्याभास कहेंगे। काव्य का बाहरी रूपरंग इसमें पूरा है, पर प्राण नहीं है। रहीम के कुछ ही दोहे ऐसे मिलेंगे। उनके दोहे भावुकता से भरे हुए हैं। पर नीति के अधिकांश दोहे (जैसे वृंद के) काव्याभास ही के अंतर्गत आ सकते हैं।

 

यहाँ पर सूक्ति के अंतर्गत हम जायसी के उन्हीं कथनों को लेते हैं जिनमें किसी तथ्य का प्रकाश है। इन कथनों के संबंध में हम यह कह सकते हैं कि इनमें अधिकतर चमत्कार के साथ भावुकता भी है। जैसे बुढ़ापे पर ये उक्तियाँ लीजिए –

 

मुहमद बिरिध जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोइ।

 

जीवन रतन हेरान है, मकु धरती पर होइ॥

 

बिरिध जो सीख डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस॥

 

बूढ़ी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस॥

 

यहाँ यौवनावस्था के प्रति मनुष्य का जो स्वाभाविक राग होता है उसकी व्यंजना चमत्कार की अपेक्षा प्रधान है।

 

मिट्टी पर यह उक्ति देखिए –

 

माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल।

 

दिस्टि जो माटी सौं करै, माटी होइ अमोल॥

 

यों तो मिट्टी का कुछ भी मूल्य नहीं कहा जाता पर इसी मिट्टी अर्थात् मनुष्य – शरीर का बहुत कुछ मूल्य है। मिट्टी पर भी यदि दृष्टि करे अर्थात् तुच्छ से तुच्छ का भी तिरस्कार न करे तो मिट्टी (शरीर) अमूल्य हो जाय। इसमें विनय या दैन्य का भाव प्रकट होता है।

 

”जेहिपर जेहि कर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलत न कछु संदेहू’ इस बात को प्रत्यक्ष करने के लिए जायसी ने बहुत दूर की दो वस्तुओं का एकत्र होना दिखाया है –

 

बसै मीन जल धरती, अंबा बसै अकास।

 

जो पिरीत पै दुवौ महँ, अंत होहिं एक पास॥

 

इस कथन में जायसी केवल प्रमाण द्वारा निश्चय करते हुए जान पड़ते हैं, यद्यपि प्रमाण तर्क की कोटि का नहीं है। यदि प्रमाण तर्क की कोटि का होता तो हम इस उक्ति को साधारण तथ्यकथन कहते, पर उसका न्यास काव्य की रीति पर है अत: इस उक्ति को हम काव्याभास कहेंगे।

 

कौवे सबेरा होने पर क्यों काँव-काँव कर के चिल्लाते हैं? जायसी कहते हैं कि वे यह देख कर चिल्लाते हैं कि रात्रि की इतनी फैली हुई कालिमा तो छूट गई, वे ही ऐसे अभागे हैं जिनकी कालिमा ज्यों की त्यों बनी है –

 

भोर होइ जौ लागै, उठहिं रोर कै काग।

 

मसि छूटै सब रैनि कै, कागहिं केर अभाग॥

 

इस उक्ति में भी जो कुछ है वह वैलक्षण्य ही है, यद्यपि कालिमा या बुराई की ओर अरुचि की भी झलक है।

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