निबंध – स्वर्गीय महात्मा गोखले (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)

download (3)अत्‍यंत शोक और हृदय-वेदना के साथ हम अपने पाठकों को महात्‍मा गोखले के देहांत का समाचार सुनाते हैं। हमारे राष्‍ट्रीय विकास के इतिहास में 19 फरवरी 1915 का दिन एक अशुभ दिन समझा जायेगा। उस दिन हमारे देशोद्यान का यह पुष्‍प झर गया। पुष्‍प भी कैसा, जो पुष्‍पों का पुष्‍प और कलियों का सिरताज था। और ऐसे अवसर पर, जब उसके विकास की शुभ आभा दिग्दिगन्‍त में व्‍याप रही थी। मृत्‍यु ऐसी वस्‍तु नहीं, जिस पर आश्‍चर्य किया जाये। साथ ही हमारे पुष्‍प पर गर्म लू के आक्रमण भी हो चले थे। हृदयों में चिंता घर करती जा रही थी, परन्तु किसी को स्‍वप्‍न में भी यह खयाल न था कि भयंकर घड़ी इतनी जल्‍दी आ पड़ेगी।

अथाह है वह शोक जो मातृभूमि के इस सपूत के वियोग के कारण आज हृदयों में ज्‍वार-भाटा बन रहा है। देश के झोपड़ों से लेकर राजमहलों तक सभी से एक ठंडी आह निकली है, और सहानुभूति का स्त्रोत बह उठा है। सम्‍वेदना और सहानुभूति बिछुड़ी हुई महात्‍मा की दो कुमारी कन्‍याओं या उनके मृत भाई के परिवार के साथ नहीं, और न भारत सेवक समिति के साथ ही, जो उनकी कर्मण्‍यता और त्‍याग-युक्‍त मातृ-वंदना का सबसे बड़ा और उनका सबसे प्‍यारा फल है, किन्तु सम्‍वेदना और सहानुभू‍ति अपने ही और एक दूसरे के साथ ही, क्‍योंकि गोखले ने अपने शरीर और अपनी आत्‍मा, अपने सर्वस्‍व को मातृभूमि और उसकी संतानों के लिये, उसके पवित्र चरणों पर अर्पण कर दिया था। अपनी आभा और सुगन्ध के बल से दूर-दूर के भ्रमरों से भी अपना आकर्षण मनवा लेने वाला पुष्‍प देवी के पवित्र चरणों में पकड़कर पवित्रता की उस सिद्धि को प्राप्‍त कर चुका था, जो देवताओं के बाँटे में नहीं पड़ी है, जिस पर किसी भेद-विभेद की छाप नहीं लगी है, जिसके लेने के लिए सब कुछ दे देना पड़ता है, और जो मनुष्‍य को परमात्‍मा और उसकी सच्‍ची विभूति का ज्ञान देती है। एक संन्‍यासी या ऋषि नहीं, क्‍योंकि इन शब्‍दों पर पुरातत्त्‍व ने अपनी छाप लगा दी है और यह छाप नवीन स्थिति, नये प्रश्‍नों के उलझाव और संसार की नयी गति को अपने पास फटकने नहीं देती, परन्तु एक पूरा कर्मवरी! कर्मवरी एकदेशीय शब्‍द नहीं है। संकीर्ण बंधनों से विमुक्‍त गोखले-ऐसे महात्‍माओं ही को वह शोभा दे सकता है।

यह बिल्‍कुल दूसरी बात है कि किसी विषय में किसी का गोखले से मतभेद हो, और यह भी एक दूसरी बात है कि उनके जीवन पर दृष्टि डालता हुआ कोई किसी विचार-दृष्टि से कोई त्रुटि पावे, परन्तु सहयोगी ‘मराठा’ के शब्‍दों में ‘संसार के किस मनुष्‍य में त्रुटि नहीं है, और साथ ही, इस विचार को सामने रखते हुए, कि मनुष्‍य पूर्ण नहीं है, क्‍या कोई भी मनुष्‍य उनकी महत्‍ता, उनके जबर्दस्‍त आत्‍मत्‍याग, उनकी अगाध देशभक्ति उनकी बड़ी सहनशीलता, उनकी दृढ़ता, उनके आशापूर्ण, मानसिक बल, उनकी प्रतिभा और देश और देशवासियों के लिए उनका निरंतर परिश्रम, यहाँ तक कि अपने प्राणों की जोखिम तक पर आदि उनके सद्गुणों से इंकार कर सकता है? उनके जीवन के पग-पग पर हमें आत्‍मत्‍याग की आभा दीख पड़ती है। युवक गोखले, यदि चाहते तो देश के प्रतिभाशाली युवकों की भाँति वकील बनते। उनके कदमों के नीचे रुपया बिछता। पर अठारह वर्ष के बी.ए. पास गोखले के हृदय में मातृभूमि की सेवा के भाव की जबर्दस्‍त लहर जोर मार रही थी, और इसीलिए, हम देखते हैं कि वे पूना के फर्गुसन कालेज में केवल सत्तर रुपये पर बीस वर्ष तक प्रोफेसरी करने का कठिन व्रत धारण करते हैं। सर्विस कमीशन में उन्‍हें 15000 रुपये साल की रकम मिलती, परन्तु कॉन्सिल की मेम्‍बरी छोड़ने पर, इसलिए उन्‍होंने उसके लेने से इंकार कर दिया। दरिद्रता में जन्‍म लिया, और अंत तक दरिद्रता ही में कटी।

देशभक्ति और देशभक्ति में भी अंतर होता है। बातों की देशभक्ति नहीं और मतलब की भी नहीं, गोखले की दृष्टि में देशभक्ति का वही दरजा था, जो एक धार्मिक पुरुष की दृष्टि में धर्म का होता है। उनकी देशभक्ति आध्‍यात्मिकता पूर्ण थी और उनकी आध्‍यात्मिकता देशभक्ति-पूर्ण। एक दूसरे से अलग नहीं। दोनों आदमी को ऊपर उठाने वाली, दोनों आत्‍मा को उच्‍च बनाने वाली। इसी भाव के संयम से उनमें आश्‍चर्यजनक धीरता और दृढ़ता का प्रादुर्भाव हुआ। बार-बार विफल होने पर भी वे हताश नहीं होते थे। ”आने वाली संतानें अपनी सफलता द्वारा देश की सेवा करेंगी। हम लोगों को अपनी सफलताओं के द्वारा ही उसकी सेवा करके संतुष्‍ट होना चाहिए।” इन शब्‍दों को वह बहुधा कहा करते थे और जीवन-क्षेत्र में बार-बार ठोकरें खाने पर भी जो मनुष्‍य अपने को साधे रख सके, वही इन शब्‍दों को अपने मुँह से निकाल सकता है। उनकी गजब की धीरता ने आँधी-पानी के दिनों में भी उन्‍हें अटल बनाए रखा। दृढ़ता के कारण उनके विपक्षी उनकी धीतर का अनुचित लाभ न उठा सकते थे। उनके शील और सहनशीलता ने उन्‍हें कभी पत्‍थर का जवाब पत्‍थर से नहीं देने दिया। बड़ों का आदर करना वे धर्म समझते थे। योग्‍यता में अद्वितीय थे। अपनी स्‍वाभाविक प्रतिभा के क्रमबद्ध विकास के लिए उन्‍होंने बहुत परिश्रम किया था। देशभर के प्रश्‍न उनकी उँगलियों पर थे। केवल 48 वर्ष ही जीवित रहे, परन्तु इसी अल्‍पकाल में उन्‍होंने अपने चरित्र-बल तथा अद्भुत योग्‍यता के सहारे जितना कार्य किया, उतना काम उससे दुगुने काल में भी किसी वर्तमान भारतीय ने नहीं किया। भारत सेवक समिति का निर्माण उनके नाम और काम को अमर रखेगा और दक्षिण अफ्रीका का संग्राम उनकी राजनीतिज्ञता का विजय चिन्‍ह स्‍वरूप बनकर भारतीयों को कर्मण्‍यता का पवित्र सन्देश सुनाता रहेगा। उनकी योग्‍यता का लोहा लार्ड कर्जन, लार्ड किचनर, सर गाई फ्लीट, डड विलसन आदि सरकारी अधिकारी तक खूब मानते थे। इसमें संदेह नहीं कि यदि वे इंग्लैण्ड या किसी स्‍वतंत्र-सभ्‍य देश में हाते तो उस देश के मंत्रिमंडल के रत्‍न हो चुके होते। इस गिरे हुए देश में भी, जहाँ प्रतिभा के विकास के लिए रास्‍ता नहीं हैं, उन्‍होंने वह स्‍थान प्राप्‍त कर लिया था जो किसी स्‍थान से नीचा नहीं है।

देश की एक बड़ी आत्‍मा अंतर्धान हो गयी। सूर्य के तेज का मूल्‍य उस समय तक कुछ नहीं, जब तक सूर्य हमारे सिर पर है, पर हम स्‍वार्थी आदमी उस समय सूर्य के लिए हाथ पसारते हैं, जब वह अपने हाथ समेट कर अस्‍त हो जाता है। हमारी आँखें उसका मूल्‍य समझने लगती हैं। देश के सूर्य का मूल्‍य उसके समय में कम जाना गया, वह जाना जायेगा। दृष्टि फेंकी जायेगी। देशभर में भारतीय राष्‍ट्रीयता की देवी का पुजारी ढूँढ़ा जाएगा, ढूँढ़ा जायेगा ऐसा पुजारी जिस पर हिन्दू और मुसलमान दोनों तरह के उपासकों का विश्‍वास हो और जिसने अपना सर्वस्‍व, सब भेदभाव भुलाकर, देवी के चरणों पर चढ़ा दिया हो। समय की उँगली वर्षों इधर-उधर घूमती फिरेगी, और उसे अपनी इच्छित वस्‍तु न मिलेगी। तलाश होगी ऐसे महापुरुष की, जो शासक और शासित दोनों पर प्रभाव रखता हो। लोग मिलेंगे, परन्तु चट्टान की नोक पर उनके पैर डगमगाते दखी पड़ेंगे। उनमें कमी होगी या तो उस माध्‍यमिकता की जिसके बिना शासक वर्ग को अपनी इच्‍छा के अनुकूल घुमा लेना असम्‍भव है या फिर उस दृढ़ता की जिसके बल से बंभीरी के बिल में पड़कर जीवन बंभीरी न बन जाये। आवश्‍यकता होगी ऐसे सर की जिसमें देश की यथार्थ अवस्‍था का ज्ञान भरा हो, और जिसकी अध्‍यक्षता और जिसकी निगरानी किसी ओर गोलमाल न होने दे। तलाश में हमारे नेत्र घूमेंगे, वर्षों घूमेंगे, गोखले को खोजेंगे, और गोखले का-सा खोजेंगे, परन्तु माता के दुर्भाग्‍य से और उसी की संतति के दुर्भाग्‍य से, व्‍यर्थ और व्‍यर्थ।

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