नाटक – श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते – अध्याय 5 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)चतुर्थांक

( स्थान-राजभवन। भगवान श्रीकृष्ण सिंहासन पर विराजमान)

( एक ब्राह्मण का प्रवेश)

ब्रा.- (आप ही आप) मेरा मन द्वारिका के बाह्योपगत भवनों की छटा देखकर इतना चमत्कृत हुआ था, कि अपने को बिल्कुल भूल गया था। किन्तु इस काल महात्मा श्रीकृष्ण के लोकललाम गृहों को देखकर इसकी जैसी दशा है, वह इस अवस्था से भी विलक्षण् है। मेरी ऑंखों ने बडे-बड़े रम्य मन्दिरों को देखा है, किन्तु इस मन्दिर और अवलोकित मन्दिरों की शोभा में, बैकुण्ठ और एक साधारण गृह का सा अन्तर है। आहा! कनकनिर्मित भीतों में जो मणियाँ जटित हैं, वह सुमेरप्रान्तस्थित भगवान दिवाकर से क्या कम दृष्टिरंजक हैं। स्वच्छता देखिए तो दर्पण क्या है, सरितसरों का निर्मल जल क्या है। ग्रीष्मऋतु की चटकीली धूप शरदर्तु की विमल चाँदनी क्या प्रकाश सम्मुख स्थान ग्रहण कर सकती है, कदापि नहीं। (सामने देखकर) वह मकरध्वज मानमर्दक महात्मा श्रीकृष्ण सिंहासन पर विराजमान हैं। आहा! क्या मेरी ऑंखों ने कभी ऐसा सुन्दर स्वरूप देखा है? क्या कानों ने कभी ऐसे लोकमोहन मूर्ति का वर्णन सुना है? इस काल तो मुझको जगतपिता धाता के आठ, देवसैन्धनायक श्यामकार्तिक के द्वादस, भगवान भूतनाथ के पंचदस, और सचीप्राणबल्लभ देवराज के सह्स्त्र नेत्रों पर ईष्या हो रही है। किन्तु बृथा, क्योंकि महात्मा ब्रह्मादि की कौन कहे, क्या देवराज इन्द्र जिसके सह्स्त्र ऑंखें हैं, प्यारे श्रीकृष्ण की छवि अवलोकन कर सन्तुष्ट होता होगा? उसकी दर्शनेच्छा तो हम लोगों से भी अधिक बलवती होती होगी। नृपकुलतिलक राजराजे पृथु सह्स्त्र श्रवणों से भगवत सुयश श्रवण करते थे, पर क्या सन्तुष्ट होते थे? महात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करके आज मेरे नेत्र ही सफल नहीं हुए, मेरा रोम-रोम पवित्र हो गया, क्योंकि मैं इस काल उस पुरुष का दर्शन कर रहा हूँ, जो अनादि नित्य, निर्विकार, और जन्म-जरादि रहित है। जिसने स्वभक्तजन रक्षणार्थ निजेच्छावश यह पंचतत्तवात्मक शरीर धारण किया है। आज ऐसा कौन तप, यज्ञ, दान है जिसको मैंने नहीं किया, ऐसा कौन व्रत उपासना ज्ञान है जिसका फल मैंने नहीं पाया। पंचानन लोमस सनकादि को भी यह आनन्द कभी न प्राप्त हुआ होगा, जो आनन्द इस क्षण मुझको प्राप्त है।(आनन्द में मग्न होकर खड़ा रह जाता है, भगवान ब्राह्मण को आते देख , सिंहासन से उतर प्रणाम करते हैं, और ले जाकर उसी पर बिठाते हैं।)

श्रीकृ.- (पादप्रच्छालनादि उपरान्त) द्विजदेव! यद्यपि आपका इस लघुगृह को पावन करके मुझे कृतार्थ करना स्वाभाविक धर्म है, क्योंकि रविचन्द अथवा पयोद की भाँति महज्जनों की यह नैसर्गिक प्रकृति है कि वह बिना इच्छा प्रगट किए संसार का उपकार करके उसको कृतकृत्य करते हैं, तथापि मैं पूछने का साहस करता हूँ कि किसी कार्य विशेष से तो आपने अपने इस कमल जैसे कोमल चरणों को कष्ट नहीं दिया है?

ब्रा.- (चकित सा होकर स्वगत) अहा! भगवान श्री और उनके नवनीत से कोमल, पीयूष से मधुर, इक्षु समान रका पूरित बचनों का श्रवण कर, और उनकी महज्जन, अंगीकृत नम्रता और दैन्य अवलोकन कर मेरे हृदय का कैसा भाव हो रहा है, मैं द्वार पर द्वारपालों से न रोके जाने ही को उक्त महात्मा की ब्राह्मणों पर बड़ी अनुकम्पा समझता था, पर इस सन्मान और सप्रेम आलाप सन्मुख सच तो यह है कि वह एक साधारण बात थी। उत्तमजनों की कैसी उदारनीति है जब उनको गौरव प्राप्त होता है, वह फलित वृक्ष अथवा जलपूरित मेघ की भाँति कैसी नम्रता धारण कर लेते हैं। सत्य है, महत्व पाकर वर्षाकाल के छुद्र नदों की भाँति अति शीघ्र उमड़ चलना नीच मनुष्यों का ही कर्म है ( प्रगट) दीनबन्धु! यद्यपि मेरे आने का कारण आप पर अप्रगट नहीं, तथापि मैं उसको कहता हूँ आप श्रवण करें।

श्रीकृ.- आप कहैं मैं सुनता हूँ।

ब्रा.- भुवनविख्यात कुण्डलपुराधीश जिनका सुयश दिनमणि के प्रकाश सदृश अखिल संसार में व्याप्त है-

श्रीकृ.- मैं समझ गया, आप महाराज भीष्मक का नाम लेंगे।

ब्रा.- एक दिन उन्होंने निजभुवनमोहिनी तनया श्रीरुक्मिणी के लिए योग्य वर विचार की कामना से सभा की।

श्रीकृ.- (स्वगत) यह महाशय राजतनया रुक्मिणी को भुवनमोहिनी उपमा से उपमानित करते हैं। पर वास्तव में वह भुवनोद्वेगिनी है, क्योंकि मैंने जिस दिवस से भगवान नारद के मुख से उसकी उपमा सुनी है, उस दिवस से ऐसा उद्विग्न हो रहा हूँ, जैसा रुरुशर्मा मुनिकन्या को देखकर हुआ था, (प्रगट) तब क्या हुआ?

ब्रा.- उस काल अनेक सभासदों ने बहुत से राजकुमारों का कुलगुणरूपादि वर्णन किया, किन्तु महाराज भीष्मक ने किसी को स्वीकार न किया। किन्तु जिस काल कनिष्ठ राजकुमार रुक्मकेश ने आपका नाम लिया, महाराज भीष्मक को उस समय बिना आपका लोकमोहनस्वरूप देखे केवल नाम श्रवण से ऐसा आनन्द हुआ, जैसा ग्रीष्मऋतु में सुशीतल पवन और वसन्तऋतु में पुष्पसौरभ से दर्शनाभाव में होता है और उन्होंने कुमारी रुक्मिणी के योग्य आप ही को निश्चित किया।

श्रीकृ.- फिर क्या हुआ?

ब्रा.- राजकुमार रुक्मा को यह बात अच्छी न लगी और उन्होंने राजाज्ञा को न मान महाराणी रुक्मिणी का हरिऔध शिशुपाल के साथ जोड़ा, अब वह बड़ी धुमधाम से रुक्मिणी का पाणिग्रहण करने के लिए कुण्डलपुर आ रहा है।

श्रीकृ.- फिर आप यहाँ क्यों आये?

ब्रा.- राजनन्दिनी रुक्मिणी का मनमधुप इस घटना के पहले ही आपके पादारविन्द के रजोग्रहण के लिए लुब्ध है। अतएव उन्हांने प्रतिज्ञा की है कि यदि मैं महात्मा श्रीकृष्ण के पादपद्म की रजग्राहिणी न हो सकूँगी, तो अवश्य शरीर त्याग दूँगी। और अपने इस अकृत्रिम प्रेम के प्रभाव से जन्मान्तर में भगवान की दासी होकर अपने को कृतार्थ करूँगी। अतएव आप को भी इस विषय से अवगत कराना युक्तिसंगत था, राजतनया ने मुझको कृपासिन्धु का दर्शन कराया है और यह निवेदनपत्र दिया है। (देता है)

श्रीकृ.- (लेकर स्वगत) अहा !यह प्राणप्यारी के ह्र्त्प्रेम का प्रकाशक इस समय मुझॆ कैसा हर्षप्रद है।इसका स्पर्श करके शरीर पनसफल , हृदय कैसा प्रफुल्ल है। जैसे कंगाल को पारस मिले पीछे बिना सुवर्ण बनाए चैन नहीं आता, क्षुधित को जैसे भोजन आगे आने पर बिना खाए शान्ति नहीं होती, उसी प्रकार यद्यपि यह पत्र मेरे हाथ में है तथापि मन को पठन करने के लिए कैसी उद्विग्नता हो रही है। (पत्र को खोलकर पढ़ते हैं, प्रगट)

छन्द

सिध्दि अमित श्रीसहित प्रानजीवन धन प्यारे।

करुनाखान कृपाल सकल जिय जाननवारे।

समन अखिल सन्ताप दीनदुखभंजन स्वामी।

रखहु लाज मम धाइ अहो गरुडासनगामी।

गज पुकार जिमि मुनी सुत्यों मेरी सु धि लीजै।

जिमि दमयन्तिहिं रखी व्याधाते तिमि रखि लीजै।

धारा कांहिं जिमि कनकनयन कर ते छुटकायो।

लंकनाथ ते राखि सिया जिमि जग जस छायो।

जच्छ फन्द ते रच्छि गोपिका दुख जिमि टारयो।

राखि बृकासुर ते गिरीसजा दुख जिमि दारयो।

तिमि रखिकै सिसुपाल हाथ ते मम पति आई।

लीजिय नाथ उबारि करन लगि पग सेवकाई।

जलविहीन जिमि मीन वायु बिन जिमि तनधारी।

तिमि कृपाल पद छुटे होयगी दसा हमारी।

जदपि न मैं प्रभु जोग तदपि इक बिनय सुनीजै।

किये बिसाखा संग चन्द को नहिं कछु छीजै।

जिमि कुबजा को मान राखि तेहि जनम सुधा रे।

तिमि राखहु मम मान अहो दुखियन रखवारे।

रहे ब्याह मैं तीन दिवस अब श्रीगिरधारी।

एकलब्य लौं राखि लेहु मम प्रन बनवारी।

टरैं चन्द अरु सूर टरै जग नियम अपारा।

ध्रुव हु क्यों न टरि जाय टरै किन कनक पहारा।

पै न टरैगो नाथ प्रेमपन कौनेहु भाँती।

नसे आस प्रभु प्रान होंहिंगे चरन सँघाती।

करब सोई हरिऔध आस पुजवै जी ही की।

अधिक कहाँ लगि लिखौं आप सब जानत जी की।

ब्रा.- अहा! श्रीराजनन्दिनी का आपके चरणकमलों में कैसा अविरल प्रेम है। आर्द्रवस्त्र से जल की भाँति इस गान के प्रतिपदों से आपका अनुराग टपका पड़ताहै।

श्रीकृ.- द्विजराज! इस पत्र के पठन से मेरे हृदय में अलौकिक प्रेम की प्रतिमूर्ति सी खिंच गयी है। प्राण प्यारी के सच्चे प्रेम के प्राबल्य से चन्द्र सन्मुखस्थ चन्द्रकान्तिमणि समान मन द्रवता जाता है। क्या वास्तव में मेरे लिए श्रीरुक्मिणी की यह दशा है। द्विजवर! सच कहना।

ब्रा.- (करुणा से)

रेखता

पूछैं न नाथ मुझसे दु:ख राजनन्दिनी का।

त्यागैं न पान तन की लखि रूप बन्दिनी का।

पारा समान गति है दिन रैन तासु ही का।

रन में चढ़े सुभट लौं टुक लोभ है न जी का।

मृग के वियोग भय ते जो हाल हो मृगी का।

चकवा संजोग के हित गति रैन जो खगी का।

घन रूप हेरित बेहित जिमि आस मोरिनी का।

ताहू ते बेस प्रभु हित है हाल रुकमिनी का।

तरिवर लों मौन साधे सहती हैं सब किसी का।

अरजुन की भाँति कवल तकती हैं लक्ष्य पी का।

सब लोक लाज तजिकै हरिऔध आप ही का।

करती हैं ध्यान निसदिन जिमि रोहिनी ससी का।

श्रीकृ.- द्विजदेव! प्राणप्यारी रुक्मिणी जिसका यह प्रण है (टरैं चन्द्र, इत्यादि पढ़ते हैं) और जिसकी मेरे लिए इतनी उत्कण्ठा है (मृग के वियोग, इत्यादि पढ़ते हैं) क्या मेरे बिरह दु:ख से दुखी होकर अपने प्राण को त्याग सकती है। हाय!! क्या मेरे जीते प्रियतमा की यह दशा हो सकती है!!! कदापि नहीं। चन्द्रमा के प्रकाशित रहते कुमुदिनी कब मलीन हुई है? अगाध जलशाली अकूपार का भगवती भागीरथी को कब वियोग हुआ है ?

ब्रा.- सत्य है! किन्तु जहाँ तक हो सके इस कार्य के लिए शीघ्र यत्नवान होना चाहिए, क्योंकि कृषि सूख जाने पर वर्षा निष्फल होती है, बृक के बालक उठा ले जाने पर ग्रामवालों का उद्योग व्यर्थ होता है।

श्रीकृ.- द्विजपुंगव! आप आकुल न हों, यदि भवदीय प्रसाद होगा, तो जैसे उद्योगी पुरुष दुष्ट जन्तुओं से रक्षित रहकर समुद्र के हृदय में से रत्नराशि संग्रह करता है, और वीर पुरुष करिकुम्भ विदीर्ण करके मुक्ता ग्रहण करता है। उसी प्रकार रुक्म व शिशुपाल प्रभृति का हृच्छेदन करके मैं आपकी राजकन्यका को प्राप्त करूँगा। अन्यथा कदापि न होगा।

ब्रा.- (हाथ उठाकर) ईश्वर से प्रार्थना है कि वह ऐसा ही करें, और रुक्मिणी की आशालता को, जो मुरझा सी रही है निज कृपा वारिवृष्टि से सिंचित कर हम लोगों को आनन्दित बनावें। विशेष क्या?

( भगवान श्रीकृष्ण और ब्राह्मण का प्रस्थान)

( जवनिका पतन)

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