कविता – वैदेही-वनवास – जीवन-यात्रा तिलोकी (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा।

पुण्यमयी-पावन-प्रवृत्ति की पूर्ति थीं॥

तपस्विनी-गण की आदरमय-दृष्टि में।

मानवता-ममता की महती-मूर्ति थीं॥1॥

ब्रह्मचर्य-रत वाल्मीकाश्रम-छात्रा-गण।

तपोभूमि-तापस, विद्यालय-विबुध-जन॥

मूर्तिमती-देवी थे उनको मानते।

भक्तिभाव-सुमनाजंलि द्वारा कर यजन॥2॥

अधिक-शिथिलता गर्भभार-जनिता रही।

फिर भी परहित-रता सर्वदा वे मिलीं॥

कर सेवा आश्रम-तपस्विनी-वृन्द की।

वे कब नहीं प्रभात-कमलिनी सी खिलीं॥3॥

उन्हें रोकती रहती आश्रम-स्वामिनी।

कह वे बातें जिन्हें उचित थीं जानती॥

किन्तु किसी दुख में पतिता को देखकर।

कभी नहीं उनकी ममता थी मानती॥4॥

देख चींटियों का दल ऑंटा छींटतीं।

दाना दे दे खग-कुल को थीं पालती॥

मृग-समूह के सम्मुख, उनको प्यार कर।

कोमल-हरित तृणावलि वे थीं डालतीं॥5॥

शान्ति-निकेतन के समीप के सकल-तरु।

रहते थे खग-कुल के कूजन से स्वरित॥

सदा वायु-मण्डल उसके सब ओर का।

रहता था कलकण्ठ कलित-रव से भरित॥6॥

किसी पेड़ पर शुक बैठे थे बोलते।

किसी पर सुनाता मैना का गान था॥

किसी पर पपीहा कहता था पी कहाँ।

किसी पर लगाता पिक अपनी तान था॥7॥

उसके सम्मुख के सुन्दर-मैदान में।

कहीं विलसती थी पारावत-मण्डली॥

बोल-बोल कर बड़ी-अनूठी-बोलियाँ।

कहीं केलिरत रहती बहु-विहगावली॥8॥

इधर-उधर थे मृग के शावक घूमते।

कभी छलाँगें भर मानस को मोहते॥

धीरे-धीरे कभी किसी के पास जा।

भोले-दृग से उसका बदन विलोकते॥9॥

एक द्विरद का बच्चा कतिपय-मास का।

जनक-नन्दिनी के कर से जो था पला॥

प्राय: फिरता मिलता इस मैदान में।

मातृ-हीन कर जिसे प्रकृति ने था छला॥10॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति दिवस।

जनक-नन्दिनी कर से होता था भला॥

शान्ति-निकेतन के सब ओर इसीलिए।

दिखलाती थी सर्व-भूत-हित की कला॥11॥

दो पुत्रों के प्रतिपालन का भार भी।

उन्हें बनाता था न लोक-हित से विमुख॥

यह ही उनकी हृत्तांत्री का राग था।

यह ही उनके जीवन का था सहज-सुख॥12॥

पाँवोंवाले दोनों सुत थे हो गए।

अपनी ही धुन में वे रहते मस्त थे॥

फिर भी वे उनको सँभाल उनसे निबट।

उनकी भी सुनतीं जो आपद्ग्रस्त थे॥13॥

थीं कितनी आश्रम-निवासिनी मोहिता।

आ प्रतिदिन अवलोकन करती थीं कई॥

नयनों में थे युगल-कुमार समा गए।

हृदयों में श्यामली-मूर्ति थी बस गई॥14॥

किन्तु सहृदया सत्यवती-ममता अधिक।

थी विदेह-नन्दिनी युगल-नन्दनों पर॥

जन्मकाल ही से उनकी परिसेवना।

वह करती ही रहती थी आठों-पहर॥15॥

इसीलिए वह थी विदेहजा-सहचरी।

इसीलिए वे उसे बहुत थीं मानती॥

उनके मन की कितनी ही बातें बना।

वह लड़कों को बहलाना थी जानती॥16॥

कभी रिझाती उन्हें वेणु वीणा बजा।

तरह-तरह के खेल वह खेलाती कभी॥

कभी खेलौने रखती उनके सामने।

स्वयं खेलौना वह थी बन जाती कभी॥17॥

विरह-वेदना से विदेहजा जब कभी।

व्याकुल होतीं तब थी उन्हें सँभालती॥

गा गा करके भाव-भरे नाना-भजन।

तपे-हृदय पर थी तर-छीटे डालती॥18॥

आत्रेयी की सत्यवती थी प्रिय-सखी।

अत: उन्होंने उसके मुख से थी सुनी॥

विदेहजा के विरह-व्यथाओं की कथा।

जो थी वैसी पूता जैसी सुरधुनी॥19॥

आत्रेयी थीं बुध्दिमती-विदुषी बड़ी।

विरह-वेदना बातें सुन होकर द्रवित॥

शान्ति-निकेतन में आयीं वे एक दिन।

तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी के सहित॥20॥

जनक-नन्दिनी ने सादर-कर-वन्दना।

बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया॥

फिर यह सविनय परम-मधुर-स्वर सेकहा।

बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया॥21॥

आत्रेयी बोलीं हूँ क्षमाधिकारिणी।

आई हूँ मैं आज कुछ कथन के लिए॥

आपके चरित हैं अति-पावन दिव्यतम।

आपको नियति ने हैं अनुपम-गुण दिए॥22॥

अपनी परहित-रता पुनीत-प्रवृत्ति से।

सहज-सदाशयता से सुन्दर-प्रकृति से॥

लोकरंजिनी-नीति पूत-पति-प्रीति से।

सच्ची-सहृदयता से सहजा-सुकृति से॥23॥

कहा, मानवी हैं देवी सी अर्चिता।

व्यथिता होते, हैं कर्तव्य-परायणा॥

अश्रु-बिन्दुओं में भी है धृति झलकती।

अहित हुए भी रहती है हित-धारणा॥24॥

साम्राज्ञी होकर भी सहजा-वृत्ति है।

राजनन्दिनी होकर हैं भव-सेविका॥

यद्यपि हैं सर्वाधिकारिणी धरा की।

क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका॥25॥

कभी किसी को दुख पहुँचाती हैं नहीं।

सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा॥

कटु-बातें आनन पर आतीं ही नहीं।

आप सी न अवलोकी अन्य प्रियम्वदा॥26॥

नवनीतोपम कोमलता के साथ ही।

अन्तस्तल में अतुल-विमलता है बसी॥

सात्तिवकता-सितता से हो उद्भासिता।

वहीं श्यामली-मूर्ति किसी की है लसी॥27॥

देवि! आप वास्तव में हैं पति-देवता।

आप वास्तविकता की सच्ची-स्फूर्ति हैं॥

हैं प्रतिपत्ति प्रथित-स्वर्गीय-विभूति की।

आप सत्यता की, शिवता की मूर्ति हैं॥28॥

किन्तु देखती हूँ मैं जीवन आपका।

प्राय: है आवरित रहा आपत्ति से॥

ले लीजिए विवाह-काल ही उस समय।

रहा स्वयंवर ग्रसित विचित्र-विपत्ति से॥29॥

था विवाह अधीन शंभु-धनु भंग के।

किन्तु तोड़ने से वह तो टूटा नहीं॥

वसुंधरा के वीर थके बहु-यत्न कर।

किन्तु विफलता का कलंक छूटा नहीं॥30॥

देख यह दशा हुए विदेह बहुत-विकल।

हुईं आपकी जननी व्यथिता, चिन्तिता॥

आप रहीं रघु-पुंगव-बदन विलोकती।

कोमलता अवलोक रहीं अति-शंकिता॥31॥

राम-मृदुल-कर छूते ही टूटा धनुष।

लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई॥

किन्तु कलेजों में असफल-नृप-वृन्द के।

चुभने लगी अचानक ईष्या की सुई॥32॥

कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित।

परिणय होगा नहीं टूटने से धनुष॥

समर भयंकर होगा महिजा के लिए।

असि-धारा सुर-सरिता काटेगी कलुष॥33॥

राजाओं की देख युध्द-आयोजन।

सभी हुए भयभीत कलेजे हिल गए॥

वे भी सके न बोल न्याय प्रिय था जिन्हें।

बड़े-बड़े-धीरों के मँह भी सिल गए॥34॥

इसी समय भृगुकुल-पुंगव आये वहाँ।

उन्हें देख बहु-भूप भगे, बहु दब गए॥

सब ने सोचा बहुत-बड़ा-संकट टला।

खड़े हो सकेंगे न अब बखेडे नये॥35॥

पर वे तो वध-अर्थ उसे थे खोजते।

जिसने तोड़ा था उनके गुरु का धनुष॥

यही नहीं हो हो कर परम-कुपित उसे।

कहते थे कटु-वचन परुष से भी परुष॥36॥

ज्ञात हुए यह, सब लोगों के रोंगटे।

खड़े हो गये लगे कलेजे काँपने॥

किन्तु तुरन्त उन्हें अनुकूल बना लिया।

विनयी-रघुबर के कोमल-आलाप ने॥37॥

था यौवन का काल हृदय उत्फुल्ल था।

प्रेम-ग्रंथि दिन दिन दृढ़तम थी हो रही॥

राज-विभव था राज्य-सदन था स्वर्ग सा।

ललक उरों में लगन बीज था बो रही॥38॥

वर विलासमय बन वासर था विलसता।

रजनी पल पल पर थी अनुरंजन-रता॥

यदि विनोद हँसता मुखड़ा था मोहता।

तो रसराज रहा ऊपर रस बरसता॥39॥

पितृ-सद्म ममता ने भूल मन जिस समय।

ससुर-सदन में शनै: शनै: था रम रहा॥

उन्हीं दिनों अवसर ने आकर आपसे।

समाचार पति राज्यारोहण का कहा॥40॥

आह! दूसरे दिवस सुना जो आपने।

किसका नहीं कलेजा उसको सुन छिला॥

कैकेई-सुत-राज्य पा गये राम को।

कानन-वास चतुर्दश-वत्सर का मिला॥41॥

कहाँ किस समय ऐसी दुर्घटना हुई।

कहते हैं इतिहास कलेजा थामकर॥

वृथा कलंकित कैकेई की मति हुई।

कहते हैं अब भी सब इसको आह भर॥42॥

आपने दिखाया सतीत्व जो उस समय।

वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा॥

चौदह सालों तक वन में पति साथ रह।

किस कुल-बाला ने है इतना दुख सहा॥43॥

थीं सम्राट्-वधू धराधिपति की सुता।

ऋध्दि सिध्दि कर बाँधो सम्मुख थी खड़ी॥

सकल-विभव थे आनन सदा विलोकते।

रत्नराजि थी तलवों के नीचे पड़ी॥44॥

किन्तु आपने पल भर में सबको तजा।

प्राणनाथ के आनन को अवलोक कर॥

था यह प्रेम प्रतीक, पूततम-भाव का।

था यह त्याग अलौकिक, अनुपम चकित कर॥45॥

इस प्रवास वन-वास-काल का वह समय।

अति-कुत्सित था, हुई जब घृणिततम-क्रिया॥

जब आया था कंचन का मृग सामने।

रावण ने जब आपका हरण था किया॥46॥

लंका में जो हुई यातना आपकी।

छ महीने तक हुईं साँसतें जो वहाँ।

जीभ कहे तो कहे किस तरह से उसे।

उसमें उनके अनुभव का है बल कहाँ॥47॥

मूर्तिमती-दुर्गति-दानवी-प्रकोप से।

आपने वहाँ जितनी पीड़ायें सहीं॥

उन्हें देख आहें भरती थी आह भी।

कम्पित होती नरक-यंत्राणायें रहीं॥48॥

नीचाशयता की वे चरम-विवृत्ति थीं।

दुराचार की वे उत्कट-आवृत्ति थीं॥

रावण वज्र-हृदयता की थीं प्रक्रिया।

दानवता की वे दुर्दान्त-प्रवृत्ति थीं॥49॥

किन्तु हुआ पामरता का अवसान भी।

पापानल में स्वयं दग्ध पापी हुआ॥

ऑंच लगे कनकाभा परमोज्ज्वल बनी।

स्वाति-बिन्दु चातकी चारु-मुख में चुआ॥50॥

आपके परम-पावन-पुण्य-प्रभाव से।

महामना श्री भरत-सुकृति का बल मिले॥

फिर वे दिन आये जो बहु वांछित रहे।

जिन्हें लाभकर पुरजन पंकज से खिले॥51॥

हुआ राम का राज्य, लोक अभिरामता।

दर्शन देने लगी सब जगह दिव्य बन॥

सकल-जनपदों, नगरों, ग्रामादिकों में।

विमल-कीर्ति का गया मनोज्ञ वितान तन॥52॥

सब कुछ था पर एक लाल की लालसा।

लालायित थी ललकित चित को कर रही॥

मिले काल-अनुकूल गर्भ-धारण हुआ।

युगल उरों में वर विनोद धरा बही॥53॥

पति-इच्छा से वर-सुत-लाभ-प्रवृत्ति से।

अति-पुनीत-आश्रम में आयी आप हैं॥

सफल हुई कामना महा-मंगल हुआ।

किन्तु सताते नित्य विरह-संताप हैं॥54॥

आते ही पति-मूर्ति बनाना स्वकर से।

उसे सजाना पहनाना गजरे बना॥

पास बैठ उसको देखा करना सतत।

करते रहना बहु-भावों की व्यंजना॥55॥

हम लोगों को यह बतलाता नित्य था।

विरह विकलता से क्या है चित की दशा॥

कितनी पतिप्राणा हैं आप, तथैव है-

कैसा पति-आनन अवलोकन का नशा॥56॥

किन्तु यह समझ चित में रहती शान्ति थी।

अल्प-समय तक ही होगी यह यातना॥

क्योंकि रहा विश्वास प्रसव उपरान्त ही।

आपको अवध-अवनी देगी सान्त्वना॥57॥

किन्तु देखती हूँ यह, पुत्रवती बने।

हुआ आपको एक साल से कुछ अधिक॥

किन्तु अवध की दृष्टि न फिर पाई इधर।

और आपके स्वर में स्वर भर गया पिक॥58॥

कुलपति-आश्रम की विधि मुझको ज्ञात है।

गर्भवती-पति-रुचि के वह अधीन है॥

वह चाहे तो उसे बुला ले या न ले।

पर आश्रम का वास ही समीचीन है॥59॥

तपोभूमि में जिसका सब संस्कार हो।

आश्रम में ही जो शिक्षित, दीक्षित, बने॥

वह क्यों वैसा लोक-पूज्य होगा नहीं।

धरा पूत बनती है जैसा सुत जने॥60॥

रघुकुल-पुंगव सब बातें हैं जानते।

इसीलिए हैं आप यहाँ भेजी गईं॥

कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा।

देख रही हूँ आप अब यहीं की हुईं॥61॥

आप सती हैं, हैं कर्तव्य-परायणा।

सब सह लेंगी कृति से च्युत होंगी नहीं॥

किन्तु बहु-व्यथामयी है विरह-वेदना।

उससे आप यहाँ भी नहीं बची रहीं॥62॥

आजीवन जीवन-धन से बिछुड़ी न जो।

लंका के छ महीने जिसे छ युग बने॥

उसे क्यों न उसके दिन होंगे व्यथामय।

जिस वियोग के बरस न गिन पाये गिने॥63॥

आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।

रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा।

देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका।

मेरा जी बन जाता है व्याकुल बड़ा॥64॥

पर विलोककर अनुपम-निग्रह आपका।

देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता॥

पर दुख कातरता उदारता से भरी।

अवलोकन कर नयन-नीर की नीरता॥65॥

होता है विश्वास विरह-जनिता-व्यथा।

बनेगी न बाधिका पुनीत-प्रवृत्ति की॥

दूर करेगी उर-विरक्ति को सर्वदा।

ममता जनता-विविध-विपत्ति-निवृत्ति की॥66॥

पड़ विपत्तियों में भी कब पर-हित-रता।

पर का हित करने से है मँह मोड़ती॥

बँधती गिरती टकराती है शिला से।

है न सरसता को सुरसरिता छोड़ती॥67॥

महि में महिमामय अनेक हो गये हैं।

यथा समय कम हुई नहीं महिमामयी॥

पर प्राय: सब विविध-संकटों में पड़े।

किन्तु उसे उनपर स्व-आत्मबल से जयी॥68॥

मलिन-मानसों की मलीनता दूर कर।

भरती रहती है भूतल में भव्यता॥

है फूटती दिखाती संकट-तिमिर में।

दिव्य-जनों या देवी ही की दिव्यता॥69॥

आश्रम की कुछ ब्रह्मचारिणी-मूर्तियाँ।

ऐसी हैं जिनमें है भौतिकता भरी॥

किन्तु आपके लोकोत्तर-आदर्श ने।

उनकी कितनी बुरी-वृत्तियाँ हैं हरी॥70॥

इस विचार से भी पधारना आपका।

तपस्विनी-आश्रम का उपकारक हुआ॥

निज प्रभाव का वर-आलोक प्रदान कर।

कितने मानस-तम का संहारक हुआ॥71॥

है समाप्त हो गया यहाँ का अध्ययन।

अब अगस्त-आश्रम में मैं हूँ जा रही॥

विदा ग्रहण के लिए उपस्थित हुई हूँ।

यद्यपि मुझे पृथकता है कलपा रही॥72॥

है कामना अलौकिक दोनों लाड़िले।

पुण्य-पुंज के पूत-प्रतीक प्रतीत हों॥

तज अवैध-गति विधि-विधान-सर्वस्व बन।

आपके विरह-बासर शीघ्र व्यतीत हों॥73॥

जनक-नन्दिनी ने अन्याश्रम-गमन सुन।

कहा आप जायें मंगल हो आपका॥

अहह कहाँ पाऊँगी विदुषी आप सी।

आपका वचन पय था मम-संताप का॥74॥

अनसूया देवी सी वर-विद्यावती।

सदाचारिणी सर्व-शास्त्र-पारंगता॥

यदि मैंने देखी तो देखी आपको।

वैसी ही हैं आप सुधी पर-हित-रता॥75॥

जो उपदेश उन्होंने मुझको दिए हैं।

वे मेरे जीवन के प्रिय-अवलम्ब हैं॥

उपवन रूपी मेरे मानस के लिए।

सुरभित करनेवाले कुसुम-कदम्ब है॥76॥

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।

पति-वियोग-दुख सा जग में है कौन दुख॥

तुच्छ सामने उसके भव-सम्पत्ति है।

पति-सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग-सुख॥77॥

अन्तर का परदा रह जाता ही नहीं।

एक रंग ही में रँग जाते हैं उभय॥

जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण।

बन जाते हैं एक जब मिलें दो हृदय॥78॥

रहे इसी पथ के मम जीवन-धन पथिक।

यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा॥

किन्तु करें संयोग के लिए यत्न क्या।

आकस्मिक-घटना दुख देती है महा॥79॥

कार्य-सिध्द के सारे-साधन मिल गए।

कृत्यों में त्रुटि-लेश भी न होते कहीं॥

आये विघ्न अचिन्तनीय यदि सामने।

तो नितान्त-चिन्तित चित क्यों होगा नहीं॥80॥

जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया।

जो जीवन का सम्बल अवलम्बन रहा॥

तो आवेग बनायें क्यों आकुल नहीं।

कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा॥81॥

भूल न पाईं वे बातें ममतामयी।

प्रीति-सुधा से सिक्त सर्वदा जो रहीं॥

स्मृति यदि है मेरे जीवन की सहचरी।

अहह आत्म-विस्मृति तो क्यों होगी नहीं॥82॥

बिना वारि के मीन बने वे आज हैं।

रहे जो नयन सदा स्नेह-रस में सने॥

भला न कैसे हो मेरी मति बावली।

क्यों प्रमत्त उन्मत्ता नहीं ममता बने॥83॥

रविकुल-रवि का आनन अवलोके बिना।

सरस शरद-सरसीरुह से वे क्यों खिलें॥

क्यों न ललकते आकुल हो तारे रहें।

क्यों न छलकते ऑंखों में ऑंसू मिलें॥84॥

कलपेगा आकुल होता ही रहेगा।

व्यथित बनेगा करेगा न मति की कही॥

निज-वल्लभ को भूल न पाएगा कभी।

हृदय हृदय है सदा रहेगा हृदय ही॥85॥

भूल सकेंगे कभी नहीं वे दिव्य-दिन।

भव्य-भावनायें जब दम भरती रहीं॥

कान रहे जब सुनते परम रुचिर-वचन।

ऑंखें जब छबि-सुधा-पान करती रहीं॥86॥

कभी समीर नहीं होगा गति से रहित।

होगा सलिल तरंगहीन न किसी समय।

कभी अभाव न होगा भाव-विभाव का।

कभी भावना-हीन नहीं होगा हृदय॥87॥

यह स्वाभाविकता है इससे बच सका-

कौन, सभी इस मोह-जाल में हैं फँसे॥

सारे अन्तस्तल में इसकी व्याप्ति है।

मन-प्रसून हैं बास से इसी के बसे॥88॥

विरह-जन्य मेरी पीड़ायें हैं प्रकृत।

किन्तु कभी कर्तव्य-हीन हूँगी न मैं॥

प्रिय-अभिलाषायें जो हैं प्राणेश की।

किसी काल में उनको भूलूँगी न मैं॥89॥

विरह-वेदनाओं में यदि है सबलता।

उनके शासक तो प्रियतम-आदेश हैं॥

जो हैं पावन परम न्याय-संगत उचित।

भव-हितकारक जो सच्चे उपदेश हैं॥90॥

महामना नृप-नीति-परायण दिव्य-धी।

धर्म-धुरंधर दृढ़-प्रतिज्ञ पति-देव हैं॥

फिर भी हैं करुणानिधान बहु दयामय।

लोकाराधन में विशेष अनुरक्त हैं॥91॥

आत्म-सुख-विसर्जन करके भी वे इसे।

करते आये हैं आजीवन करेंगे॥

बिना किये परवा दुस्तर-आवत्ता की।

आपदाब्धि-मज्जित-जन का दुख हरेंगे॥92॥

निज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का।

भार उन्हीं पर है, जो है गुरुतर महा॥

सारी उचित व्यवस्थाओं का सर्वदा।

अधिकारी महि में नृप-सत्तम ही रहा॥93॥

सुतों के सहित मेरे आश्रम-वास से।

देश, जाति, कुल का यदि होता है भला॥

अन्य व्यवस्था तो कैसे हो सकेगी।

सदा तुलेगी तुल्य न्याय-शीला-तुला॥94॥

रघुकुल-पुंगव की मैं हूँ सहधार्मिणी।

जो है उनका धर्म वही मम-धर्म है॥

भली-भाँति मम-उर उसको है जानता।

उनके प्रिय-सिध्दान्तों का जो मर्म है॥95॥

उनकी आज्ञा का पालन मम-ध्येय है।

उनका प्रिय-साधन ही मम-कर्तव्य है॥

उनका ही अनुगमन परम-प्रिय-कार्य है।

उनकी अभिरुचि मम-जीवन-मन्तव्य है॥96॥

विरह-वेदनायें हों किन्तु प्रसन्नता।

उनकी मुझे प्रसन्न बनाती रहेगी॥

मम-ममता देखे पति-प्रिय-साधन बदन।

सर्व यातनायें सुखपूर्वक सहेगी॥97॥

दोहा

नमन जनकजा ने किया, कह अन्तस्तल-हाल।

विदा हुईं कह शुभ-वचन आत्रेयी तत्काल॥98॥

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