कविता – राजा रत्नसेन सती खंड,पार्वती-महेश खंड,राजा-गढ़-छेंका खंड, – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172कै बसंत पदमावति गई । राजहि तब बसंत सुधिा भई॥

जो जागा न बसंत न बारी । ना वह खेल, न खेलनहारी॥

 

ना वह ओहि कर रूप सुहाई । गै हेराइ, पुनि दिस्टि न आई॥

 

फूल झरे, सूखी फुलवारी । दीठि परी उकठी सब बारी॥

 

केइ यह बसत बसंत उजारा? । गा सो चाँद अथवा लेइ तारा॥

 

अब तेहि बिनु जग भा ऍंधाकूपा । वह सुख छाँह, जरौं दुख धाूपा॥

 

विरह दवा को जरत सिरावा? । को पीतम सौं करै मेरावा?॥

 

हिये देख तब चंदन खेवरा, मिलि कै लिखा बिछाव।

 

हाथ मींजि सिर धाुनि कै, रोवै जो निचित अस सोव॥1॥

 

जस बिछोह जल मीन दुहेला । जल हुँत काढ़ि अगिनि महँ मेला॥

 

चंदन ऑंक दाग हिय परे । बुझहिं न ते आखर परजरे॥

 

जनु सर आगि होइ हिय लागे । सब तन दागि सिंघ बन दागे॥

 

जरहिं मिरिंग बनख्रड तेहि ज्वाला । औ ते जरहिं बैठ तेहि छाला॥

 

कित तें ऑंक लिखे जो सोवा । मकु ऑंकन्ह तेह करत बिछोवा॥

 

जैस दुसंतहि साकुंतला । मधावानलहि कामकंदला॥

 

भा बिछोह जस नलहिं दमावति । नैना मूँदि छपी पदमावति॥

 

आइ बसंत जो छपि रहा, होइ फूलन्ह के भेस।

 

केहि बिधिा पावौं भौंर होइ, कौन गुरु उपदेस॥2॥

 

रोवै रतनमाल जनु चूरा । जहँ होइ ठाढ़, होइ तहँ कूरा॥

 

कहाँ बसंत औ कोकिल बैना । कहाँ कुसुम अति बेधाा नैना॥

 

कहाँ सो मूरति परी जो डोठी । काढि लिहेसि जिउ हिये पईठी॥

 

कहाँ सो देस दरस जेहि लाहा । जौं सुबसंत करीलहि काहा?॥

 

पात बिछोह रूख जो फूला । सो महुआ रोवै अस भूला॥

 

टपकै महुअ ऑंसु तस परहीं । हाइ महुआ बसंत ज्यों झरहीं॥

 

मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भएउ बसंत उजारी॥

 

पावा नवल बसंत पुनि, बहु आरति बहु चोप।

 

ऐस न जाना अंत ही, पात झरहिं होइ कोप॥3॥

 

अरे मलिछ बिसवासी देवा । कित मैं आइ कीन्ह तेरि सेवा॥

 

आपनि नाव चढ़ै जो देई । सो तौ पार उतारै खेई॥

 

सुफल लागि पग टेकेउँ तोरा । सुआ क सेंवर तू भा मोरा॥

 

पाहन चढ़ि जो चहै भा पारा । सो ऐसे बूड़ै मझधाारा॥

 

पाहन सेवा कहाँ पसीजा? । जनम न ओद होइ जो भीजा॥

 

बाउर सोइ जो पाहन पूजा । सकत को भार लेइ सिर दूजा॥

 

काहे नहिं जिय सोइ निरासा । मुए जियत मन जाकरि आसा॥

 

सिंघ तरेदा जेइ गहा, पार भए तेहि साथ।

 

ते पै बूड़े बाउरे, भेंड़ पूँछि जिन्ह हाथ॥4॥

 

देव कहा सुनु, बउरे राजा । देवहि अगुमन मारा गाजा॥

 

जौं पहिलेहि अपने सिर परई । सो का काहुक धारहरि करई1॥

 

पदमावति राजा कै बारी । आइ सखिन्ह सब बदन उघारी॥

 

जैस चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उजियारा॥

 

चमकहिं दसन बीजु कै नाई । नैन चक्र जमकात भवाँई॥

 

हौं तेहि दीप पतँग होइ परा । जिउ जम काढ़ि सरग लेइ धारा॥

 

बहुरि न जानौं दहुँ का भई । दहुँ कविलास कि कहुँ अपसई॥

 

अब हौं मरौं निसाँसी, हिये न आवै साँस।

 

रोगिया की को चालै, बैदहि जहाँ उपास?॥5॥

 

आनहिं दोस देहुँ का काहू । संगी कया, मया नहिं ताहू॥

 

हता पियारा मीत बिछोई । साथ न लाग आपु गै सोई॥

 

का मैं कीन्ह जो काया पोषी । दूषन मोहिं, आप निरदोषी॥

 

फागु बसंत खेलि गई गोरी । मोहिं तन लाइ बिरह कैं होरी॥

 

 

अब अस कहाँ छार सिर मेलौं? । छार जो होहुँ फाग तब खेलौं॥

 

कित तप कीन्ह छाँड़ि कै राजू । गएउ अहार न भा सिधा काजू॥

 

पाएउ नहिं होइ जोगी जती । अब सर चढ़ौं जरौं जस सती॥

 

आइ जो पीतम फिरि गा, मिला न आइ बसंत।

 

अब तन होरी घालि कै, जारि करौं भसमंत॥6॥

 

ककनू पंखि जैस पर साजा । तस सर साजि जरा चह राजा॥

 

सकल देवता आइ तुलाने । दहुँ का होइ देव असथाने॥

 

बिरह अगिनि बज्रागि असूझा । जरै सूर न बुझाए बूझा॥

 

तेहि के जरत जो उठै बजागी । तीनहुँ लोक जरै तेहि लागी॥

 

अबहिं की घरी सो चिनगी छूठै । जरहि पहार पहन सब फूटै॥

 

देवता सबै भसम होइ जाहीं । छार समेटे पाउब नाहीं॥

 

धारती सरग होइ सब ताता । है कोई एहि राख विधााता॥

 

मुहमद चिनगी पेम कै, सुनि महि गगन डेराइ।

 

धानि बिरही औ धानि हिया, तहँ अस अगिनि समाइ॥7॥

 

हनुवँत बीर लंक जेइ जारी । परबत उहै अहा रखवारी॥

 

बैठि तहाँ होइ लंका ताका । छठएँ मास देइ उठि हाँका॥

 

तेहि कै आगि उहौ पुनि जरा । लंका छाँड़ि पलंका परा॥

 

जाइ तहाँ वै कहा सँदेसू । पारबती औ जहाँ महेसू॥

 

जोगी आहि बियोगी कोई । तुम्हरे मँडप आगि तेइ बोई॥

 

जरा लँगूर सु राता उहाँ । निकसि जो भागि भएउँ करमुहाँ॥

 

तेहि बज्रागि जरै हौं लागा । बजरअंग जरतहि उठि भागा॥

 

रावन लंका हौं दही, वह हौं दाहे आव।

 

गए पहार सब औटि कै, को राखै गहि पाव?॥8॥

 

(1) उकठी=सूखकर ऐंठी हुई। अथवा=अस्त हुआ। खेवरा=खौरा हुआ, विचित्रा किया या लगाया हुआ।

 

(2) हुँत=से। परजरे=जलते रहे। सर आगि=अग्निबाण। सब…दागे=मानो उन्हीं अग्निबाणों से झुलसकर सिंह के शरीर में दाग बन गए हैं और बन में आग लगा करती है। कितते ऑंक‑‑‑सोवा=जब सोया था तब वे अंक क्यों लिखे गए; दूसरे पक्ष में जब जीव अज्ञान दशा में गर्भ में रहता है तब भाग्य का लेख क्यों लिखा जाता है। दमावति=दमयंती।

 

(3) कहाँ सो देस…लाहा?=बसंत के दर्शन से लाभ उठानेवाला अच्छा देश चाहिए, सो कहाँ है? करील के बन में बसंत के जाने ही से क्या? आरति=दु:ख। चोप=चाह।

 

(4) ओद=गीला, आर्द्र। तरेदा=तैरनेवाला काठ, बेड़ा।

 

(5) गाजा=गाज, बज्र। धारहरि=धार पकड़, बचाव। गोहने=साथ या सेवा में। अपसई=गायब हो गई। निसाँसी=बेदम। को चालै=कौन चलावै।

 

1. कुछ प्रतियों में यह पाठ है-‘जबहिं आगि अपने सिर लागी। आन बुझावै कहाँ सो आगी।

 

(6) हता=था, आया था। सर=चिता।

 

(7) ककनू (फा. ककनूस)=एक पक्षी जिसके संबंधा में प्रसिध्द है कि आयु पूरी होने पर वह घोंसले में बैठकर गाने लगता है जिससे आग लग जाती है और वह जल जाता है। पहन=पाषाण, पत्थर।

 

(8) पलंका=पलंग, चारपाई अथवा लंका के भी आगे ‘पलंका’ नामक कल्पित द्वीप।

 

 

ततखन पहुँचे आइ महेसू । बाहन बैल, कुस्टि कर भेसू॥

 

काथरि कया हड़ावरि बाँधो । मुंड माल और हत्या काँधो॥

 

सेसनाग जागे कँठमाला । तनु भभूति, हस्ती करछाला॥

 

पहुँची रुद्रकँवल के गटा । ससि माथे औ सुरसरि जटा॥

 

चँवर घंट औ डँवरू हाथा । गौरा पारवती धानि साथा॥

 

औ हनुवंत वीर सँग आवा । धारे भेस बाँदर जस छावा॥

 

अवतहि कहेन्हि न लावहु आगी । तेहि कै सपथ जरहु जेहि लागी॥

 

की तप करै न पारेहु, की रे नसाएहु जोग?

 

जियत जीउ कस काढ़हु? कहहु सो मोहि बियोग॥1॥

 

कहेसि मोहि बातन्ह बिलमावा । हत्या केरि न डर तोहि आवा॥

 

जरै देहु, दुख जरौं अपारा । निस्तर पाइ जाउँ एक बारा॥

 

जस भरथरी लागि पिंगला । मो कहँ पदमावति सिंघला॥

 

मैं पुनि तजा राज औ भोगू । सुनि सो नावँ लीन्ह तप जोगू॥

 

एहि मढ़ सोएहुँ आइ निरासा । गइ सो पूजि, मन पूजिन आसा॥

 

मैं यह जिउ डाढ़े पर दाधाा । आधाा निकसि रहा, घट आधाा॥

 

जो अधाजर सौ बिलंब न लावा । करत बिलंब बहुत दुख पावा॥

 

एतना बोल कहत मुख, उठी बिरह कै आगि।

 

जौं महेस न बुझावत, जाति सकल जग लागि॥2॥

 

पारबती मन उपना चाऊ । देखौं कुँवर केर सत भाऊ॥

 

ओहि ऐहि बीच कि पेमहि पूजा । तन मन एक कि मारग दूजा॥

 

भइ सुरूप जानहुँ अपछरा । बिहँसि कुँवर कर ऑंचर धारा॥

 

सुनहु कुँवर मौसौं एक बाता । जस मोहि रंग न औरहि राता॥

 

 

औ बिधिा रूप दीन्ह है तोकाँ । उठा सो सबद जाइ सिवलोका॥

 

तब हौं तोपहँ इंद्र पठाई । गइ पदमिनि, तैं अछरी पाई॥

 

अब तजु जरन मरन, तप जोगू । मोसौं मानु जनम भरि भोगू॥

 

हौं अछरी कबिलास कै, जेहि सर पूजि न कोइ।

 

मोहि तजि सँवरि न ओहि मरसि, कौन लाभ तेहि होइ?॥3॥

 

भलेहि रंग अछरी तोर राता । मोहिं दूसरे सौं भाव न बाता॥

 

मोहिं ओहि सँवरि मुए तम लाहा । नैन जो देखसि पूछसि काहा॥

 

अबहिं ताहिं जिउ देइ न पावा । तोहि अस अछरी ठाढ़ि मनावा॥

 

जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा । न जनौं काह होइ कविलासा॥

 

हौं कबिलास काह लै करऊँ । सोइ कबिलास लागि जेहि मरऊँ॥

 

ओहि के बार जीउ नहिं बारौं । सिर उतारि नेवछावरि सारौं॥

 

ताकर चाह कहै जो आई । दोउ जगत तेहि देहुँ बड़ाई॥

 

ओहि न मोर किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।

 

तेहि निरास पीतम कहँ, जिउ न देउँ का देउँ ॥4॥

 

गौरइ हँसि महेस सौं कहा । निहचै एहिं बिरहानल दहा॥

 

निहचै यह ओहि कारन तपा । परिमल पेम न आछै छपा॥

 

निहचै पेम पीर यह जागा । कसे कसौटी कंचन लागा॥

 

बदन पियर जल डभकहि नैना । परगट दुवौ पेम के बैना॥

 

यह एहि जनम लागि ओहि सीझा । चहै न औरहि ओही रीझा॥

 

महादेव देवन्ह के पीता । तुम्हरी सरन राम रन जीता॥

 

एहू कहँ तस मया करेहू । पुरवहु आस कि हत्या लेहू॥

 

हत्या दुइ के चढ़ाए, काँधो बहु अपराधा।

 

तीसर यह लेउ माथे, जो लेवै कै साधा॥5॥

 

सुनि कै महादेव के भाखा । सिध्दि पुरुष राजै मन लाखा॥

 

सिध्दहि अंग न बैठे माखी । सिध्द पलक नहिं लावै ऑंखी॥

 

सिध्दहिं संग होइ नहिं छाया । सिध्दहिं होइ भूख नहिं माया॥

 

जेहि जग सिध्द गोसाईं कीन्हा । परगट गुपुत रहै को चीन्हा?॥

 

बैल चढ़ा कुस्टी कर भेसू । गिरजापति सत आइ महेसू॥

 

 

चीन्है सोइ रहै जो खोजा । जस विक्रम औ राजा भोजा॥

 

जो ओहि तंत सत्ता सौं हेरा । गएउ हेराइ जो ओहि भा मेरा॥

 

बिन गुरु पंथ न पाइय, भूलै सो जो मेट।

 

जोगी सिध्द होइ तब, जब गोरख सौं भेंट॥6॥

 

ततखन रतनसेन गहबरा । रोउब छाँड़ि पाँव लेइ परा॥

 

मातै पितै जनम कित पाला । जो अस फाँद पेम गिउ घाला?॥

 

धारती सरग मिले हुत दोऊ । केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ!॥

 

पदिक पदारथ कर हुँत खोवा । टूटहिं रतन, रतन तस रोवा॥

 

गगन मेघ जस बरसै भला । पुहुपी पूरि सलिल बहि चला॥

 

सायर टूट, सिखर गा पाटा । सूझ न बार पार कहुँ घाटा॥

 

पौन पान होइ होइ सब गिरई । पेम के फंद कोइ जनि परई॥

 

तस रोवै जस जिउ जरै, गिरै रक्त औ माँसु।

 

रोवँ रोवँ सब रोवँही, सूत सूत भरि ऑंसु॥7॥

 

रोवत बूड़ि उठा संसारू । महादेव तब भएउ भयारू॥

 

कहेन्हि न रोव, बहुत तै रोवा । अब ईसर भा, दारिद खोवा॥

 

जो दुख सहै होइ दुख ओकाँ । दुख बिनु सुख न जाइ सिवलोका॥

 

अब तैं सिध्द भएसि सिधिा पाई । दरपन कया छूटि गइ काई॥

 

कहौं बात अब हौं उपदेसी । लागु पंथ, भूले परदेसी॥

 

जौ लगि चोर सेंधा नहिं देई । राजा केरि न मूसै पेई॥

 

चढ़े न जाइ बार ओहि खूँदी । परैं त सेंधिा सीस बल मूँदी॥

 

कहौं सो तेहि सिंघलगढ़, है ख्रड सात चढ़ाव।

 

फिरा न कोई जियत जिउ, सरग पंथ देइ पाव॥8॥

 

गढ़ तस बाँक जैसि तेरि काया । पुरुष देखु ओही कै छाया॥

 

पाइय नाहिं जूझ हठि कीन्हें । जेइ पावा तेइ आपुहि चीन्हें॥

 

नौ पौरी तेहि गढ़ मझियारा । औ तहँ फिरहि पाँच कोटवारा॥

 

दसवँ दुआर गुपुत एक ताका । अगम चढ़ाव, बाट सुठि बाँका॥

 

भेदै जाइ सोइ वह घाटी । जो लहि भेद, चढ़ै होइ चाँटी॥

 

गढ़ तर कुंड, सुरँग तेहि माहाँ । तहँ बह पंथ कहौं तोहि पाहाँ॥

 

चोर बैठ जस सेंधिा सँवारी । जुआ पैंत जस लाव जुआरी॥

 

 

जस मरजिया समुद धाँस, हाथ आव तब सीप।

 

ढूँढ़ि लेइ जा सरग दुआरी, चढ़ै सो सिंघलदीप॥9॥

 

दसवँ दुआर ताल कै लेखा । उलटि दिस्टि जो लाव सो देखा॥

 

जाइ सो तहाँ साँस मन बँधाी । जस धाँसि लीन्ह कान्ह कालिंदी॥

 

तू मन नाथु मारि कै साँसा । जो पै मरहि अबहिं करु नासा॥

 

परगट लोकचार कहु बाता । गुपुत लाउ मन जासौं राता॥

 

‘हौं हौं’ कहत सबैं मति खोई । जौं तू नाहिं आहि सब कोई॥

 

जियतहिं जुरै मरै एक बारा । पुनि का मीचु, को मारै पारा॥

 

आपुहि गुरु सो आपुहिं चेला । आपुहिं सब औ आपु अकेला॥

 

आपुहि मीच जियन पुनि, आपुहि तन मन सोइ।

 

अपुहि आपु करै जो चाहै, कहाँ सो दूसर कोइ?।10॥

 

(1) कुस्टि=कुष्टी, कोढ़ी। हड़ावरि=अस्थि की माला। हत्या=मृत्यु, काल? रुद्रकँवल=रुद्राक्ष। गटा=गट्टा, गोल दाना।

 

(2) निस्तर=निस्तार, छुटकारा।

 

(3) ओहि एहि बीच…दूजा=उसमें (पदमावती में) और इसमें कुछ और अंतर रह गया है कि वह अंतर प्रेम से भर गया है और दोनों अभिन्न हो गए हैं।

 

(4) राता=ललित, सुंदर। तोकाँ=तुमको, (=तो कहँ)। तस=ऐसा (इस अर्थ में प्राय: प्रयोग मिलता है)। कविलास स्वर्ग। वारौं बचाऊँ। सारौं करूँ। चाह=खबर। निरास=जिसे किसी की आशा न हो, जो किसी के आसरे का न हो।

 

(5) आछे=रहता है। कसे=कसने पर। लागा=प्रतीत हुआ। डभकहिं=डबडबाते हैं, आर्द्र होते हैं। परगट…बैना=दोनों (पीले मुख और गीले नेत्रा) प्रेम के वचन या बात प्रकट करते हैं। हत्या दुइ=दोनों कंधाों पर एक एक (कवि ने शिव के कंधो पर हत्या की कल्पना क्यों की है, यह नहीं स्पष्ट होता)।

 

(6) लाख=लखा, पहचाना। मेरा=मेल, भेंट। जो इस सिध्दांत को नहीं मानता।

 

(7) गहबरा=घबराया। घाला=डाला। पदिक=ताबीज, जंतर। गा पाटा=(पानीसे) पट गया।

 

(8) मयारु=मया करनेवाला, दयार्द्र। ईसर=ऐश्वर्य। आकाँ=उसको (ओकाँ=ओकहँ)। मूसै पेई=मूसने पाता है। चढ़ै न खूँदी=कूदकर चढने से उस व्दार तक नहीं जा सकता।

 

(9) ताका=उसका। जो लहि… चाँटी=जो गुरु से भेद पाकर चींटी के समान धीरे-धीरे (योगियों के पिपीलिका मार्ग से) चढ़ता है। पैंत=दाँव।

 

(10) ताल कै लेखा=ताड़ के समान (ऊँचा)। लोकचार=लोकाचार की। जुरै=जुट जाय।

 

 

 

सिधिा गुटिका राजै जब पावा । पुनि भइ सिध्दि गनेस मनावा॥

 

जब संकर सिधिा दीन्ह गुटेका । परी हूल, जोगिन्ह गढ़ छेंका॥

 

सबैं पदमावति देखहिं चढ़ी । सिंघल छेंकि उठा होइ मढ़ी॥

 

जस घर भरे चोर मत कीन्हा । तेहि बिधिा सेंधिा चाह गढ़ दीन्हा॥

 

गुपुत चोर जो रहै सो साँचा । परगट होइ जीउ नहिं बाँचा॥

 

पौरि पौरि गढ़ लाग केवारा । औ राजा सौं भई पुकारा॥

 

जोगी आइ छेंकि गढ़ मेला । न जनौं कौन देस तें खेला॥

 

भएउ रजायसु देखौ, को भिखारि अस ढीठ।

 

बेगि बरज तेहि आवहु, जन दुइ पठैं बसीठ॥1॥

 

उतरि बसीठन्ह आइ जोहारे । ‘की तुम जोगी, की बनिजारे॥

 

भएउ रजायसु आगे खेलहिं । गढ़ तर छाँड़ि अनत होइ मेलहिं॥

 

अस लागेहु केहि के सिख दीन्हे । आएहु मरै हाथ जिउ लीन्हे॥

 

इहाँ इंद्र अस राजा तपा । जबहिं रिसाइ सूर डरि छपा॥

 

हौ बनिजार तौ बनिज बेसाहौ । भरि बैपार लेहु जो चाहौ॥

 

हौ जोगी तौ जुगुति सो माँगौ । भुगुति लेहु लै मारग लागौ॥

 

इहाँ देवता अस गए हारी । तुम्ह पतिंग को अहौ भिखारी॥

 

तुम्ह जोगी बैरागी, कहत न मानहु कोहु॥

 

लेहु माँगि किछु भिच्छा, खेलि अनत कहुँ होहु’॥2॥

 

‘आनु जो भीखि हौं आएऊँ लेई । कस न लेउँ जौ राजा देई॥

 

पदमावति राजा कै बारी । हौं जोगी ओहि लागि भिखारी॥

 

खप्पर लेइ बार भा माँगौं । भुगुति देइ लेइ मारग लागौं॥

 

सोई भुगुति परापति भूजा । कहाँ जाउँ अस बार न दूजा॥

 

अब धार इहाँ जीउ ओहि ठाऊँ । भसम होउँ बरु तजौं न नाऊँ॥

 

जस बिनु प्रान पिंड है छूँछा । धारम लाइ कहिहौं जो पूछा॥

 

तुम्ह बसीठ राजा के ओरा । साखी होहु एहि भीख निहोरा॥

 

जोगी बार आव सो, जेहि भिच्छा कै आस।

 

जो निरास दिढ़ आसन, कित गौने केहु पास?’ ॥3॥

 

सुनि बसीठ मन उपनी रीसा । जौ पीसत घुन जाइहि पीसा॥

 

जोगी अस कहुँ कहै न कोई । सो कहु बात जोग जो होई॥

 

वह बड़ राज इंद्र कर पाटा । धारती परा सरग को चाटा?॥

 

जौ यह बात जाइ तहँ चली । छूटहिं अबहिं हस्ति सिंघली॥

 

औ जौं छूटहिं वज्र कर गोटा । बिसरिहि भुगुति होइ सब रोटा॥

 

जहँ केहु दिस्टिनजाइ पसारी । तहाँ पसारसि हाथ भिखारी॥

 

आगे देखि पाँव धारु नाथा। तहाँ न हेरु टूट जहँ माथा॥

 

वह रानी तेहि जोग है, जाहि राज औ पाटु।

 

सुंदरि जाइहि राजघर, जोगिहि बाँदर काटु॥4॥

 

जौं जोगी सत बाँदर काटा । एकै जोग, न दूसरि बाटा॥

 

और साधाना आवै साधो । जोग साधाना आपुहि दाधो1॥

 

सरि पहुँचाव जोगि कर साथू । दिस्टि चाहि अगमन होइ हाथू॥

 

तुम्हरे जोर सिंघल के हाथी । हमरे हस्ति गुरु हैं साथी॥

 

अस्ति नास्ति ओहि करत न बारा । परबत करै पाँव कै छारा॥

 

जोर गिरे गढ़ जावत भये । जे गढ़ गरब करहिं ते नये॥

 

अंत क चलना कोइ न चीन्हा । जो आवा सो आपन कीन्हा॥

 

जोगिहि कोइ न चाहिय, तस न मोहि रिसि लागि।

 

जोग तंत ज्यों पानी, काह करै तेहि आगि? ॥5॥

 

बसिठन्ह जाइ कही अस बाता । राजा सुनत कोह भा राता॥

 

ठावहिं ठाँव कुँवर सब माखे । केइअब लीन्ह जोग केइ राखे?॥

 

अबहीं बेगिहि करौ सँजोऊ । तस मारहु हत्या नहिं होऊ॥

 

मंत्रिान्ह कहा रहौ मन बूझे । पति न होइ जीगिन्ह सौं जूझे॥

 

ओहि मारै तौ काह भिखारी । लाज होइ जौं माना हारी॥

 

ना भल मुए, न मारे मोखू । दुवौ बात लागै सम दोखू॥

 

रहै देहु जौ गढ़ तर मेले । जोगी कित आछैं बिनु खेले?॥

 

आछै देहु जो गढ़ तरे, जनि चालहु यह बात।

 

तहँ जो पाहन भख करहिं, अस केहिके मुख दाँत॥6॥

 

गए बसीठ पुनि बहुरि न आए । राजै कहा बहुत दिन लाए॥

 

न जनौं सरग बात दहुँ काहा । काहु न आइ कही फिरि चाहा॥

 

पंख न काया, पौन न पाया । केहि विधिा मिलौं होइ कै छाया?॥

 

सँवरि रकत नैनहिं भरि चूआ । रोइ हँकारेसि माझी सूआ॥

 

परीजो ऑंसु रकत कै टूटी । रेंगि चलीं जस बीरबहूटी॥

 

ओहि रकत लिखि दीन्ही पाती । सुआ जो लीन्ह चोंच भइ राती॥

 

बाँधाी कंठ परा जरि काँठा । बिरह क जरा जाइ कित नाठा?॥

 

मसि नैना, लिखनी बरुनि, रोइ रोइ लिखा अकत्थ।

 

आखर दहै, न कोइ छुवै, दीन्ह परेवा हत्थ॥7॥

 

औ मुख बचन जो कहा परेवा । पहिले मोरि बहुत कहि सेवा॥

 

पुनि रे सँवार कहेसि अस दूजी । जो बलि दीन्ह देवतन्ह पूजी॥

 

सो अबहीं तुम्ह सेव न लागा । बलि जिउ रहा, न तन सो जागा॥

 

भलेहि ईस हू तुम्ह बलि दीन्हा । जहँ तुम्ह तहाँ भाव बलि कीन्हा॥

 

जौ तुम्ह मया कीन्ह पगु धाारा । दिस्टि देखाइ बान बिष मारा॥

 

जो जाकर अस आसामुखी । दुख महँ ऐस न मारै दुखी॥

 

नैन भिखारि न मानहिं सीखा । अगमन दौरि लेहिं पै भीखा॥

 

नैनहिं नैन जो बेधिा गए, नहिं निकसैं वै बान।

 

हिये जो आखर तुम्ह लिखे, ते सुठि लीन्ह परान॥8॥

 

ते बिषबान लिखौं कहँ ताईं । रकत जो चुआ भीजि दुनियाईं॥

 

जान जो गारै रकत पसेऊ । सुखी न जान दुखी कर भेऊ॥

 

जेहि न पीर तेहि काकरि चिंता । पीतम निठुर होइँ अस निंता॥

 

कासौं कहौं बिरह कै भाषा? । जासौं कहौं होइ जरि राखा॥

 

बिरह आगि तन बन बन जरे । नैन नीर सब सायर भरे॥

 

पाती लिखी सँवरि तुम्ह नावाँ । रकत लिखे आखर भए सावाँ॥

 

आखर जरहि न काहू छूआ । तब दुख देखि चला लेइ सूआ॥

 

अब सुठि मरौं, छूँछि गइ (पाती) पेम पियारे हाथ।

 

भेंट होत दुख रोइ सुनावत, जीउ जात जौ साथ॥9॥

 

कंचन तार बाँधिा गिउ पाती । लेइ गा सुआ जहाँ धानि राती॥

 

जैसे कँवल सूर कै आसा । नीर कंठ लहि मरत पियासा॥

 

बिसरा भोग सेज सुख बासा । जहाँ भौंर सब तहाँ हुलासा॥

 

तौ लगि धाीर सुना नहिं पीऊ । सुना न घरी रहै नहिं जीऊ॥

 

तौ लगि सुख हिय पेम न जाना । जहाँ पेम कत सुख बिसरामा?॥

 

अगर चँदन सुठि दहै सरीरू । औ भा अगिनि कया कर चीरू॥

 

कथा कहानी सुनि जिउ जरा । जानहुँ घीउ बसंदर परा॥

 

बिरह न आपु सँभारै, मैल चीर, सिर रूख।

 

पिउ पिउ करत राति दिन, जस पपिहा मुख सूख॥10॥

 

ततखन गा हीरामन आई । मरत पियास छाँह जनु पाई॥

 

भल तुम्ह सुआ? कीन्ह है फेरा । कहहु कुसल अब पीतम केरा॥

 

वाट न जानौं, अगम पहारा । हिरदय मिला न होइ निनारा॥

 

मरम पानि कर जान पियासा । जो जल महँ ता कहँ का आसा?॥

 

का रानी यह पूछहू बाता । जिनि कोइ होइ पेम कर राता॥

 

तुम्हरे दरसन लागि बियोगी । अहा सो महादेव मठ जोगी॥

 

तुम्ह बसंत लेइ तहाँ सिधााई । देव पूजि पुनि ओहि पहँ आई॥

 

दिस्टि बान तस मारेहु, घायल भा तेहि ठाँव।

 

दूसरि बात न बोलै, लेइ पदमावति नाँव॥11॥

 

रोवँ रोवँ वै बान जो फूटे । सूतहि सूत रुहिर मुख छूटे॥

 

नैनहिं चली रकत कै धाारा । कंठा भीजि भएउ रतनारा॥

 

सूरज बूड़ि उठा होइ ताता । औ मजीठ टेसू बन राता॥

 

भा बसंत रातीं बनसपती । औ राते सब जोगी जती॥

 

पुहिमि जो भीजि, भयेउ सब गेरू । औ राते तहँ पंखि पखेरू॥

 

राती सती अगिनि सब काया । गगन मेघ राते तेहि छाया॥

 

ईंगुर भा पहार जौं भीजा । पै तुम्हार नहिं रोवँ पसीजा॥

 

तहाँ चकोर कोकिला, तिन्ह हिय मया पईठि।

 

नैन रकत भरि आए, तुम्ह फिरि कीन्हि न दीठि। 12॥

 

ऐ1ृस बसंत तुमहिं पै खेलहु । रकत पराए सेंदुर मेलेहु॥

 

तुम्ह तौ खेलि मँदिर महँ आईं । ओहि क मरम पै जान गोसाईं॥

 

कहेसि जरे को बारहि बारा । एकहि बार होहुँ जरि छारा॥

 

सर रचि चहा आगि जो लाई । महादेव गीरी सुधिा पाई॥

 

आइ बुझाइ दीन्ह पथ तहाँ । मरन खल कर आगम जहाँ॥

 

उलटा पंथ पेम के बारा । चढ़ै सरग, जौ परै पतारा॥

 

अब धाँसि लीन्ह चहै तेहि आसा । पावै साँस, कि मरै निरासा॥

 

पाती लिखि सो पठाई, इहै सबै दुख रोइ।

 

दहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ?॥13॥

 

कहि कै सुआ जो छोड़ेसि पाती । जानहु दीप छुवत तस ताती॥

 

गीउ जो बाँधाा कंचन तागा । राता साँव कंठ जरि लागा॥

 

अगिनि साँस सँग निसरै ताती । तरुवर जरहिं ताहि कै पाती॥

 

रोइ रोइ सुआ कहै सो बाता । रकत कै ऑंसु भएउ मुख राता॥

 

देख कंठ जरि लाग सो गेरा । सो कस जरै बिरह अस घेरा॥

 

जरि जरि हाड़ भयउ सब चूना । तहाँ मासु का रकत बिहूना॥

 

वह तोहि लागि कया सब जारी । तपत मीन, जल देहि पवारी॥

 

तोहि कारन वह जोगी, भसम कीन्ह तन दाहि॥

 

तू असि निठुर निछोही, बात न पूछै ताहि॥14॥

 

कहेसि सुआ! मोसौं सुनु बाता । चहौं तो आज मिलौं जस राता॥

 

पै सो मरम न जाना भोरा । जानै प्रीति जो मरि कै जोरा॥

 

हौं जानति हौं अबहीं काँचा । ना वह प्रीति रंग थिर राँचा॥

 

ना वह भयउ मलयगिरि बासा । ना वह रबि होइ चढ़ा अकासा॥

 

ना वह भयउ भौंर कर रगू । ना वह दीपक भयउ पतगू॥

 

ना वह करा भृंग कै होई । ना वह आपु मरा जिउ खोई॥

 

ना वह प्रेम औटि एक भयऊ । ना ओहि हिये माँझ डर गयऊ॥

 

तेहि का कहिय रहब जिउ, रहै जो पीतम लागि।

 

जहँ वह सुनै लेइ धाँसि, का पानी, का आगि॥15॥

 

पुनि धानि कनकपानि मसि माँगी । उतर लिखत भीजी तन ऑंगी।

 

तस कंचन कहँ चहिय सोहागा । जौं निरमल नग होइ तौ लागा॥

 

हौं जो गइ सिव मंडप भोरी । तहँवाँ कस न गाँठि तैं जारी॥

 

भा बिसँभार देखि कै नैना । सखिन्ह लाज का बोलौं बैना?॥

 

खेलहिं मिस मैं चंदन घाला । मकु जागसि तौं देउँ जयमाला॥

 

तबहुँ न जागा, गा तू सोई । जाने भेंट, न सोए होई॥

 

अब जौं सूर होइ चढ़ै अकासा । जौं जिउ देइ त आवै पासा॥

 

तौ लगि भुगुति न लेइ सका, रावन सिय जब साथ।

 

कौन भरोसे अब कहौं, जीउ पराए हाथ॥16॥

 

अब जौ सूर गगन चढ़ि आवै । राहु होइ तौ ससि कहँ पावै॥

 

बहुतन्ह ऐस जीउ पर खेला । तू जोगी कित आहि अकेला॥

 

बिक्रम धाँसा पेम कै बारा । सपनावति कहँ गएउ पतारा॥

 

मधाूपाछ मुगुधाावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी॥

 

राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरिगाबति कहँ जोगी भएऊ॥

 

साधा कुँवर खंडावत जोगू । मधाु मालति कर कीन्ह बियोगू॥

 

प्रेमाबति कहँ सुरसर साधाा । उषा लगि अनिरुधा बर बाँधाा॥

 

हौं रानी पदमावति, सात सरग पर बास।

 

हाथ चढ़ौं मैं तोहिके, प्रथम करै अपनास॥17॥

 

हौं पुनि इहाँ ऐस तोहि राती । आधाी भेंट पिरीतम पाती॥

 

तहुँ जौ प्रीति निबाहै ऑंटा । भौंर न देख केत कर काँटा॥

 

होइ पतंग अधारन्ह गहु दीया । लेसि समुद धाँसि होइ मरजीया॥

 

रातु रंग जिमि दीपक बाती । नैन लाउ होइ सीप सेवाती॥

 

चातक होइ पुकारु पियासा । पीउ न पानि सेवाति कै आसा॥

 

सारस कर जस बिछुरा जोरा । नैन होहि जस चंद चकोरा॥

 

होहि चकोर दिस्टि ससि पाँहा । औ रबि होइ कँवल दल माँहा॥

 

महु ऐसे होउँ तोहि कहँ, सकहि तौ ओर निबाहु॥

 

राहु बेधिा अरजुन होइ, जीतु दुरपदी ब्याहु॥18॥

 

राजा इहाँ ऐस तप झूरा । भा जरि बिरह छार कर कूरा॥

 

नैन लाइ सो गएउ बिमोही । भा बिनु जिउ, जिउ दीन्हेसि ओही॥

 

कहाँ पिंगला सुखमन नारी । सूनि समाधिा लागि गइ तारी॥

 

बूँद समुद्र जैस होइ मेरा । गा हेराइ अस मिलै न हेरा॥

 

रंगहि पान मिला जस होई । आपहि खोइ रहा होइ सोई॥

 

सुए जाइ जब देखा तासू । नैन रकत भरि आए ऑंसू॥

 

सदा पिरीतम गाढ़ करेई । ओहि न भुलाइ, भूलि जिउ देई॥

 

मूरि सजीवन आनि कै, औ मुख मेला नीर।

 

गरुड़ पंख जस झारै, अमृत बरसा कीर॥19॥

 

मुआ जिया अस बास जो पावा । लीन्हेसि साँस, पेट जिउ आवा॥

 

देखेसि जागि, सुआ सिर नावा । पाती देइ मुख बचन सुनावा॥

 

गुरु क बचन स्रवन दुइ मेला । कीन्हि सुदिस्टि, बेगि चलु चेला॥

 

तोहि अलि कीन्ह आप भइ केवा । हौं पठवा गुरु बीच परेवा॥

 

पौन साँस तोसौं मन लाई । जोवै मारग दिस्टि बिछाई॥

 

जस तुम्ह कया कीन्ह अगिदाहू । सो सब गुरु कहँ भएउ अगाहू॥

 

तब उदंत छाला लिखि दीन्हा । बेगि आउ, चाहै सिधा कीन्हा॥

 

आवहु सामि सुलच्छना, जीउ बसै तुम्ह नाँव॥

 

नैनहिं भीतर पंथ है, हिरदय भीतर ठाँव॥20॥

 

सुनि पदमापति कै असि मया । भा बसंत उपनी नइ कया॥

 

सुआ क बोल पौन होइ लागा । उठा सोइ, हनुवंत अस जागा॥

 

चाँद मिलै कै दीन्हेसि आसा । सहसौ कला सूर परगासा॥

 

पाति लीन्हि, लेइ सीस चढ़ावा । दीठि चकोर चंद जस पावा॥

 

आस पियासा जो जेहि केरा । जौं झिझकार, ओहि सहुँ हेरा॥

 

अब यह कौन पानि मैं पीया । भा तन पाँख, पतँग मरि जीया॥

 

उठा फूलि हिरदय न समाना । कंथा टूक टूक बेहराना॥

 

जहाँ पिरीतम वै बसहिं, यह जिउ बलि तेहि बाट।

 

वह जो बोलावै पाँव सौं, हौं तहँ चलौं लिलाट॥21॥

 

जो पथ मिला महेसहि सेई । गएउ समुद ओहि धाँसि लेई॥

 

जहँ वह कुंड बिषम औगाहा । जाइ परा तहँ पाव न थाहा॥

 

बाउर अंधा पेम कर लागू । सौहँ धाँसा, किछु सूझ न आगू॥

 

लीन्हें सिधिा साँसा मन मारा । गुरु मछंदरनाथ सँभारा॥

 

चेला परे न छाँड़हि पाछू । चेला मच्छ, गुरु जस काछू॥

 

जस धाँसि लीन्ह समुद मरजीया । उधारै नैन बरै जस दीया॥

 

खोजि लीन्ह सो सरगदुआरा । बज्र जो मूँदे जाइ उघारा॥

 

बाँक चढ़ाव सरग गढ़, चढ़त गएउ होइ भोर।

 

भइ पुकार गढ़ ऊपर, चढ़े सेंधिा देइ चोर॥22॥

 

(1) परी हूल=कोलाहल हुआ। जस घर भरे…कीन्हा=जैसे भरे घर में चोरी करने का विचार चोर ने किया हो। लाग=लगे, भिड़ गए। खेला=विचरता हुआ आया। रजायसु=राजाज्ञा।

 

(2) खेलहिं=विचरें, जायँ। अस लागेहु=ऐसे काम में लगे। कोहु=क्रोधा।

 

(3) आएउँ लेई=लेने आया हूँ। भूजा=मेरे लिए भोग है। धाम लाइ=धारम लिये हुए, सत्य सत्य। भीख निहोरा=भीख के संबंधा में, अथवा इसी भीख को मैं माँगता हूँ। निरास=आशा या कामना से रहित।

 

(4) धारती परा…चाटा….धारती पर पड़ा हुआ कौन स्वर्ग या आकाश चाटता है? कहावत है?-‘रहै भुइँ औ चाटै बादर’। गोटा=गोला। रोटा=दबकर गूँधो आटे की बेली रोटी के समान। बाँदर काटु=बंदर काटे, मुहाविरा-अर्थात् जोगी का बुरा हो, जोगी चूल्हे में जाएँ।

 

(5) सत=सौ। सरि पहुँचाव=बराबर या ठिकाने पहुँचा देता है। दिस्टि चाहि…हाथू=दृष्टि पहुँचने के पहले ही योगी का हाथ पहुँच जाता है। यह दूतों के उस बात के उत्तार में है ‘जहँ केहु दिस्टि न जाइ पसारी। तहाँ पसारसि हाथ भिखारी॥’ चाहि=अपेक्षा; बनिस्बत। नए=नम्र हुए।

 

1. एक हस्तलिखित प्रति में इसके आगे ये चौपाइयाँ हैं-

 

राजा तोर हस्ति कर साईं । मोर जीव यह एक गोसाईं॥

 

करकर है जो पाँव तर बारू । तेहि उठाइ कै करै पहारू॥

 

राज करत तेहि भीख मँगावै । भीख माँग तेहि राज दियावै॥

 

मंदिर ढाहि उठाबै नए । गढ़ करि गरब खेह मिलिगए॥

 

(6) सँजोऊ=समान। पति=बड़ाई, प्रतिष्ठा। जोगी…खेले=योगी कहाँ रहते हैं बिना (और जगह) गए?

 

(7) चाहा=चाह, खबर। माझी=मधयस्थ। नाठा जाइ=नष्ट किया या मिटाया जाता है। मसि=स्याही। लिखनी=लेखनी, कलम। अकत्थ=अकथ्य बात।

 

(8) सेवा कहि=विनय कहकर। सँवार=संवाद, हाल। बलि जिउ रहा….जागा=जीव तो पहले ही बलि चढ़ गया था, (इसी से तुम्हारे आने पर) वह शरीर न जगा। ईस=महादेव। भाव=भाता है। आसामुखी=मुख का आसरा देखनेवाला।

 

(9) जान=जानता है। सावाँ=श्याम। छूँछि=खाली।

 

(10) नीर कंठ लहि… पियासा=कंठ तक पानी में रहता है फिर भी प्यासों मरता है। बसंदर=वैश्वानर, अग्नि। विरह=बिरह से। रूख=बिना तेल का।

 

(12) रतनारा=लाल। नैन रकत भरि आए=चकोर और पहाड़ी कोकिला की ऑंखें लाल होती हैं।

 

(13) दीन्ह पथ तहाँ=वहाँ का रास्ता बताया। मरन खेल…जहाँ=जहाँ प्राण निछावर करने का आगम है। उलटा पंथ=योगियों का अंतर्मुख मार्ग; विषयों की ओर स्वभावत: जाते हुए मन को उलटा पीछे की ओर फेरकर ले जाने वाला मार्ग।

 

(14) ताहि कै पाती=उसको उस चिट्ठी से। देखु कंठ जरि…गेरा=देख, कंठ जलने लगा (तब) उसे गिरा दिया। देहि पवारी=फेंक दे।

 

(15) काँचा=कच्चा। राँचा=रंग गया। औटि=पगकर।

 

(16) धानि=स्त्राी। कनक पानि=सोने का पानी। बिसँभार=बेसुधा। घाला=डाला, लगाया। मकु=कदाचित्। जागे भेंट…होई=जागने से भेंट होती है, सोने से नहीं।

 

(17) अपना=अपना नाश।

 

(18) निबाहै ऑंटा=निबाह सकता है। केत=केतकी। महुँ=महूँ, मैं भी। ओर निबाहु=प्रीति को अंत तकनिबाह।

 

(19) कूरा=ढेर। पिंगला=दक्षिण नाड़ी। सुखमन=सुषुम्ना, मधय नाड़ी। सूनि समाधिा=शून्य समाधिा।तारि=त्रााटक, टकटकी। गाढ़=कठिन अवस्था।

 

(20) केवा=केतकी। अगाहू भएउ=विदित हुआ। उदंत=(सं.) संवाद, वृत्ताांत। छाला=पत्रा। सामि=स्वामी।

 

(21) हनुवंत=हनुमान के ऐसा बली। झिझकार=झिड़के। सहुँ=सामने। बेहराना=फटा।

 

(22) धांसि लेई=धाँसकर लेने के लिए। लागू=लाग, लगन। परे=दूर। बाँक=टेढ़ा, चक्करदार। सरगदुआर=दूसरे अर्थ में दशम द्वार।

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