कविता -रत्नसेन-देवपाल-युध्द खंड, राजा रत्नसेन बैकुंठवास खंड, पदमावती-नागमती-सती खंड, उपसंहार,- (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172सुनि देवपाल राय कर चालू । राजहि कठिन परा हिय सालू॥

दादुर कतहुँ कँवल कहँपेखा । गादुर मुख न सूर कर देखा॥

 

अपने रँग जस नाच मयूरू । तेहि सरि साधा करै तमचूरू॥

 

जौ लगि आइ तुरुक गढ़ बाजा । तौ लगि धारि आनौं तौ राजा॥

 

नींद न लीन्ह, रैनि सब जागा । होत बिहान जाइ गढ़ लागा॥

 

कुंभलनेर अगम गढ़ बाँका । बिषम पंथ चढ़ि जाइ न झाँका॥

 

राजहि तहाँ गयउ लेइ कालू । होइ सामुहँ रोपा देवपालू॥

 

दुवौ अनी सनमुख भइं, लोहा भयउ असूझ।

 

सत्राु जूझि तब नेवरै, एक दुवौ महँ जूझ॥1॥

 

जौ देवपाल राव रन गाजा । मोहि तोहि जूझ एकौझा, राजा!॥

 

मेलेसि साँग आइ बिष भरी । मेटि न जाइ काल कै घरी॥

 

आइ नाभि पर साँग बईठी । नाभि बेधिा निकसी सो पीठी॥

 

चला मारि, तब राजै मारा । टूट कंधा, धाड़ भयउ निनारा॥

 

सीस काटि कै बैरी बाँधाा । पावा दाँव बैर जस साधाा॥

 

जियत फिरा आयउ बल भरा । माँझ बाट होइ लोहै धारा॥

 

कारी घाव जाइ नहिं डोला । रही जीभ जम गही, को बोला?॥

 

सुधिा बुधिा तौ सब बिसरी, भार परा मझ बाट।

 

हस्ति घोर को काकर? घर आनी गइ खाट॥2॥

 

(1) पेखा=देखता है। गादुर=चमगादर। सूर=सूर्य। सरि=बराबरी। लोहा भयउ=युध्द हुआ। नेवरे=समाप्त हो, निबटे।

 

(2) एकौभा=अकेले, द्वंद्वयुध्द। चला मारि…मारा=वह भाला मारकर चला जाता था, तब राजा रत्नसेन ने फिरकर उस पर भी वार किया। बैरी=शत्राु देवपाल को। माँझ बाट…धारा=आधो रास्ते पहुँचकर हथियार छोड़ दिया। कारी=गहरा, भारी। भार परा मँझ बाट=बोझ की तरह राजा रत्नसेन बीच रास्ते में गिर पड़े।

 

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तौ लहि साँस पेट महँअही । जौ लहि दसा जीउ कै रही॥

 

काल आउ देखराई साँटी । उठि जिउ चला छोड़ि कै माटी॥

 

काकर लोग,कुटुँब, घर बारू । काकर अरथ दरब संसारू॥

 

ओही घरी सब भयउपरावा । आपन सोइ जो परसा, खावा॥

 

अहे जे हितू साथ के नेगी । सबै लाग काढ़ै तेहि बेगी॥

 

हाथ झारि जस चलै जुवारी । तजा राज, होइ चला भिखारी॥

 

जब हुत जीउ, रतन सब कहा । भा बिनु जीउ, न कौड़ी लहा॥

 

गढ़ सौंपा बादल कहँ, गए टिकठि बसि देव।

 

छोड़ी राम अयोधया, जो भावै सो लेव॥1॥

 

(1) साँटी=छड़ी। आपन सोइ…खावा=अपना वही हुआ जो खाया और दूसरे को खिलाया। नेगी=पानेवाले। हुत=था। टिकठि=टिकठी, अरथी जिसपर मुरदा ले जाते हैं। देव=राजा। जो भावै सो लेव=जो चाहे सो ले।

 

 

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पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी॥

 

सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो ससि सो अमावस भई॥

 

छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं॥

 

सेंदुर परा जो सीस उघारा । आगि लागि चह जग ऍंधिायारा॥

 

वही दिवस हौं चाहति नाहा । चलौं साथ, पिउ! देइ गलबाहाँ॥

 

सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे॥

 

नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं॥

 

दीपक प्रीति पतंग जेउँ, जनम निबाह करेउँ।

 

नेवछावरि चहुँ पास होइ, कंठ लागि जिउ देउँ॥1॥

 

नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी॥

 

दुवौ सवति चढ़ि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी॥

 

बैठौ कोइ राज ओ पाटा । अंत सबै बैठै पुनि खाटा॥

 

चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा॥

 

बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता॥

 

एक जो बाजा भयउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर निबाहूँ॥

 

जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा॥

 

आजु सूर दिन अथवा, आजु रैनि ससि बूड़।

 

आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड़॥2॥

 

सर रचि दानपुन्निबहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा॥

 

एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं॥

 

जियत, कंत! तुम हम्ह गर लाई । मुए कंठ नहिं छोड़हिं, साईं!॥

 

औ जो गाँठि, कंत! तुम्ह जोरी । आदि अंत लहि जाइ न छोरी॥

 

यह जग काह जो अछहि न आथी । हम तुम, नाह! दुहूँ जगसाथी॥

 

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई । पौढ़ीं दुवौ कंत गर लाई॥

 

लागीं कंठ आगि देइ होरी । छार भईं जरि, अंग न मोरी॥

 

रातीं पिउ के नेह गइँ, सरग भयउ रतनार।

 

जो रे उवा, सो अथवा, रहा न कोइ संसार॥3॥

 

वै सहगवन भईं जब जाई । बादसाह गढ़ छेंका आई॥

 

तौलगि सो अवसर होइ बीता । भए अलोप राम औ सीता॥

 

आइ साह जौ सुना अखारा । होइगा राति दिवस उजियारा॥

 

छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उड़ाइ, पिरथिमी झूठी॥

 

सगरिउ कटक उठाई माटी । पुल बाँधाा जहँ जहँ गढ़ घाटी॥

 

जौ लहि ऊपर छार न परै । तौ लहि यह तिस्ना नहिं मरै॥

 

भा धाावा, भइ जूझ असूझा । बादल आइ पँवरि पर जूझा॥

 

जौहर भइँ सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम।

 

बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इसलाम॥4॥

 

(1) आगि लागि…ऍंधिायार=काले बालों के बीच लाल सिंदूर मानो यह सूचित करता था कि ऍंधोरे संसार में अब आग लगा चाहती है (पदमावती के सती होने का आभास मिलता है)। छहरावौं=छितराऊँ।

 

(2) महा सत=सत्य में। तिन्ह दीठि परा=उन्हें दिखाई पड़ा। बैठौ=चाहे बैठे। खाटा=अर्थी, टिकठी। अगूता होइ=आगे होकर। सूता चहहिं=सोना चाहती हैं। बाजा=बाजे से। ओर निबाहू=अंत का निर्वाह। रहसि=प्रसन्न होकर। बूड़=डूबा। हम्ह=हमें, हमारे लिए। जूड़=ठंढी।

 

(3) सर=चिता। गोहन=साथ। हम्ह गर लाइ=हमें गले लगाया। अंत लहि=अंत तक। अछहि=है। आथी=सार, पूँजी, अस्तित्व। अछहि न आथी=जो स्थिर या सारवान नहीं है। रतनार=लाल, प्रेममय या आभापूर्ण।

 

(4) सहगवन भईं=पति के साथ सहगमन किया; सती हुईं। तौ लगि…बीता=तब तक वहाँ सब कुछ हो चुका था। अखारा=अखाड़े या सभा में, दरबार में। गढ़ घाटी=गढ़ की खाई। पुल बाँधाा…घाटी=सती स्त्रिायों की एक एक मुट्ठी राख इतनी हो गई कि उससे जगह-जगह खाई पट गई और पुल सा बँधा गया। जौ लहि=जब तक। तिस्ना=तृष्णा। जौहर भइँ=राजपूत प्रथा के अनुसार जल मरीं। संग्राम भए=खेत रहे, लड़कर मरे। चितउर भा इसलाम=चित्ताौरगढ़ में भी मुसलमानी अमलदारी हो गई।

 

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मैं एहिअरथ पंडितन्ह बूझा । कहा कि हम्ह किछु और न सूझा॥

 

चौदह भुवन जो तर उपराहीं । ते सब मानुष के घट माहीं॥

 

तन चितउर, मन राजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधिा पदमावति चीन्हा॥

 

गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥

 

नागमती यह दुनिया धांधाा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधाा॥

 

राघव दूत सोइ सैतानू । माया अलाउदीं सुलतानू॥

 

प्रेम कथा एहि भाँति बिचारहु । बूझि लेहु जौ बूझै पारहु॥

 

तुरकी, अरबी, हिंदुई, भाषा जेती आहिं।

 

जेहि महँ मारग प्रेम कर, सबै सराहैं ताहि॥1॥

 

मुहमद कबि यह जोरि सुनावा । सुना सो पीर प्रेम कर पावा॥

 

जोरी लाइ रकत कै लेई । गाढ़ि प्रीति नयनन्ह जल भेई॥

 

औ मैं जानि गीत अस कीन्हा । मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥

 

कहाँसो रतनसेन अब राजा? । कहाँ सुआ अस बुधिा उपराजा?॥

 

कहाँ अलाउदीन सुलतानू? । कहँ राघव जेइ कीन्ह बखानू?॥

 

कहँ सुरूप पदमावति रानी? । कोइ न रहा, जग रही कहानी॥

 

धानि सोईजस कीरति जासू । फूल मरै, पै मरै न बासू॥

 

केइ न जगत जस बेंचा, केइ न लीन्ह जस मोल?।

 

जो यह पढ़ै कहानी, हम्ह सँवरै दुइ बोल॥2॥

 

मुहमद बिरिधा बैस जोभई । जोबन हुत, जो अवस्था गई॥

 

बल जो गयउ कै खीन सरीरू । दिस्टि गई नैनहिं देइ नीरू॥

 

दसन गए कै पचा कपोला । बैन गए अनरुच देइ बोला॥

 

बुधिा जो गई देइ हिय बौराई । गरब गयउ तरहुँत सिर नाई॥

 

सरवन गए ऊँच जौ सुना । स्याही गई सीस भा धाुना॥

 

भँवर गए केसहि देइ भूवा । जोबन गयउ जीति लेइ जूवा॥

 

जौ लहि जीवन जोबन साथा । पुनि सो मीचु पराए हाथा॥

 

बिरिधा जो सीस डोलावै, सीस धाुनै तेहि रीस।

 

बूढ़ी आऊ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस?॥3॥

 

(1) एहि=इसका। पंडितन्ह=पंडितों से। कहा…सूझा=उन्होंने कहा, हमें तो सिवा इसके और कुछ नहीं सूझता है कि। उपराहीं=ऊपर। निरगुन=ब्रह्म, ईश्वर। (2) जोरी लाइ…भेई=इस कविता को मैंने रक्त की लेई लगाकर जोड़ा है और गाढ़ी प्रीति को ऑंसुओं से भिगो-भिगोकर गीला किया है। चीन्हा=चिद्द, निशान। उपराजा=उत्पन्न किया। अस बुधिा उपराजा=जिसने राजा रत्नसेन के मन में ऐसी बुध्दि उत्पन्न की। केइ न जगत जस बेचा=किसने इस संसार में थोड़े के लिए अपना यश नहीं खोया? अर्थात् बहुत से लोग ऐसे हैं। हम्ह सँवरै=हमें याद करेगा। दुइ बोल=दो शब्दों में, दो बार।

 

(3) पचा=पिचका हुआ। अनरुच=अरुचिकर। बौराई=बावलापन, जैसे, करत फिरत बौराई।-तुलसी। तरहुत=नीचे की ओर। धाुना=धाुनी रूई। भूवा=काँस के फूल, घुवा। जौ लहि हाथा=कवि कहता है कि जब तक जिन्दगी रहे जवानी के साथ रहे, फिर जब दूसरे का आश्रित होना पड़े तब तो मरना ही अच्छा है। रीस=रिस या क्रोधा से। केइ…असीस=किसने व्यर्थ ऐसा आशीर्वाद दिया।

 

 

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