कविता – देशयात्रा खंड, लक्ष्मी-समुद्र खंड,चित्तौर -आगमन खंड, – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172बोहित भरे, चला लेइ रानी । दान माँगि सत देखै दानी॥

लोभ न कीजै, दीजै दानू । दान पुन्नि तें होइ कल्यानू॥

 

दरब दान देबै बिधिा कहा । दान मोख होइ, दु:ख न रहा॥

 

दान आहि सब दरब क जूरू । दान लाभ होइ बाँचे मूरू॥

 

दान करै रच्छा मँझ नीरा । दान खेइ कै लावै तीरा॥

 

दान करन दै दुइ जग तरा । रावन सँचा, अगिनि महँ जरा॥

 

दान मेरु बड़ि लागि अकासा । सैंति कुबेर मुए तेहि पासा॥

 

चालिस अंस दरब जहँ, एक अंस तहँ मोर।

 

नाहिं त जरै कि बूड़ै, की निसि मूसहिं चोर॥1॥

 

सुनि सो दान राजै रिसि मानी । केइ बौराएसि बौरे दानी॥

 

सोई पुरुष दरब जेइ सैंती । दरबहिं तै सुनु बातैं एती॥

 

दरब तँ गरब करै जे चाहा । दरब तें धारती सरग बेसाहा॥

 

दरब तें हाथ आव कबिलासू । दरब तें अछरी छाँड़ न पासू॥

 

दरब तें निरगुन होइ गुनवंता । दरब तें कुबुज होइ रूपबंता॥

 

दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा । अस मन दरब देइ को पारा?॥

 

दरब तें धारम करम औ राजा । दरब तें सुध्द बुध्दि, बल गाजा॥

 

कहा समुद, रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु॥

 

भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु॥2॥

 

आधो समुद ते आए नाहीं । उठी बाउ ऑंधाी उतराहीं॥

 

लहरैं उठी समुद उलथाना । भूला पंथ, सरग नियराना॥

 

अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ । पाहन उड़ै बहै सो बाऊ॥

 

बोहित चले जो चितउर ताके । भए कुपंथ, लंक दिसि हाँके॥

 

जो लेइ भार निबाहि न पारा । सो का गरब करै कँधाारा?॥

 

दरब भार सँग काहु न उठा । जेइ सैंता ताहीं सौं रुठा॥

 

गहे पखान पंखि नहिं उड़ै । ‘मोर मोर’ जो करै सो बुड़ै॥

 

दरब जो जानहिं आपना भूलहिं गरब मनाहिं।

 

जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं॥3॥

 

केवट एक बिभीषन केरा । आव मच्छ कर करत अहेरा॥

 

लंका कर राकस अति कारा । आवैं चला होइ ऍंधिायारा॥

 

पाँच मूड़, दस बाहीं ताही । दहि भा साँव लंक जव दाही॥

 

धाुऑं उठै मुख साँस सँघाता । निकसै आगि कहै जौ बाता॥

 

फेंकरे मूँड़ चँवर जनु लाए । निकसि दाँत मुँह बाहर आए॥

 

देह रीछ कै, रीछ डेराई । देखत दिस्टि धााइ जनु खाई॥

 

राते नैन नियर जौ आवा । देखि भयावन सब डर खावा॥

 

धारती पायँ सरग सिर, जनहुँ सहस्राबाहु।

 

चाँद सूर औ नखत महँ, अस देखा जस राहु॥4॥

 

बोहित बहे, न मानहिं खेवा । राजहिं देखि हँसा मन देवा॥

 

बहुतै दिनहि बार भइदूजी । अजगर केरि आइ भुख पूजी॥

 

यह पदमावती बिभीषन पावा । जानहु आजु अजोधया छावा॥

 

जानहु रावन पाई सीता । लंका बसी राम कहँ जीता॥

 

मच्छ देखि जेसे बग आवा । टाइ टोइ भुइँ पाँव उठावा॥

 

आइ नियर होइ कीन्ह जोहारू । पूछा खेम कुसल बेवहारू॥

 

जो बिस्वासघात कर देवा । बड़ बिसवास करै कै सेवा॥

 

कहाँ, मीत! तुम भूलहु, औ आएहु केहि घाट?

 

हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तोहि बाट॥5॥

 

गाढ़ परे जिउ बाउर होई । जो भलि बात कहै भल सोई॥

 

राजै राकस नियर बोलावा । आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा॥

 

करि बिस्वास राकसहि बोला । बोहित फेरु जाइ नहिं डोला॥

 

तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं । बोहित तीर लाउ गहि बाहीं॥

 

ताहिं तें तीर घाट जौ पावौं । नौगिरिही तोड़र पहिरावौं॥

 

कुंडल स्रवन देउँ पहिराई । महरा कै सौंपौं महराई॥

 

तस मैं तोरि पुरावौं आसा । रकसाई कै रहै न बासा॥

 

राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसबास॥

 

बग अपने भख कारन, होइ मच्छ कर दास॥6॥

 

राकस कहा गोसाईं विनाती । भल सवक राकस कै जाती॥

 

जहिया लंक दही श्रीरामा । सेव न छाँड़ा दहि भा सामा॥

 

अबहूँ सेव करौं सँग लागे । मनुष भुलाइ होउँ तेहि आगे॥

 

सेतुबंधा जहँ राघव बाँधाा । तहँवाँ चढ़ौं भार लेइ काँधाा॥

 

पै अब तुरत दान किछु पावौ । तुरत खेइ ओहि बाँधा चढ़ावौं॥

 

तुरत जो दान पानि हँसि दीजै । थोरै दान बहुत पुनि लीजै॥

 

सेव कराइ जौ दीजै दानू । दान नाहिं सेवा कर मानू॥

 

दिया बुझा, सत ना रहा, हुत निरमल जेहि रूप।

 

ऑंधाी बोहित उड़ाइ कै, लाइ कीन्ह ऍंधाकूप॥7॥

 

जहाँ समुद मझधाार मँड़ारू । फिरै पानि पातार दुआरू॥

 

फिरि फिरि पानि ठाँव ओहि मरै । फरि न निकसै जो तहँ परै॥

 

ओही ठाँव महिरावन पुरी । हलका तर जमकातर छुरी॥

 

ओही ठाँव महिरावन मारा । परे हाड़ जनु खरे पहारा॥

 

परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी । सेतुबंधा अस आवै दीठी॥

 

राकस आइ तहाँ के जुरे । बोहित भँवर चक्र महँ परे॥

 

फिरै लगै बोहित तस आई । जस काहाँर धारि चाक फिराई॥

 

राजै कहा, रे राकस! जानि बूझ बौरासि।

 

सेतुबंधा यह देखै, कस न तहाँ लेइ जासि?॥8॥

 

‘सेतुबंधा’ सुनि राकस हँसा । जानहु सरग टूटि भुइँ खसा॥

 

को बाउर? बाउरतुम देखा । जो बाउर, भख लागि सरेखा॥

 

पाँखी जो बाउर घर माटी । जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी॥

 

बाउर तुम जो भखै कहँ आने । तबहिं न समझै, पंथ भुलाने॥

 

महिरावन कै रीढ़ जा परी । कहहु सो सेतुबंधा, बुधिा छरी॥

 

यह तो आहि महिरावन पुरी । जहवाँ सरग नियर घर दुरी॥

 

अब पछिताहु दरब जस जोरा । कहहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा॥

 

जो रे जियत महिरावन, लेत जगत कर भार॥

 

जो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार॥9॥

 

बोहित भँवहिं भँवै सब पानी । नाचहिं राकस आस तुलानी॥

 

बूड़हिं हस्ती, घोर, मानवा । चहुँ दिस आइ जुरै मँसखवा॥

 

ततखन राजपंखि एकआवा । सिखर टूट जस डसन डोलावा॥

 

परा दिस्टि वह राकस खोटा । ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा॥

 

आइ ओही राकस पर टूटा । गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा॥

 

बोहित टूट टूक सब भए । एहु न जाना कहँ चलि गए॥

 

भए राजा रानी दुह पाटा । दूनौं बहे चले दुइ बाटा॥

 

काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड।

 

तन रोवै धारती परा, जीउ चला बरम्हँड॥10॥

 

(1) जूरू=जोड़ना। सँचा=संचित किया। दान=दान से। सैंति=सहेजकर, संचित करके।

 

(2) सैंति=संचित किया। एती=इतनी। बेसाहा खरीदते हैं। कुबुज=कुबड़ा। दरब रहै…लिलारा=द्रव्य धारती में गड़ा रहता है और चमकता है माथा (असंगति का यह उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिध्द है, ‘गाड़ा है भँडार; बरत है लिलार’)। देइ को पारा=कौन दे सकता है। मूँद=मूँदा हुआ, बंद।

 

(3) उतराहीं=उत्तार की हवा। अदिन=बुरा दिन। काऊ=कभी। मनाहिं=मन में

 

(4) सँघाता=संग। फेंकरे=नंगे, बिना टोपी या पगड़ी के (अवधाी)। चँवर जनु लाए=चँवर के से खड़े बाल लगाए हुए। चाँद, सूर, नखत= पदमावती, राजा और सखियाँ।

 

(5) देवा=देव, राक्षस (फारसी)। बग=बगला। लाइ देउँ तोहि बाट=तुझे रास्ते पर लगा दूँ।

 

(6) नौगिरिही=कलाई में पहनने का स्त्रिायों का एक गहना जो बहुत से दानों को गूँथकर बनाया जाता है। तोड़र=तोड़ा; कलाई में पहनने का गहना। महरा=मल्लाहों का सरदार। रकसाई=राक्षसपन। बासा=गंधा। बिसवास=विश्वासघात।

 

(7) जहिया=जब। पानि=हाथ से। हुत=था। जेहि=जिससे।

 

(8) मँड़ारू=दह, गङ्ढा। हलका=हिलोर, लहर। तर=नीचे। औरासि=बाबला होता है तू।

 

(9) जो बाउर…सरेखा=पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढ़ने के लिए चतुर होता है। पाँखी=फतिंगा। घरमाटी=मिट्टी के घर में। छरी=छली गई, भ्रांत हुई।

 

(10) भवँहि=चक्कर खाते हैं। आस तुलसी=आशा जाती रही। मानवा=मनुष्य। डहन=डैना, पर।

 

 

मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥

 

जानहु चित्रा मूर्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई॥

 

जनम न सहा पवन सकुवाँरा । तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥

 

लछिमी नावँ समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥

 

खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥

 

कहेसि सहेली ‘देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा॥

 

जो देखा, तीवइ है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा’॥

 

रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।

 

आइ बही दधिा समुद महँ, पै रँग गएउ न छूटि॥1॥

 

लछमी लखन बतीसौ लखी । कहेसि ‘न मरै, सँभारहु सखी॥

 

कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥

 

लहरि झकोर उदधिा जल भीजा । तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा’॥

 

आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावैं सखि चहुँ ओरै॥

 

बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥

 

पानी पियाइ सखी मुख धाोई । पदमावति जनहुँ कवँल संग कोई॥

 

तब लछिमी दुख पूछा ओही । ‘तिरिया! समुझि बात कहु मोहीं॥

 

देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।

 

केहि नगरी कै नागरी काह नावँ धानि तोर?’॥2॥

 

नैन पसार देख धान चेती । देखै काह, समुद कै रेती॥

 

आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?

 

कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥

 

कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु बिधिा गरुअ सँवारा॥

 

ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥

 

रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार दुख चाँपी?॥

 

कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधिा जल माहाँ॥

 

आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।

 

तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि कै डार?॥3॥

 

कहेन्हि ‘न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिंजीऊ॥

 

पाट परी आई तुम वही । ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही’॥

 

तब सुधिा पदमावति मन भई । सँवरि बिछोह मुरु छ मरि गई॥

 

नैनहिं रकत सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै॥

 

खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा॥

 

बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥

 

को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस जोरी॥

 

जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।

 

लोग कहैं यह सर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥4॥

 

काया उदधिा चितव पिउ पाहाँ । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥

 

जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया॥

 

नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि भरौं मैं झूरी॥

 

पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥

 

साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई॥

 

नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं॥

 

मन भँवरा भा कवँल बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी॥

 

साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।

 

जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥5॥

 

सती होइ कहँ सीस उघारा । धान महँ बीजु घाव जिमि मारा॥

 

सेंदुर जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई॥

 

छूटि माँग अस मोति पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई॥

 

टूटहिं मोति बिछोह जो भरे । सावन बूँद गिरहिं जनु झरे॥

 

भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥

 

अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई॥

 

खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥

 

रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।

 

जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥6॥

 

लछिमी लागि बुझावै जीऊ । ‘ना मरु बहिन! मिलहितोरपीऊ॥

 

पीउ पानि, होउ पवन अधाारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी॥

 

मैं तोहि लागि लेउँ खटबाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू॥

 

हौं जेहि मिलौं ताहि बड़भागू । राजपाट औ देउँ सोहागू’॥

 

कहि बुझाइ लेइ मँदिर सिधाारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी॥

 

जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख कहाँ सुख सोवा?

 

कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा॥

 

लछिमी जाइ समुद पहँ, रोइ बात यह चालि।

 

कहा समुद ‘वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि’॥7॥

 

राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा॥

 

तहाँ एक परबत असडूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ गूँगा॥

 

तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा॥

 

अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा॥

 

ढाढ़ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़ राज बिछोवा!॥

 

कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक ख्रधाारा॥

 

कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली?॥

 

कहँ रानी पदमावति, जीउ बसै जेहि पाहँ।

 

‘मोर मोर’ कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह॥8॥

 

भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राजा बेगि सो पावै॥

 

पदमावतिचाह जहाँसुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धाँसावौं॥

 

खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा॥

 

कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी1॥

 

परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा॥

 

सीताहरन राम संग्रामा । हनुबँत मिला त पाई रामा॥

 

मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधिा गवेसी होई1॥

 

भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।

 

आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि॥9॥

 

काहि पुकारौं जा पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ॥

 

को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै?॥

 

कहाँ सो बरम्हा बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू॥

 

कोअस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी॥

 

को दधिा समुद मथै जस मथा? । करनी सार न कहिए कथा॥

 

जौ लहि मथै न कोई देइ जीऊ । सूधाी ऍंगुरि न निकसै घीऊ॥

 

लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा॥

 

लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि।

 

को उजियार करै जग, झाँपा चंद उघेलि?॥10॥

 

ए गोसाइँ! तू सिरजनहारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा॥

 

तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा॥

 

तुइँ जल ऊपर धारती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी॥

 

चाँद सुरुज औ नखतन्ह पाँती । तारे डर धााबहिं दिन राती॥

 

पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी॥

 

सो मूरुख औ बाउर अंधाा । तोहि छाँड़ि चित औरहि बंधाा॥

 

घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधाा जेहि सूझ न पीठी॥

 

पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि।

 

आगि होइ भा माटी, गोरखधांधौ लागि॥11॥

 

तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ॥

 

चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिछुर आव एक साथा॥

 

सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ॥

 

जानसि सवैं अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी॥

 

एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी॥

 

झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं। माँथ बेगि निस्तरऊँ॥

 

मरौं सौ लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ॥

 

दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोब न कोइ।

 

एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ॥12॥

 

कहि के उठा समुद्र पहँआवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥

 

कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाम्हन रूप आइ परगटा॥

 

तिलक दुवादस मस्तककीन्हे । हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥

 

मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधो । कनकपत्रा धाोती तर बाँधो॥

 

पाँवरि कनक जराऊपाऊ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥

 

कहसि कुँवर मोसौं सब बाता । काहे लागि करसि अपघाता॥

 

परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा । आपनि जीउ देसि केहि काजा॥

 

जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।

 

सकति जीउ जौं काढ़ै, महा दोष औ पाप॥13॥

 

को तुम्ह उतर देइ हो पाँडे । सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े॥

 

जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥

 

सिंघलदीप राजघर बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी॥

 

बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥

 

रतन पदारथ मानिक मोती । हुती न काहु के संपति ओती॥

 

बहल, घोड़ हस्ती सिंघली । औ सँग कुँबरि लाख दुइ चलीं॥

 

ते गोहने सिंघल पदमावति । एक सौं एक चाहि रूपमनी॥

 

पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल।

 

तेहि समुद्र मह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥14॥

 

हँसा समुद, होइ उठा ऍंजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि ‘मोरा’॥

 

तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥

 

हाथ मरोरि धाुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न उघरै ऑंखी॥

 

बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा॥

 

जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिध्दि न पावत राया!॥

 

सिध्दै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाँड़ा॥

 

पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई॥

 

जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।

 

धान लछिमी सब ताकर, लेइ तका पछिताव?॥15॥

 

अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी॥

 

तपि कै पावा, मिलि कै फूला । पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥

 

पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरे पै चाहा॥

 

कहँ अस नारि जगत उपराहीं ? कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥

 

कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना॥

 

जहँ अस परा समुद नग दीया । तह किमि जिया चहै मरजीया?

 

जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देह हत्या झगरौं सिवलोका॥

 

का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दाँव?।

 

जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियाव॥16॥

 

जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥

 

जो मरि भा औछाँड़ेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया॥

 

जो मरि भएउ न बूडै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा॥

 

तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैसे राम दसरथ कर बेटा॥

 

ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा॥

 

उदधिा आइ तेइ बंधान कीन्हा । हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥

 

तोहि बल नाहिं मूँदु अब ऑंखी । लावौं तीर टेक बैसाखी॥

 

बाउर अंधा प्रेम कर, सुनत लुबुधिा भा बाट।

 

निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥17॥

 

पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक बीरौ तर सीता॥

 

कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी॥

 

तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥

 

रही मृनाल टकि दुखदाधाी । आधाी कँवल भई ससि आधाी॥

 

नलिनखंड दुइतस करिहाऊँ । रोमावली बिछूक कहाऊँ॥

 

रही टूटिजिमि कंचन तागू । को पिउ मेरवै देइ सोहागू॥

 

पान न खाइ करै उपवासू । फूल सूख तन रही न बासू॥

 

गगन धारति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस।

 

पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥18॥

 

लछमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥

 

रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥

 

औ भइ पदमावति केरूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धाूपा॥

 

देखि सो कँवल भँवर होइ धाावा । साँस लीन्ह वह बास न पावा॥

 

निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी॥

 

जौ भलि होतिलच्छमी नारी । तजि महेस कित हो भिखारी?॥

 

पुनि धानि पिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥

 

हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।

 

आनि समुद महँ छाड़ेहु अब रोवौं देइ जीउ॥19॥

 

मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू । लेत फिरौं मालति कर खोजू॥

 

मालति नारी, भँवरा पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥

 

का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल गोइ पै बास न सोई॥

 

भँवर जो सब फूलन कर । फेरावास न लेइ मालतिहि हेरा॥

 

जहाँ पाव मालति कर बासू । बारै जीउ तहाँ होइ दासू॥

 

कित वह वास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥

 

हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ॥

 

भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।

 

सौहैं भाल खाइ पै, फिरि कै देइ न पीठि॥20॥

 

तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु जाऊँ॥

 

लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा॥

 

पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा॥

 

मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै लिलाटा॥

 

दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन कचोर भरे जनु मोती॥

 

भुजा लंक उर केहरि जीता । मूरति कान्ह देख गोपीता॥

 

जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा॥

 

जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।

 

मिला भँवर मालति कहाँ करहु दोउ मिलि भोग॥21॥

 

पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥

 

जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू॥

 

कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा॥

 

लोचन कँवल सिरीमुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥

 

मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली॥

 

देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहिके बह ओहिके आसा॥

 

कंचन दाहि दीन्ह जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ॥

 

पायँ परी धानि पीउ के, नैनन्ह सौं रज मेट।

 

अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कँवलहिं भेंट॥22॥

 

जिनि काहू कहँहोइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ॥

 

पदमावति जो पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ॥

 

कै नेवछावरि तन मन वारी । पाँयन्ह परी घालि गिउ नारी॥

 

नव अवतार दीन्ह बिधिा आजू । रही छार भइ मानुष साजू॥

 

राजा रोव घालि गिउपागा । पदमावति के पाँयन्ह लागा॥

 

तन जिउ महँ बिधिा दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह नकोऊ॥

 

सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा॥

 

मुहमद मीत जौ मन बसै, विधिा मिलाव ओहि आनि।

 

संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि॥23॥

 

लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पाइउँ जो चहा॥

 

जौ सब खोइजाहिं हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ॥

 

जे सब कुँवर आएहम साथी । औ जत हस्ति घोड़ औ साथी॥

 

जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन, भरन दुख रोगू॥

 

तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूढ़ सो पाऊँ॥

 

तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा॥

 

एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी॥

 

आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद।

 

भई प्राप्त सुख सँपति, गएउ छूटि दुख दंद॥24॥

 

और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना॥

 

जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ॥

 

तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक-एक नग दीप जो लहै॥

 

हीर फार बहु मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे॥

 

जौ एक रतन भंजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई॥

 

दरब गरब मन गएउ भुलाई । हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥

 

लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चाहि सोइ तेइ माना॥

 

बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।

 

जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥25॥

 

दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥

 

लछमी पदमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा ‘मोरि तू बेटी’॥

 

दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥

 

और पाँच नग दीन्हबिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥

 

एक तौ अमृत दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू॥

 

चौथ दीन्ह सावक सादूरू । पाँचवँ परस जो कंचनमूरू॥

 

तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जलमानुष अगुआ सँग लाए॥

 

भेंट घाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।

 

जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥26॥

 

जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधाा भात बिकाई॥

 

राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि किछु गाँठि न रहा॥

 

साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमिडोला॥

 

साँठिहि रंक चलै झौंराई । निसँठ राव सब कह बौराई॥

 

साँठिहि आबगरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुध्दि बल भूला॥

 

साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई॥

 

साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना । निसँठ होइ मुख आव न बैना॥

 

साँठिहि रहै साधिा तन, निसँठहि आगरि भूख।

 

बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥27॥

 

पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धान कौने काजा?॥

 

अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिले लच्छि जौ नाठी॥

 

मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै॥

 

जेहि तन पंख, जाइजहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका॥

 

लछमी दीन्ह रहामोहि बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥

 

काढ़ि एक नग बेगिभँजाबा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥

 

दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई॥

 

जोरि कटक पुनि राजा, धार कहँ कीन्ह पयान।

 

दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान॥28॥

 

(1) न जानी=न जानें। अही=थी। सेंती=से। रेती=बालू का किनारा। तीवइ=स्त्राी में।

 

(2) कागर=कागज। पतरा=पतला। उड़ाइ=उड़कर। कोरै=गोद में। बोलि कै=पुकारकर। समुझि=सुधा करके

 

।(3) चेती=चेत करके, होश में आकर। देखै काह=देखती क्या है कि। झाँपी=आच्छादित। चाँपी=दबी हुई। चूरी=चूर्ण किया। लागौं केहि कै डार=(मुहा.) किसकी डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?

 

(4) पाव=पाया। सँवरि=स्मरण करके। सर=चिता।

 

(5) थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी…निरबाहि=साथी वही है जो धान और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि=सार, पूँजी। निआथि=निर्धानता।

 

(6) धान महँ…मारा-काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर-भहर=जगमगाता हुआ। माँग=माँगती है। पाहुन पवन…सब कोई=मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर=बल, सहारा। अरंभ=रंभ, नाद, कूक।

 

(7) बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी। बारी=लड़की। लेउँ खटवाटू=खटपाटी लूँगी, रूसकर काम-धांधाा छोड़ पड़ रहूँगी। (स्त्रिायों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर इसलिए पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जाएगी न उठँगी, ‘खटपाटी लेना’ कहलाता है)। सुख सोवा=सुख से सोना (साधाारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है)। कहाँ सुमेरु सेसा=आकाश-पाताल का अंतर। बात चालि-बात चलाई।

 

(8) डूँगा=टीला। ख्रधाारा=स्कंधाावार, डेरा, तंबू। अवगाह=अथाह (समुद्र) में।

 

1. पाठांतर-अगम पंथ कर होइ सँदेसी।

 

(9) चाह=खबर। धाँसावौं=धाँसू। गवेसी=खोजी, ढूँढ़नेवाला, गवेषणा करने वाला। बर बाँधिा=रेखा खींचकर, दृढ़ प्रतिज्ञा करके (आजकल ‘बरैया बाँधिा’ बोलते हैं)।

 

(10) मीत होइ=जो मित्रा हो। गाढ़ै=संकट के समय में। दाम=रस्सी। करनी सार…कथा=करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है? बटा भा=बटाऊ हुआ, चल दिया। ढील होइ रहा=चुपचाप बैठ रहा। उघेलि=खोलकर।

 

(11) थाँभा=ठहराया, टिकाया। थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिए छप्पर के नीचे खड़ा दिया जाता है। भार न थाकी-भार से नहीं थाकी। सबके पीठि…साँटी=सबकी पीठ पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सबके ऊपर तेरा शासन है।

 

1. पाठांतर-को सहाय उपदेसी होई।

 

(12) मेरवसि=तू मिलाता है। आउ=आयु। बिछोवसि=बिछोह करता है। मेराऊ=मिलाप। जाहाँ=जहाँ कलपौं=काटूँ। करेसि=तुम करना।

 

(13) पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर पर घटा चाहता है। बैसाखी=लाठी। पाँवरि=खड़ाऊँ। पाऊँ=पाँव में। काहे लगि=किसलिए। अपघात=आत्मघात। परिहसर्=ईष्या।

 

(14) तुम्ह=तुम्हें। भाँडे घर में, शरीर में। ओती=उतनी। चाहि=बढ़कर। रूपमती=रूपवती। दुहेल=दुख।

 

(15) तोर होइ…बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी=झींखकर। उघरै=खुलती है। सैंतत सिध्दि….राया=तौं हैं राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिध्दि पा न जाते। पानी कै…गई=जो वस्तुएँ (रतन आदि) पानी की थीं बे पानी में गईं। लेइ चाह=लिया ही चाहे। जब भाव=जब चाहे।

 

(16) अनु=फिर, आगे फूला, प्रफुल्ल हुआ। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ=मोकहँ, मुझको। देइ हत्या=सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव=बदला लेने का मौका।

 

(17) मरि भा=मर चुका। दायाँ=दाँव, आयोजन। बाट भा=रास्ता पकड़ा।

 

(18) बीरौ=बिरवा, पेड़। दाघी=जली हुई। करिहाउँ=कमर, कटि। बिछूक=बिच्छू। सेवाति=स्वाति नक्षत्रा में।

 

(19) छरै=छलती है। बाटा=मार्ग में। अगमन=आगे। दीठी=देखा। दीन्हीं पीठी=पीठ दी, मुँह फेर लिया।

 

(20) खोजू=पता। कर फेरा=फेरा करता है। हेरा=ढूँढ़ता है। वारै=निछावर करता है। नव=नया। भाल भाला।

 

(21) लेइ चलु, जाऊँ=यदि ले चले तो जाऊँ। छपा=छिपा हुआ। कचोर=कटोरा। गोफ्ता=गोपी। दमनहि=दमयंती को। पिंड=शरीर। छूँछा=खाली। पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहनाजिसमें रत्न जड़े जाते हैं।

 

(22) पदिकपदारथ=अर्थात्पदमावती।बहुरा=लौटा,फिरा।मूरू=मूल,जड़।एक पासा=एक साथ। सीऊ=शीत। रज मेट=ऑंसुओं से पैर की धाूल धाोती है। भइ ससि कँवलहिंभेंट=शशि, पदमावती का मुख और कमल, राजा के चरण।

 

(23) घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर।मानुष साजू=मनुष्य रूप में। घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर। पागा=पगड़ी। तन जिउ…चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोईनपहचाने।

 

(24) तुम्ह=तुम्हारे। आथी=पूँजी धान। जरी=जड़ी।

 

(25) पखाना=नग, पत्थर। सोन=सोना। रूप=चाँदी। तुम्ह ठाऊँ=तुम्हारे निकट, तुमसे। हीर फार=हीरे के टुकड़े। फार=फाल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं।

 

(26) पहुँनाई=मेहमानी। बिसेखे=विशेष प्रकार के। बंसू=वंश, कुल। सावक सादूरू=शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस=पारस पत्थर। कंचन-मूरू=सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष=समुद्र के मनुष्य। अगुवा=पथ प्रदर्शक। सँग लाए=संग में लगा दिए। भेंटघाँट=भेंट मिलाप। समदि=बिदा करके।

 

(27) रींधाा=पका हुआ। साँठि=पूँजी, धान। नाठि=नष्ट हुई। झौंराई=झूमकर। कह=कहते हैं। औंघाई=नींद। साधिा तन=शरीर को संयत करके। आगरि=बढ़ी हुई, अधिाक। गथ=पूँजी।

 

(28) नाठी=नष्ट हुई। मुकती=बहुत सी, अधिाक। साँकर परे=संकट पड़ने पर। उपकरै=उपकार करती है, काम आती है। साँभर=संबल, राह का खर्च। सकान=डरा।

 

 

 

चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति इंद्र अस गाजा॥

 

बाजन बाजहिं होइ ऍंदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा॥

 

पदमावति चंडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी॥

 

यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरै सँपति अरूझा॥

 

सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई॥

 

जोगी इहै जानि मन मारा । तौहुँ न यह मन मरै अपारा॥

 

रहा न बाँधाा बाँधाा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही॥

 

मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ।

 

ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ॥1॥

 

नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरखा जनु आवा॥

 

रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा॥

 

सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी॥

 

जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधिा बसाई॥

 

ओहि भाँतिपलुही सुख बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥

 

हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई॥

 

काम धानुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी॥

 

पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद।

 

आजु बदन तोर निरमल, अहै उवा जस चंद॥2॥

 

अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता॥

 

महि हुलसै जस पावस छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ॥

 

दसवँ दावँ के गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥

 

अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा॥

 

हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा॥

 

भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद छूटिगा राहू॥

 

पलुहे नैन बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं॥

 

कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आवा भाँट।

 

राजा आइ निअर भा, मँदिर बिछावहु पाट॥3॥

 

सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ॥

 

पलटा जनु बरषा ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा॥

 

देखि सो छत्रा भई जग छाहाँ । हस्ति मेघ ओनए जग माहाँ॥

 

सेन पूरि आई घन घोरा । रहस चाव बरसै चहुँ ओरा॥

 

धारति सरग अब होइ मरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा॥

 

उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा॥

 

दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले॥

 

होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ।

 

नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कहँ जाइ॥4॥

 

बाजत गाजत राजा आवा । नगर चहूँ दिसि बाज बधाावा॥

 

बिहँसि आइमाता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला॥

 

साजे मदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा॥

 

पदमावति कर आवं बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू॥

 

जनहुँ छाँह महँ धाूप देखाई । तैसइ भार लागि जौ आई॥

 

सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा॥

 

भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी॥

 

पुहुप गंधा संसार महँ, रूप बखानि न जाइ।

 

हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ॥5॥

 

बैठ सिंहासन लोग जोहारा । निधानी निरगुन दरव बोहारा॥

 

अगनितदान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा॥

 

लेइ कै हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले॥

 

बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं॥

 

नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरिहि बाजै घहरि निसाना॥

 

मिले कुँवर, कापर पहिराए । देह दरब तिन्ह घरहिं पठाए॥

 

सबकै दसा फिरी पुनि दुनी । दान डाँग सबही जग सुनी॥

 

बाजैं पाँच सबद निहित, सिध्दि बखानहिं भाँट।

 

छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट॥6॥

 

सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा॥

 

नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी॥

 

ग्रीषम जरत छाँड़ि जो जाई । सो मुख कौन देखावै आई?॥

 

जबहिं जरै परबत बन लागे । उठी झार पंखी उठि भागे॥

 

जब साखा देखै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ॥

 

को नहिं हरषिबैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥

 

तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी॥

 

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ और सौं नेह।

 

तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहि मुख बरिसै मेह॥7॥

 

नागमती तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही॥

 

बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धानि न मिलै धानि पाहन जीऊ॥

 

पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेउ मिलहिं जौ होइ बिछोऊ॥

 

भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा॥

 

काह भएउ तन दिस दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा॥

 

कोइ केहु पास आत कै हेरा । घनि ओहि दरस निरास न फेरा॥

 

कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई॥

 

फरे सहस साखा होइ, दारिउँ, दाख, जँभीर।

 

सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर॥8॥

 

जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता॥

 

कहहु कंत! ओहि देस लोभाने । कस धानि मिली, भोग कस माने॥

 

जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप कि सरवरि होनी?॥

 

जहाँ राधिाका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सिर पूज न छाहाँ॥

 

भँवर पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ रस चाखा॥

 

तजि नागेसर फूल सोहावा । कँवल बिसैंधाहिं सौं मन लावा॥

 

जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौहुँ बिसायँधा वह नहिं तजा॥

 

काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव॥

 

इहाँ बात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव॥9॥

 

कहि दुख कथा जो रैनि बिहानी । भयउ भोर जहँ पदमावतिरानी॥

 

भानु देख ससि बदन मलीना । कँवल नैन राते, तनु खीना॥

 

रैनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू॥

 

सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट ऑंसु जनु नखतन्ह मारा॥

 

रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी॥

 

हौं कै नेह कुऑं महँ मेली । सींचौ लागि झुरानी बेली॥

 

नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी॥

 

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोह।

 

कँवल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरु होइ॥10॥

 

पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना॥

 

तुइँ जिमि कँवल बसीहिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधाा तोहि पाहाँ॥

 

मालति कली भँवर जो पावा । सो तजि आन फूल कित भावा?॥

 

मैं हौं सिंघल कैं पदमावति । सरि न पूज जंबू नागिनी॥

 

हौं सुगंधा निरमल उजियारी । वह विषभरी डेरावनि कारी॥

 

मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डर भागहिं॥

 

हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिक जिउ अस अहौं पईठी॥

 

ऊँचे ठाँव जो बैठे, करै न नीचहिं संग।

 

जहँ सो नागिनि हिरकै, करिया करै सो अंग॥11॥

 

पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी॥

 

जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे॥

 

सारिउँ सुवा महरि काकिला । रहसत आइ पपीहा मिला॥

 

हारिल सबद महोखसोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा॥

 

भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं करहिं बसेरा॥

 

नाचहिं पंडुक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा॥

 

होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै॥

 

संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ।

 

फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख छाँह॥12॥

 

(1) ऍंदोरा=अंदोर, हलचल, शोर (आंदोल)। चंडोल=पालकी। सरग सौं=ईश्वर से। तेलिया=सींगिया विष। तेलिया=तेही=चाहे उसे तेलिया विष से न मारे। केहुँ=किसी प्रकार।

 

(2) तुचा=त्वचा, केंचली। सुचा=सूचना, सुधा, खबर। सोंधिा=सोंधी। सोंधिा बसाई=सुगंधा से बस जाती है या सोंधाी महकती है। करिल=कल्ला। कोंप=कोंपल।

 

(3) ताता=गरम। दसवँ दावँ=दशम दशा, मरण। महरा=सरदार। औटन=ताप। नए चार=नए सिर से।

 

(4) दर=दल। रहस चाव=आनंद, उत्साह। लहकि उठी=लहलहा उठी। हुत=थे। अठारह गंडा नदी=अवधा में जनसाधारण के बीच यह प्रसिध्द है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72) नदियाँ मिलती हैं।

 

(5) बेवान=विमान। जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव हुआ। झार=(क) लपट, (ख)र् ईष्या, डाह। जौ=जब। उतारा। दीन्ह=उतारा हेम सेत=सफेद पाला या बर्फ।

 

(6) बहुत कै=बहुत सा। जत=जितने। अरकाना=अरकाने दौलत, सरदार, उमरा। दूनी=दुनिया में। डाँग=डंका। पाँच सबद=पंच शब्द, पाँच बाजे-तंत्राी, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरही । छतिस कूरि=छत्ताीसों कुल के क्षत्रिाय। षट दरसन=(लक्षण्ा से) छह शास्त्राों के वक्ता।

 

(7) दिआवा=दिलाया। कुरिहारा=कलरव, कोलाहल।

 

(8) पोढ़=दृढ़, मजबूत, कड़े। फरे सहस…भीर=अर्थात् नागमती में फिर यौवनश्री और रस आ गया और राजा के अंग-अंग उससे मिले।

 

(9) मेर=मेल, मिलाप। लोनी=सुगढ़। नागेसर=अर्थात् नागमती। कँवल=अर्थात् पद्मावती। बिसैधाा=बिसायँधा गंधावाला, मछली की सी गंधावाला। भाव=प्रेम भाव।

 

(10) देख=देखा। भानू=(क) सूर्य, (ख) रत्नसेन। डफारा=ढाढ़ मारती है। मारा=माला। कुऑं महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया। झुरान=सूखी। घरी=घड़ा। सुभर=भरा हुआ।

 

(11) बेधाा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ। डेरावनि=डरावनी। हिरकै=सटे। करिया=काला।

 

(12) पलुही=पल्लवित हुई, पनपी। गहगहे=आनंदपूर्वक। कुराहर=कोलाहल। जस=जैसे ही। खूसट=उल्लू। तूरहिं=तोड़ती हैं।

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