कविता – जन्म खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )

RamChandraShukla_243172चंपावति जो रूप सँवारी । पदमावति चाहै औतारी॥

भै चाहै असि कथा सलोनी । मेटि न जाइ लिखी जस होनी॥

 

सिंघलदीप भए तब नाऊँ । जो अस दिया बरा तेहि ठाऊँ॥

 

प्रथम सो जोति गगन निरमई । पुनि सो पिता माथे मनि भई॥

 

पुनि वह जोति मातु घट आई । तेहि ओदर आदर बहु पाई॥

 

जस अवधाान पूर होइ मासू । दिन दिन हिये होइ परगासू॥

 

जस अंचल महँ छिपै न दीया । तस उँजियार दिखावै हीया॥

 

सोने मँदिर सँवारहिं, औ चंदन सब लीप।

 

दिया जो मनि सिवलोक महँ, उपना सिंघलद्वीप॥1॥

 

भए दस मास पूरि भइ घरी । पदमावति कन्या औतरी॥

 

जानौ सूर किरिन हुति काढ़ी । सूरज कला घाटि, वह बाढ़ी॥

 

भा निसि महँ दिन कर परकासू । सब उजियार भएउ कबिलासू॥

 

इते रूप मूरति परगटी । पूनौ ससी छीन होइ घटी॥

 

घटतहि घटत अमावस भई । दिन दुइ लाज गाड़ि भुइँ गई॥

 

पुनि जो उठी दुइज होइ नई । निहकलंक ससि विधिा निरमई॥

 

पदुमगंधा बेधाा जग बासा । भौंर पतंग भए चहुँ पासा॥

 

इते रूप भै कन्या, जेहि सरि पूज न कोइ।

 

धानि सो देस रूपवंता, जहाँ जन्म अस होइ॥2॥

 

भै छठि राति छठीं सुख मानी । रहस कूद सौं रैनि बिहानी॥

 

भा बिहान पंडित सब आए । काढ़ि पुरान जनम अरथाए॥

 

उत्तिाम घरी जनम भा तासू । चाँद उआ भुइ, दिपा अकासू॥

 

कन्यारासि उदय जग कीया । पदमावती नाम अस दीया॥

 

सूर प्रसंसै भएउ फिरीरा । किरिन जामि, उपना नग हीरा॥

 

कहेन्हि जनमपत्राी जो लिखी । देइ असीस बहुरे जोतिषी॥

 

पाँच बरस महँ भय सो बारी । दीन्ह पुरान पढ़ै बैसारी॥

 

भै पदमावति पंडित गुनी । चहूँ खंड के राजन्ह सुनी॥

 

सिंघलदीप राजघर बारी । महा सुरूप दई औतारी॥

 

एक पदमावति औ पंडित पढ़ी । दहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी॥

 

जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी । सो असि पाव पढ़ी औ लोनी॥

 

सात दीप के बर जो ओनाहीं । उत्तार पावहिं, फिरि फिरि जाहीं॥

 

राजा कहै गरब कै, अहौं इंद्र सिवलोक।

 

सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरोक॥4॥

 

बारह बरस माँह भै रानी । राजै सुना सँजोग सयानी॥

 

सात खंड धाौराहर तासू । सो पदमावति कहँ दीन्हनिवासू॥

 

औ दीन्हीं सँग सखी सहेली । जो सँग करैं रहसि रस केली॥

 

सबै नवल पिउ संग न सोईं । कँवल पास जनु बिगसी कोईं॥

 

सुआ एक पदमावति ठाऊँ । महा पँडित हीरामन नाऊँ॥

 

दई दीन्ह पंखिहि अस जोती । नैन रतन, मुख मानिक मोती॥

 

कंचन बरन सुआ अति लोना । मानहुँ मिला सोहागहिं सोना॥

 

रहहिं एक सँग दोउ, पढ़हिं सासतर वेद।

 

बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद॥5॥

 

भै उनंत पदमावत बारी । रचि रचि विधिा सब कला सँवारी॥

 

जग बेधाा तेहि अंग सुबासा । भँवर आइ लुबुधो चहुँ पासा॥

 

बेनी नाग मलयगिरि पैठी । ससि माथे होइ दूइज बैठी॥

 

भौंह धानुक साधो सर फेरै । नयन कुरंग भूलि जनु हेरै॥

 

नासिक कीर, कँवल मुख सोहा । पदमिनि रूप देखि जग मोहा॥

 

मानिक अधार, दसन जनु हीरा । हिय हुलसे कुच कनक गँभीरा॥

 

केहरि लंक, गवन गज हारे । सुरनर देखि माथ भुइँ धाारे॥

 

जग कोइ दीठि न आवै, आछहिं नैन अकास।

 

जोगी जती संन्यासी, तप साधाहिं तेहि आस॥6॥

 

एक दिवस पदमावत रानी । हीरामन तइँ कहा सयानी॥

 

सुनु हीरामनि कहौं बुझाई । दिन दिन मदन सतावै आई॥

 

पिता हमार न चालै बाता । त्राासहि बोलि सकै नहिं माता॥

 

देस देस के बर मोहिं आवहिं । पिता हमार न ऑंख लगावहिं॥

 

जोबन मोर भयउ जस गंगा । देह देह हम्ह लाग अनंगा॥

 

हीरामन तब कहा बुझाई । विधिाकर लिखा मेटि नहिं जाई॥

 

अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा । तोहि जोग बर मिलै नरेसा॥

 

जौ लगि मैं फिरि आवौं, मन चित धारहु निवारि।

 

सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा बिचारि॥7॥

 

राजा सुना दीठि भै आना । बुधिा जो देहि सँग सुआ सयाना॥

 

भएउ रजायसु मारहु सूआ । सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ॥

 

सत्राु सुआ कै नाऊ बारी । सुनि धााए जस धााव मँजारी॥

 

तब लगि रानी सुआ छपावा । जब लगि ब्याधा न आवै पावा॥

 

पिता के आयसु माथे मोरे । कहहु जाय बिनवौं कर जोरे॥

 

पंखि न कोई होइ सुजानू । जाने भुगुति कि जान उड़ानू॥

 

सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना । तेहि कत बुधिा जेहि हिये न नैना॥

 

मानिक मोती देखि वह, हिये न ज्ञान करेइ।

 

दारिउँ दाख जानि कै, अबहिं ठोर भरि लेइ॥8॥

 

वै तो फिरे उतरअस पावा । बिनवा सुआ हिए डर खावा॥

 

रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ । होइ अज्ञा वनवास तौ जाऊँ॥

 

मोतिहिं मलिन जो होइ गइ कला । पुनि सो पानि कहाँ निरमला?॥

 

ठाकुर अंत चहै जेहि मारा । तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥

 

जेहि घर काल मजारी नाचा । पखिहिं नाउँ जीउ नहिं बाँचा॥

 

मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा । जौ पूछहि देइ जाइ न लेखा॥

 

जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा । यह पछिताव चल्यों बिनु सेवा॥

 

मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस।

 

केरा केलि करै का, जौ भा बैरि परोस॥9॥

 

रानी उतर दीन्ह कै माया। जौ जिउ जाइ रहै किमि काया?॥

 

हीरामन! तू प्रान परेवा। धाोख न लाग करत तोहिं सेवा॥

 

तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं। पींजर हिये घालि कै राखौं॥

 

हौं मानुष, तू पंखि पियारा। धारम क प्रीति तहाँ केइ मारा?॥

 

का सो प्रीत तन माँह बिलाई? सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई॥

 

प्रीति मार लै हिये न सोचू। ओहि पंथ भल होइ कि पोचू॥

 

प्रीति पहार भार जो काँधाा। सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधाा॥

 

सुअटा रहै खुरुक जिउ, अबहिं काल सो आव।

 

सत्राु अहै जो करिया, कबहुँ सो बोरै नाव॥10॥

 

(1) उपना=उत्पन्न हुआ।

 

(2) बिहान=सबेरा।

 

तेहि तें अधिाक पदारथ करा । रतन जोग उपना निरमरा॥

 

सिंहलदीप भए औतारू । जंबूदीप जाइ जमबारू॥

 

राम अजुधया ऊपने, लछन बतीसो संग।

 

रावन रूप सौं भूलिहि, दीपक जैस पतंग॥3॥

 

(3) फिरीरा भएउ=फिरेरे के समान चक्कर लगाता हुआ। रतन=राजा रतनसेन की ओर लक्ष्य है! निरमरा=निर्मल। जमबारू=यमद्वार।

 

(4) बैसारि दीन्ह=बैठा दिया। बरोक=(बर$रोक) बरच्छा।

 

(5) कोई=कुमुदिनी।

 

(6) उनंत=ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), ‘बारी’ शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है।

 

(8) मँजारी=मार्जारी, बिल्ली।

 

(9) पानि=आव, आभा, चमक। जेंवा=खाया। बैरि=बेर का पेड़।

 

(10) आखों=(सं. आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा (सं. आख्यान, पंजाबी-आखन) कहती हूँ। करिया=कर्णधाार, मल्लाह।

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