आत्मकथा – तन्त्र यन्त्र (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

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मैं समझता हँ इस ग्रन्थ के पढ़नेवालों में कितने लोग ऐसे होंगे, जो तन्त्र का नाम पढ़ते ही मुँह बना लेंगे और ग्रन्थ को अपने हाथ से दूर फेंक दें, तो भी आश्चर्य नहीं। क्योंकि आजकल एक ऐसा दल पैदा हो गया है, कि उसको पुरानी सभी बातों की निन्दा अच्छी लगती है, जो आप उनके गुण उसको बतलाना चाहें, तो वह मुँह फेर लेता है। और कहने लगता है, कि जैसे-तैसे सभी बात का प्रतिपादन करना बहुत ही बुरी बात है। उसका एक विचार यह भी है कि हम लोगों में धर्म के नाम से बहुत ही बुराइयाँ घुस गयी हैं, जो इसी प्रकार अपने यहाँ की सभी पुरानी बातों को हम अच्छी बतलाने लगेंगे, तो न हम लोगों की बुराइयाँ दूर होंगी, और न हम लोग सुधारेंगे। झाड़ फूँक, पूजापाठ आजकल अच्छी ऑंखों से नहीं देखा जाता है, मैंने दो प्रसंगों में इन कामों का ठीक-ठीक भेद बतलाने की चेष्टा की है, और यह भी समझाया है कि इनके करने से क्या लाभ होता है, यह बात कितनों को बुरी लगेगी, और यही कारण है कि वे तन्त्र का नाम पढ़ते ही चौंकेंगे। पर कहना यह है कि वे लोग जिस कूचे में चक्कर लगाने वाले हैं, वहाँ का नियम यह है कि ”जैसे अपने विचारों का आदर करते हो वैसे ही तुमको दूसरों के विचारों का भी आदर करना चाहिए” फिर घबराने और बुरा मानने की कौन बात है। सब के विचार एक से तो होते नहीं, आप एक बना भी नहीं सकते, फिर नाक भौं क्यों चढ़ाई जावे। जैसे आप अपने विचार लिखते हैं, वैसे ही दूसरा भी अपने विचार लिखने का स्वत्व रखता है। आप उसको रोक नहीं सकते, हाँ, मानना न मानना आपके हाथ है। मैं भी यह मानता हूँ कि हम लोगों में धर्म के नाम से बहुत ही बुराइयाँ घुस गयी हैं, जैसे हो उनका दूर हो जाना ही अच्छा है, ऐसा कौन हैं कि जो कहेगा कि बिना उनके दूर हुए हम लोग सुधार जावेंगे। पर यह तो न होना चाहिए कि बुराई की ओट में धर्म का भी लहू बहा दिया जावे, और वे अच्छी बातें भी रसातल को पहुँचा दी जावें कि जिनसे आज भी बूढ़े हिन्दू धर्म की रगों में गर्म लहू दौड़ रहा है। जो हमारे विचार का नहीं है, उसकी बातें सुनने में हम इधर-उधर क्यों करते हैं, इसलिए कि वह हमारे मन की बात नहीं कहता, या जो बात हमको रुचती नहीं, वही हमको चुपचाप सुननी पड़ती है। पर क्या यह हमारी दुर्बलता नहीं है? जो कुछ हमारा विचार है, उसके लिए हम दावा करके यह कभी नहीं कह सकते कि वह सर्वथा ठीक है, उसमें भूल-चूक का नाम भी नहीं है। फिर उसकी परख कैसे होगी? उसकी परख यों ही होगी कि हम दूसरे के विचारों को भी धर्य के साथ पढ़ें या सुनें, इसलिए नहीं कि हम उसे मान ही लें, वरन् इसलिए कि अपने विचारों को दूसरों के विचारों की कसौटी पर कसें, जिससे ज्ञात हो कि हमारा विचार खोटा है कि खरा। ऐसे अवसर पर लोग कह उठते हैं कि रद्दी बातों को पढ़ने और सुनने की सम्मति कौन देगा। पर पहले यह ठीक तो कर लीजिए कि ये बातें रद्दी हैं। इसके सिवा एक बात और है, वह यह कि जो समय हो तो एक साधारण दृष्टि उन पर डाल दी जावे, तो भी कोई चूक न होगी, क्यांकि कभी-कभी रद्दी में भी काम के परचे हाथ लग जाते हैं।

तन्त्र क्या है? हम लोगों ने समझ रखा है कि भलाई का जो कुछ ठीक उलटा है, वह तन्त्र है। पवित्र वेदों ने जो सच्चा और सीधा मार्ग दिखला रखा है, उसे सीधे और सच्चे मार्ग को छुड़ाकर हमको जो टेढ़े और बुरे पथ की ओर धोखा देकर ले जाता है, वही तन्त्र है। जो वेद कहते हैं कि सच बोलो व्यर्थ किसी जीव को मत सताओ। बुराई से बचो, भलाई से काम लो, न किसी की पत्नी पर ऑंख उठाओ, न किसी के धन पर हाथ डालो। तो तन्त्र कहते हैं कि खाओ, पीओ, आराम करो, न मांस खाने में कुछ दोष है, और न मदिरा पीने में कुछ पाप। जिससे सुख मिले, जो करने से आनन्द आवे, उसी से प्रयोजन है। काम यदि झूठ, बदी, बुराई से निकलता है, तो सच, नेकी और भलाई लेकर कोई क्या करेगा। और ये सब बातें ऐसी हैं कि जिससे तन्त्र का नाम सुनते ही लोग कान पर हाथ रखते हैं। पर सच्ची बात यह है, कि यह तन्त्र का मुख्य रूप नहीं है। यह उसके उस समय का चित्र है, जब वह बिगड़ गया था, और जब अच्छे लोग उससे किनारे हो गये थे। लोगों का यह भी विश्वास है कि तन्त्र वह है जिसमें भूत और चुड़ैलों को वश में करने के उपाय लिखे हों, जिसमें खोपड़ी, मुर्दे और मरघट को लेकर लम्बी चौड़ी बातें गढ़ी गयी हों, जिसमें पापी स्त्री पुरुष की चर्चा बड़ी बुरी तरह से की गयी हो और उनकी ऐसी करतूतें लिखी गयी हों, जिनको सुनकर निर्लज्जता को भी सिर नीचा करना पड़े। पर क्या यह तन्त्र का सच्चा रूप है? किसी-किसी ने तन्त्र उसको समझ रखा है, जिसमें कोई विचित्र बात हो। परन्तु सच्ची बात यह है कि विचित्र बात कोई नहीं है-बड़ी-बड़ी विचित्र बात, आज साधारण बात समझी जाती है। कोई चकित करनेवाली बात जब हमारी ऑंखों के सामने पहले पहल आती है, तो हम उसको विचित्र बात समझते हैं, किन्तु कुछ दिनों में जब वह बहुत फैल जाती है, तो फिर वह साधारण बात हो जाती है, फिर उसे कोई ‘विचित्र बात’ नहीं कहता।

हमने एक मिट्टी का दीया लिया, उसमें दो-चार बत्तियाँ डालीं। थोड़ा तेल डाला, फिर उसको जला दिया, तो यह जलता हुआ दीया क्या है? तन्त्र है? जिस दिन पहले पहल इस प्रकार दीया जला होगा, लोग आश्चर्य में आ गये होंगे, और इसको एक चमत्कार समझे होंगे। पर अब यह साधारण बात हो गयी है, शायद जो लोग विचित्र बात को तन्त्र मानते हैं, वे लोग अब इसे तन्त्र न मानेंगे। जब रेल का भद्दा इंजिन लेकर उसका बनानेवाला इंगलैण्ड की सड़कों पर निकला था, तो वहाँ के लोगों ने उसको जादूगर से कम नहीं समझा था, पर आज रेलगाड़ी को भारत का एक साधारण मनुष्य भी इस दृष्टि से नहीं देखता। कितने ही जंगली मनुष्यों ने पानी को बरतन में उबलते देखकर उसको चमत्कार समझा था और जब उसमें अन्न पकाया गया तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। पर कुछ दिनों बाद उन्होंने आप इस तरह खाना बनाना सीख लिया था और फिर उनकी ऑंखों में यह बात साधारण हो गयी थी। खाना बनाने से रेल तार तक की सारी बातें तन्त्र हैं, पर आज इनको तन्त्र मानने और समझनेवाले बहुत थोड़े लोग होंगे। एक तन्त्र जानने वाला पण्डित आकर यदि कोई फूल ऊपर उछाल दें, और वह फूल कुछ देर वहाँ ठहर जावे, तो सभी उसको बड़ा भारी तन्त्र मानने लगेंगे, पर यह है क्या? यह तन्त्र का एक बहुत ही छोटा लटका है। कहना यह है कि आजकल कुछ ऐसी दशा हो गयी है, कि जो वास्तव में तन्त्र है, उसको तो हम लोग तन्त्र मानते नहीं, तन्त्र उन बुराइयों को मानते हैं, जो उसमें किसी तरह घुस गयी हैं और भूल यही है।

तन्त्र कितना ही कलंकित क्यों न हो, पर आज भी हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा समूह उसको वेद की बहुत सी शाखाओं में से एक शाखा मानता है। उस समूह में कितनी ही ऐसी बातें भले ही लिखी हों जिनको हम ठीक समझ न सकें, किन्तु फिर भी उसमें ऐसी-ऐसी काम की बातें लिखी हैं, कि जिनको हम सोने से लिखें तो भी शायद उनका ठीक-ठीक आदर न होगा। मौलाना रूम ने अपनी मसनवी में एक जगह लिखा है कि ”मैंने कुरान में से मग्जश् को ले लिया और हद्दियों को कुत्तों के सामने डाल दिया।” क्या तन्त्र के विषय में आप हम इतना भी नहीं कर सकते। हम काँटों से भरे गुलाब के पौधों में से उसके सुन्दर फूल को तोड़ लेते हैं, कीचड़ में से सोना निकाल लेते हैं, फिर तन्त्र में जो अच्छी और काम की बातें हैं, यदि वह ले ली जावें तो इसमें क्या बुराई है।

आप लोग ऊब गये होंगे कि न जाने मुख्य विषय पर मैं कब आऊँगा। लीजिए अब मैं मुख्य विषय पर आता हूँ, और देखता हूँ कि रोगी को तन्त्र यन्त्र से कुछ लाभ पहुँचता है या नहीं। सारी औषधों और उनके प्रयोग तन्त्र हैं। इसके सिवा तन्त्र की सारी बातें मन्त्र या यन्त्र के आधार से होती हैं। इसलिए इसके विषय में मैं कुछ विशेष लिखना नहीं चाहता, यन्त्र के विषय में झाड़ फूँक के वर्णन में लिखा जा चुका है। यन्त्र के बारे में यहाँ कुछ लिखकर तन्त्र के विषय में भी आगे और कुछ लिखूँगा।

कोष में जहाँ यन्त्र के और और अर्थ लिखे हुए हैं, वहाँ यह भी लिखा है ”सावधनी से कार्य कर काम निकाल लेने के प्रयत्न का नाम यन्त्र है।” हम लोग किसी रोगी या कार्यार्थी को जो यन्त्र देते हैं, मैं समझता हूँ वह इसी अर्थ वाला यन्त्र है। आप इस पन्द्रह यन्त्र को देखिए, इसमें नौ कोठों में नौ अंक इस तरह से बैठाले गये हैं, कि उनमें से तीन अंक को आड़े, तिरछे सीधे जैसे चाहिए गिनिये, वह गिनती में पन्द्रह ही होंगे। एक यह ऐसी बात है कि, जिसको जानने पर इस यन्त्र की कारीगरी के बारे में अपने आप जी में स्थान हो जाता है। यदि साथ ही यह भी ज्ञात हो जावे कि इसके बाँधने से रोग भी दूर हो जाते हैं, या काम पूरा होता है, या आपदायें टल जाती हैं, और यह ज्ञान भी किसी माननीय पुरुष या किसी साधु संत से हो, तो इन बातों के मान लिये जाने में कभी संशय न होगा। क्योंकि उसकी विचित्र कारीगरी इन विचारों को पुष्ट करने में पूरी सहायता देगी। और अब यह बात अपने आप समझ में आती है कि ऐसे यन्त्रों से रुग्ण, लड़कों, और स्त्रियों का बहुत कुछ भला हो सकता है क्योंकि किसी घबराए दिल को ढाढ़स बँधाने और धर्य देने में इन यन्त्रों से कम काम न निकलेगा।

एक बात और है, वह यह कि यन्त्र किसी वस्तु पर लिखकर दिया जाता है। यह वस्तु या तो किसी जड़ी बूटी की लकड़ी या पत्ता होती है, या ताँबे चाँदी या सोने का पत्र या बिल्लौर और यशब आदि पत्थर। जो लोग अनुभवी हैं वह जानते हैं कि इन वस्तुओं के गले में पहनने या कमर और भुजा पर बाँधने से शरीर की बिजली पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिसका फल यह होता है कि बहुत से साधारण रोग अपने आप दूर हो जाते हैं। या उनके दूर होने में सहायता मिलती है। इसलिए यदि यन्त्र का कुछ गुण न भी माना जावे तो भी यह मानना पड़ेगा, कि यन्त्र इन वस्तुओं के गले में, बाहु पर या कमर में बँधवाने का एक आधार है, और उसका इतना सहारा पहुँचाना ही क्या कम है? यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि जड़ी बूटी को लोग यों भी बाँधते हैं, दिल के धड़कने पर यशब को यों भी पहनते हैं। विसूचिका के दिनों में प्राय: लोगों को डबल पहने देखा गया है। फिर यन्त्र का पचड़ा फैलाने का कौन काम था, परन्तु दृष्टि को एक ओर रखने से ही तो काम नहीं चलता, दृष्टि को सब ओर रखना ही ठीक है। बहुत से लोग इस प्रकृति के देखे गये हैं, कि जो उनसे जड़ी बूटी बाँधने के लिए कहा जावे, या यशब और ताँबा पहनने के लिए दिया जावे, तो वे कह बैठते हैं, कि लकड़ी पत्ते में क्या रखा है। या इस पत्थर ताँबे में ही कौन विभूति है। ऐसे लोगों का मुँह बन्द करने के लिए और उनके जी में विश्वास उपजाने के लिए यह प्रणाली निकाली हुई है, क्योंकि किसी तरह काम निकाल लेना ही समझदार का काम है। इसके अतिरिक्त जैसा बहुत से लोगों का विश्वास है, यदि यन्त्र में कुछ निज का गुण भी है, तो फिर पूछना ही क्या, दोनों का गुण एक होकर बहुत कुछ काम करेगा, और ऐसी दशा में किसी की भलाई होने में क्या सन्देह है।

मधुबन में मेरे पास एक दिन एक तन्त्र जानने वाले पण्डित आये, तन्त्र के बारे में मुझसे उनसे बहुत सी बातचीत हुई, बातचीत में ही उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको अपने तन्त्र का चमत्कार दिखलाऊँगा। मधुबन से एक मील पर कठघरा शंकर नाम का एक गाँव है, इसी गाँव में अपने एक सम्बन्धी के यहाँ वे ठहरे हुए थे, दूसरे तीसरे मुझसे मिलने आते। एक दिन वे आये, और मुझी से एक छड़ी लेकर चले गये, पर मुझको यह बात बिल्कुल याद न रही। जहाँ बैठे हुए उस छड़ी को लेकर मैं जी बहला रहा था, जब मैं वहाँ से उठा तो मुझको छड़ी की याद आयी, मैंने उसको इधर-उधर बहुत खोजा, पर जब वह वहाँ होती, तब तो मिलती। निदान ढूँढ़ खोजकर मैं चुप हो रहा, पर छड़ी के खो जाने का बहुत अधिक आश्चर्य हुआ। दूसरे दिन पण्डित जी फिर आये, और मुझसे बहुत सी बातें कीं। जब उन्होंने देखा कि छड़ी के बारे में मैंने उनसे कुछ भी न पूछा, तब वे अपने आप खुले। कहा, कल्ह मैं आप के ऊपर तन्त्र कर गया, मैंने कहा कैसा? उन्होंने कहा-आप की छड़ी कहाँ है। मैं समझ गया, बोला, क्या आप ले गये, उन्होंने कहा, हाँ मैं ले गया, और आप से माँगकर ले गया। पर तन्त्र यह है कि आपको उसकी याद तक नहीं है। मैंने कहा-बात तो ठीक है, पर इसमें भेद क्या है। उन्होंने कहा, ऑंख की पुतलियों की पहचान भी एक तन्त्र है। ऑंख की काली पुतली को आप देखिए, वह मिनट-मिनट पर बदलती है, और लोगों के जी का भेद बतलाती रहती है। एक दशा उसके बदलने की यह भी है कि जिसमें मनुष्य बाहर की सुधि भूल जाता है, उस घड़ी उससे जो कुछ ले लिया जावे, तो कभी उसको उसकी याद न रहेगी। मैं इस भेद को जानता हूँ। जब मैंने आपकी ऑंख की पुतली को ऐसा पाया, आपसे छड़ी माँग ली, जिसका फल यह हुआ कि आपको उसकी याद तक न रही। आप कहेंगे यह एक बहुत ही छोटा लटका है, मैं कहूँगा लटका है न, छोटे बड़े से क्या। यह कहकर, उन्होंने एक पाँच चार हाथ लम्बी रस्सी निकाली, जो गोल लपेटी हुई थी। इस रस्सी को उन्होंने ऊपर उछाल दिया, कोई पाँच छ हाथ ऊपर जाकर रस्सी खुलने लगी, एक छोर उसका ऊपर ठहरा रहा, और दूसरा छोर आकर धरती पर लग गया, रस्सी सीधी खड़ी हो गयी। हम लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ, पर उन्होंने कहा-कुछ नहीं, यह भी एक साधारण बात है। यह रस्सी बटी इस तरह से गयी है, कि उसमें इस प्रकार का बल आ गया है, नहीं तो यह कोई चमत्कार नहीं है। यह बात हो ही रही थी कि एक मल अपनी छह-सात बरस की एक बेहोश लड़की पण्डित जी के पास लाए, और कहने लगे कि अभी खेलते-खेलते यह लड़की अचेत हो गयी है। पण्डित जी ने चट अपने झोले में से थोड़ी सी धूप निकाली, थोड़ा सा फूल मँगाया। लड़की को सीधे सुला दिया, दो मनुष्यों से उसका तलवा सहलाने को कहा, थोड़ा-सा चन्दन रगड़वाकर उसके सिर और कलेजे पर रखा। धूप को जला दिया, फूल थोड़ा उसके पास रख दिया, थोड़ा आप हाथ में लेकर उसको सुँघाने लगे। दस पन्द्रह मिनट नहीं बीते थे कि लड़की होश में आ गयी, और अपने आप उठ बैठी। पण्डित जी ने कहा-देखा आपने कितना बड़ा तन्त्र हो गया, नहीं तो लड़की बेचारी की जान ही गयी थी। फिर कहा-ऐसी-ही-ऐसी बातों में तन्त्र हैं, न जाने क्यों तन्त्र को लोगों ने बदनाम कर रखा है।

पण्डित जी बैठे ही थे कि मैंने द्वारिकामल को बुलवाया, एक धूर्त साधु उसे बतला गया था कि तुम्हारे घर में बहुत सा धन गड़ा है। उसने उससे कहा था कि जो वह उसको दस रुपए देवे, तो वह स्थान भी बतला दे, पर न तो वह रुपए दे सका, और न उसने स्थान बतलाया। जब वह चला गया तो, उसको यह सनक सवार हुई कि हम कुल घर खोदकर देखेंगे, जहाँ रुपया होगा अपने आप मिल जावेगा। उसने अब तक कमर कमर भर तीन घर खोद डाले थे। और दूसरे घरों के खोदने का भी लग्गा लगा रखा था। उसके इस बेढंगेपन से घर के लोगों का नाक में दम था। उन लोगों ने सब कुछ किया, पर उसने एक न माना। दूसरे लोगों ने उसको बहुत समझाया कि यह क्या मूर्खता करते हो, मैंने भी कोई बात समझाने से न छोड़ी, पर वह अपनी ही धुन में मस्त था। मैंने पण्डित जी के पास उसको इसलिए बुलवाया, कि शायद पण्डित जी का कोई लटका काम कर जाए। पण्डित जी यह बात सुनकर हँसे, पहले उसके हाथ में थोड़ा सा फूल दिया। और कहा-ऑंखें बन्द करो। जब उसने ऑंख बन्द की, तो उन्होंने एक कागज पर एक यन्त्र लिखा, जब यन्त्र लिखा गया, तो उन्होंने उससे कहा-अच्छा अब ऑंखें खोल दो। जब उसने ऑंखें खोलीं, तो उन्होंने यन्त्र उसके हाथ में दिया, और कहा कि इस यन्त्र को लेकर अपने सब घरों में घूमो, और यदि तुम्हारे घर में धन गड़ा होगा, तो पत्र का कागज श्वेत ही रहेगा, और यदि न गड़ा होगा तो लाल हो जावेगा। वह यन्त्र लेकर चला गया, और बीस मिनट के बाद वापस आया, इस घड़ी यन्त्र का कागज़ लाल हो गया था। पण्डित जी ने कहा, सब बात तुम समझ गये, उसने कहा-हाँ महाराज, समझ गया। इस यन्त्र ने मुझको बतला दिया, कि मुझसे रुपया ऐंठने ही के लिए साधु ने यह चाल चली थी, नहीं तो सचमुच मेरे घर में रुपया नहीं गड़ा है। पण्डित जी ने कहा-हाँ, ठीक समझे। उस दिन से फिर उसने घर में एक छेव भी न लगाई। जब सब लोग चले गये, तो उन्होंने मुझसे कहा कि यन्त्र का कागज़ इस ढंग से बना है कि जब आप चन्दन से इस पर कुछ लिख देंगे तो पन्द्रह मिनट बाद वह लाल हो जावेगा। इस घड़ी कागज़ के इसी गुण से मैंने काम लिया है, नहीं तो और कोई चमत्कार इसमें नहीं है। चाहे इस प्रकार की बातें चालबाजी समझी जावें, पर नासमझी पर ऐसी बातों का बड़ा प्रभाव पड़ता है, और इस चाल से वह बहुत सी बुराइयों से बचाए जा सकते हैं। मैं यह मानूँगा कि इस तरह की बातों से धूर्तों की भी खूब बन आती है। पर इससे क्या? धूर्त यानी हवा और अन्न के आधार से भी बड़ी-बड़ी बुराइयाँ लोग कर लेते हैं, किन्तु, इससे कोई पानी हवा और अन्न को बुरा नहीं कह सकता।

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