अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 28 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)

Premchand_4_aदूसरे दिन नौ बजे रात को नवाब साहब और उनके मुसाहब थिएटर देखने चले।

नवाब – भई, आबादीजान को भी साथ ले चलेंगे।

मुसाहब – जरूर, जरूर उनके बगैर मजा किरकिरा हो जायगा। इतने में फिटन आ पहुँची और आबादीजान छम-छम करती हुई आ कर मसनद पर बैठ गईं।

नवाब – वल्लाह, अभी आप ही का जिक्र था।

आबादी – तुमसे लाख दफे कह दिया कि हमसे झूठ न बोला करो। हमें कोई देहाती समझा है!

नवाब – खुदा की कसम, चलो, तुमको तमाशा दिखा लाएँ। मगर मरदाने कपड़े पहन कर चलिए, वर्ना हमारी बेइज्जती होगी।

आबादी ने तिनग कर कहा – जो हमारे चलने में बेआबरूई है, तो सलाम।

यह कह कर वह जाने को उठ खड़ी हुई। नवाब ने दुपट्टा दबा कर कहा, ‘हमारा ही खून पिए, जो एक कदम भी आगे बढ़ाए, हमीं को रोए, जो रूठ कर जाय! हाफिज जी, जरा मरदाने कपड़े तो लाइए।

गरज आबादीजान ने अमामा सिर पर बाँधा; चुस्त अँगरखा और कसा हुआ घुटन्ना, टाटबाफी बूट, फुँदना झलकता हुआ, उनके गोरे बदन पर खिल उठा। नवाब साहब उनके साथ फिटन पर सवार हुए और मुसाहबों में कोई बग्घी पर, कोई टम-टम पर, कोई पालकी-गाड़ी पर लदे हुए तमाशा-घर में दाखिल हुए। मगर आबादीजान जल्दी में पाजेब उतारना भूल गई थी। वहाँ पहुँच कर नवाब ने अव्वल दर्जे के दो टिकट लिए और सरकस में दाखिल हुए! लेकिन पाजेब की छम-छम ने वह शोर मचाया कि सभी तमाशाइयों की निगाहें इन दोनों आदमियों की तरफ उठ गईं। जो है, इसी तरफ देखता है; ताड़नेवाले ताड़ गए, भाँपनेवाले भाँप गए। नवाब साहब अकड़ते हुए एक कुर्सी पर जा डटे और आबादीजान भी उसकी बगल में बैठ गईं। बहुत बड़ा शामियाना टँगा हुआ था। बिजली की बत्तियों से चकाचौंध का आलम था। बीचोंबीच एक बड़ा मैदान, इर्द-गिर्द कोई दो हजार कुर्सियाँ। खीमा भर जग-मग कर रहा था। थोड़ी देर में दस-बारह जवान घोड़े कड़कड़ाते हुए मैदान में आए और चक्कर काटने लगे, इसके बाद एक जवान नाजनीन, आफत की परकाला, घोड़े पर सवार, इस शान से आई कि महफिल भर पर आफत ढाई। सारी महफिल मस्त हो गई। वह घोड़े से फुर्ती के साथ उचकी और फिर पीठ पर आ पहुँची। चारों तरफ से वाह-वाह का शोर मच गया। फिर उसने घोड़े को मैदान में चक्कर देना शुरू किया। घोड़ा सरपट जा रहा था, इतना तेज की निगाह न ठहरती थी। यकायक वह लेडी तड़ से जमीन पर कूद पड़ी। घोड़ा ज्यों का त्यों दौड़ता रहा। एकदम में वह झपट कर फिर पीठ पर सवार हो गई उस पर इतनी तालियाँ बजीं कि खीमा भर गूँज उठा। इसके बाद शेरों की लड़ाई, बंदरों की दौड़ और खुदा जाने, कितने और तमाशे हुए। ग्यारह बजते तमाशा खतम हुआ। नवाब साहब घर पहुँचे, तो ठंडी साँसें भरते थे और मियाँ आजाद दोनों हाथों से सिर धुनते थे। दोनों मिस वरजिना (तमाशा करनेवाली औरत) की निगाहों के शिकार हो गए।

हाफिज जी बोले – हुजूर, अभी मुश्किल से तेरह-चौदह बरस का सिन होगा, और किस फुर्ती से उचक कर घोड़े की पीठ पर हो रहती थी कि वाह जी वाह। मियाँ रोशनअली बड़े शहसवार बनते थे। कसम खुदा की जो उनके बाप भी कब्र से उठ आएँ, तो यह करतब देख कर होश उड़ जायँ।

नवाब – क्या चाँद सा मुखड़ा है।

आबादीजान – यह कहाँ का दुखड़ा है? हम जाते हैं।

मुसाहब – नहीं हुजूर, ऐसा न फर्माइए, कुछ देर तो बैठिए।

लेकिन आबादीजान रूठ कर चली ही गईं अब नवाब का यह हाल है कि मुँह फुलाए, गम की सूरत बनाए बैठे सर्द आहें खींच रहे हैं। मुसाहब सब बैठे समझा रहे हैं; मगर आपको किसी तरह सब्र ही नहीं आता। अब जिंदगी बवाल है, जान जंजाल है। यह भी फख है कि हमारा दिल किसी परीजाद पर आया है, शहर भर में धूम हो जाय कि नवाब साहब को इश्क चर्राया है –

ताकि मशहूर हों हजारों में;
हम भी हैं पाँचवें सवारों में।

मुसाहबों ने सोचा, हमारे शह देने से यह हाथ से जाते रहेंगे, इसलिए वह चाल चलिए कि ‘साँप मरे न लाठी टूटे’। लगे सब उस औरत की हजो करने। एक ने कहा – भाई, जादू का खेल था। दूसरे बोले – जी हाँ, मैंने दिन के वक्त देखा था, न वह रंग, न वह रोगन, न वह चमक-दमक, न वह जोबन; रात की परी रखे की टट्टी है। आखिर मिस वरजिना नवाब की नजरों से गिर गई। बोले – जाने भी दो, उसका जिक्र ही क्या। तब मुसाहबों की जान में जान आई। नवाब साहब के यहाँ से रुख्सत हुए, तो आपस में बातें होने लगीं –

हाफिज जी – हमारे नवाब भी कितने भोले-भाले रईस हैं!

रोशनअली – अजी, निरे बछिया के ताऊ हैं। खुदायारखाँ ने ठीक ही तो कहा था।

खुदायारखाँ – और नहीं तो क्या झूठ बोले थे? हमें लगी-लिपटी नहीं आती। चाहे जान जाती रहे, मगर खुशामद न करेंगे।

हाफिज जी – भई, यह आजाद ने बड़ा अड़ंगा मारा है। इसको न पछाड़ा, तो हम सब नजरो से गिर जायँगे।

रोशनअली – अजी, मैं तरकीब बताऊँ, जो पट पड़े, तो नाम न रखूँ। नवाब डरपोक तो हैं ही, कोई इतना जा कर कह दे कि मियाँ आजाद इश्तिहारी मुजरिम हैं। बस, फिर देखिए, क्या ताथैया मचती है। आप मारे खौफ के घर में घुस रहे और जनाने में तो कुहराम ही मच जाय। आजाद और उनके साथी अफीमची, दोनों खड़े-खड़े निकाल दिए जायँ।

खुशामदी – वाह उस्ताद, क्या तड़ से सोच लेते हो! वल्लाह, एक ही न्यारिये हो।

रोशनअली – फिर इन झाँसों के बगैर काम भी तो नहीं चलता।

हाफिज जी – हाँ, खूब याद आया। परसों तेगबहादुर दक्खिन से आए हैं। बेचारे बड़ी तकलीफ में हैं। हमारे सच्चे दोस्तों में हैं। उनके लिए एक रोटी का सहारा हो जाय, तो अच्छा। आपमें से कोई छेड़ दे तो जरा, बस, फिर मैं ले उड़ूँगा। मगर तारीफ के पुल बाँध दीजिए। नवाब को झाँसे में लाना कोई बड़ी बात तो है नहीं। थाली के बैंगन हैं।

हाफिज जी – एक काम कीजिए, कल जब सब जमा हो जायँ, तो हम पहले छेड़़े कि इस दरबार में हर फन का आदमी मौजूद है और रियासत कहते इसी को हैं कि गुनियों की परवरिश की जाय, शरीफों की कदरदानी हुजूर ही का हिस्सा है। इस पर कोई बोल उठे कि और तो सब मौजूद हैं, बस, यहाँ एक बिनवटिये की कसर है। फिर कोई कहे कि आजकल दक्खिन से एक सहब आए हैं, जो बिनवट के फन में अपना सानी नहीं रखते। दो चार आदमी हाँ में हाँ मिला दें कि उन्हें वह-वह पेंच याद हैं कि तलवार छीन लें; जरा से आदमी, मगर सामने आए और बिजली की तरह तड़प गए। हम कहेंगे – वल्लाह, आप लोग भी कितने अहमक हैं कि उसे आदमी को हुजूर के सामने अब तक पेश नहीं किया और जो कोई रईस उन्हें नौकर रख ले, तो फिर कैसी हो? बस, देख लेना, नवाब खुद ही कहेंगे कि अभी-अभी लाओ। मगर तेगबहादुर से कह देना कि खूब बाँके बन कर आएँ, मगर बातचीत नरमी से करें, जिसमें हम लोग कहेंगे कि देखिए, खुदाबंद, कितनी शराफत है। जिन लोगों को कुछ आता-जाता नहीं, वे ही जमीन पर कदम नहीं रखते।

मुसाहब – मगर क्यों मियाँ, यह तेगबहादुर हिंदू हैं या मुसलमान? तेग बहादुर तो हिंदुओं का नाम भी हुआ करता है। किसी हिंदू के घर मुहर्रम के दिनों में लड़का पैदा हुआ और इमामबख्श नाम रख दिया। हिंदू भी कितने बेतुके होते हैं कि तोबा ही भली। पूछिए कि तुम तो ताजिए को सिजदा करते हो, दरगाहों में शरबत पिलाते हो, इमामबाड़े बनवाते हो, तो फिर मुसलमान ही क्यों नहीं हो जाते।

हाफिज जी – मगर तुम लोगों में भी तो ऐसे गौखे हैं जो चेचक में मालिन को बुलाते हैं, चौराहे पर गधे को चने खिलाते हैं, जनमपत्री बनवाते हैं। क्या यह हिंदूपन नहीं है? इसकी न कहिए।

उधर मियाँ आजाद भी मिस वरजिना पर लट्टू हो गए। रात तो किसी तरह करवटें बदल-बदल कर काटी, सुबह होते ही मिस वरजिना के पास जा पहुँचे। उसने जो मियाँ आजाद की सूरत से उनकी हालत ताड़ ली, तो इस तरह चमक-चमक कर चलने लगी कि उनकी जान पर आफत ढाई। आजाद उसके सामने जा कर खड़े हो गए; मगर मुँह से एक लफ्ज भी न निकला।

वरजिना – मालूम होता है, या तो तुम पागल हो, या अभी पागलखाने से रस्सियाँ तुड़ा कर आए हो।

आजाद – हाँ, पागल न होता, तो तुम्हारी अदा का दीवाना क्यों होता?

वरजिना – बेहतर है कि अभी से होश में आ जाओ, मेरे कितने ही दीवाने पागलखाने की सैर कर रहे हैं। रूस के तीन जनरल मुझ पर रीझे, यूनान में एक रईस लट्टू हो गए, इंगलिस्तान के कितने ही बाँके आहें भरते रहे, जरमनी के बड़े-बड़े अमीर साये की तरह मेरे साथ घूमा किए, रूम के कई पाशा जहर खाने पर तैयार हो गए। मगर दुनिया में दगाबाजी का बाजार गरम है, किसी से दिल न मिलाया, किसी को मुँह न लगाया। हमारे चाहनेवाले को लाजिम है कि पहले आईने में अपना मुँह तो देखे।

आजाद – अब मुझे दीवाना कहिए या पागल, मैं तो मर मिटा –

फिरी चश्मे-बुते-बेपीर देखो;
हमारी गर्दिशे-तकदीर देखो।
उन्हें है तौक मन्नत का गराँ बार;
हमारे पाँव की जंजीर देखो।

वरजिना – मुझे तुम्हारी जवानी पर रहम आता है। क्यों जान देने पर तुले हुए हो?

आजाद – जी कर ही क्या करूँगा? ऐसी जिंदगी से तो मौत ही अच्छी।

वरजिना – आ गए तुम भी झाँसे में! अरे मियाँ, मैं औरत नहीं हूँ, जो तुम सो मैं। मगर कसम खाओ कि किसी से यह बात न कहोगे। कई साल से मैंने यही भेष बना रखा है। अमीरों को लूटने के लिए इससे बढ़ कर और कोई तदबीर नहीं। एक-एक चितवन के हजारों पौंड लाता हूँ, फिर भी किसी को मुँह नहीं लगाता। आज तुम्हारी बेकरारी देख कर तुमको साफ-साफ बता दिया।

आजाद – अच्छा मर्दाने कपड़े पहन कर मेरे सामने आओ, तो मुझे यकीन आए।

मिस वरजिना जरा देर में कोट और पतलून पहन कर आजाद के सामने आई और बोली – अब तो तुम्हें यकीन आया, मेरा नाम टामस हुड है। अगर तुमको वे चिट्ठियाँ दिखाऊँ, जो ढेर की ढेर मेरे पास पड़ी हैं, तो हँसते-हँसते तुम्हारे पेट में बल पड़ जाय। देखिए, एक साहब लिखते हैं –

जनाजा मेरा गली में उनकी जो पहुँचे ठहरा के इतना कहना;

उठानेवाले हुए हैं मांदे सो थक के काँधा बदल रहे हैं

दूसरे साहब लिखते हैं –

हम भी कुश्ता तेरी नैरंगी के हैं याद रहे;
ओ जमाने की तरह रंग बदलनेवाले।

एक बार इटली गया, वहाँ अक्सर अमीरों और रईसों ने मेरी दावतें कीं और अपनी लड़कियों से मेरी मुलाकात कराई। मैं कई दिन तक उन परियों के साथ हवा खाता रहा। और एक दिल्लगी सुनिए। एक अमीरजादी ने मेरे हाथों को चूम कर कहा कि हमारे मियाँ तुमसे शादी करना चाहते हैं। वह कहते हैं कि अगर तुमसे उनकी शादी न हुई, तो वह जहर खा लेंगे। यह अमीरजादी मुझे अपने घर ले गई। उसका शौहर मुझे देखते ही फूल उठा और ऐसी-ऐसी बातें कीं कि मैं मुश्किल से अपनी हँसी को जब्त कर सका।

आजाद बहुत देर तक टामस हुड से उसकी जिंदगी के किस्से सुनते रहे। दिल में बहुत शरमिंदा थे कि यहाँ कितने अहमक बने। यह बातें दिल में सोचते हुए सराय में पहुँचे, तो फाटक ही के पास से आवाज आई, लाना तो मेरी करौली, न हुआ तमंचा, नहीं तो दिखा देता तमाशा। आजाद ने ललकारा कि क्या है भाई, क्या है, हम आ पहुँचे। देखा, तो खोजी एक कुत्ते को दुत्कार रहे हैं।

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