अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 27 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)

Premchand_4_aमियाँ आजाद और खोजी चलते-चलते एक नए कस्बे में जा पहुँचे और उसकी सैर करने लगे। रास्ते में एक अनोखी सज-धज के जवान दिखाई पड़े। सिर से पैर तक पीले कपड़े पहने हुए, ढीले पाँयचे का पाजामा, केसरिये केचुल लोट का अँगरखा, केसरिया रँगी दुपल्ली टोपी, कंधों पर केसरिया रूमाल; जिसमें लचका टँका हुआ। सिन कोई चालीस साल का।

आजाद – क्यों भई खोजी, भला भाँपो तो, यह किस देश के हैं।

खोजी – शायद काबुल के हों।

आजाद – काबुलियों का यह पहनावा कहाँ होता है।

खोजी – वाह, खूब समझे! क्या काबुल में गधे नहीं होते?

आजाद – जरा हजरत की चाल तो देखिएगा, कैसे कूँदे झाड़ते हुए चले जाते हैं। कभी जरी के जूते पर निगाह है, कभी रूमाल फड़काते हैं, कभी अँगरखा चमकाते हैं, कभी लचके की झलक दिखाते हें। इस दाढ़ी-मूँछ का भी खयाल नहीं। यह दाढ़ी और यह लचके की गोट, सुभान-अल्ला!

खोजी – आपको जरा-छेड़िए तो; दिल्लगी ही सही।

आजाद – जनाब, आदाब अर्ज है। वल्लाह, आपके लिबास पर तो वह जोबन है कि आँख नहीं ठहरती, निगाह के पाँव फिसले जाते हैं।

जर्दपोश – (शरमा कर) जी, इसका एक खास सबब है।

आजाद – वह क्या? क्या किसी सरकार से वर्दी मिली है? या, सच कहना उस्ताद, किसी नाई से तो नहीं छीन लाए?

जर्दपोश – (अपने नौकर से) रमजानी, जरा बता तो देना, हमें अपने मुँह से कहते हुए शरम आती है।

रमजानी – हुजूर, मियाँ का निकाह होने वाला है। इसी पहनावे की रस्म है हुजूर!

आजाद – रस्म की एक ही कही। यह अच्छी रस्म है – दाढ़ी-मूँछवाले आदमी, और लचका, बन्नत पट्ठा लगा कर कपड़े पहनें! अरे भई, ये कपड़े दुलहिन के लिए हैं, या आप-जैसे मुछक्कड़-फक्कड़बेग के लिए? खुदा के लिए इन कपड़ों को उतारो, मरदों की पोशाक पहनो!

इधर आजाद तो यह फटकार सुना कर अलग हुए, उधर खिदमतगार ने मियाँ जर्दपोश को समझाना शुरू किया – मियाँ, सच तो कहते थे! जिस गली-कूचे में आप निकल जाते हैं, लोग तालियाँ बजाते और हँसी उड़ाते हैं।

जर्दपोश – हँसने दो जी; हँसते ही घर बसते हैं।

खिदमतगार – मियाँ, मैं जाहिल आदमी हूँ, मुल बुरी बात बुरी ही है। हम गरीब आदमी हैं, फिर भी ऐसे कपड़े नहीं पहनते।

मियाँ आजाद उधर आगे बढ़े तो क्या देखते हैं, एक दुकड़ी सामने से आ रही है। उस पर तीन नौजवान रईस बड़े ठाट से बैठे हैं। तीनों ऐनकबाज हैं। आजाद बोले – यह नया फैशन देखने में आया। जिसे देखो, ऐनकबाज। अच्छी-खासी आँखें रखते हुए भी अंधे बनने का शौक!

मियाँ आजाद को यह कस्बा ऐसा पसंद आया कि उन्होंने दो-चार दिन यहीं रहने की ठानी। एक दिन घूमते-घामते एक नवाब के दरबार में जा पहुँचे। सजी-सजाई कोठी, बड़े-बड़े कमरे। एक कमरे में गलीचे बिछे हुए, दूसरे में चौकियाँ, मेज, मसहरियाँ करीने से रखी हुई। खोजी यह ठाट-बाट देख कर अपने नवाब को भूल गए। जा कर दोनों आदमी दरबार में बैठे। खोजी तो नवाबों की सोहबत उठाए थे, जाते ही जाते कोठी की इतनी तारीफ की कि पुल बाँध दिए – हुजूर, खुदा जानता है,क्या सजी-सजाई कोठी है। कसम है हुसैन की, जो आज तक ऐसी इमारत नजर से गुजरी हो। हमने तो अच्छे-अच्छे रईसों की मुसाहबत की है, मगर कहीं यह ठाट नहीं देखा। हुजूर बादशाहों की तरह रहते हैं। हुजूर की बदौलत हजारों गरीबों-शरीफों का भला होता है। खुदा ऐसे रईस को सलामत रखे।

मुसाहब – अजी, अभी आपने देखा क्या है? मुसाहब लोग तो अब आ चले हैं। शाम तक सब आ जायँगे। एक मेले का मेला रोज लगता है।

नवाब – क्यों साहब, यह फ्रीमेशन भी जादूगर है शायद? आखिर जादू नहीं, तो है क्या?

मुसाहब – हुजूर बजा फरमाए हैं। कुछ दिन हुए, मेरी एक फ्रीमेशन ने मुलाकात हुई। मैं, आप जानिए, एक ही काइयाँ। उनसे खूब दोस्ती पैदा की। एक दिन मैंने उनसे पूछा, तो बोले – यह वह मजहब है, जिससे बढ़ कर दुनिया में कोई मजहब ही नहीं। क्यों नहीं हो जाते फ्रीमेशन हुआ। वहाँ हुजूर, करोड़ों लाशे थीं। सब की सब मुझसे गले मिलीं और हँसीं। मैं बहुत ही डरा। मगर उन लोगों ने दिलासा दिया – इनसे डरते क्यों हो? हाँ, खबरदार, किसी से कहना नहीं; नहीं तो ये लाशें कच्चा ही खा जायँगी। इतने में खुदाबंद, आग बरसने लगी और मैं जलभुन कर खाक हो गया। इसके बाद एक आदमी ने कुछ पढ़ कर फूँका, तो फिर हट्टा-कट्टा मौजूद! हुजूर, सच तो यों है कि दूसरा होता, तो रो देता, लेकिन मैं जरा भी न घबराया। थोड़ी देर के बाद एक देव जैसे आदमी ने मुझे एक हौज में ढकेल दिया। मैं दो दिन और दो रात वहीं पड़ा रहा। जब निकाला गया, तो फिर टैयाँ सा मौजूद। सबकी सलाह हुई कि इसको यहाँ से निकाल दो। हुजूर, खुदा-खुदा करके बचे, नहीं तो जान ही पर बन आई थी?

गप्पी – हुजूर, सुना है; कामरूप में औरतें मर्दों पर माश पढ़ कर फूँकती और बकरा, बैल, गधा वगैरह बना डालती हैं। दिन भर बकरे बने, में-में किया किए, सानी खाया किए, रात को फिर मर्द के मर्द। दुनिया में एक से एक जादूगर पड़े हैं।

खुशामदी – हुजूर, यह मूठ क्या चीज है? कल रात को हुजूर तो यहाँ आराम फरमाते थे, मैं दो बजे के वक्त कुरान पढ़ कर टहलने लगा, तो हुजूर के सिरहाने के ऊपर रोशनी सी हुई। मेरे तो होश उड़ गए।

मुसाहब – होश उड़ने की बात ही है।

खुशामदी – हुजूर मैं रात भर जागता रहा और हुजूर के पलंग से इर्द-गिर्द पहरा दिया किया।

नवाब – तुम्हें कुरान की कसम।

खुशामदी – हुजूर की बदौलत मेरे बाल-बच्चे पलते हैं; भला आपसे और झूठ बोलूँ? नमक की कसम, बदन का रोआँ-रोआँ खड़ा हो गया। अगर मेरा बाप भी होता; तो मैं पहरा न देता; मगर हुजूर का नमक जोश करता था।

जमामार – हुजूर, यहाँ एक जोड़ी बिकाऊ है। हुजूर खरीदें, तो दिखाऊँ। क्या जोड़ी है कि ओहोहोहो! डेढ़ हजार से कम में न देगा।

मुसाहब – ऐ, तो आपने खरीद क्यों न ली! इतनी तारीफ करते हो और फिर हाथ से जाने दी! हुजूर, इन्हें हुक्म हो कि बस, खरीद ही लाएँ। बादशाही में इनके यहाँ भी कई घोड़े थे; सवार भी खूब होते है; और चाबुक-सवारी में तो अपना सानी नहीं रखते।

नवाब – मुनीम से कहो, इन्हें दो हजार रुपए दें, और दो साईस इनके साथ जायँ।

जमामार मुनीम के घर पहुँचे और बोले – लाला जवाहिरमल, सरकार ने दो हजार रुपए दिलवाए हैं, जल्द आइए।

जवाहिरमल – तो जल्दी काहे की है? ये रुपए होंगे क्या?

जमामार – एक जोड़ी ली जायगी। उस्ताद, देखो, हमको बदनाम न करना। चार सौ की जोड़ी है। बाकी रहे सोलह सौ। उसमें से आठ सौ यार लोग खायँगे बाकी आठ सौ में छह सौ हमारे, दो सौ तुम्हारे। है पक्की बात न?

जवाहिरमल – तुम लो छह सौ, और हम लें दो सौ। मियाँ भाई हो न! अरे यार, तीन सौ हमको दे, पाँच सौ तू उड़ा। यह मामले की बात है?

जमामार – अजी, मियाँ भाई की न कहिए। मियाँ भाई तो नवाब भी हैं, मगर अल्लाह मियाँ की गाय। तुम तो लाखों खा जाओ, मगर गाढ़े की लँगोटी लगाए रहो। खाने को हम भी खायँगे, मगर शरबती के अँगरखै डाटे हुए नवाब बने हुए, कोरमा और पुलाव के बगैर खाना न खायँगे। तुम उबाली खिचड़ी ही खाओगे। खैर, नहीं मानते, तो जैसी तुम्हारी मरजी।

मियाँ जमामार जोड़ी ले कर पहुँचे, हो दरबार में उसकी तारीफें होने लगीं। कोई उसके थूथन की तारीफ करता है, कोई माथे की, कोई छाती की। खुशामदी बोले – वल्लाह, कनौटियाँ तो देखिए, प्यार कर लेने को जी चाहता है।

गप्पी – हुजूर, ऐसे जानवर किस्मत से मिलते हैं। कसम खुदा की, ऐसी जोड़ी सारे शहर में न निकलेगी।

मतलबी – हुजूर, दो-दो हजार की एक-एक घोड़ी है। क्या खूबसूरत हाथ-पाँव हैं। और मजा यह कि कोई ऐब नहीं।

नवाब – कल शाम को फिटन में जोतना। देखें कैसी जाती है।

गप्पी – हुजूर, आँधी की तरह जाय, क्या दिल्लगी है कुछ।

रात को मियाँ आजाद सराय में पड़ रहे। दूसरे दिन शाम को फिर नवाब साहब के यहाँ पहुँचे। दरबार जमा हुआ था, मुसाहब लोग गप्पें उड़ा रहे थे। इतने में मसजिद से अजान की आवाज सुनाई दी। मुसाहबों ने कहा – हुजूर, रोजा खोलने का वक्त आ गया।

नवाब – कसम कुरान की, हमें आज तक मालूम ही न हुआ कि रोजा रखने से फायदा क्या होता है? मुफ्त में भूखों मरना कौन सा सवाब है? हम तो हाफिज के चेले हैं, वह भी रोजा-नमाज कुछ न मानते थे।

आजाद – हुजूर ने खूब कहा –

दोश अज मसजिद सुए मैखाना आदम पीरे मा;
चीस्त याराने तरीकत बाद अजीं तदबीरे मा।

(कल मेरे पीर मसजिद से शराबखाने की तरफ आए। दोस्तो, बतलाओ, अब मैं क्या करूँ?)

खुशामदी – वाह-वाह, क्या शेर है। सादी का क्या कहना।

गप्पी – सुना, गाते भी खूब थे। बिहाग की धुन पर सिर धुनते हैं।

आजाद दिल में खूब हँसे। यह मसखरे इतना भी नहीं जानते कि यह सादी का शेर है या हाफिज का! और मजा यह कि उनको बिहाग भी पसंद था! कैसे-कैसे गौखे जमा हैं।

मुसाहब – हुजूर, बजा फरमाते हैं। भूखों मरने से भला खुदा क्या खुश होगा?

नवाब – भई, यहाँ तो जब से पैदा हुए, कसम ले लो, जो एक दिन भी फाका किया हो। फिर भूख में नमाज की किसे सूझती है?

खुशामदी – हुजूर, आप ही के नमक की कसम, दिन-रात खाने ही की फिक्र रहती है! चार बजे और लौंडी की जान खाने लगे – लहसुन ला, प्याज ला, कबाब पके, तौबा!

हिंदू मुसाहब – हुजूर, हमारे यहाँ भी व्रत रखते हैं लोग, मगर हमने तो हर व्रत के दिन गोस्त चखा।

खुशामदी – शाबाश लाला, शाबाश! वल्लाह, तुम्हारा मजहब पक्का है।

नवाब – पढ़े-लिखे आदमी हैं, कुछ जाहिल-गँवार थोड़े ही हैं।

खोजी – वाह-वाह, हुजूर ने वह बात पैदा की कि तौबा ही भली।

खुशामदी – वाह भई, क्या तारीफ की है। कहने लगे, तौबा ही भली। किस जंगल से पकड़ के आए हो भई? तुमने तो वह बात कही कि तौबा ही भली। खुदा के लिए जरी समझ-बूझ कर बोला करो।

गप्पी – ऐ हजरत, बोलें क्या, बोलने के दिन अब गए। बरसात हो चुकी न?

खोजी – मियाँ, एक-एक आओ, या कहो, चौमुखी लड़ें। हम इससे भी नहीं डरते। यहाँ उम्र भर नवाबों ही की सोहबत में रहे। तुम लोग अभी कुछ दिन सीखो। आप, और हम पर मुँह आएँ। एक बार हमारे नवाब साहब के यहाँ एक हजरत आए, बड़े बुलक्कड़। आते ही मुझ पर फिकरे कसने लगे। बस, मैं ने जो आड़े हाथों लिया, तो झेंप कर एकदम भागे। मेरे मुकाबले में कोई ठहरे तो भला! ले बस आइए, दो-दो चोंचें हों। पाली से नोकदम न भागो, तो मूँछें मुड़वा डालूँ।

मुसाहब – आइए, फिर आप भी क्या याद करेंगे। बंदे की जबान भी वह है कि कतरनी को मात करे। जबान आगे जाती है, बात पीछे रह जाती है।

खोजी – जबान क्या चर्खा है राँड़ का! खुदा झूठ न बुलाए तो रोटी को हुजूर लोती कहते होंगे।

मुसाहब – जब खुदा झूठ न बुलाए, तब तो। आप और झूठ न बोलें! जब से होश सँभाला, कभी सच बोले ही नहीं। एक दफे धोखे से सच्ची बात निकल आई थी, जिसका आज तक अफसोस है।

खोजी – और वह उस वक्त जब आपसे किसी ने आपके बाप का नाम पूछा था और आपने जल्दी में साफ-साफ बता दिया था।

इस पर सब के सब हँस पड़े और खोजी मूँछों पर ताव देने लगे। अभी ये बातें हो ही रही थीं कि एक टुकड़ी आई, और उस पर से एक हसीना उतर पड़ी। वह पतली कमर को लचकाती हुई आई, नवाब का मसनद घसीटा और बड़े ठाट से बैठ गई।

नवाब – मिजाज शरीफ?

आबादी – आपकी बला से!

मुसाहब – हुजूर, खुदा की कसम, इस वक्त आप ही का जिक्र था।

आबादी – चल झूठे! अली की सँवार तुम पर और तेरे नवाब पर।

मुसाहब – खुदा की कसम।

आबादी – अब हम एक चपत जमाएँगे। देखो नवाब, अपने इन गुर्गों को मना करो, मेरे मुँह न लगा करें।

इतने में एक महरी पाँच-छह बरस के एक लड़के को गोद में लाई।

आबादी – हमारी बहन को लड़का है। लड़का क्या, पहाड़ी मैना है। भैया, नवाब को गालियाँ तो देना। क्यों नवाब, इनको मिठाई दोगे न?

नवाब – हाँ, अभी-अभी।

लड़का – पहले मिठाई लाओ, फिर हम दाली दे देंगे।

अब चारों तरफ से मुसाहिब बुलाते हैं – आओ, हमारे पास आओ। लड़के ने नवाब को इतनी गालियाँ दीं कि तौबा ही भली। नवाब साहब खूब हँसे और सारी महफिल लड़के की तारीफ करने लगी। खुदावंद, अब इसको मिठाई मँगवा दीजिए।

नवाब – अच्छा भई, इनको पाँच रुपए की मिठाई ला दो।

आबादी – ऐ हटो भी! आप अपने रुपए रहने दें। क्या कोई फकीर है?

नवाब – अच्छा, एक अशर्फी ला कर दो।

आबादी – भैया, नवाब को सलाम कर लो।

नवाब – अच्छा, यह तो हुआ, अब कोई चीज सुनाओ। पीलू की कोई चीज हो, तुम्हें कसम है।

आबादी – ऐ हटो भी, आज रोजे से हूँ। आपको गाने की सूझती है।

फर्श पर कई नींबू पड़े हुए थे। बी साहबा ने एक नीबू दाहने हाथ में लिया और दूसरा नींबू उसी हाथ से उछाला और रोका। कई मिनट तक इसी तरह उछाला और रोका कीं। लोग शोर मचा रहे हैं – क्या तुले हुए हाथ हैं, सुभान-अल्लाह! वह बोली कि भला नवाब, तुम तो उछालो। जब जानें कि नीबू गिरने न पाए। नवाब ने एक नीबू हाथ में लिया और दूसरा उछाला, तो तड़ से नाक पर गिरा। फिर उछाला, तो खोपड़ी पर तड़ से।

आबादी – बस, जाओ भी। इतना भी शऊर नहीं है।

नवाब – यह उँगली में कपड़ा कैसा बँधा है?

आबादी – बूझो, देखें, कितनी अक्ल है।

नवाब – यह क्या मुश्किल है, छालियाँ कतरती होगी।

आबादी – हाँ वह खून का तार बँधा कि तोबा। मैंने पानी डाला और कपड़ा बाँध दिया।

मुसाहब – हुजूर, आज इस शहर में इनकी जोड़ नहीं है।

नवाब – भला कभी नवाब खफकानहुसैन के यहाँ भी जाती हो? सच-सच कहना।

आबादी – अली की सँवार उस पर! हज कर आया है। उस मनहूस से कोई इतना तो पूछे कि आप कहाँ के ऐसे बड़े मौलवी बन बैठे?

नवाब – जी, बजा है, जो आपको न बुलाए, वह मनहूस हुआ!

आबादी – बुलाएगा कौन? जिसको गरज होगी, आप दौड़ा आवेगा।

आजाद और खोजी यहाँ से चले, तो आजाद ने कहा – आप कुछ समझे? यह जोड़ी वही थी, जो रोशनअली खरीद लाए थे।

खोजी – यह कौन बड़ी बात है, इसी में तो रईसों का रुपया खर्च होता है। इनकी सोहबत में जब बैठिए खूब गप्पे उड़ाइए और झूठ इस कदर बोलिए कि जमीन-आसमान के कुलावे मिलाइए। रंग जम जाय, तो दोनों हाथों से लूटिए और सोने की ईंटें बनवा कर संदूक में रख छोड़िए। लेकिन ऐसे माल को रहते न देखा; मालूम नहीं होता, किधर आया और किधर गया।

आजाद – यह नवाब बिलकुल चोंगा है।

खोजी – और नहीं तो क्या, निरा चोंच।

आजाद – खुदा करे, ये रईसजादे पढ़-लिख कर भले आदमी हो जायँ।

खोजी – अरे, खुदा न करे भाई, ये जाहिल ही रहें तो अच्छा। जो कही पढ़ लिख जायँ, तो फिर इतने भले मानसों की परवरिश कौन करें?

तीसरे दिन दोनों फिर नवाब की कोठी पर पहुँचे।

खोजी – खुदा ऐसे रईस को सलामत रखे। आज यहाँ सन्नाटा सा नजर आता है; कुछ चहल-पहल नहीं है।

मुसाहब – चहल-पहल क्या खाक हो! आज मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा।

आजाद – खुदा खैर करे, कुछ तो फरमाइए।

नवाब – क्या अर्ज करूँ, जब बुरे दिन आते हैं, तो चारों ही तरफ से बुरी ही बुरी बातें सुनने में आती हैं। घर में वजा-हमल (प्रसव) हो गया।

आजाद – यह तो कुछ बुरी बात नहीं। वजा-हमल के माने लड़का पैदा होना। यह तो खुशी का मौका है।

मुसाहब – हमारे हुजूर का मंशा इस्कात-हमल (गर्भपात) से था।

खुशामदी – अजी, इसे वजा-हमला भी कहते हैं – लुगत देखिए।

नवाब – अजी, इतना ही होता, तो दिल को किसी तरह समझा लेते। यहाँ तो एक और मुसीबत ने आ घेरा।

मुसाहब – (ठंडी साँस ले कर) खुदा दुश्मन को भी यह दिन न दिखाए।

खुशामदी – हजरत, क्या अर्ज करूँ, हुजूर का एक मेढ़ा मर गया, कैसा तैयार था कि क्या कहूँ, गैंडा बना हुआ।

गप्पी – अजी, यों नहीं कहते कि गैंडे को टकरा देता, तो टें करके भागता। एक दफे मैं अपने साथ बाग ले गया। इत्तिफाक से एक राजा साहब पाठे पर सवार बड़े ठाट से आ रहे थे। बंदा मेढ़े को ऐन सड़क पर लिए हुए डटा खड़ा है। सिपाही ने ललकारा कि हटा बकरी को सड़क से। इतना कहना था कि मैं आग ही तो हो गया। पूछा – क्या कहा भाई? फिर तो कहना। सिपाही आँखें नीली-पीली करके बोला – हटा बकरी को सामने से, सवारी आती है। तब तो जनाब, मेरे खून में जोश आ गया। मैंने मेढ़े को ललकारा, तो उसने झपट कर हाथी के मस्तक पर एक टक्कर लगाई। वह आवाज आई। जैसे कोई दरख्त जमीन पर आ रहा हो। बंदर डाल-डाल चीखने लगे, बंदरियाँ बच्चों को छाती से लगाए दबक रहीं, तो वजह क्या, उनको मेढ़े पर भेड़िये का धोखा हुआ।

खोजी – मेढ़े को भेड़िया समझा! मगर वल्लाह, आपको तो बेदुम का लंगूर समझा होगा।

गप्पी – बस हजरत, एक टक्कर लगा कर पीछे हटा और बदन को तोल कर छलाँग जो मारता है, तो हाथी के मस्तक पर! वहाँ से फिर उचका, तो पीलवान के माथे पर एक टक्कर लगाई, मगर आहिस्ता से। जरा इस तमीज को देखिएगा, समझा कि इसमें हाथी का सा जोर कहाँ। मगर राजा का अदब किया। अब मै लाख-लाख जोर करता हूँ, पर वह किसकी सुनता है? गुस्सा आया, सो आया, जैसे सिर पर भूत सवार हो गया। छुड़ा कर फिर लपका और एक, दो, तीन, चार-बस, खुदा जाने, इतनी टक्करें लगाईं कि हाथी हवा हो गया और चिंघाड़ कर भागा। आदमी पर आदमी गिरते हैं। आप जानिए, पाठे का बिगड़ना कुछ हँसी ठट्ठा तो है नहीं। जनाब, वही मेढ़ा आज चल बसा।

आजाद – निहायत अफसोस हुआ।

खोजी – सिन शरीफ क्या था?

नवाब – सिन क्या था, अभी बच्चा था।

मुसाहब – हुजूर, वह आपका दुश्मन था, दोस्त न था।

नवाब – अरे भई, किसका दोस्त, कैसा दुश्मन। उस बेचारे को क्या कसूर? वह तो अच्छा गया; मगर हम सबको जीते-जी मार डाला।

आजाद – हजरत, यह दुनिया सराय-फानी है। यहाँ से जो गया, अच्छा गया। मगर नौजवान के मरने का रंज होता है।

मुसाहब – और फिर जवान कैसा कि होनहार। हाथ मल कर रह गए यार, बस और क्या करें।

आजाद – मरज क्या था?

मुसाहब – क्या मरज बताएँ। बस, किस्मत ही फूट गई।

खुशामदी – मगर क्या मौत पाई है, रमजान के महीने में, उसकी रूह जन्नत में होगी। तूबा के तले तो घास है, वह चर रहा होगा।

इतने में एक महरी गुलबदन का लँहगा, जिसमें आठ-आठ अंगुल गोट लगी थी, फड़काती और गुलाबी दुपट्टे को चमकाती आई और नवाब के कान में झुक कर बोली – बेगम साहिबा हुजूर को बुलाती हैं।

नवाब – यह नादिरी हुक्म? अच्छा साहब, चलिए। यहाँ तो बेगम और महरी, दोनों से डरते हैं।

नवाब साहब अंदर गए, तो बेगम ने खूब ही आड़े हाथों लिया – ऐ, मैं कहती हूँ, यह कैसा रोना-धोना है? कहाँ की ऐसी मुसीबत पड़ गई कि आँखें खून की बोटी बन गईं? मेढ़े निगोड़े मरा ही करते हैं। ऐसी अक्ल पर पत्थर पड़े कि मुए जानवर की जान को रो रहे हैं। तुम्हारी अक्ल को दिन दिन दीमक चाटे जाती है क्या? और इन मुफ्तखोरों ने तो आपको और भी चंग पर चढ़ाया है। अल्लाह की कसम, अगर आपने रंज-वंज किया, तो हम जमीन-आसमान एक कर देंगे। आखिर वह मेढ़ा कोई आपका… बस, अब क्या कहूँ। भीगी बिल्ली बने गटर-गटर सुन रहे हो।

नवाब – तुम्हारे सिर की कसम, अब हम उसका जिक्र भी न करेंगे। मगर जब आपकी बिल्ली मर गई थी, तो आपने दिन-भर खाना नहीं खाया था? अब हमारी दफे आप गुर्राती हैं?

मुसाहब – (परदे के पास से) वाह हुजूर, बिल्ली के लिए गुर्राना भी क्या खूब। वल्लाह, जिले से तो कोई फिकरा आपका खाली नहीं होता।

बेगम – देखो, इन मुए मुसंडों को मना कर दो कि ड्योढ़ी पर न आने पायँ।

दरबान ने जो इतनी शह पाई, तो एक डाँट बताई। बस जी, सुनो, चलते-फिरते नजर आओ। अब ड्योढ़ी पर आने का नाम लिया, तो तुम जानोगे। बेगम साहबा हम पर खफा होती हैं। तुम्हारी गिरह से क्या जाएगा, हम सिपाही आदमी तो नौकरी से हाथ धो बैठेंगे।

मुसाहब सिपाही से तो कुछ न बोले, मगर बड़बड़ाते हुए चले। लोगों ने पूछा – क्यों भई, इस वक्त नाक-भौं क्यों चढ़ाए हो? बोले – अजी, क्या कहें, हमारे नवाब तो बस, बछिया के बाबा ही रहे! बीवी ने डपट लिया। जनमुरीद है जी! आबरू का भी कुछ खयाल नहीं। औरतजात, फिर जोरू और उल्टे डाँट बताए और दाँढ़ी-मूँछोंवाले हो कर चुपचाप सुना करें। वल्लाह, जो कहीं मेरी बीवी कहती, तो गला ही घोंट देता। यहाँ नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देते।

आजाद – भई, गुस्से को थूक दो। गुस्सा हराम होता है। उनकी बीवी हैं, चाहे घुड़कियाँ सुनें, चाहे झिड़कियाँ सहें, आप बीच में बोलनेवाले कौन? और फिर जिसका खाते हो, उसी को कोसते हो! इस पर दावा यह है कि नमकहलाल और कट मारनेवाले लोग हैं।

इतने में नवाब साहब बाहर निकले। अमीरों के दरबार में आप जानिए, एक का एक दुश्मन होता है। सैकड़ों चुगलकोर रहते हैं। हरदम यही फिक्र रहती है कि दूसरे की चुगली खायँ और सबको दरबार से निकलवा कर हमी-हम नजर आएँ। दो मुसाहबी ने सलाह की कि आज नवाब निकलें, तो इसकी चुगली खायँ और इसको खड़े-खड़े निकलवा दें। नवाब को जो आते देखा, तो चिल्ला कर कहने लगे – सुना भई, बस, अब जो कोई कलमा कहा, तो हमसे न बनेगी। जिसका खाए, उसी की गाए। यह नहीं कि जिसका खाएँ उसी को गालियाँ सुनाएँ। नवाब साहब को चाहे आप पीठ पीछे जन-मुरीद बताएँ, या भीगी बिल्ली कहें, मगर खबरदार जो आज से बेगम साहबा की शान में कोई गुस्ताखी की, खून ही पी लूँगा।

नवाब – (त्योंरियाँ बदल कर) क्या?

हाफिज जी – कुछ नहीं, हुजूर, खैरियत है।

नवाब – नहीं, कुछ तो है जरूर।

रोशनअली – तो छिपाते क्यों हो, सरकार से साफ-साफ क्यों नहीं कह देते? हुजूर, बात यह है कि मियाँ साहब जब देखो तब हुजूर की हजो किया करते हैं। लाख-लाख समझाया, यह बुरी बात है, मियाँ कह कर, भाई कह कर, बेटा कह कर, बाबा कह कर, हाथ जोड़ कर, हर तरह समझाया, मगर यह तो लातों के आदमी हैं, बातों से कब मानते हैं। हम भी चुपके हो रहते थे कि भई, चुगली कौन खाए; मगर आप जनानी ड्योढ़ी से… हुजूर, बस, क्या कहूँ, अब और न कहलाइए।

नवाब – इनको हमने मौकूफ कर दिया।

मियाँ मुसाहब तो खिसके। इतने में मटरगश्त आ पहुँचे और नवाब को सलाम करके बोले – खुदावंद, आज खूब सैर सपाटा किया। इतना घूमा कि टाँगों के टट्टू की गामचियाँ दर्द करने लगीं। कोई इलाज बताइए।

हाफिज जी – घास खाइए या, किसी सालोती के पास जाइए।

नवाब – खूब! टट्टू के लिए घास और सालोती की अच्छी कही। अब कोई ताजा-ताजा खबर बताइए, बासी न हो, गरमागरम।

मटरगश्त – वह खबर सुनाऊँ कि महफिल भर को लोटपोट कर दूँ हुजूर, किसी मुल्क से चंद परीजाद औरतें आई हैं। तमाशाइयों की भीड़ लगी हुई है। सुना, थिएटर में नाचती हैं और एक-एक कदम और एक-एक ठोकर में आशिकों के दिल को पामाल करती हैं। उन्हीं में से एक परीजाद जो दन से निकल गई, तो बस, मेरी जान सन से निकल गई। दरिया किनारे खीमे पड़े हैं। वहीं इंदर का अखाड़ा सजा हुआ है। आज शाम को नौ बजे तमाशा होगा।

नवाब – भई, तुमने खूब मजे की खबर सुनाई। ईजानिब जरूर जायँगे।

इतने में खुदायारखाँ, जिन्हें जरा पहले नवाब ने मौकूफ कर दिया था, आ बैठे और बोले – हुजूर, इधर खुदावंद ने मौकूफी का हुक्म सुनाया उधर घर पहुँचा, तो जोरू ने तलाक दे दी। कहती है, ‘रोटी न कपरा, सेंत-मेत का भतरा।’

आजाद – हुजूर, इन गरीब पर रहम कीजिए। नौकरी की नौकरी गई और बीवी की बीवी।

नवाब – हाफिजजी, इधर आओ, कुल हाल ठीक-ठीक बताओ।

हाफिज – हुजूर, इन्होंने कहा कि नवाब तो निरे बछिया के ताऊ ही हैं, जनमुरीद! और बेगम साहबा को इस नाबकार ने वह-वह बातें कहीं कि बस, कुछ न पूछिए! अजीब शैतान आदमी है। आप को यकीन न आए, तो उन्हीं से पूछ लीजिए।

नवाब – क्यों मियाँ आजाद, सच कहो, तुमने क्या सुना?

आजाद – हुजूर, अब जाने दीजिए, कुसूर हुआ। मैंने समझा दिया है।

हाफिज – यह बेचारे तो अभी-अभी समझा रहे थे कि ओ गीदी, तू अपने मालिक को ऐसी-ऐसी खोटी-खरी कहता है!

नवाब – (दरबान से) देखो जी हुसेन अली, आज से अगर खुदायारखाँ को आने दिया, तो तुम जानोगे। खड़े-खड़े निकाल दो। इसे फाटक में कदम रखने का हुक्म नहीं।

खुदायार – हुजूर, गुलाक से भी तो सुनिए। आज मियाँ रोशनअली ने मुझे ताड़ी पिला दी और यही मनसूबा था कि यह नशे में चूर हो, तो इसे किसी लिम में निकलवा दे। सो हुजूर, इनकी मुराद बर आई। मगर हुजूर, मैं इस दर को छोड़ कर और जाऊँ कहाँ? खुदा आपके बाल-बच्चों को सलामत रखें, यहाँ तो रोआँ-रोआँ हुजूर के लिए दुआ करता है। हुजूर तो पोतड़ों के रईस हैं, मगर चुगलकोरों ने कान भर दिए –

खुदा के गजब से जरा दिल में काँप;
चुगलकोर के मुँह को डसते हैं साँप।

नवाब – अच्छा, यह बात है। खबरदार, आज से ऐसी बेअदबी न करना। जाओ, हमने तुमको बहाल किया।

मुसाहबों ने गुल मचाया। वाह हुजूर, कितना रहम है। ऐसे रईस पैदा काहे को होते हैं। मगर खुदायार खाँ को तो उनकी जोरू ने बचा लिया। न वह तलाक देती, न यह बहाल होते। वल्लाह, जोरू भी किस्मत से मिलती है।

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