अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 19 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)

Premchand_4_aएक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो थे ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। घर पहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया – अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते।

एक चंडूबाज भी बैठे हुए थे। बोले – तो तुमको क्या पड़ी है? सोने नहीं देतीं। क्या जाने, किस मौज में पड़े हैं। लहरी आदमी तो हई हैं। मगर सच कहना, कैसा धावत सैलानी है। दूसरा इतना घूमे, तो हलकान हो जाय। और जो जगाना ही मंजूर है, तो लोटे की टोंटी से जरा सा पानी कान में छोड़ दो। देखो, कैसे कुलबुला कर उठ बैठते हैं।

भठियारी ने चुल्लू से मुँह पर छींटे देने शुरू किए। दस ही पाँच बूँदें गिरी थीं कि आजाद हाँय-हाँय करते उठ खड़े हुए और बोले – यह क्या दिल्लगी है! कैसी मीठी नींद सो रहा था, लेके जगा दिया!

भठियारी – इतनी रात तक कहाँ घूमते रहे कि अभी नींद ही नहीं पूरी हुई?

आजाद – कहीं नहीं, जरा थिएटर देखने लगा था।

चंडूबाज – सुना, तमाशा बहुत अच्छा होता है। आज हमें भी दिखा देना। भई, तुम्हारी बदौलत थिएटर तो देख लें। कै बजे शुरू होता है?

आजाद – यही; कोई नौ बजे।

चंडूबाज – तो फिर मैं चल चुका। नौ बजे शुरू हो, बारह बजे खत्म हो। कहीं एक बजे घर पहुँचें। मुहल्ले भर में आग ढूँढ़ें, हुक्का भरें, तवा जमाएँ, घंटा भर गुड़गुड़ाएँ। पलंग पर जायँ, तो नींद उचाट। करवटों पर करवटें लें, तब कहीं चार बजते-बजते आँख लगे। फिर जो भलेमानुस चार बजे सोए, वह दोहर तक उठने का नाम न लेगा। लीजिए, दिन यों गया। रात यों गई। अब इनसान चंडू कब पिए, दास्तान कब सुने, पिनक के मजे कब उड़ाए? कौन जाय! क्या गुलाबो-शिताबो के तमाशे से अच्छा होता होगा? रीछवाले ही का तमाशा न देखे? मियाँ ऐंठा सिंह के मजे न उड़ाए, बकरी पर तने बैठे हैं, छींक पड़ी और खट से फँदनीदार टोपी अलग। भई, कोई बेधा हो, जो वहाँ जाय। और फिर रुपए किसके घर से आएँ? जब से अफीम सोलह रुपए सेर हो गई, तब से तो गरीबों का और भी दिवाला निकल गया। और चंडू के ठेकों ने तो सत्यानास ही कर दिया। सैलानी तो शहर का चूहा-चूहा है मगर टिकट का नाम न हो। और भई, साफ तो यों है कि हम लोग मुफ्त के तमाशा देखने वालों में से हैं। मेला-ठेला तो कोई छूटने ही नहीं पाता। सावन भर ऐशबाग के मेले न छोड़े; कभी इमलियों में झूल रहे हैं, कभी बंदरों की सैर देख रहे हैं। बहुत किया, तो एक गंडे के पौंडे लिए। दो पैसे बढ़ाए और साकिन की दुकान पर दम लगाया। चलिए, पाँच-छःह पैसे में मेला हो गया। सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि वहाँ नादिरी हुक्म है कि कोई धुआँ न उड़ाए, नहीं तो हम सोचे थे कि चंडू का सामान लेते चलेंगे और मजे से किसी कोने में लेटे हुए उड़ाते जाएँगे। इसमें किसी के बाप का क्या इजारा!

भठियारिन – भई, टिकट माफ हो जाय, तो मैं भी चलूँ।

आजाद – उनको क्या पड़ी है भला, जो बंबई से अंगड़-खंगड़ ले कर इनी दूर बेगार भुगतने आएँ! वही बेठिकाने बात कहती हो, जिसके सिर न पैर।

चंडूबाज – अच्छा, तो तुम्हारी खातिर ही सही। तुम भी क्या याद करोगी। एक दिन हम भी चवन्नी गलाएँगे। तमाशा होता कहाँ है?

आजाद – यही छतरमंजिल में, दस कदम पर।

चंडूबाज – दस कदम की एक ही कही। तुम्हारी तरह यहाँ किसी के पाँव में सनीचर तो है नहीं। सात बजे से चलना शुरू करें, तो दस बजे पहुँचे। बग्घी किराए पर करें, तो एक रुपया आने का और एक रुपया जाने का और ठुक जाय। ‘मुफलिसी में आटा गीला।’

आजाद – अजी, मेरी साँड़नी पर बैठ लेना।

भठियारिन – मुझे भी उसी पर बिठा लेना। रात का वक्त है, कौन देखता है।

शाम हुई, तो मियाँ आजाद ने साँड़नी कसी और सराय से चले। भठियारी भी पीछे बैठ गई। मगर चंडूबाज ने साँड़नी की सूरत देखी, तो बैठने की हिम्मत न पड़ी। जब साँड़नी ने तेज चलना शुरू किया, तो भठियारी बोली – इस मुई सवारी पर खुदा की मार! अल्लाह की कसम, मारे हचकोलों के नाक में दम आ गया। आजाद को शरारत सूझी, तो एक एड़ लगाई वह और भी तेज हुई। तब तो भठियारी आग भभूका हो गई – यह दिल्लगी रहने दीजिए; मुझे भी कोई और समझे हो? मैं लाखों सुनाऊँगी। ले बस, सीधी तरह चलना हो तो चलो; नहीं मैं चीखती हूँ। पेट का पानी तक हिल गया। ऐसी सवारी को आग लगे। मियाँ आजाद ने जरा लगाम को खींचा, तो साँड़नी बलबलाने लगी। बी भठियारी तो समझीं कि अब जान गई। देखो, यह छेड़छाड़ अच्छी नहीं। हमें उतार ही दो। लो, और सुनो, जरा से हचकोले में मुँह के बल आ रहूँ, तो चकनाचूर ही हो जाऊँ। तुम मुसंडों को इसका क्या डर! रोको, रोको, रोको। हाय, मेरे अल्लाह, मैं किस बला में फँस गई! मियाँ, अपने खुदा से डरो, बस हमें उतार ही दो। इत्तफाक से साँड़नी एक दरख्त की परछाहीं देख कर ऐसी भड़की कि दस कदम पीछे हट आई। उसका बिचकना था कि बी भठियारी धम से जमीन पर गिर पड़ी। खुदा की मार! वह तो कहो, पक्की सड़क न थी। नहीं तो हड्डी-पसली चूर-चूर हो जाती।

चंडूबाज – शाबास है तेरी माँ को, पटकनी भी खाई, मगर वही तेवर। दूसरी हयादार होती, तो लाख बरस तक सवार होने का नाम न लेती। सवारी क्या है, जनाजा है।

भठियारी – चलिए, आपकी जूती की नोक से। हम बेहया ही सही। क्या झाँसे देने आए हैं, जिसमें मैं उतर पडूँ और आप मजे से जम जायँ। मुँह धो रखिए, हमने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।

मगर इस झमेले में इतनी देर हो गई कि जब थिएटर पहुँचे, तो तमाशा खत्म हो गया था। तमाशाई लोग बाहर निकल रहे थे।

आजाद – लीजिए, सारा मजा किरकिरा हो गया। इसी से मैं तुम लोगों को साथ न ले आता था।

चंडूबाज – औरतों को तो मेले-ठेले में ले ही न जाना चाहिए। हमेशा अलसेट होती है।

भठियारी – जी हाँ, और क्या। मेले-ठेले तो आप जैसे खुर्राटों ही के लिए होते हैं। आजाद तमाशाइयों की बातें सुनने लगे –

एक – यार, इनके पास तो सामान खूब लैस है।

दूसरा – वाह, क्या कहना, परदे तो ऐसे कि देखे न सुने। बस, यही यकीन होता है कि बारहदरी का फाटक हे या परीखाना! जंगल का सामान दिखाया, तो वही बेल-बूटे, वही दूब, वही पेड़, वही झाड़ियाँ, बस, बिलकुल सुंदरवन मालूम होता है।

तीसरा – और सब्जपरी की तारीफ ही न करोगे?

चौथा – हजरत, वह कहीं लखनऊ में छह महीने भी तालीम पाए, तो फिर आफत ही ढाए। लाखों लूट ले जाय, लाखों।

दूसरी तरफ गए, तो दो आदमी और ही तरह की बातें कर रहे थे –

एक – अजी, धोखा है, धोखा, और कुछ नहीं।

दूसरा – हाँ, टन-टन की आवाज तो आती है, बाकी खैर-सल्लाह।

अब आजाद यहाँ बैठ कर क्या करते। सोचे, आओ, साँड़नी पर बैठें और चल कर सराय में मीठी नींद के मजे लें। मगर बाहर आकर देखते हैं, तो साँड़नी गायब। थिएटर के अहाते में एक दरख्त से बाँध दिया था। मालूम नहीं, तड़प कर भागी या कोई चुरा ले गया। बहुत देर तक इधर-उधर ढूँढ़ा किए, मगर साँड़नी का पता न लगा। उधर और सवारियाँ भी तमाशाइयों को ले-ले कर चली गईं। तब आजाद ने भठियारी से कहा – अब तो पाँव-पाँव चलने की ठहरेगी।

भठियारी – ना साहब, मुझसे पाँव-पाँव न चला जायगा।

चंडूबाज – देखिए, कहीं कोई सवारी मिले, तो ले आइए। यह बेचारी पाँव-पाँव कहाँ तक चलेगी?

आजाद – तो तुम्हीं क्यों नहीं लपक जाते?

भठियारी (अलारक्खी) – ऐ हाँ, और क्या? चढ़ने को तो सबसे पहले तुम्हीं दौड़ोगे। तुम्हें बात-चीत करने की भी तमीज नहीं।

आजाद – सवारी न मिलेगी, ठंडे-ठंडे घर की राह लो, बात-चीत करते-करते चले चलेंगे।

दूसरे दिन आजाद ने साँड़नी के खोने की थाने में रपट कर दी। मगर जिस आदमी को भेजा था, उसने आकर कहा – हुजूर थानेदार ने रपट नहीं लिखी और आपको बुलाया है।

आजाद – कौन, थानेदार? हमसे थानेदार से वास्ता? उनसे कहो कि आपको खुद मियाँ आजाद ने याद किया है, अभी हाजिर हो।

अलारक्खी – ले, बस बैठे रहो। बहुत उजड्डपना अच्छा नहीं होता। वाह, कहने लगे, हम न जायँगे। बड़े वह बने हैं। आखिर साँड़नी की रपट लिखवाई है कि नहीं? फिर अब दौड़ो-धूपोगे नहीं, तो बनेगी क्योंकर? और वहाँ तक जाते क्या चूड़ियाँ टूटती हैं, या पाँव की मेहँदी गिर जायगी?

आजाद – भई; हमसे थानेदार से एक दिन चख चल गई थी। ऐसा न हो, वह कोतवाली के चबूतरे पर बैठकर जोम में आ जायँ तो फिर मैं ले ही पड़ूँगा। इतना समझ लेना, मैं आधी बात सुनने का रवादार नहीं। साँड़नी मिले या जहन्नुम में जाय, इसकी परवाह नहीं, मगर कोई एँड़ा-बेंड़ा फिकरा सुनाया और मैंने कुर्सी के नीचे पटका। क्यों सुनें, चोर नहीं कि कोतवाल से डरूँ, जुवाड़ी नहीं कि प्यादे की सूरत देखते ही जान निकले, बदमाश नहीं कि मुँह छिपाऊँ, मरियल नहीं कि दो बातें सह जाऊँ। कोई बोला और मैंने तलवार निकाली; फिर वह नहीं या मैं नहीं।

अलारक्खी – अरे, वह बेचारा तो एक हँसमुख आदमी है। लड़ाई क्यों होने लगी।

आजाद – खैर, तुम्हारी खुशी है, तो चलता हूँ। मगर चलो तुम भी साथ, रास्ते में दो घड़ी दिल्लगी ही होगी।

आखिर मियाँ आजाद और अलारक्खी दोनों थाने चले। एक कानिस्टिबिल भी साथ था। राह में एक आदमी अकड़ता हुआ जा रहा था। आजाद उसका अकड़ना देख कर आग हो गए। करीब जा कर एक धक्का जो दिया, तो उसने पचास लुढ़कनियाँ खाईं। थोड़ी दूर और चले थे कि एक आदमी चादर बिछाए, उस पर जड़ी-बूटी फैलाए बैठा गप उड़ा रहा था। इस बूटी से अस्सी बरस का बूढ़ा जवान हो जाय, इस जड़ी को पानी में घिस कर एक तोला पिए, तो शेर का पंजा फेर दे। आजाद उसकी तरफ झुक पड़े – कहो भाई खिलाड़ी, यह क्या स्वाँग रचा है? आज कितने अक्ल के अंधे, गाँठ के पूरे जाल में फँसे? यह कह कर एक ठोकर जो मारी, तो सारी बूटियाँ, पत्तियाँ, जड़ें एक में मिल गईं। और आगे चले, तो गुल-गपाड़े की आवाज आई। एक हलवाई ग्राहक से तकरार कर रहा था।

हलवाई – खाली भजिया नाहीं बिकत है हमरी दुकान पर, कस-कस देई भला।

ग्राहक – अबे, मैं कहता हूँ, कहीं एक गुद्दा न दूँ!

आजाद – गुद्दा तो पीछे दीजिएगा, मैं एक गुद्दा कहीं आपकी गुद्दी पर न जमाऊँ।

ग्राहक – आप कौन हैं बोलनेवाले?

आजाद – उस बेचारे हलवाई को तुम क्यों ललकारते हो?

आलारक्खी – ऐ है, मियाँ, तुम कोई खुदाई फौजदार हो? किसी के फटे में तुम कौन हो पाँव डालनेवाले?

कानिस्टिबिल – भइया, हो बड़े लड़ाका, बस काव कहों।

यहाँ से चले, तो थाने आ पहुँचे।

कानिस्टिबिल – हुजूर, ले आया, वह खड़े हैं।

थानेदार – अख्खाह! अलारक्खी भी हैं। मैं तो चाल ही से समझ गया था। कुछ बैठने को दो इन्हें, कोई है? सच कहना, तुम्हारी चाल से कैसा पहचान लिया?

आजाद – अपने-अपनों को सभी पहचान लेते हैं।

थानेदार – यह कौन बोला? कौन है भई?

अलारक्खी – ऐ, बस चलो, देख लिया। मुँह देखे की मुहब्बत है। घर की थानेदारी और अब तक मुई साँड़नी न मिली। तुमसे तो बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं।

थानेदार – (आजाद से)-कहो जी, वह साँड़नी तुम्हारी है न?

आजाद – ‘तुम’ का जवाब यहाँ नहीं देते; ‘आप’ कहिए; मैं कोई चरकटा हूँ।

भठियारी – हाय मेरे अल्लाह, मैं क्या करूँ? यह तो जहाँ जाते हैं, दंगा मचाते हैं।

थानेदार – क्या कुछ इनसे साँठ-गाँठ है? सच कहना, तुम्हें कसम है अपने शेख सद्दू की।

अलारक्खी – लो, तुम्हें मालूम ही नहीं। अच्छी थानेदारी करते हो। मैं तो इनके घर पड़ गई हूँ न।

थानेदार – तो यह कहिए, लाओ भई, साँड़नी काँजी-हाऊस से निकलवाओ?

साँड़नी आ मौजूद हुई। मियाँ आजाद सवार हुए। भठियारी भी पीछे बैठी।

आजाद – आज तुम कई आदमियों के सामने हमें अपना मियाँ बना चुकी हो। मुकर न जाना।

अलारक्खी – जरा चोंच सँभाले हुई; कहीं साँड़नी पर से ढकेल न दूँ।

अलारक्खी को यकीन हो गया कि आजाद मुझ पर रीझ गए। अब निकाह हुआ ही चाहता है। यों ही बहुत नखरे किया करती थी, अब और भी नखरे बघारने लगी। नौ का अमल हो गया था। चारपाई पर धूप फैली हुई थी, मगर मक्कर किए पड़ी हुई थी। इतने में चंडूबाज आए। आते ही पुकारा – मियाँ आजाद, मियाँ आजाद! अलारक्खी! यह आज क्या है यहाँ, खुदा ही खैर करे। दस का अमल और अभी तक खटिया ही पर पड़े हैं। कल रात को तमाशा भी तो न था। (दरख्त की तरफ देखकर और साँड़नी बँधी हुई पा कर) जभी खुश खुश सो रहे हैं। अरे मियाँ, क्या साँप सूँघ गया? यह माजरा क्या है? हाँ, अल्लाह कह कर उठ तो बैठ मेरे शेख।

आजाद – (अँगड़ाई ले कर) अरे, क्या सुबह हो गई?

चंडूबाज – सुबह गई खेलने, आँख तो खोलो, अब कोई दम में बारह की तोप दगा चाहती है दन से। देखना, आज दिन भर सुस्ती न रहे तो कहना। वह तो जहाँ आदमी जरा देर करके उठा और हाथ-पाँव टूटने लगे। अब एक काम करो, सिर से नहा डालो।

आजाद – क्या बक-बक लगाई है, सोने नहीं देता।

अलारक्खी चुपके-चुपके सब सुन रही है, मगर उठती नहीं। चंडूबाज उसकी चारपाई की पट्टी पर जा बैठे और बोले – ऐ उठ अल्लाह की बंदी, ऐसा सोना भी क्या? यह कह कर आपने उसके बिखरे हुए बाल, जो जमीन पर लटक रहे थे, समेट कर चारपाई पर रखे। उधर मियाँ आजाद की आँख खुल गई।

चंडूबाज (गुदगुदा कर) – उठो, मेरी जान की कसम, वह हँसी आई, वह मुसकिराई।

आजाद – ओ गुस्ताख, अलग हट कर बैठ, हमारे सामने यह बेअदबी!

चंडूबाज – उँह-उँह, बड़े वारिस अलीखाँ बन बैठे! भई, आखिर तुमको भी जो जगाया था, अब इनको जगाना शुरू किया, तिनगते क्यों हो भला? मैं तो सीधा-सादा, भोला-भाला आदमी हूँ।

आजाद – जी हाँ, हमें तो कंधा पकड़ कर जगाया। यह मालूम हुआ कि चारपाई को जूड़ी चढ़ी या भूचाल आ गया और उन्हें गुदगुद कर जगाते हो। क्यों बचा?

अलारक्खी जागी तो थी ही, खिलखिला कर हँस पड़ी, ऐ हट मरदुए, यह पलंग पर आ कर बैठ जाना क्या; मुझे कोई वह समझ रखा है?

चंडूबाज ने तैश खा कर कहा – वाह-वाह, पलंग की अच्छी कही। ‘रहें झोंपड़ों में और ख्वाब देखें महलों को।’ कभी बाबाराज ने भी पलंग देखा था।

अलारक्खी – मियाँ, मुझसे यह जली-कटी बातें न कीजिएगा जरी। वाह, हम झोंपड़ों ही में रहती हैं सही; अब तो एक भलेमानस के घर पड़नेवाले हैं। क्यों मियाँ आजाद, है न, देखो, मुकर न जाना।

आजाद – वाह, मुकरने को एक ही कही, ‘नेकी और पूछ-पूछ?’

अलारक्खी – तिस पर भी तुम्हें शरम नहीं आती कि इस उचक्के ने मुझे हाथ लगाया और तुम मुलुर-मुलुर देखा किए। दूसरा होता, तो महनामथ मचा देता।

चंडूबाज – क्यों लड़वाती हो भला मुफ्त में? हमें क्या मालूम था कि यहाँ निकाह की तैयारियाँ हो रही हैं।

मियाँ आजाद हाथ-मुँह धोने बाहर गए, तो चंडूबाज और अलारक्खी में यों बाते होने लगीं।

चंडूबाज – यार, फाँसा तो बड़े मुड्ढ को? अब जाने न देना। ऐसा न हो, निकल जाय। भई, कसम खुदा की, औरत क्या, बिस की गाँठ है तू।

अलारक्खी – मगर तुम भी कितने बेशहूर हो, उसके सामने आपने गुदगुदाना शुरू किया। अब वह खटकै कि न खटकै? तुम्हारी जो बात है, दुनिया से अनोखी। ताड़ सा कद बढ़ाया, मगर तमीज छू नहीं गईं।

चंडूबाज – अब तुमसे झगड़े कौन? मैं किसी के दिल की बात थोड़े ही पढ़ा हूँ। मगर भई, पक्की कर लो।

अलारक्खी – हाँ पक्की-पोढ़ी होनी चाहिए। किसी अच्छे वकील से सलाह लो। वह कौन वकील हैं, जो कुम्मैत घोड़े की जोड़ी पर निकलते हैं – अजी वही, जो गबरू से हैं अभौ।

चंडूबाज – वकीलों की न पूछो, तेरह सौ साठ हैं। किसी के पास ले चलेंगे।

अलारक्खी – नहीं, वाह, किसी बूढ़े वकील के यहाँ तो मैं न जाऊँगी। ऐसी जगह चलो, जो जवान हो, अच्छी सलाह दे।

चंडूबाज – अच्छा, आज इतवार है। शाम को मियाँ आजाद से कहना कि हमें अपनी बहन के यहाँ जाना है। बस, हम फाटक के उस तरफ दबके खड़ें रहेंगे, तुम आना। हम-तुम चल कर सब मामला भुगता देंगे।

अलारक्खी – अच्छा अच्छा, तुम्हें खूब सूझी।

इतने में आजाद मुँह-हाथ धो कर आए, तो अलारक्खी ने कहा – हमें तो आज बहन के यहाँ न्योता है, कोई कच्ची दो घड़ी में आ जाऊँगी।

आजाद – जरा साली की सूरत हमें भी तो दिखा दो। ऐसा भी क्या परदा है, कहो तो हम भी साथ-साथ चले चलें।

अलारक्खी – वाह मियाँ, तुम तो उँगली पक़़डते ही पहुँचा पकड़ने लगे! यह कह कर अलारक्खी कोठरी में गई और सोलह सिंगार करके निकली तो आजाद फड़क गए। पटियाँ जमी हुई, गोरी-गोरी नाक में काली-काली लौंग, प्यारे-प्यारे मुखड़े पर हलका सा घूँघट, हाथों में कड़े, पाँव में छड़े, छम-छम करती चली।

चंडूबाज – उनके सामने चमक-चमक के बातें करना यह नहीं कि झेपने लगो।

अलारक्खी – मुझे और आप सिखाएँ। चमकना भी कुछ सिखाने से आता है। मेरी तो बोटी-बोटी यों ही फड़का करती है। तुम चलो तो, जो मेरी बातों और आँखों पर लट्टू न हो जायँ, तो अलारक्खी नहीं। कुछ ऐसा करूँ कि वह भी निकाह पर रजामंद हो जायँ, तो उनसे और आजाद से जरा जूती चले।

वकील साहब अपने बाग में तख्त पर बैठे दोस्तों के साथ बातें कर रहे थे कि खिदमतगार ने आ कर कहा – हुजूर, एक औरत आई है। कहती है, कुछ कहना है।

दोस्त – कैसी औरत है भई? जवान है या खप्पट?

खिदमतगार – हुजूर, यह तो देखने से मालूम होगा, मुल है अभी जवान।

वकील – कहो, सुबह आवे।

दोस्त – वाह-वाह, सुबह की एक ही कही। अजी बुलाओ भी। हमारे सर की कसम, बुलाओ। कहो, टोपी तुम्हारे कदमों पर रख दें।

अलारक्खी छड़ों को छम-छम करती, अजब मस्धानी चाल से इठलाती, बोटी-बोटी फड़काती हुई आई। जिसने देखा, फड़क गया। सब रँगीले, बिगड़े दिल, बेफिक्रे जमा थे। एक साहब नवाब थे, दूसरे साहब मुंशी। आपस में मजाक होने लगा –

नवाब – बंदगी अर्ज है! खुदा की कसम, आप एक ही न्यारिए हैं।

मुंशी – भई, सूरत से तो भलेमानस मालूम होते थे, लेकिन एक ही रसिया निकले।

वकील – भई, अब हम कुछ न कहेंगे। और कहें क्या, छा गई। बी साहिबा, आप किसके पास आई हैं? कहाँ से आना हुआ?

अलारक्खी – अब ऐसी अजीरन हो गई।

वकील – नहीं-नहीं, वाह बैठो, इधर तख्त पर आओ।

अलारक्खी – हाँ, बनाइए, हम तो सीधे-सादे हैं साहब।

नवाब – आप भोली हैं, बजा है!

वकील – औरत हैं या परिस्तान की परी!

नवाब – रीझे-रीझे, लो बी, अब पौ-बारह हैं।

अलारक्खी – हुजूर, हम ये पौ-बारह और तीन काने तो जानते नहीं, हमारा मतलब निकल जाय, तो आप सब साहबों का मुँह मीठा कर देंगे।

दोस्त – आपकी बातें ही क्या कम मीठी हैं!

इतने में चंडूबाज भी आ पहुँचे।

चंडूबाज – हुजूर तो इन्हें जानते न होंगे, ये अलारक्खी हैं। इनका नाम दूर-दूर तक रोशन है।

वकील – इनका क्या इनके सारे खानदान का नाम रोशन है।

चंडूबाज – सराय में आजाद नामी जवान आ कर ठहरे हैं। वह इनके ऊपर जान देते हैं और यह उन पर मरती हैं। कई आदमियों के सामने वह कबूल चुके हैं कि इनके साथ निकाह करेंगे। मगर आदमी है रँगीले, ऐसा न हो कि इनकार कर जायँ। बस, इनकी यही अर्ज है कि हुजूर कोई ऐसी तदबीर बताएँ कि वह निकल न सकें।

अलारक्खी – मुझ गरीबनी से कोई छप्पन टके तो आपको मिलने नहीं हैं। रहा, इतना सवाब कीजिए, जिसमें यह शिकंजे में जकड़ जायँ।

मुंशी – अगर निकाह ही करने का शौक है तो हम क्या बुरे हैं?

वकील – एक तुम्हीं क्या, यहाँ सब झंडे-तले के शोहदे छटे हुए लुच्चे जमा हैं! जिसको यह पसंद करें, उसी के साथ निकाह हो जाय।

अलारक्खी – हुजूर लोग तो मुझसे दिल्लगी करते हैं।

वकील – अच्छा, कल आओ तो हम तुम्हें वह तरकीब बताएँ कि तुम भी याद करो।

अलारक्खी – मगर बंदी ने कभी सरकार-दरबार की सूरत देखी नहीं। आप वकालत कीजिएगा?

मुंशी – हाँ जी हाँ; इसमें मिन्नत ही क्या है। मगर जानती हो, ये वकील तो रुपए के आशना हैं।

अलारक्खी – वाह, रुपया यहाँ अल्लाह का नाम है। हम हैं, चाहे बेच लो।

वकील – अच्छा, कल आओ, पहले देखो तो वह क्या कहते हैं।

अलारक्खी अब यहाँ से उठना चाहती थी, मगर उठे कैसे। कनखियों से चंडूबाज की तरफ देखा कि अब यहाँ से चलना चाहिए। वह भी उसका मतलब समझ गए, बोले – ऐ हुजूर, जरी घड़ी को तकलीफ दीजिएगा, देखिए तो, कै बजे हैं।

अलारक्खी – मैं अटकल से कहती हूँ, कोई बारह बजे होंगे।

चंडूबाज – मैं भी कहूँ, यह जम्हाइयों पर जम्हाइयाँ क्यों आ रही हैं। नशे का वक्त टल गया। हलवाइयों की दुकानें भी बढ़ गई होंगी। भलाई से भी गए। हुजूर, अब तो रुखसत कीजिए। अब तो चंडू की लौ लगी है, आज सवेरे-सवेरे आजाद की मनहूस सूरत देखी थी, जभी यह हाल हुआ।

अलारक्खी – ले खबरदार, अब की कहा तो कहा, अब आजाद का नाम लिया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं; जबान खींच लूँगी। नाहक किसी पर छुरा रखना अच्छा नहीं।

नवाब – अरे भई, कोई है, देखो, दूकानें बढ़ न गई हों, तो इनको यहीं चंडू पिलवा दें। जरा दो घड़ी और बी अलारक्खी से सोहबत गरमावें।

खिदमतगार – जाने को कहिए मैं जाऊँ, मुल दुकानें कब की बढ़ गई है; बाजार भर में सन्नाटा पड़ा है; चिड़ियाँ चुनगुन तक सो रही हैं; अब कोई दम में चक्कियाँ चलेंगी।

अलारक्खी – ऐ, क्या आधी रात ढल गई? ले, अब तो बंदी रुखसत होती है।

मुंशी – वाह, इस अँधेरी रात में ठोकरें खाती कहाँ जाओगी!

अलारक्खी – नहीं हुजूर, अब आँखें बंद हुई जाती हैं। बस, अब रुखसत। हुजूर, भूलिएगा नहीं। इतनी देर मजे से बातें की हैं। याद रखिएगा लौंडी को।

मुंशी – वह हँसते आए, यहाँ से हमें रुलाके चले;

न बैठे आप मगर दर्द-दिल उठा के चले।

वकील – दिखा के चाँद सा मुखड़ा छिपाया जुल्फों में;

दुरंगी हमको जमाने की वह दिखाके चले।

नवाब – न था जो कूचे में अपना कयाम मद्दे-नजर;

तो मेरे बाद मेरी खाक भी उड़ा के चले।

खुदा के लिए इतना तो इकरार करती जाओ कि कल जरूर मिलेंगे, हाथ पर हाथ मारो।

अलारक्खी – आप लोगों ने क्या जादू कर दिया; अब रुखसत कीजिए।

वकील – यह भी कोई हँसी है कि रुखसत का ले के नाम;

सौ बार बैठे-बैठे हमें तुम रुला चले।

नवाब- आँखों-आँखों में ले गए वह दिल;

कानों-कानों हमें खबर न हुई।

अलारक्खी यहाँ से चली, तो राह में डींग मारने लगी – क्यों, सबके सब हमारी छवि पर लोट गए न? यहाँ तो फकीर की दुआ है कि जिस महफिल में बैठ जाऊँ, वहीं कटाव होने लगे।

दोनों सराय में पहुँचे, तो देखा, आजाद जाग रहे हैं।

अलारक्खी – आज क्या है कि पलक तक न झपकी? यह किसकी याद में नींद उचाट है?

आजाद – हाँ, हाँ जलाओ, दो-दो बजे तक हवा खाओ और हमसे आ कर बातें बनाओ।

अलारक्खी – ऐ वाह, यह शक, तब तो मीजान पट चुकी। अब इनके मारे कोई भाई-बहन छोड़ दे। अब यह बताओ कि निकाह को कौन दिन ठीक करते हो? हम आज सबसे कह आए कि मियाँ आजाद के घर पड़ेंगे।

आजाद – क्या सचमुच तुम सबसे कह आईं? कहीं ऐसा करना भी नहीं। मैं दिल्लगी करता था। खुदा की कसम फकत दिल्लगी ही थी। मैं परदेशी आदमी, शादी ब्याह करता फिरूँगा, और भठियारी से? माना कि तुम हो परी, मगर फिर भठियारिन ही तो! चार दिन के लिए सराय में आ कर टिके, तो यहाँ से यह बला ले जायँ!

अलारक्खी – ऐ चोंच सँभाल मरदुए! और सुनिएगा, हम बला हैं, जिस पर सारे शहर की निगाह पड़ती हैं? दूसर कहता, तो खून खराब कर डालती। मगर करूँ क्या, कौल हार चुकी हूँ। बिरादरी भर में कलंक का टीका लगेगा। बला की अच्छी कही; तुम्हारे मुँह से मेरी एड़ी गोरी है, चाहे मिला हो।

आजाद – तो बी साहबा, सुनिए, किसी शादी और किसका ब्याह!

अलारक्खी – इन बातों से न निकलने पाइएगा। कल ही तो मैं नालिश दागती हूँ। इकरार करके मुकर जाना क्या खाला जी का घर है? मियाँ, मैं तो अपनीवाली पर आई, तो बड़ा घर ही दिखाऊँगी। किसी और भरोसे न भूलना मुझसे बुरा कोई नहीं।

आजाद – खुदा की पनाह, मैं अब तक समझता था कि मैं ही बड़ा घाघ हूँ, मगर इस औरत ने मेरे भी कान काटे। भुला दी सारी चौकड़ी। खुदा तड़का जल्दी से हो, तो मैं दूसरी कोठरी लूँ।

अलारक्खी (नाक पर उँगली रख कर) – रो दे, रो दे! इससे छोकरी ही हुए होते तो किसी भले मानस का घर बसता। भला मजाल पड़ी है कि कोई भठियारी टिकाए?

आजाद – तो सारे शहर भर में आपका राज है कुछ?

अलारक्खी – हई है, हई है, क्या हँसी-ठट्ठा है? कल-परसों तक आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा?

आजाद – चलिए, आपकी बला से!

चंडूबाज – बला-बला के भरोसे न रहिएगा। दो-चार दिन ताथेइया मचेगी।

आजाद – जरी आप चुपके बैठे रहिएगा। यह तो कामिनी हैं, लेकिन तुम्हारी मुफ्त में शामत आ जायगी।

चंडूबाज – मेरे मुँह न लगिएगा, इतना कहे देता हूँ!

आजाद ने उठ कर दो-चार चाँटे जड़ दिए। अलारक्खी ने बीच-बचाव कर दिया।

अल्लाह करे, हाथ टूटें, लेके गरीब को पीट डाला।

चंडूबाज – मेरी भी तो दो-एक पड़ गई जा!

अलारक्खी – ऐ चुप भी रह, बोलने को मरता है।

इस तरह लड़-झगड़ कर तीनों सोए।

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