आसक्ति में अपमान है !

जी हाँ, यह तय बात है कि इस दुनिया में हम जिन जिन व्यक्तियों/वस्तुओं से जितना ज्यादा आसक्ति रखेंगे (ईश्वर को छोड़कर) उन उन व्यक्तियों/वस्तुओं से उतना ज्यादा दुःख (जो कि अपमान या किसी अन्य रूप में हो सकता है) हमें एक न एक दिन जरूर मिलेगा और तब तक बार – बार हमें मिलता रहेगा, जब तक कि हमारे मन में उन व्यक्ति या वस्तुओं के प्रति खिन्नता ना पैदा हो जाए !

तो ऐसा क्यों होता है ?

इसका उत्तर सुनने में तो बहुत विचित्र लगेगा पर सच्चाई यही है कि ये अपमान होना, परम दयालु भगवान द्वारा हमको दिया गया कोई दंड नहीं, बल्कि हमारे लिए एक आशीर्वाद है !

अब कई लोगो को यह समझ में नहीं आएगा कि पर्सनल इंसल्ट होने में आखिर भगवान की कृपा कैसे हो सकती है ? क्योंकि कृपा तो उसको बोलते है जिसमे आदमी को बैठे – बैठे अचानक से पैसे मिल जाए या उसका प्रमोशन हो जाए या उसकी कोई बीमारी ठीक हो जाए आदि !

तो भगवान की इस तरह की कृपा का मतलब समझने के लिए पहले भगवान की इच्छा को समझने के जरुरत है !

आज के कलियुगी पिता लापरवाह और पक्षपाती हो सकतें हैं पर परम पिता भगवान् बिलकुल नहीं जैसे कोई बाप अपने लड़के का बुरा कभी नहीं चाहेगा, वैसे ही भगवान भी अपने बनाये हुए सभी बच्चो का सिर्फ भला ही चाहते है, जिसके तहत भगवान् इस बात का सदैव ख्याल रखतें हैं कि उनकी संतान यानि हम सभी इन्सान सिर्फ सही रास्ते पर, सिर्फ सही तरीके से ही उन्नति करते हुए अपने अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति करने में सफल हो पायें !

तो इसमें फिर से यही प्रश्न आता है कि आखिर किसी भी दूसरे आदमी या सांसारिक वस्तु को चाहने में गलत है ही क्या ? जो इसके लिए भगवान उसी चीज या उसी आदमी से हमें दुःख पहुचवाएं ?

तो इसमें गलत क्या है – यह ठीक से समझने से पहले, यह याद करने की आवश्यकता है कि आखिर हमें मानव शरीर मिला क्यों है ?

वास्तव में हर मानव को, मानवीय शरीर मिलने के पीछे का एक मात्र उद्देश्य यही होता है कि वो इस बात को खोजने और समझने की लगातार कोशिश करे की वो आखिर है कौन, और कहा से आया और कहा को जायेगा | अपने आप को खोजने की इस खोज को ही ईश्वर की खोज या आत्म तत्व की खोज कहते है !

अधिकाँश मानवों की इस खोज को सफल या पूरा नहीं होने देने में कई बाधाओ का हाथ होता है और ये बाधायें कोई बाहरी नहीं होती हैं बल्कि ये होती हैं, हर मानव के खुद के अंदर पाए जाने वाली काम, क्रोध, लालच, माया आदि जैसी दूषित भावनाए !

और इन्ही बाधाओ में से एक बाधा है,- मोह यानी आसक्ति !

वैसे तो किसी भी आदमी को सभी जीवो के प्रति प्रेम का भाव जरूर रखना चाहिए अर्थात किसी के लिए दुश्मनी का भाव नहीं रखना चाहिए लेकिन जब ये प्रेम का भाव, मोह का रूप धारण कर ले तब यह गलत व नुकसानदायक हो जाता है !

अगर इंसान अपने से प्रयास करके इस मोह भाव को वापस प्रेम भाव में बदल ले तो ठीक, नहीं तो जिंदगी में ऐसी अपमान वाली घटनायें बार बार तब तक होती रहती हैं, जब तक कि उस इंसान का मन उस व्यक्ति या वस्तु से खिन्न होकर एकदम विरक्त हो न जाए !

जब किसी आदमी का मन बार बार संसार की चीजो और रिश्तो से खिन्न होगा, तभी वह सही मायने में सत्य की तलाश शुरू करेगा और जब वो सत्य की तलाश के लिए प्रयास शुरू करेगा तब उसको अनन्त दयालु भगवान की तरफ से रास्ता दिखाने और उत्साह बढ़ाने के लिए मदद देर सवेर जरूर मिलेगी | यह मदद किसी भी रूप में मिल सकती है चाहे वह सद्गुरु के रूप में हो या किसी घटना या किसी अन्य रूप में !

अगर कभी सत्य की तलाश की बहुत इच्छा हो और कोई रास्ता समझ में न आ रहा हो तो सबसे आसान पर बहुत प्रभावी तरीका है कि सारी तामसिक चीजो (जैसे माँस, मछली, अण्डा, शराब, बियर, सिगरेट, गुटखा, तम्बाखू आदि) को खाना त्याग कर और अपनी नौकरी या व्यापार को ईमानदारी से निभाते हुए, भगवान के किसी भी नाम का अधिक से अधिक प्रतिदिन मानसिक जप (अर्थात मन में जपना) या वाचिक जप (अर्थात मुह से बोलते हुए जप करना) |

ये जप किसी भी समय किया जा सकता है मतलब काम करते हुए, पैदल चलते हुए, उठते बैठते, नहाते धोते, खाते सोते, आदि किसी भी समय और इस जप के लिए किसी भी माला (रुद्राक्ष, तुलसी, चन्दन आदि) या आसन या नहाने या साफ़ नए वस्त्र पहनने या अगरबत्ती फल फूल आदि जैसे किसी भी कर्मकांडी विधि की भी बिल्कुल आवश्यकता नहीं होती है पर जब भी जपें सिर्फ शुद्ध जपे (अर्थात गलत उच्चारण ना करें इसलिए बेहतर है कि भगवान के किसी आसान नाम जैसे सीताराम, राधागोपाल आदि का ही जप करें जिसके उच्चारण होने में गलती होने की सम्भावना काफी कम रहती है !

अतः इस तरह कोई व्यक्ति अगर एक ईमानदार दिनचर्या जीते हुए, सभी गलत खान पान का त्याग करते हुए और अपने माता पिता गुरुजनो और गरीबो का ख्याल करते हुए भगवान के नाम का निरन्तर जप करता रहे तो उसकी सत्य की अर्थात आत्म तत्व की अर्थात ईश्वर की तलाश जरूर पूरी होकर ही रहती है !

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