स्वयं बने गोपाल

उपन्यास – निर्मला – 7 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी, मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता...

उपन्यास – निर्मला – 8 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी, मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता...

उपन्यास – निर्मला – 9 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

प्रात:काल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर...

उपन्यास – निर्मला – 10 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़-धूप हो सकी, की; फिर हार कर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फिक्र करना थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता?...

उपन्यास – निर्मला – 11 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

रुक्मिणी ने निर्मला से त्यौरियां बदलकर कहा- क्या नंगे पांव ही मदरसे जाएेगा? निर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा- मैं क्या करुं? मेरे पास रुपये नहीं हैं।   रुक्मिणी- गहने बनवाने को...

उपन्यास – निर्मला – 12 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

मुंशीजी पांच बजे कचहरी से लौटे और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुंह सूख गया। निर्मला समझ गयी, आज दिन खाली गयां...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 1- (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

देवकी – ‘जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भैया, हमारा डोंगा क्यों मझधार में डुबाए देते हो।  तुम घर के लड़के हो। तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या हैं।’...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 2- (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

काशी के आर्य-मंदिर में पंडित अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा था। श्रोता लोग मंत्रमुग्ध से बैठे सुन रहे थे। प्रोफेसर दाननाथ ने आगे खिसक कर अपने मित्र बाबू अमृतराय के कान में कहा –...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 3 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

होली का दिन आया। पंडित वसंत कुमार के लिए यह भंग पीने का दिन था। महीनों पहले से भंग मँगवा रखी थी। अपने मित्रों को भंग पीने का नेवता दे चुके थे। सवेरे उठते...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 4 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

लाला बदरीप्रसाद की सज्जनता प्रसिद्ध थी। उनसे ठग कर तो कोई एक पैसा भी न ले सकता था, पर धर्म के विषय में वह बड़े ही उदार थे। स्वार्थियों से वह कोसों भागते थे,...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 5 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

पूर्णा को अपने घर से निकलते समय बड़ा दुःख होने लगा। जीवन के तीन वर्ष इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सुख देखे, यहीं वैधव्य के दुःख भी देखे। अब उसे छोड़ते...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 6 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

लाला बदरीप्रसाद के लिए अमृतराय से अब कोई संसर्ग रखना असंभव था, विवाह तो दूसरी बात थी। समाज में इतने घोर अनाचार का पक्ष ले कर अमृतराय ने अपने को उनकी नजरों से गिरा...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 7 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पत्र क्या मिला आघात के साथ ही अपमान भी मिला। वह अमृतराय की लिखावट पहचानते थे। उस पत्र की सारी नम्रता, विनय और प्रण, उस लिपि में लोप हो...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 8 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

वैशाख में प्रेमा का विवाह दाननाथ के साथ हो गया। शादी बड़ी धूम-धाम से हुई। सारे शहर के रईसों को निमंत्रित किया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लुटाए। मगर दाननाथ की ओर...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 9 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

साड़ियाँ लौटा कर और कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके भी पूर्णा का मनोरथ पूरा न हो सका। वह उस संदेह को जरा भी न दूर कर सकी, जो सुमित्रा के हृदय पर किसी हिंसक पशु...

उपन्यास – प्रतिज्ञा – 10 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

आदर्श हिंदू-बालिका की भाँति प्रेमा पति के घर आ कर पति की हो गई थी। अब अमृतराय उसके लिए केवल एक स्वप्न की भाँति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गृह-कार्य में बड़ी...